Sunday, January 31, 2016

इश्क

इश्श्क...! कभी मर्तबान में कैद मछली सा हसीन तो कभी कच्ची पेंसिल सा नाजुक। इबारत और इबादत के बीच किस्सागोई सा फंसा एक अफ़साना जो रूह के उलझे अहसासों में कंघी करता है। चाहतों का ऐसा आसमाँ जिसमें परिंदे अक्सर अपना घौसला भूल जाते है और उड़ान में भटक कर खुद अपनी किस्मत में जलावतनी लिख देते है।
इश्क इबादत भी है और अदावत भी ये जिंदगी में इस कदर शामिल होता है कि फिर इंच भर कुछ भी हासिल करने की तमन्ना नही रह जाती। मासूम ख्यालों और ख़्वाबों को सिराहने रख सोती पलकों से पूछिए उनकी मुस्कुराहटो का हाल कैसे लब उनसे रश्क करने लगतें है वो नींद में चमकती है। जिंदगी जब करवट बदलती है इन्ही ख़्वाबों से वो रास्ता पूछती है ये अलग बात है कि इश्क की खुमारी में कहाँ से निकले और कहाँ पहूँचे।
इश्क पर तकरीर मुमकिन नही इसमें हौसला कहाँ से अता होता है खुद खुदा भी बयाँ नही कर सकता है। इश्क की पाकीजगी में जब कोई मुर्शीद अपने मुरीद की आँख में गुमशुदगी का सूरमा लगाता है तब कायनात का जर्रा जर्रा रोशन हो उठता है।
इश्क की चोटें गहरी और निशान हलके हुआ करते है ये जितना जताया जाता है उससे कई गुना छिपाया जाता है। इश्क महज महबूब को हासिल करने की तमन्ना नही रखता बल्कि ये दिल की धड़कनों के जरिए सजदा करने की ज़ुस्तज़ु लिए गाफिल रहता है।
हर्फ़ हर्फ़ इश्क की आयत इबादत का पता देती है रूह को कलन्दर बनाती है इश्क का दरवेश महबूब का दीदार रोज़ चश्म ए तर कर लेता है वो मुलाकतों का मुहाजिर नही होता।
जिसकी दीद में ईद परदानशीं रहती है वो उन आँखों की बिनाई में रोज़ इल्तज़ा और हया की तुरपाई करता है ताकि जिस्म के हवाले से इश्क सरे आम न हो जाए।
इश्क महज़ एक लफ्ज़ नही बल्कि एक हादसा है जिस पर जो ईमान लाता है फिर वो खुद पे हंसता है और खुद पर रोता है।
किसी के लिए दुआ करना तो इस इल्म की दुआ करना रब्बा इश्क न होवें....रब्बा इश्क ही होवें।

