Sunday, September 28, 2014

अबाउट मी

इस तरह की आत्मविज्ञापनी पोस्ट बिलकुल नही लिखना चाहता न ही कभी एक्स्ट्रा इमेज कन्शिएस रहा हूँ मगर फिर कई दफा अपने बारें में कुछ बातें बतानी जरूरी हो जाती है कतिपय संदर्भो में इसे मेरा अहंकार समझा जा सकता है मगर यह मेरे जीवन जीने की शैली है मेरी मौलिकता है जिसमें मै ढलकर यहाँ तक पहूंचा हूँ।

ताकि सनद रहें...

1. मेरी बातें जरुर डिप्रेसिव साउंड करती है मगर मै मर्ज़ की सीमा तक डिप्रेशन में नही हूँ एक नियत अवसाद की मात्रा हर लिखने पढ़ने सोचने वाले के अंदर पायी जाती है इसी के जरिए वह समष्टि की वेदना को खुद के अंदर अनुभूत कर पाता है सो इतना अवसाद मेरे लिए एक जरुर टूल है।
2.अध्ययन और अध्यापन जोड़कर लगभग एक दशक मनोविज्ञान से एक प्रसिद्ध विश्वविद्यालय से जुड़ा रहा हूँ क्लीनिकल साइकोलॉजी में विशेषज्ञता रही है बतौर मनोविश्लेषक विभिन्न मीडिया माध्यमों में एक्सपर्ट नामित रहा हूँ ठीक ठाक किस्म का अकादमिक सीवी रहा है जिसमें जर्मनी से थीसिस छपना और तीन छात्रों का एमफिल गाइड बनना शामिल है। व्यक्तित्व के मनोवैज्ञानिक परीक्षण ड्रा ए पर्सन पर कई साल जुनून की हद तक काम करके उसको सिद्ध किया गया था हालांकि अब ये सब कोई ख़ास मूल्य नही रखता है।
यह महज़ एक दुनियावी पक्ष है इसको मै हर वक्त अपने कंधो पर नही ढो सकता हूँ इसलिए कई बार विदूषक की तरह अपने मन की मौज में जीता हूँ खुद का मनोविज्ञान ठीक से जानता हूँ न ही खुद के बारें में किसी गलतफहमी में जीता हूँ।
3. जैसा हूँ जैसा जीता हूँ वैसा ही खुद को प्रस्तुत भी करता हूँ न मुझे सेल्फ ब्रांडिंग आती है और न मेरी सेल्फ ग्रूमिंग की कोई अभिलाषा भर है। दिल और चेतना के स्तर पर समन्वय बनाकर जीने का प्रयास करता हूँ। न मेरे अंदर उद्यमशीलता है और मै बहुत नियोजित हो कर कभी जीवन जी पाया हूँ यदि इतनी नियोजनशीलता मेरे अंदर होती तो सात साल की यूनिवर्सिटी की मास्टरी छोड़कर खेती किसानी का विकल्प न चुनता सारांश यही है जो दिल कहता है वही करता हूँ।
3. अपेक्षाओं पर तो खुद के माता-पिता की खरी नही उतर पाया और किसी की क्या उतरूंगा इसलिए तटस्थ रहता हूँ इल्म की कमजोरी है आदत से जज्बाती हूँ इसलिए किसी को नजदीक लानें से डरता हूँ क्योंकि जिस तरह की मेरी यात्रा है वहां समान गति से मेरे साथ चलना किसी के लिए भी दुर्लभ है। अब दिल जुड़ने-टूटने से बचता हूँ।
4. कुछ मित्रों को मेरे स्त्री प्रेमी होने का संदेह है उनको यही कहूँगा कि हाँ मै स्त्री को एक उदात्त चेतना मानता हूँ उनकी संवेदना का स्तर मुझे मेरे कम्फर्ट जोन में यात्रा करने में मदद करता है न मै कोई आखेटक हूँ और न मेरे लिखे हो पसंद करने वाली महिलाएं मूर्ख और न मै रिश्तों में बेईमान हूँ और न ही लम्पट। सखा भाव से अनौपचारिक शैली में बात करना मेरा सलीका भर है इसके पीछे मेरा कोई हिडन एजेंडा नही है।
5.लम्बे समय से एक ख़ास किस्म की जीवनशैली जीने में मै टाइप्ड हूँ उसमे न बदलाव की गुंजाइश है और न मेरी कोई अभिलाषा। अपने 'ऐसा होने में' मै बेहद खुश और संतुष्ट हूँ।
7. जो लोग मुझे जानने और समझने का दावा करते है वो जानते है कि मेरी यात्रा किस किस्म की रही है देहात से निकल अपना मार्ग चुनने और पृष्टभूमि के दबाव के बीच मैंने यह मार्ग चुना है और कई स्तरों पर संघर्ष किया है मेरा जितना ज्ञात पक्ष है उतना ही अज्ञात भी है हालांकि निजी तौर पर संघर्ष को न कभी प्रचार का विषय बनाया और न ही तुलना की विषयवस्तु समझा सब अपने अपने हिस्से का दुःख भोगते ही है मै कोई अनूठा नही हूँ।
8. धारणा बनाने वाले धारणाओं में जीने वाले मित्रों की यात्रा बेहद अल्पकालीन होती है बिना सम्पादन और समग्रता से जीवन को स्वीकार करनें वाले मित्रों का सदैव स्वागत है। महान/आदर्श न कभी रहा हूँ न होने की सम्भावना है सभी की तरह मेरे पास भावनात्मक मूर्खताएं है अपराधबोध है दिल का जुड़ना-टूटना सब शामिल है इसे मै मानव होने की निशानी के तौर पर देखता हूँ।
9. दोस्ती को लेकर मेरे थोड़े खट्टे मिट्ठे किस्म के अनुभव रहें है मेरे लिखे हुए में दोस्तों का गाहे बगाहे जिक्र आता है जिससे गैर आभासी दुनिया के दोस्तों को तकलीफ होती है उन्हें लगता है मै खुद को पीड़ित उनको शोषक सिद्ध करता हूँ ऐसा कतई नही है मेरी कुछ रचनाएं विशुद्ध लिट्रेरी कंटेंट लिए होती है उनमे अपने निजी सन्दर्भ तलाशकर आप अपनी ऊर्जा और मन की शान्ति को जाया न करें।
10. अंत में मेरी वजह से हैरान परेशान दोस्तों के लिए एक बात कहूँगा माफी चाहूंगा दोस्तों ! क्या करूं ऐसा ही हूँ मै...!!!

