Thursday, June 29, 2017

निकट दर्शन

दिन एक:

मैं टूट रहा हूँ ज्यादा अंदर से थोड़ा बाहर से। टूटकर मैं आसपास नही गिरना चाहता क्योंकि इससे मेरी छाया में खड़े लोगों के चोटिल होने की पर्याप्त सम्भावना है। मैनें हवा से आग्रह किया है कि वो अपने साथ तूफान को लेकर आए जो मुझे जड़ से उखाड़ कर किसी निर्जन स्थान पर पटक दें।
हवा ने मुझसे कुछ बुनियादी सवाल पूछे है मैं उनके जवाब फिलहाल ज़मीन पर लिख रहा हूँ ताकि पहली बारिश में वो सवाल घुलकर/बहकर समन्दर तक पहुंच जाए। समन्दर के डाकखाने से उनका आसमान का नाम मनीऑर्डर किया जाएगा जिसे रास्तें में हवा छद्म उत्तराधिकारी बन कर सूरज के डाकिए से ले लेगी।

दिन दो:
मैं तरल हो रहा हूँ इनदिनों। ठोस होने से मेरे भार का अनुमान हो गया था और मेरा उपयोग किसी का वजन तोलने के लिए किया जाने लगा था। तमाम विडंम्बनाओं के बावजूद मैं इस जन्म में बाट नही होना चाहता हूँ।
तरल होकर मैं बह रहा हूँ इसलिए फिलहाल मुझे रास्ते की परवाह नही है ये खुद ब खुद बनता चला जा रहा है ठोस होने के कारण रास्ते पर घिसटना पड़ रहा था जिसके कारण मेरी पीठ छिल गई थी।

दिन तीन:
बारिश शुरू हो गई है। ये बारिश मुझे उदास नही करती है इसलिए मुझे इसके मानसून की बारिश होने पर सन्देह है। ये ताप से आहत मनुष्यों की प्रार्थनाओं पर आसमान की एक कृपावृष्टि है। सूरज इस बात पर नाराज़ है कि उसकी बात इनदिनों नही मानी जा रही है उसने खुद को स्थगित करने का निर्णय लिया है मगर तभी धरती को देखता है और अलसुबह नगें पैर धरती की तरफ दौड़ने लगता है

दिन चार:
बातों में प्रेम न हो, भावनाएं  न हो और सबसे बड़ी बात मनोविज्ञान न हो तो लोग बातों से मुंह मोड़ लेते है उनके जीवन मे विचार ने पहले से ही शुष्कता का इतना सीमेंट पोत दिया है कि वहां अब कोई फिसलन नही बची है जिस पर फिसलते हुए दो बिछड़े हुए लोग आमने सामने आ खड़े हो।
इमोशनल होना अब अफोर्ड करना पड़ता है इसलिए ये इमोशन्स की आउट सोर्सिंग का दौर है।

दिन पांच:
जीवन उस चिड़िया का घौंसला है जो इनदिनों सफर पर है। जहाज का पंछी तो लौटकर जहाज पर पहुंच जाता है मगर इस घौंसले का पंछी जब तक लौटकर आएगा ये घौंसले का एकांत कुछ अजनबियों को आश्रय देकर नदी के कोलाहल में विलीन हो जाएगा।

दिन छह:
एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से पूछता है जीवन का सारांश कैसे निचोड़ा जा सकता है दूसरा व्यक्ति उसे तार पर सूखते कपड़ो की तरफ इशारा करके बताता है कुछ-कुछ इस तरह बशर्ते तुम्हारे पास आधार,आंच और मुक्त हवा हो।
जीवन की सिलवटें कोई इस्त्री नही मिटा सकती है इसलिए यदि तुम्हारे अंदर लोक लाज से मुक्त होने का साहस है तो निचोड़ कर जीवन को ज्यों का त्यों पहन लो बस।

दिन सात:
मैं अवकाश चाहता हूँ। आकाश से मैं अवकाश की जरूरत पर बात करना चाहता हूँ। धरती से मैं अवकाश की निरार्थकता पर एक प्रवचन सुनना चाहता हूँ। नदी से मैं अवकाश की यात्रा जानना चाहता हूँ। पहाड़ से मैं अवकाश की उदासी उधार मांगना चाहता हूँ। रास्तों से मैं अवकाश की खुशी पूछना चाहता हूँ।
अंत में,मैं खुद के अंदर अवकाश का एक असीम दुःख महसूसना चाहता हूँ।