© डॉ.अजित

Thursday, January 28, 2016

फेसबुक

डायरी के पन्ने नही थी ये न्यूज़ फीड
टाइमलाईन पर कोई सहारा न मिला

मुद्दत बाद दोस्त तो जरूर मिलें यहां
दोस्ती का वो पुराना नजारा न मिला

ग्रीन लाइट जलती हो रात दिन पाबन्द
दूसरा यहां हम सा कोई आवारा न मिला

इनबॉक्स के दिन जवानी के जैसे मिले
जो बीत गया वो लहज़ा दोबारा न मिला

किन रिश्तों दोस्ती की बात करते हो मियाँ
फेसबुक पर डूबकर कभी किनारा न मिला

© डॉ. अजित

Sunday, January 24, 2016

सफर

जब तक तुम लौट कर आई मैं जा चुका था।
तुम्हारा लौटना सम्भावित था और मेरा जाना निश्चित। हम दोनों अपने अलग अलग कोण पर घूम रहे थे इसलिए एकदूसरे में सामनें अलबत्ता तो बेहद कम पड़े और यदि पड़े भी तो अपने अपने दृष्टि दोष के साथ।
साथ चलना हमेशा साथी नही बनाता ये बात तुमने एकदिन किसी दुसरे सन्दर्भ में कही थी मगर यकीनन सच कही थी। कई बार हम खुद ही अप्रासंगिक हो जाते है इसमें किसी का कोई दोष नही होता है इसलिए इस विलगता पर किसी भी किस्म की व्याख्या बेमानी है।
मैं जाने के बाद कुछ देर तक विचार शून्य रहा दिशाबोध भी लोप हो गया था कई चौराहे मैंने इसलिए छोड़ दिए कि रास्ता अगले वाले बदलूंगा फिर एक दोराहे से मैंने एक रास्ता पकड़ लिया और इसी रास्ते पर चलतें चलतें मैंने एकदिन पाया मैं तुमसे इतनी दूर निकल आया हूँ कि तुम किसी भी जरिए मुझे तलाश नही सकती।
जाहिर सी बात है जब तुम लौटी होगी तुमनें उसी आवृत्ति से मेरे बारें में पूछताछ की होगी मगर मेरी छाया गंध स्मृतियां कुछ न तुम्हें मिलेगी इसका इंतजाम मैं करके आया था।
जानता हूँ तुम लेशमात्र भी निराश नही हो न ही तुम इस पड़ताल में पड़ना चाहती कि हम में से किसने पलायन किया है ना ही तुम्हारे पास कुछ सवाल है मगर तुम रास्तों के चरित्र से विस्मित जरूर हो। तुम चौराहों के कौतुहल से अनजान नही हो मगर रास्तों के बदल जाने से थोड़ी परेशान जरूर रहोगी।
सफर एकसाथ कई स्तरों पर जिन्दा रहता है हमारा और तुम्हारा भी रहेगा क्या फर्क पड़ता है बस उसका साथ न हो जिसका साथ हमारे हाथ,काँधे और कदमों ने चाहा था?
या कुछ फर्क पड़ता है !

© डॉ.अजित

Thursday, January 21, 2016

याद शहर

उस शहर से इश्क था मुझे।
जिसके रास्ते अलग अलग मगर सब एक साथ थे जिसकी ईमारतें एक बिछड़ा हुआ कुनबा था एकदूसरे से नाराज़ मगर एकदिन मिलनें की आस पर जो खड़ी थी।
जिसकी गलियों में बच्चों का पसीना धूल को ठंडक देता था। उस शहर में हवाएं समझाईश का खेल खेलती थी ठेठ दुपहरी में भी पेड़ हवा के चेहरें पर ठंडे पानी के छीटें मारते थे।
दुनिया भर के लिए वो शहर भले ही हरजाई था मगर वो मेरा महबूब शहर था। उस शहर के पंछी निर्वासन के बावजूद बहुत खुश थे वें अपना वतन कभी याद न करतें थे सुबह सुबह उनको शहर के बालों में कंघी करते देखा जा सकता था।
सबसे बड़ी बात उस शहर में दरवाजे थोड़े से हमेशा खुले रहते थे वहां बंद कुछ भी नही था बाजार शहर में टापू की तरह था जिसे एकांत चाहिए होता वो खरीददारी के लिए भीड़ का हिस्सा बन जाया करता था।
उस शहर के ऊपर आसमाँ कुछ सीढ़ियां नीचे उतर कर आता था सूरज कुछ किरणों को वापिस नही मांगता था और चाँद घटता बढ़ता हुआ किसी को शिकायत का मौका नही देता था।
उस शहर के इश्क में मैं बर्बाद हुआ हूँ जिसे मेरी भले ही कोई खबर न ली हो मगर मेरी आह और वाह को डायरी की शक्ल में अपनी अलमारी में सम्भाल कर रखा था।
कल जब वो डायरी शहर के सिराहने छूट गई तब मुझे पता लगा कि शहर का दिल आज भी मेरे लिए उतनी ही बेचैनी से धड़कता है जितना कभी पहले धड़कता था बंद में कमरें में वक्त के रोशन से कुछ सर्द हवा अंदर आई और डायरी के पन्ने खुद ब खुद पलटनें लगे यह देख शहर ने खुद को समेट लिया और डायरी पर यादों का वजन रख करवट ले सो गया।
शहर से मुझे इस बात की शिकायत है मगर कभी जताऊंगा नही।