आपका
डॉ.अजीत

Thursday, September 25, 2014

राग

किसी शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम में मुख्य वादक और उसके साथी साजिंदो के बीच कार्यक्रम शुरू होने से पहले सुर मिलाने के आँखों के इशारों सा और फिर कार्यक्रम के उरूज़ पर बढ़िया संगत की खुशी को आपस में आँखों ही आँखों में इशारों में बांटना ऐसा ही कुछ तुम्हारे साथ बांटना और साधना मैंने भी चाहा था मगर अफ़सोस तुम न मेरी आँखों की खुशी पढ़ पाए और न रिश्तों के सुर साधने के गुप्त इशारे ही पकड़ पाए।
आज सुर लय ताल बगावत पर है और मेरे आलाप में सिलवटें आ गई है कभी हम बढ़िया संगतकार थे अब बढ़िया कलाकार है सोच रहा हूँ इस बात पर तुम्हें बधाई दूं या न दूं...
चलो ! कह ही देता हूँ  बधाई हो ! सम्बन्धों के शास्त्रीय कार्यक्रम में काफी भीड़ जुटा ली है तुमनें ।कभी फुरसत मिलें तो कुछ रिकॉर्ड मुझे भी भेजना तुम्हें लाइव सुनने का साहस तो मै कब का खो चुका हूँ।

'राग बेदम ए इलाही'
© डॉ. अजीत 

Wednesday, September 24, 2014

अलविदा

उदासी के अड्डे गली के नुक्कड पर नही लगते बल्कि मन के उस निर्जन टापू पर साल में एक बार कुछ परछाईयां अपने हाथ मे बुझी मशाल लेकर आती है जिन्हें पहले चिराग समझा जाता था फिर उनकी गंध में सिद्धो की चिलम सी खुशबू आती और आंखो की पुतली पर तुम फैल जाती। यादों के खत बैरंग लौटने ही थे क्योंकि उन्हें शहर के भीडभाड वाले पोस्ट आफिस से पोस्ट किया गया था उन पर खताओं की मुहर लगी थी उन्हें बिना टिकिट पोस्ट करना एक किस्म का अपराधबोध से बचने का उपक्रम था । मेरे पास एक अदद अपनी उम्मीदों का बिछौना था जिसे क्या तो बिछाया जा सकता था या फिर ओढा जा सकता था मैने कभी लेटने का नाटक किया तो कभी सोने का। हर बार मेरी निगाह आसमान मे न जाने कितने क्षितिजों के मध्य फंसी तुम्हें तलाशती रहती मगर तुम बादल चांद या तारा नही थी तुम हवा थी और हवा केवल एक बार महसूस की जा सकती है उसे कौन आंखो में बांध पाया है भला। तुम जब अपनी दुनिया बेहद मशगूल थी तब मै दिल को जला कर तुम्हारी रोशनी के लिए काजल बना रहा था जो तुम्हें मिल सकता है मेरे सिरहाने एक वफा की छोटी डिब्बी में। तुम्हारे ख्यालों तक से निकलना एक किस्म का निर्वासन था जिसकी तैयारी का आभास बहुत दिनों से तुम्हारी दुनियादारी की बातों से होना शुरु हो गया था।
मेरी तुम्हारी यात्रा का एक यह महत्वपूर्ण पडाव है यहां से रास्ते जुदा होते है और मंजिल अतीत मे दिखाई देनी शुरु होती है मगर मुझे दौडना होगा उल्टे पांव भविष्य में। तुम्हारे पास मन की क्षणिक रिक्तता को भरने के अनेक विकल्प है इसलिए तुम अपनी ऐच्छिक सवारी से मंजिल की तरफ रवाना होगी फिलहाल मैने अपने मन की जेब मे देखा तो पाया कि एक सिक्का तुम्हारी हंसी का अभी भी पडा है अकेला। एक बार दिल ने कहा तुम्हे लौटा दूं मगर तमाम हसीन यादों और तल्खियों के बीच मैने रख लिया है तुम्हारा यह सिक्का। यह अब खनकेगा नही मगर मन के किसी होने मे इसके वजन से मेरा मन हमेशा भारी रहेगा बस यही मेरा निजी स्वार्थ है।
मेरी गति अधिक थी इसलिए थक गया अभी सोच रहा हूं कि थोडा सुस्ताने के लिए फिर से एक कामकाज़ी दोपहर मे शहर चला जाऊं यहां का एकांत हर बात में हर जगह पर तुम्हारी तस्वीर बना देता है फिर मेरी बतकही शुरु हो जाती है इस तरह से मै उलझ जाता हूं बेवजह।
अच्छा ! कहा-सुना माफ करना....इस चौराहे से छोडकर अगले दोराहे से मुझे अपना रास्ता बदलना है फिलहाल सबक का बैग मैने अपने कांधे पर लाद लिया है मै पहले धीरे धीरे चलूंगा और फिर थोडा तेज़ यह तुम्हें शायद यह रेंगने जैसा लगें और लगने मे कोई बुराई भी नही है कभी कभी बिना रीढ के शख्स को तंग रास्तें से गुजरने के लिए ऐसे ही प्रपंच करने पडते है मै चाहता हूं तुम थोडी देर के लिए मेरे तरफ पीठ कर लो कम से कम तुम्हारी आंखो में देखता हुआ मै एक कदम भी वापिस न हट सकूंगा बस यही एक आखिरी निवेदन है मेरा अगर मान सको तो...।