'साप्ताहिकी: निकटदर्शन'

©डॉ. अजित

Thursday, June 8, 2017

इनदिनों मैं

यात्राएं जीवन से अनुपस्थित होती गई मुझे इसका भान तक न हुआ। काल का अपना नियोजन था जिसमें मैं समझ नही पाया। अंग्रेजी फ़िल्म फाइनल डेस्टिनेशन की तरह भविष्य ने मेरा बड़ी सावधानी से शिकार किया मैं उसके समीकरण को तोड़ नही पाया।

अब स्थिति यह है जो सबसे जरूरी काम है वह मेरी सबसे न्यूनतम प्राथमिकता पर है। रिश्तों का मैनेजमेंट भी अस्त व्यस्त है। कभी कड़वा बोलता हूँ फिर माफी मांगता हूं। एक सुदूरवर्ती यात्रा की कल्पना में भटकता हूँ मगर कल्पना में ही अपराधबोध मुझे यथार्थ की शक्ल में आकर घेर लेता है और बाद में मुझे खुद के औसत मनुष्य होने की ग्लानि होती है और मैं काल्पनिक रूप से चिंतित होने की कोशिश करता हूँ।

मैंने एक बैग तैयार करके रखा हुआ है मैं सोचता हूँ फलां जगह जाऊंगा फिर वहां से आगे की यात्रा यह करूँगा मगर जैसे ही पहली जगह जाता हूँ मेरी आगे कहीं जाने की इच्छा समाप्त हो जाती है और फिर से वही जाने की सोचने लगता हूँ जहां से चला था।

मुझे दरअसल कहीं नही जाना है मेरे पास यात्राओं की एक धुंधली कल्पना बची है यही कल्पना मुझे एक जगह रुकने नही देती है मगर यही मुझे अब कहीं जाने भी नही देती है। मेरा उत्साह केवल मार्ग का उत्साह पहले पड़ाव पर पहुंचते ही मुझे लगता है मैं दिशा भरम का शिकार हो गया हूँ।

साल भर इस खाली वक्त का इंतजार करता हूँ और सोचता रहता हूँ कि इस बार फलां दोस्त से जरूर मिलूंगा मगर हकीकत में किसी से नही मिल पाता हूँ क्योंकि फिलहाल मैं खुद में गुमशुदा हूँ।
मेरे पास एकांत की कामना है मगर एकांत का प्रशिक्षण नही है मेरे पास निर्लिप्तता का दर्शन है मगर मेरे पास मेरी लिप्तता के ठीक ठीक अनुमान नही है।

मैं आवारा हवा की तरह भटक रहा हूँ पहाड़ से उतरते वक्त मेरे कान ठंडे थे अब मेरे तलवों में केवल फर्श की ठंडा बची है इस धरती पर उतनी ही जगह ठंडी लगती है जितना मेरे दोनों तलवों का आयतन है।

मेरे माथे पर कुछ पते है जहां कायदे से मुझे जरूर पहुंचना चाहिए मगर मेरी पीठ जो अब एक स्क्रेप बुक बन गई है उस पर उन पतों के सही या गलत होने की जानकारी है मेरे पीछे कोई दोस्त नही है जो उन्हें पढ़कर बता सके कि मैं सही जा रहा हूँ गलत।

दरअसल मेरे पीछे कोई नही है मेरे आगे जरूर कुछ लोग है वो कौन है उनका चेहरा मैं नही देख पा रहा हूँ जैसे ही मैं उनकी पीठ पर हाथ लगाता हूँ वे पलटकर नही देखतें बस आगे से बोलते है उनकी आवाज़ जब तक मुझतक आती है मै उनकी तरफ पीठ कर लेता हूँ।

सारी आवाज़ें मेरी और उनकी पीठ के मध्य दबकर विचित्र सा घर्षण पैदा कर रही है जिसके कारण इन दिनों मेरी रीढ़ ही हड्डी बहुत झुक गई है मैं अपनी देह पर तीर कमान की तरह टँग कर खुद को दूर कहीं पटकना चाहता हूँ मैं निशाने पर पहुंचकर किसी का शिकार नही करना चाहता है इसलिए मैं हथियार नही हूँ।

'इनदिनों मैं'