'वो शहर'

Wednesday, January 13, 2016

हंसी

सुबह कुछ तरह से हुई जैसे समन्दर किनारे सीप को कतार से सूरज की सलामी के लिए सजा दिया गया हो।
उदासी के घने जंगल में धूप पत्तियों की सीढ़ियां से उतर कर धरती की मांग को सीधा करने चली आई।
तुम हंसी तो उजाला गया मन्दिर में शंख के नाद सी दिव्य थी तुम्हारी हंसी जिसे मन के गर्भ ग्रह में प्राण प्रतिष्टित कर दिया गया है।
लबों का व्यास मुस्कान की गोद में चैन से सो रहा है और तुम्हारें दो डिम्पल नही है दरअसल वो नदी के दो किनारें है जो तुम्हारी हंसी के पुल पर उम्मीद से एकदुसरे को देख रहे हैं।
तुम्हारी हंसी में लेशमात्र भी कृत्रिमता नही है ये ठीक उतनी नैसर्गिक और पवित्र है जितनी किसी देवालय की घण्टी होती है।
तुम हंसी तो पछियों के बच्चें भूखे रहे गए उनकी माएं तुम्हें देख अपने अपने भूले हुए गीत याद करने लगी इसी हंसी को देख नदी का वेग कम हो गया है वो किनारों के कॉलर ठीक करती है और आगे बढ़ जाती है। किनारें तुम्हें दुआ दे रहे हैं तो झरनें अपने नेपथ्य में अंखड रुद्राभिषेक कर रहें है एक तुम्हारी अखण्ड हंसी के बदले कुछ उपेक्षित मूर्तियों पर जलधार पड़ने लगी है।
तुम्हारी गर्दन शास्त्र की दृष्टि से किसी बड़ी मीमांसा से कम नही है तुम्हारी चैतन्यता का पुल है जहां से तुम दिल और दिमाग को एकसाथ देख सकती हो। सृष्टि के निमित्त ये सदी का सबसे पुराना वृक्ष है जिस पर बाहर एक भी वलय का निशान नही है।
तुम्हारी दो आँखें  पहाड़ के एकांत के दूत है ये उनका सन्देशा समन्दर तक पहुँचाती है इनके जरिए ही समन्दर नदी की दूरी का अनुमान लगा अपनी प्रतिक्षा को स्थगित करता रहता है। इन पलकों के जरिए धूप अपना दुपट्टा सुखाती है और आंसू देवताओं से मिलने की यात्रा की रुपरेखा तय करतें है।
तुम्हारे माथे पर कुछ आधे अधूरे पते दर्ज़ है जिन्हें पढ़ने के लिए आसमान रोज़ चश्मा लगता है वो किसी बहाने इसे छूना चाहता है जिसके लिए न जाने कितनी बार बेमौसमी बारिश की गई मगर तुम न मिली इस बात पर आसमान आजतलक बादलों से नाराज़ है बादल  बूंदों से हवा से दोस्ती करने के लिए कहते है तुम्हारा भाग्य आजकल उनका इष्ट देव हो गया है वो जिसे रोज़ जपतें हैं।
तुम हँसती हो तो कहीँ धूप खिल जाती है कहीं बारिश हो जाती है बहुत कुछ दुनिया में इसी हंसी के जरिए घटित हो रहा है। कुछ लोग खुश रहें इसे देखकर तो कुछ अपने अतीत को याद करके उदास भी हो जातें हैं।