‘फिदा-विदा-अलविदा

© डॉ.अजीत

Sunday, September 21, 2014

नाराजगी

उनके बीच की दूरिया छोटे बच्चों की कच्ची पेंसिल की चोरी की लड़ाईयों और नाराज़गी जैसी दिखती थी। उनके बीच कुछ भी न था न प्रेम न मैत्री दोनों की जिन्दगी दो विपरीत छोर पर चिपकी हुई थी दोनों छत की मुंडेर पर जमी काई जैसा खुद को खुरचते हुए मिले थे। उनकी कामनाओं का संसार देह के सोंदर्यशास्त्र से अलहदा था दोनों की त्वचाएं सम्वेदना को गलाती हुई परिपक्व हुई थी। उन दोनों की अपनी अपनी दुनिया में समानांतर जीवन विकसित हो रहें थे कभी मन कंक्रीट के जंगलों से निकल भाग पड़ता बेहताशा वो अक्सर पहाड़ नदी झरने जंगल की बातें करते जो टिका हुआ था उनके मन के समशीतोष्ण मौसम में।
उन दोनों की बातें प्राय: असंगत होती विषयांतर तो इतना अधिक हो जाता कि कोई एक अपनी मर्जी से किसी भी बात से आहत हो सकता था उसे अन्यथा ले सकता था। उन दोनों में बस इन्तजार का साम्य था न जाने क्यों वो दोनों एक दुसरे का इन्तजार करते दिख जाते थे बिना एक दुसरे को बताएं उनके पास इतने सवाल होते कि कोई भी एक दुसरे को संतुष्ट नही कर पाता था।
उस दिन वो दोनों इस बात को लेकर मौन बैठे रहे कि ताउम्र एक याद के सहारे कैसे जिया जा सकता है फिर उसने कहा सुनो ! याद को गेंद बना कुछ देर चाँद पर खेलते है ! इसके बाद दोनों कुछ दूर हाथ थामें चलें मगर इस बार हथेलियों ने गुदगुदी करना बंद कर दिया था शायद मन और दिमाग ने स्पर्शो को बैगाना होने का आदेश दिया था एक अजब सी नमी जरुर थी मगर उस नमी में हाथ फिसल रहें थे यह फिसलन उन दोनों के लिए अभ्यास थी जिससें उनके रास्तें आसानी से अलग हो सकें।
आज भी उन दोनों ने उस नमी को आँखों में जिन्दा रखा है दोनों एक दुसरे से न खफा है और खुश हाँ कभी-कभी दोनों बच्चों को डांटते दिख जाते है दोनों का एक अपना दायरा है मगर फिर उन दोनों को कभी लड़ते बिगड़ते नही देखा दोनों जीते है अपने अपने हिस्से का निर्वासन मन के निर्वात के बीच।

'वो दों: एक बात'
© डॉ. अजीत 

Thursday, September 18, 2014

कयास

थोड़े से मुश्किल वक्त में वो इतनी जटिल हो जाती कि उससे बात करना तो दूर उसे सोचने से पहले दस दफे सोचना पड़ता। वो जितना हंसती उतना मन ही मन डर लगता क्योंकि ये तय था इसके बदलें उसका मन जब रोएगा तो फिर नदी की तरह सम्बन्धों का तटबंध चंद मिनटों में ध्वस्त हो जाएगा।
ऐसा नही था कि उसे बुरे दौर का अभ्यास नही था हकीकत में वो जिस दौर में जी रही थी वो बाहर से एक स्थापित जीवन दिखता था मगर अंदरखाने वो कितना उथल पुथल भरा था यह ठीक ठीक वो ही जानती थी।
उसके पास हवा की चुगलियाँ होती पहाड़ो के उलाहने होते नदियों की उदासी होती झरनों की शिकायते होती मगर वो हमेशा कुछ न कुछ गुनगुनाती रहती उसका गुनगुनाना दरअसल खुद से बात करने का तरीका भर था उसकी आँखों की चमक और लबों पर फ़ैली हलकी मुस्कान उन चंद लम्हों की जमानत होती जिनके सहारे दिन भर में वो शिद्दत से जीने का जतन कर लेती थी।
उसकी हंसी और उदासी दोनों मन की बगिया में झूला झूलती रहती थी वो खुद को समेटने का हुनर जानती थी कभी कभी देखता उसकी फ़िक्र में इतनी मामूली चीज़े शामिल होती जिन्हें पर खुद ईश्वर भी कभी गौर नही करता होगा इसलिए मुझे कभी कभी वो भगवान से बढ़कर लगती क्योंकि उसे फ़िक्र के साथ जीना आता था वो कभी उस सूरज की तरह लगती जिसे बोझिल होने की इजाजत नही होती है जिसके होने भर से रोशनी का पता चलता है तो कभी वो कृष्ण पक्ष का चाँद सी दिखती जो बादलों से घिर जाता है अक्सर रात दस बजे के बाद।
वो धरती की तरह व्याप्त थी मन का धरातल उसकी गर्द से अटा रहता था सुबह औ'शाम। वो मामूली दिखने वाली दुनिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थी जिसे रोज क़िस्त दर किस्त टुकड़ो में जीना पड़ता था वो भी बिना उसे बताए क्योंकि जिस दिन उसे यह सब पता चलता उस दिन वो फिर वो न रहती उसके बाद उसका निर्मल चित्त शायद पल भर के लिए अनमना हो सकता था दुनिया के तमाम पाप श्राप भोगता इस अनमने मन के संताप को झेल न पाता फिर कहने के लिए कुछ न बचता वैसे भी कहा सुना उसके लिए कभी महत्वपूर्ण नही रहा था वो अपनी शर्तो पर जीती थी एक उलझी-सुलझी जिन्दगी...।

'वो कौन: कुछ आस कुछ कयास'

