Sunday, October 20, 2013

मनुष्य बनाम देवता


मुझे मनुष्य मानवीय कमजोरियों के साथ ही प्रिय है यदि कोई इंसान देवत्व को प्राप्त हो जाता है फिर वह प्रेम करने के काबिल नही बचता है फिर तो उसकी उपासना ही की जा सकती है जैसे निर्जीव पत्थरों की मन्दिरों में की जाती है उस देवत्व के साथ मनुष्य कितना मजबूर होगा जहाँ वह हमेशा एक स्थिति में बना रहें इसलिए मुझे वक्त और हालात से मजबूर इंसान उतना मजबूर नही लगता है जितने देवत्व प्राप्त करने में दिन-भर लंद-फंद करने वाला शातिर मनुष्य लगता है।
मनुष्य अपने सच-झूठ,अहंकार,विकार,अपेक्षा,सुख-दुख के साथ ही मनुष्य है इससे इतर का दावा करना फिर देवता बनने जैसा है देवता बनने मे कोई बुराई नही है लेकिन फिर आप यह दावा नही कर सकते है कि मै सबके दुख मे दुखी हो जाता हूँ फिर आपके लिए अपने होने का सुख इतना बडा और व्यापक होता है कि उसके बाद आपको सभी लोग जंतु दिखने लगते है।
सकार-नकार पर भाषण झाडने वाले भी कम खतरनाक जीव नही है मेरी समझ से सकार और नकार कुछ नही है केवल दो किस्म की मनस्थितियां है या यूँ कहूँ कि दो किस्म के इमोशनल बफर है जिसमे आदमी बौराया फिरता है यहाँ मै कहता हूँ कि सकार और नकार दोनो को छोडो केवल स्वीकार भाव में जीने का अभ्यास विकसित करो।
मनुष्य तभी तक मनुष्य है जब वह गलती करता है घबराता है फिर गलती करता है टूटता है फिर संभलता है...सच-झूठ पाप-पुण्य से सबके अपने अपने खांचे है जिसमे हम दूसरों को फिट करने की जिद पाल लेते है और फिर निराश घूमते है।
इसलिए कहता हूँ हे ! दूनिया के महान असफल लोगो....सच-झूठ,पाप-पुण्य के मुकदमें में फंसे हुए लोगो....निराश-अवसाद मे डूबे हुए लोगो मेरे लिए आप सम्मानीय है प्रिय है क्योंकि आपने जीवन का हिस्सा जिया है जो देवता बनने के चक्कर में मेरे काबिल दोस्त नही जी पायें है। 

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