बहरहाल,
कुल मिलकार बात यही है यूं ही हंसती रहा करो।

Monday, January 11, 2016

बेसबब सफर

उस दिन तुमनें तेज दौड़ती गाड़ी का शीशा थोड़ा नीचा किया और अपना हाथ बाहर निकाल दिया तुम हवा को छूना चाहती थी।
हवा तुम्हारे हाथ की रेखाओं के बालों में कंघी करने लगी थी तुम्हारी ऊंगलियां मयूर पंख की तरह आह्लाद में खुल गई थी।
हवा शीशे से गुजरती तुम्हारी एक लट को उलझा रही थी सूरज तुम्हारे माथे की नाप ले रहा था तुम्हारे आँखें बेपरवाही में आधी बंद थी आधी खुली थी। तुम्हारी पलकों में क्षितिज के स्वप्न अंगड़ाई ले रहे थे।
वो एक दिव्य चित्र था जब हवा धूप और छाँव मिलकर तुम्हें संवार रही थी और तुम बिखर रही थी। तुम्हारे हाथ के जरिए हवा ने सीधी दस्तक दिल के उस कोने में दी थी जहां एक अलहदा ख़्वाब सो रहा था उसकी नमी हवा से दूर हुई तो तुम्हारी आँखों ने उसको सूरज़ से मिलवाया फिर वो एक आजाद पंछी की तरह तुम्हारी हंसी के जरिए उड़ गया।
तुम्हारे चेहरे पर हंसी और मुस्कान के मध्य का कोई भाव था ये भाव एकदम दुर्लभ किस्म का था इसलिए मैं किसी बात के हस्तक्षेप से इसे बदलना नही चाहता था क्योंकि मेरी आवाज़ से तुम सावधान हो सकती थी इसलिए मैं चुप रहा और तुम्हें हवा के गले में कुछ खत बांधते देखता रहा हूँ तुम्हारे हथेली और उंगलियो के बीच से हवा ठीक ऐसे बह रही थी जैसे कोई पहाड़ी नदी बहती है तुम्हारी रेखाएं आपस में आइस पाईस खेलनें लगी थी ये देखकर अच्छा लगा था।
तुम्हारी पलकों के रोशनदान पर दो अलग अलग ख़्वाब उड़ने की तैयारी में थे वहां जैसे ही नजदीकियों की धूप उतरी तुमनें हड़बड़ा कर आँखें खोले दी उसके बाद तुम सम्भल गई और हाथ अंदर करके शीशा बन्द कर लिया।
मैंने पूछा क्या हुआ ?
तुमनें कहा कुछ नही बस आँख लग गई थी!
मैं हंस पड़ा मेरी हंसी को तुमने इस तरह देखा जैसे मैंने छिपकर तुम्हारी वो सारी चिट्ठियां पढ़ ली हो जो तुमनें कभी लिखी ही नही।
फिर तुमनें तुरन्त विषय बदलते हुए कहा और कितना वक्त लगेगा?
मैंने कहा शायद थोड़ा और। फिर न तुमनें किलोमीटर पूछे और न घड़ी देखी शायद तुम समझ गई थी कि अलग होने का वक्त नजदीक आ गया है।
तुमनें सफर को छोटा कर दिया था और वक्त बीत रहा था बेहद तेजी से जिसको मैंने ठीक उस वक्त तुम्हारे चेहरे पढ़ा जब तुमनें अपना पर्स अपनी गोद में भींच लिया था जोर से।

'बेखबर बेसबब इक सफर'