© डॉ. अजीत

भोर के प्रवचन

प्रेम के सांसारिक आख्यान तुमने लाख पढें हो मगर प्रेम का एक अप्रकट रुप भी होता है। प्रेम का यह संक्षिप्त संस्करण हम सब के अन्दर सम्भावना के रुप मे जिन्दा रहता है यह आग्रह नही चाहता और न ही यह प्रकटीकरण या स्पष्टीकरण की प्रक्रिया का हिस्सा बन पाता है यह अव्यक्त पडा रहता है मन के किसी सुषुप्त खोने में। प्रेम का यह रुप किसी आंतरिक रिक्तता का परिणाम नही होता है बल्कि यह तो बाह्य दुनिया से बेखबर अंदर ही बनता बिगडता रहता है। प्रेम के मनोविज्ञान पर सबकी अपनी-अपनी टीकाएं है इसलिए प्रेम का मनोविज्ञान प्रेम के दर्शन से सदैव भिन्न होता है। प्रेम किसी भी सम्वेदनशील व्यक्ति के आसान लक्ष्य है वह इसके सहारे लिख सकता कहानी/कविता/गज़ल या दु:ख का महाकाव्य। प्रेम को पढता हुआ अक्सर मै द्वंद का शिकार हो जाता हूं कुछ लोगो को कहते सुना था प्रेम रास्ता दिखाता है यह आपके मन की कुमुदिनी को खिला देता है मगर प्रेम को लेकर इतनी बिखरी हुई बातें सुनता आया हूं कि मुझे प्रेम और मित्रता के मध्य की महीन रेखा को देखने में भी कभी कभी दृष्टि भ्रम का शिकार हो जाता हूं।
दरअसल, प्रेम एक भरोसा है एक आश्वस्ति है कि आप छ्ले या ठगे नही जाएंगे कुछ लोगो की चालाकियों ने जरुर प्रेम को सन्देहास्पद बना दिया है मगर फिर प्रेम हमेशा हमारे चेहरे पर एक इंच मुस्कान लाने की कुव्वत रखता है प्रेम को चरणबद्ध देखने की कोशिस करता हूं तो पाता हूं कि प्रेम के सबसे विचित्र व्याख्यान उनके होते है जिन्होने प्रेम को दशमांश मे भी न जिया हो इससे यह पता चलता है कि प्रेम मे होने वाले इंसान को फुरसत कब मयस्सर होती है कि वो लिख सके या कह सके प्रेम में डूबा व्यक्ति जीता है केवल एक दुनिया जबकि प्रेम को लिखने वाले जीते है कई समानांतर जीवन यह उनके निजी चयन का मसला होता है कि वो कब प्रेम को कहने लगे और कब बन जाए बुद्धि के चौकस पहरेदार इसलिए आज भी प्रेम को बावरा कहा जाता है बावरा इसलिए कि यह आपको आपसे मुक्त करता है इसलिए प्रेम मुक्ति का मार्ग भी है जो आसक्ति से लेकर मुक्ति तक की यात्रा तय करता है प्रेम मे अंतिम मंजिल जैसा कोई स्थान नही है यह सतत चलने और जीने का नाम है अनुभव और अनुभूति दोनो यही कहते है।

‘भोर के प्रवचन’

डॉ.अजीत

Wednesday, September 17, 2014

मन का यार

तमाम अच्छे,बुद्धिमान और सम्वेदनशील लोगो के बीच अवसाद का चयन उसका अपना चयन था अच्छी बातें सोखने की उसकी क्षमता अपनी कमजोरी के आखिरी पडाव पर थी। ऐसा नही था कि  खुश रहना या खुश दिखना उसे अच्छा नही लगता था वो अपनी तरफ से भरसक कोशिस करता कि उसके अवचेतन की उदासी उसके चेहरे से जाहिर न हो मगर मन के अन्दर पसरी विराट उदासी भला बाह्य प्रयासों से कभी छिप पाई है। वो हंसते हुए अपनी बात कहता मगर रंगे हाथ पकडा जाता फिर उसकी चाहतों का असर फीका पडने लग जाता इसी उधेडबुन में उसको रोज़ न जाने खुद से कितने झूठे वादे करने पडते।
हर करीब आने वाले शख्स को वो क्या तो अपने बेहद करीब ले आता ताकि उसकी मन की आंखे वो सब न पढ सकें जो प्राय: बाद मे सलाह/नसीहतों की वजह बनती थी या फिर उसको अपने नजदीक ही न आने देता एक ऐसा व्यूह अपने इर्द-गिर्द रचता कि कोई चाह कर भी उसकी दुनिया का हिस्सा न बन सके।
वो अपने टुकड़ी का बचा हुआ आख़िरी योद्धा था जो लड़ रहा था एकांत से युद्ध उसके हथियारों की मारक क्षमता को संदिग्ध समझा जा सकता था मगर उनके खुरदुरेपन में भी आत्महत्या से बढ़कर धार थी।
दुनिया दो किस्म के लोगो से भरी पड़ी थी एक वो जो बहुत कुछ करना चाहते थे मगर कुछ कर नही पाएं दूसरे वो जो कर रहें थे वो उनके मन का नही था मगर इन सबके बीच एक किस्म उन लोगो की भी थे जो करने के भाव से मुक्त थे और अपनी अकर्मण्यता का जश्न मनाने का आत्मविश्वास और दुस्साहस रखते थे तमाम गैरउत्पादकता के बीच भी लोग उन्हें खारिज कर आगे नही बढ़ पाते थे उनमे रूचि की एक अनकही वजह हमेशा बची रहती थी वो शाश्वत सच के घने प्रतिबिम्ब थे इस तीसरी किस्म के लोगो के बचे हुए गिने चुने लोगो में से एक था वह।
उसके पास साहित्यिक गुणवत्ता के प्रहसन थे कविताएँ थी कुछ दर्शन की उक्तियाँ थी जिनका वह मनमुताबिक़ प्रयोग करने में सिद्धस्थ था सच बात तो यह है वह मेरा सबसे सच्चा नही सबसे अच्छा दोस्त था यारों का यार।
उस यार को अपनी पीठ पर बैठा धूप में अपनी झुकी रीढ़ को अक्सर देखता था मै।वो घनघोर अंधेरों में भी वो पलकों के अंदरुनी हिस्सों में चिपका रहता जो साथ होना एक किस्म से हौसले की क़िस्त मिलने जैसा था जो गाहे बगाहे काम आ जाती थी दुनिया की दुत्कार के बीच।
वो मेरी जिन्दगी का स्थाई बैताल था जिसका जाना मृत्यु का सूचक एवं आमन्त्रण था उसकी उपस्थिति ने मेरे मन के लिजलिजेपन को दूर किया उसकी वजह से मै मृत्यु के भय से मुक्त हो सका। सम्मान और अपमान का सही प्रयोग करना सीख पाया।
मुक्त होने और न होने के बीच उसने मुझे उलटा लटका दिया कई दफे फिर मै लोगो के उलटे पैर देख पाता जो सफलता की तरफ तेजी से बढ़ते मगर दोस्तों से दूर होते चले जाते ऐसे अनगिनत किस्से है जब उसने मुझे किताबी सच/झूठ/पाप/पुण्य को खारिज करने की वजह दी और बताया कि इन सबके होते सबके अपने अपने वर्जन।
वो मेरे मन में बैठा मेरा अच्छा यार था जिसकी जब भी याद आती है तो फिर मै थूक देता सारी ग्लानि और अपराधबोध निगल जाता सामाजिक पशुता का अपमान। उसकी वजह से मै लिख/कह पाता हूँ पूरी बेशर्मी के साथ बस मै जैसा हूँ वैसा ही हूँ मुझे माफ़ ही करों दुनियावी दोस्तों ! मै तुम्हारे किसी काम का नही हूँ और इस दौर में बिना काम के लोगो की जगह क्या तो फेसबुक पर है या फिर......कहां थी कह नही सकता !