Sunday, January 10, 2016

हक

सबसे मुश्किल था तुम्हें हिस्सों में चाहना।
ऐसा नही तुम मुझे सबसे ज्यादा पसन्द थे कुछ जगह तुम औसत तो कुछ जगह औसत से भी कमतर थे मगर जहां तुम बेहतर थे वहां सच में इतने बेहतर थे कि तुम्हारे बिना जीवन की कल्पना से मुझे डर लगने लगता था।
मैं चाहती थी तुम्हें कुछ इस तरह से सहेज लूँ कि तुम्हारी इस बेहतरी की तुम्हे भी कानो कान खबर न हो। कुछ मामलों में तुमसे असमहत होने के बावजूद भी कुछ बिंदु ऐसे भी थे जहां मैं खुद से असहमत होते हुए भी तुमसे सहमत हो जाती थी।
तुम्हारी अनुपस्थिति में मैंने महसूस किया कि सामान्य होने का अपना एक आकर्षण है जहां आपके पास बहुत कुछ बखान या व्याख्यान के लिए न हो वहां भी अनुराग की छाँव पहुँच सकती है।
तुम समय से आगे थे या पीछे ये नही जानती मगर इतना जरूर जानती हूँ तुम्हारे साथ बिताया मेरा छोटा समय इतना विस्तार पा जाता था कि मैं उसके कोलाज़ में मनमुताबिक़ रंग भर सकती थी।
तुम्हें सोचते हुए मैंने करवटों के अंतराल पर अलग अलग भाव महसूस किए कभी मुझे खुद पर गुस्सा आया तो कभी तुम पर बेशुमार प्यार भी और ये वो प्यार था जिसे मैं कब की भूल चुकी थी। ये सच है प्रेम जितना प्रतिदान मांगता है उतनी क्षमता नही है मुझमें और न ही तुम कहीं ठहरे हुए हो तुम सतत् एक यात्रा में हो यह मैं मुद्दत से देख रही हूँ मगर फिर भी तुम्हारे अस्तित्व के कुछ ऐसे निर्मल पक्ष है जिन्हें सोच कर मेरे चेहरे पर एक इंच मुस्कान आ जाती है और पलक बेसबब छलक उठती है।
इस मतलबी दुनिया में तुम इतने लापरवाह हो कि तुम्हें खुद नही पता है कि तुम क्या हो और इसी लापरवाही से मुझे रश्क हो रहा है कोई ऐसा कैसे हो सकता है जबकि तुम्हारे अंदर असीम सम्भावनाएं है तुम उन पर बात करना पसन्द नही करते तुम बात भी क्या करते हो पहाड़ से उतरते वक्त चक्कर ज्यादा आए थे या पहाड़ पर चढ़ते वक्त...धत्त ! यहां मैं तुम्हारे सामने घूम रही होती हूँ और तुम पहाड़ की कहानी सुनना सुनाना चाहते हो।
मुझे डर लगता है कभी कभी क्योंकि वक्त ऐसा हमेशा नही रहेगा न ऐसी मैं रहूंगी और न शायद तुम ऐसे रहोगे शायद इसलिए लगा रही हूँ तुम ऐसे रह भी सकते हो क्योंकि तुम बेपरवाह जीने के आदी हो।
मैंने तुमसे एकदिन पूछा कि क्या बदलाव एक अपेक्षित छल होता है? तुमनें कहा अपेक्षा है तो छल का होना कोई बड़ी बात नही ! या ये अपेक्षाभंजन का युक्तिकरण भी हो सकता है उस दिन मैंने जाना तुम किसी और दुनिया के हो।
खैर ! जिस भी दुनिया के हो ऐसे ही रहने मैं भले ही कल बदल जाऊं तुम मत बदलना।
इतना कहने का हक समझती हूँ तो कह रही हूँ।

Friday, January 8, 2016

इदम् न मम्

रोज़ सुबह जब सूरज निकलता है धरती से इजाज़त नही लेता वो जानता है उसका इन्तजार किया जा रहा है इसलिए आ जाता है बिन बुलाए मेहमान की तरह।
बादल कभी कभी सूरज को उसके कद का अहसास दिलाने के लिए ढक लेते है ताकि वो धरती को थोड़ा बैचेन देख सके।
चाँद छलिया है वो अलग अलग कोण से धरती को देखता है खासकर जब रात को कुछ दिनभर की सलवटों को समेटकर धरती सोने को होती है चाँद उसके कान प्रेम की स्मृतियों का मन्त्र फूंक देता है। चाँद धरती के मन को जानता है और सूरज धरती के तन धरती मगर चाँद सूरज दोनों से बेखबर है वो आधा अधूरा खुद को जानती है।
मन का खगोल शास्त्र कम ग्रहण से भरा हुआ नही है धरती की तरह किसी न किसी पल कोई ग्रहण मन की सतह पर रोज़ घटित होता रहता है। इसलिए अब ग्रहण के साथ जीने की आदत हो चली है कोई ख़ास फर्क नही पड़ता थोड़ी देर के लिए अगर अन्तस् में अंधेरा भी पसरता है तो।
सूरज चाँद धरती और ग्रहण इन्हें खगोलीय पिंड से हटकर गहरे प्रतीक के रूप में तुम्हारी वजह से देख पाया मुश्किल वक्त में इनसे थोड़ी हिम्मत मिलती है लगता है कोई बिछड़े दोस्त है जो अपनी बीते हुए कल की कहानी सुनाना चाहतें है।
इनकी कहानी सुनकर मेरे कान बड़े हो गए और नाक छोटी हो गई है एक छोटी नदी मेरे अंदर बहने लगी है वो किसी मुख्य स्रोत नही निकली बस एक जमें हुए अवसाद का सीना उसनें तोड़ दिया है वो भटक रही है अपना रास्ता बनाने के लिए मुझे उम्मीद है वो अपनी तलहटी विकसित कर लेगी एकदिन। मेरे छाती पर एक हरा भरा जंगल उग गया है जिसकी छाँव इतनी गहरी है कि सूरज की रोशनी तक अंदर नही आ पाती है वहां कुछ ऐसे दरख्त उगे है जिनको वानिकी विज्ञानियों ने लुप्तप्रायः मान लिया था यहां उनकी पैदाइश मन के विज्ञान से सम्भव हुई है।
बहुत विषयांतर नही करूँगा जैसा हो भी गया है बस इतना कहूँगा एक तुम्हारी वजह से मैंने रच ली है अपनी एक समानांतर सृष्टि जहां जंगल नदी झरने पहाड़ चाँद सूरज सब के सब मेरे अपने है।
हां धरती की तरह ये मेरा स्थाई दुःख है बस तुम मेरे न हो सके।
चलो कोई बात नही अपना पराया वैसे क्या होता है ये सब तो समय के सापेक्ष मनुष्य के भरम ही तो है।
आना कभी मिलनें एकांत के जंगल में शायद तुम्हारी हंसी से कुछ मन के उदास पंछियो को अच्छा लगे।

'इदम् न मम्'

Thursday, January 7, 2016

सफर के नोट्स

अनामिका से उम्मीद की आँखों में काजल लगाता हूँ मैं
मेरा हाथ जरा सा कांपने लगता है।
इस दृश्य में तुम भी अप्रत्यक्ष: शामिल होती हो। बादलों के पीछे एक डाकघर है जहां बैरंग और गलत पते के खत रखे जातें है। डाकिया हम दोनों का पता याद नही कर पाता है हाँ वो लिखावट से बता सकता है कौन सा खत किसका है।
कई दिनों से समन्दर मुझे बुलाता है उसके बुलावे देख तुम्हें याद करता हूँ मगर समन्दर की जिद है कि मुझसे मिलनें अकेले ही आना, तुम्हारे बिना कहीं जाने में एक खतरा यह भी है कि मैं फिर उतना नही लौट पाऊंगा जितना कभी गया था।
तुमनें एक दिन पूछा था मैं कितना लम्बा जीने की इच्छा रखता हूँ तब मैंने कोई प्रभावित करने वाला जवाब दिया था क्योंकि जहां तक मुझे याद है मैंने कुछ साल बताए दरअसल इतने साल जीना चाहता हूँ ये कहना एक किस्म का तात्कालिक छुटकारा था जब मैंने इस सवाल पर गौर किया तो मेरे जीने की चाह साल महीनें या दिन में नही आई मैं जीना चाहता हूँ कुछ किलोमीटर कुछ बसन्त और कुछ पतझड़ थोड़ी सी सुनसान बारिशें रात और दिन के सन्धिकाल पर उदासी के पल गिनते हुए हिसाब लगाना चाहता हूँ वक्त का।
इसलिए अपना पहला वक्तव्य वापिस लेता हूँ वो तुम्हारे किसी काम का नही है।
धरती पर कान लगाता हूँ वो मेरे वजन का हिसाब मेरे कान में बताती है साथ ही वो यह भी कहती है मेरे वजन का बोझ किसी और की ज़िन्दगी में भी शामिल है जब मैं उससे मानचित्र मांगता हूँ तब वो मेरा कान खींचकर कहती है इतने भी मतलबी मत बनों।
फिर मैं चल पड़ता हूँ अनन्त की ओर अज्ञात की ओर।
जो मुझे बाहर से देख रहा है वो बता सकता है मेरी दिशा और भटकाव का मानचित्र।
मेरे पदचिन्हों से जिस दिन लिपि विकसित की जाएगी उस दिन हमारा तुम्हारा सम्वाद सार्वजनिक होगा।