'यारबाश मन'

© डॉ.अजीत

Monday, September 15, 2014

कलकल

परसों सुबह तुमसे बात करने का मन था कल दोपहर तुम्हें फोन किया आज सुबह एस एम एस। ये तीन दिन सतयुग,द्वापर और त्रेता युग के अंक थे जिन्हें कलयुग में महसूस किया है मैंने। तुम और तुम्हारी बातें वैसे तो युगबोध से परे की चीज़ है मगर तुम्हारी बातों में एक यात्रा भी शामिल है जो निर्वात में झूलती रहती है जहां गुरुत्वाकर्षण भी विपरीत व्यवहार करता है। मै भी कहां गणित विज्ञान आध्यात्म और दर्शन में तुम्हे तलाशता फिरता हूँ जबकि तुम बैठी हो एक निर्जन नदी के किनारे थोड़ी अनमनी सी अपने सूक्ष्म मनोविज्ञान के साथ।तुमसे मिलने नंगे पाँव आना चाहता हूँ मगर मेरे पैरों में वक्त की घिसी हुई चप्पल है जिसे टूटने तक छोड़ा नही जा सकता।
कल रात तुमसे बात हुई थी और आज सुबह मेरी स्मृति लोप हो गई यह बातों के सम्मोहन का नही वक्त की जरूरत का खेल है मेरे-तेरे बीच में यह वक्त आता ही रहा है आड़ा-तिरछा जैसे घने जंगल में बांस फंस जाते है आपस में।
आज दोपहर मैंने तुमसे मिलने का वक्त तय किया था मगर सोचने भर से यदि मुलाकातें हो जाया करती थी तो हम साथ होते हमेशा के लिए। मै आज फिर दिशाशूल का शिकार हो गया हूँ इसे तुम एक अंधविश्वास भरा बहाना समझ सकती हो तुमसें मिलने की भविष्यवाणी कोई ज्योतिष का दैवज्ञ भी नही कर सकता उसकी एक बड़ी वजह यह है कि तुम ईकाई न होकर दहाई हो और मै एक विषम राशि।
कल शाम तुम्हे एस एम एस भेजने के बाद बहुत देर तक मै अनन्यमयस्क बैठा रहा आज सुबह मेरी तन्द्रा टूटी फिर सोचने लगा मै भी कहां तुमसे बात करने के लिए समीकरण साध रहा हूँ तुमसे बात करने के लिए फोन की नही मन के कान की जरूरत है मिलने के लिए अवसर की नही अनायास संयोग की जरूरत है फिर सबसे बड़ी बात जहां जरूरत बीच में आ जाती है वहां तुम मुझसे उतनी ही दूर खिसक जाती हो जितनी जरूरत की लोच होती है।
ठीक है आज सुबह से तुमने बात करना मिलना स्थगित करता हूँ अनंत समय के लिए मेरा पता पडौस के बच्चे की जेब में मिलेगा यदि तुम मिलना या बात करना चाहो तो उससे सम्पर्क कर सकती हो वैसे यह भी एक किस्म की शर्त ही है और शर्तो पर रिश्तें कहां पैर चल लाते कभी...खैर ! जो चाहों समझ सकती हो तुम्हारी समझ फिलहाल एक सबसे प्रखर चीज़ है जिसकी मै बेइंतेहा कद्र करता हूँ...!!!

'कल-आज-कल'