'सफर के नोट्स'

Tuesday, January 5, 2016

मिलना

तुम मुझे तब मिले जब मिलना कोई घटना नही थी मेरे जीवन में।
इसलिए तुम्हारा मिलना किस रूप में मैं स्मृतियों में संरक्षित करूँ यह तय नही कर पाया आजतक।
एक बेहद जीवन्त बातचीत में तुमने एक जम्हाई ली और अपनी कलाई पर बंधी घड़ी को देखा मैंने इस बात को तुम्हारी अरुचि नही समझा बल्कि तुम उस वक्त ये बताना चाह रही थी कि मुझे बातों को उनके सही वक्त पर करने का पता होना चाहिए।
एक दुसरे की कमजोरियों पर अक्सर हमनें खूब बातें की यह खुद को अधिक परिपक्व और पारदर्शी जताने का एक उपक्रम था वैसे खूबियों पर भी क्या बात करनी थी खूबियां समय सापेक्ष होती है अदलती बदलती रहती है आज जो मेरे ऐब है कल वो मेरी खूबी हुआ करती थी।
तुमने एक दिन पूछा चाय में चीनी कितनी लोगे एक चमच्च? मैंने कहा अपनी चाह का अनुमान मुझे लगाना नही आता इसलिए खुद के अनुमान पर भरोसा नही है फिर मैंने देखा तुमनें आधी चमच्च चीनी डाली इसका अर्थ मैंने यह विकसित किया कि तुम भी मेरे बारें में किसी अनुमान को बचती थी।
कुछ बेहद छोटी और मामूली सी बातें है जो विषय के वर्गीकरण के अभाव में भटक रही है मसलन अक्सर यह हमनें एक दूसरे से यह पूछा कैसे है? मेरी समझ में शिष्टाचार की शक्ल में इससे बेवकूफाना सवाल और कोई हो नही सकता है कोई कैसा है यह बात वो ठीक ठीक बता पाएं यह बेहद मुश्किल है एक ही पल के अलग अलग छोर पर मनुष्य बेहद जीवन्त या अनमना हो सकता है।
तुमसे मिलना समय का एक युक्तियुक्त हस्तक्षेप था या फिर एक बेहद अवैज्ञानिक किस्म का मानवीय षड्यंत्र इन दोनों बातों के अलावा मैं तीसरी बात सोचता हूँ यदि तुम न मिली होती तो क्या मैं इस तरह असंगत बातों को एक शृंखला में कह पाता? शायद नही।
तुम्हारा मिलना असंगतता को अर्थ दे गया यह कम बड़ी बात नही है इसे जीने के बहाने के रूप में उपयोग किया जा सकता है।
वही मैं कर रहा हूँ।

'मॉर्निंग रागा'