© अजीत

Sunday, September 14, 2014

ख्वाब आवारा

हमने कुछ सांझा ख़्वाब देखे थे ये खुली आँख के  ख़्वाब नही थे कम से कम। इन ख्वाबों में वादों की सच्चाईयां भले ही न रही हो मगर जज्बातों की गहराईयां जरुर शामिल थी। ये कुछ ऐसे सांझा ख़्वाब थे जो हमने-तुमने आधे-आधे बुने थे और शायद ये आज तक इसलिए अधूरे रहे गए है। तुम्हारी पलकों की चमक आज तक उतनी ही गहरी है भले ही इनदिनों काजल बदरंग पड़ गया है। एक अरसा हो गए मुझे कोई ख़्वाब आए एक दौर वो भी था जब जून की दोपहर में एक थकन भरी नींद में भी तुमसे ख्वाबों की उस मुंडेर पर बतकही हो जाया करती थी जहां इन दिनों परिंदों ने भी आना छोड़ दिया है।
पिछली सर्दी में तुम्हें सोचता रहा डेढ़ बजे तक।उम्मीद थी कि बाकि बची बातें ख्वाबों में होगी मगर हैरत की बात  उस रात मुझे गहरी नींद आई सुबह एक मलाल भी था तुमसे न मिल पाने का मगर उस दिन के बाद  उतनी गहरी नींद कल तक नही आई आज शायद आ जाए क्योंकि जब तुम्हारे बारें में सोचता हूँ तो नही याद आती मुझे जमाने की बेरुखियाँ खुद की नाकामी के किस्से।यादों की कश्ती पर तुम्हारी वादों बातों की पतवार ले निकल पड़ता हूँ उस घने जंगल में जहां हमनें ख्वाबो में नदी के किनारे चलते चलते हंसी के बीज बोए थे वो अब घने दरख्त बन गए होंगे मगर अब वो भी हमारी तरह  बेहद उदास दिखते होंगे शायद...उन रास्तों पर तुम्हारे निशाँ अब भी बचे होंगे क्योंकि अब मन के उन वीरान रास्तों से कोई गुजरा नही है अरसे से।
हमारे सांझा ख्वाब कुछ दिन तक उस गुलमोहर की टहनी पर टंगे थे जिसे नीचे बैठ हम सुस्ताएं थे दो-दो लम्हा...!
ख़्वाब देखना जरूरी लगता है, कभी कभी ख्वाबों में जीना जितना मुश्किल है उतना ही आसान है ख्वाबों की आस में जीना साल में एक दफा  तुम्हें,तुम्हारी बातों को बड़ी शिद्दत से याद करता हूँ ताकि तुमसे ख्वाबों में मिलकर कुछ अधूरे सवाल हल कर सकूं जमा-नफ़ी गुणा भाग के नुक्ते सीख सकूं तुम्हें देख सकूं बेफिक्र और सूफी मेरे इतने मतलब शायद तुम्हें रोकते है ख्वाबों में आने से या फिर एक इतवार भी मेरे हिस्से नही आता है तीन सौ पैसठ दिन में...!
तुम्हारी यादें गहरी नींद की सांत्वना भेज देती है जिसके सहारे तुम्हें याद करता हूँ साल भर मगर तुमसे ख्वाबों में मिलें तो अरसा हो गया है तुम्हारे ख्वाब मुझसे अलहदा है जानता हूँ इसलिए कभी नही जाता तुम्हारी पलकों तक लौट आता हूँ हर बार तुम्हारे दर से चुपचाप बस इसी उम्मीद पर कि कभी ख्वाबों में तुमसे जरुर मिलना होगा यह भी ख्वाब का छोटा ख़्वाब है जिसे छोड़ आया हूँ इस बार तुम्हारे सिरहाने....!

'ख़्वाब कुछ आवारा'

© अजीत 

दोपहरी प्रवचन

तनाव अवसाद रिक्त तिक्त हृदय इन सब का चयन मेरा था नही चाहता था बेवजह खुश रहना उदासी से मिलती थी प्राण ऊर्जा दुनिया के तमाम ऊबे हुए भगौड़े लोग मेरी रूचि का विषय थे असफल लोगो में मुझे एक लय दिखती थी जो सफल लोगो में कभी नजर नही आई।
जीवन में प्रेम के इतर भी बहुत से नीरस बातें थे जिन्हें बिना नियोजन जीने में मेरा पुख्ता यकीन था आत्म आलोचना का सुख हमेशा निंदा से भिन्न और आस्वादी भी लगता था।
कहीं पहूंचने कुछ पाने कुछ करने में मेरी कोई दिलचस्पी नही थी दिन भर एक ही मनस्थिति में एक ही जगह बैठा रहता कभी बिन बताए घर से निकल पड़ता एकांत में कुछ ही पल अर्थपूर्ण निकाल पाता बाकि एकदम निपट निठल्ला जीवन जीने के आदत से विकसित हो गई। मै न दुखी था न विक्षिप्त।
आसपास लोगो में पसरी कुछ करने की जिजीविषा और उनकी लम्बी चौड़ी योजनाएं  मेरे लिए कभी अभिप्ररेणा विकसित न कर पाती हमेशा खुद को खुद ही खारिज करता हुआ मै जीता था एक बेतरतीब जिन्दगी।
सलाह नसीहत से बचता अपने ढब की इस जिन्दगी को जीने का निर्णय और चयन मेरा था इन सब के बीच कभी फूट पड़ती थी कोई कविता या कुछ कहानी की शक्ल में बतकही जिसे असाहित्यिक लोग बड़ी रूचि से पढ़कर मेरा मूल्यवान होना सिद्ध कर देते थे।
दरअसल, मूल्यवान होना बड़ी खतरनाक चीज़ एक बार अगर ऐसा प्रतीत करवा दें तो फिर दुनियादारी में फंसे लोगो की अपेक्षाओं पर टंगे रहो उम्र भी किसी से भले किसी बुरे बन जीते रहो एक अपेक्षाबोधी जिन्दगी।
बंधन एक शाश्वत झूठ है जिसके न होने पर होने से अधिक पीड़ा होती है दिल जुड़ते और टूटते है इसी कारीगरी में मुझसे कई खिलोने टूट गए जिनका मुझे आज भी मलाल है।
कुल मिलाकर लब्बोलुआब यह है कि जीवन के सापेक्ष चलना तटस्थता जैसा ही है जिसमें आप वहां होते है जहाँ होते नही है और जहां होते है वहां होने का कोई अर्थ नही होता है...खैर ! अब जो है सो है काहे इन उलझी उलझी बातों के चक्कर में दुनिया की चिढ मोल लेना दुनिया गोल है और उसे गोल गोल बातें पसंद नही है सीधा कहो मगर एक लोकप्रिय सच कहो बिन सम्पादन के लोग शायद ही आपको कभी स्वीकार कर पाएं। इति

'दोपहरी प्रवचन'
 © अजीत

Friday, September 12, 2014

फर्ज कर लेते है

चलो फर्ज़ कर लेते है कि तुम्हारी मुझमे महज़ बौद्धिक दिलचस्पी है निजता के प्रश्न भी छोड देते है क्योंकि तुम अपनी आंतरिक ऊर्जा को सदैव प्रज्वलित रखने के लिए बाहर की दुनिया में सम्बन्धों की लकडियां बीनने निकली हो इसलिए तुम्हारे लिए उनकी उपयोगिता रिश्तों के जलनें मे है शायद यही एक वजह है कि सतत अपने मतलब की बातें तुम मेरे लिखे/कहे मे तलाश लेती हो। मन बुद्धि के फेर में मै एक आसान आब्जेक्ट हूं जहाँ तुम्हे दिल और दिमाग दोनो की खुराक मिल जाती है।

कल रात मैने एक ख्वाब देखा जिसमें तुम कोई सवाल नही कर रही हो बस मुझे देखे जा रही हो अपलक एक बार तो मै सोच मे पड गया कि ये तुम ही हो या कोई और है मगर फिर तुमनें बाल सुलभ जिज्ञासा से कहा क्या सच मे चांद भटके हुए प्रेमियों को पनाह देता है तब मै समझ पाया कि ये तुम ही हो...तो इन दिनों तुम चांद की पडताल कर रही हो मैने हंसते हुए कहा फिर तुमने चांद की तरफ इशारा किया और चुप हो गई।

इस चुप्पी में एक बारीक पिसी हुई फिक्र शामिल थी तुम्हें पहली बार यह लगा था कि शायद मेरे पास कहने के लिए कुछ अलांकारिक शेष नही बचा है मेरी बातों की शास्त्रीय एवं दार्शनिक गुणवत्ता कमजोर पडती दिखी थी तुम्हें...! हां यह सच है कि अब मै रीत चुका हूं और बीत रहा हूं हरफ-दर-हरफ।

तुम्हें मुझसे निराश देख मुझे थोडी सी निराशा जरुर होती है मगर फिर मै हंसता भी हूं मन ही मन क्योंकि मेरा बीतना या रीतना तो पहले दिन से ही तय था हां तुम अपनी अंजुरी में कितना भर पायी हो मुझे यह बता पाना थोडा मुश्किल काम है मै आचमन के जल सा बमुश्किल ही तुम्हारे कंठ तक पहूंचा हूँ कभी।

चलो फर्ज़ कर लेते है कि जल्दी तुम विकर्षण की प्रक्रिया का हिस्सा बनोगी तुम्हें मेरी बातों में एक थके हुए चुके हुए शख्स का आलाप दिखेगा और एक ही कक्षा में घूमते हुए निष्प्रयोज्य उपग्रह की तुम्हें मै बेहद बोझिल और नीरस लगने लगूंगा।

यह फर्ज़ कर लेना गणित के सवाल को हल करने जैसा विज्ञान सम्मत नही है फर्ज करने के लिए खुद को टटोलना/खरोंचना पडता है मन बागी है वो मानता नही है मगर फिर अंत में हार कर दिमाग की शरण मे आकर यात्रा के बहलावें में कुछ नए पडाव की आस में खुद को तैयार करना पडता है...तुम्हारी फर्ज़ करने की तैयारी पर मेरा यह आखिरी प्रवचन है क्योंकि तमाम ज्ञान बघारनें के बावजूद मै आज तक यह नही समझ पाया कि कैसे तुम्हें विस्मृत कर लिखी जा सकेंगी कविताएं कहानी या गज़ल... कैसे नदी की किनारे टहलते समय तुम्हारी बातों को कंकर बना फैंक सकूंगा मै जलधारा के बिचो बीच....कैसे उन दरख्तों से आंख मिला सकूंगा जो सच्चे गवाह हमारे सत्संग के..... ठीक यही सब सोचता हुआ मै गाने लगता हूं कबीर को सोचने लगता हूँ संसार की नश्वरता के बारें फिर मोह माया के जंगल मे दौडता हूँ हताश, बैचेन ठीक उस वक्त जब तुम सोच रही होती हो फ्लैट,कार,प्रमोशन,ईएमआई,अप्रेजल के बारे में।

चलो फर्ज़ कर लेते है कि शरीर नश्वर है मन चंचल है और संसार मिथ्या तुम्हें सोचते-सोचते कई बार सिद्धों सा संवाद होने लगता है तुम्हारे लिए मै किसी मतलब का शायद ही कभी रहा हूं मगर हां न चाहते हुए भी मैने तुमसे सीख लिया तटस्थ रहना वो भी बिना ध्यान-ज्ञान के।

तुम सांसारिक हो और मैं कभी अघोर सांसारिक तो कभी अघोर विरक्त फिर हम दोनों एकांत सिद्ध होने की प्रबल सम्भावनाएं रखते है चलो फर्ज़ कर लेते है..!!!


‘फर्ज़-कर्ज़ की पहली ईएमआई’

Tuesday, September 2, 2014

पहली सर्दी

ये सर्दी का पहला हफ्ता अपने आने के इन्तजार में है धूप ने नमी को सोखने के जतन सूरज से गुरुमंत्र के रूप सीख लिए है। तेरी गली के नन्हे कुकरमत्तो ने सूरज की तरफ करवट ली और तुमने छत पर पहली दफा सूरज से आँख मिलाई तो मन पर बरसात ने जो काई जमाई थी वो सूख कर उखड़ने लगी मन की सख्त दीवारों पर इस धूप के स्पर्श ने उनका रेत झाड़ दिया।
अभी तुम छत से नीचे उतरी भी न थी कि सीढ़ियों पर ख्याल आया उस अधूरे स्वेटर का जो बिन नाप लिए किसी एक सर्दी में तुमने बुनना शुरू किया था उसके फंदे तुम भूल गई हो और शायद अब उस नम्बर की सलाई भी न मिल पाएं मगर उस अधूरे स्वेटर को इस सर्दी की धूप में पूरा करके कम से कम तुम उस अधूरी मानसिकता से निकल सकती हो जिसमें रंगो डिजाइन की उलझन नही बल्कि स्मृति के विषम फंदे उलझे पड़े जिसमें आस्तीन  छोटी पड गई है तुमने अपनेपन की कुछ बटन इस अधूरे स्वेटर के लिए चुने थे अब उनके भी कोने टूटने शुरू हो गए है।
यह गुनगुनी धूप तुम्हारे मन की शिकायतों को सेंक कर शायद पका दें फिर ये तुम्हें तकलीफदेह नही लगेंगी फिर तुम अपनी जीवन के विषम रंगों में रंगी अपनी उँगलियों को मन के ठहरे हुए पानी में साफ़ करके फिर से उन सलाइयों में फंदे पिरोओगी जिनकी लड़ाई से एक अधूरा स्वेटर बनना है।
इस जाड़े की इस पहली धूप में दोपहर बाद यादों के सन्दूक से निकालना होगा वो दो रंगी ऊन का गोला जिस पर नमी चढ़ आई है फिर बुनने होंगे कुछ बेवजह के फंदे, सलाइयों के नम्बर के साथ भी समझौता करना पड़ सकता है मगर तुम्हारा मन जब गुनगुनाता हुआ बुनेगा यह स्वेटर तो इस उधड़े हुए रिश्तें की तुरपाई भी होगी इस स्वेटर के बहाने यह बात मुझे आश्वस्त करती है और इसी बिनाह पर अगली सर्दी तक मै खुद आऊंगा चाय के बहाने यह स्वेटर लेने जो तुम बुन रही हो कई सालो से यह कोई वादा नही बस अधूरेपन से ऊबे एक अधूरे मन की अभिलाषा है।

'सर्दी स्वेटर और अधूरा मन'

© अजीत 

दुपट्टा

तुम और तुम्हारा दुपट्टा....


एक मुद्दत से तुमने अपना दुपट्टा नही बदला इसकी सोंधी सी महक में पहाड की उन दुर्लभ वनस्पतियों की गंध शामिल है जिन्हें फूल समझा जाता रहा है। तुम्हारी गर्दन के आसपास लिपटे हुए कॉटन के इस दुपट्टे का अनुराग देख मुझे उन अनजान बेलों की याद आती है जो मैने निर्जन रास्तों पर सूखे दरख्तों से लिपटी हुई देखी थी। यह महज सवा दो मीटर कपडा नही है बल्कि इसमें समाई हुई है कि एक छोटी सी दूनिया तुम्हारा कॉटन का दुपट्टा सच्चा गवाह है कुछ आवारा ख्यालों का, तुम्हारी तन्हा रातों का इसके उलझे हुए धागों में ईमान की खूशबू है और न जाने कितनी बार इसने तुम्हारे आंसूओं को पनाह दी है।

तुम सोच रही होगी ये कैसा मतलबी शख्स है जब भी देखो अपने हिस्से के सुख की बातें करता है अब मेरे दुपट्टे मे भी अपनी खोयी हुए खुशियां तलाश रहा है जबकि यह दुपट्टा बेहद मामूली है इसमे एक ही रंग की गुजाईश है तुमने कई दफा रंगरेज़ से कहा कि इसका रंग बदल दें मगर इस मुए पर चढता ही नही है कोई दूसरा रंग मुझे इसी लिए यह तुम्हारा दुपट्टा पसंद है।

तुम्हारी बेफिक्री के लम्हों में इसको जब उडता देखता हूँ तो इसकी उडान में एक हवा का झोंका मेरा भी होता है इस दुपट्टे की सबसे बडी खासियत यही है कि यह सोखना जानता है ढेर सारा दुख यह आंसूओं की नमी को भी ठंडक मे तब्दील कर देता है बिना तुम्हारी इजाजत के।

न जाने कितनी दफा तुम्हारे आंगन में इसको सूखते देखा इसे महज छू लेने से ऐसा लगता था कि जैसे स्पर्श की नदी तुम्हारे मुहाने तक चली आई बहती हुई मेरे एकांत के जंगल से। मैने न जाने कितनी दफा इसका प्रयोग रुमाल की तरह किया है तुम्हे शायद इसकी खबर भी न हो।

बस यही फिक्र मुझे होती है एक दिन यह भी हो जाएगा तार-तार इसलिए कहता हूँ इसे कम धोया करो कम किया करो प्रयोग यह महज कॉटन का दुपट्टा नही है बल्कि तुम्हारे वजूद का सच्चा गवाह है तुमने इसको खरीदा था बहुत मोल भाव के साथ उस तुम्हें भी अन्दाज़ा नही होगा कि एक कॉटन का अदना सा दुपट्टा किसी के लिए इतना महत्वपूर्ण हो सकता है दरअसल महत्वपूर्ण कोई वस्तु नही होती है उससे जुडी यादें उसे खास बना देती है।

आज भरी दुपहर में तुमसे ज्यादा तुम्हारे इस दुपट्टे की याद आई क्योंकि इसके स्पर्श और गंध में उन किस्सों के वरक खुलते है जिनकी बिनाह पर तुम्हें अपना समझा था आज तुमसे सिमटकर तुम्हारे दुपट्टे पर आ गया हूं अब इसे छूने की नही देखने भर की इच्छा रहती है चाहता हूं तुम रहो न रहों मगर मेरे सामने रहें तुम्हारा यह कॉटन का दुपट्टा है न अजीब पागलपन ! जो भी समझो तुम्हारी मरजी मैने कहा है अपना बीता सुख इस दुपट्टे के बहाने।


‘तार-तार जिन्दगी’

Monday, September 1, 2014

गणित

तुम्हारे मन की बातें सुनने के लिए अक्सर समाधिस्थ होना पड़ता है मन का अजीब खेल है यह वो सब सुन लेता है जो यह सुनना चाहता है इसलिए कई ऐसे बातें इसने ऐसी सुन ली है जो तुममे कभी कही ही नही अब उन बातों की तूलिका से ये रोज रात को एक स्याह चित्र बनता है सुबह देखता हूँ तो कई रंग मिलकर इंद्रधनुष के समानांतर आकृति विकसित कर रहें होते है खुद ब खुद।
तेरे मेरे दरम्यां कुछ अनकहे से किस्से है कुछ बोझिल रातें है जिनकी गवाही ले मै तुम्हारी आँखों में सुरमा लगाना चाहता हूँ तुम्हारी रोशनी मेरे लिए इसलिए भी ज्यादा जरूरी है क्योंकि तुम बहुत नजदीक का नही देख पाती हो।ख्यालों की अंगडाई से पड़ी तुम्हारे बिस्तर की सिलवटें गिनता हूँ उनमे कुछ बहुत गहरी है तुम्हारे जिद के जैसी।
इन दिन फिर से तुम्हें सोचता रहता हूँ  अपनी तमाम बुराइयों के बावजूद तुम्हें सोचने के मामलें कितना ईमानदार हूँ यह बात मुझे भी हैरत में डाल देती है
तुम इनदिनों मेरे बारें लगभग नही सोचती हो यह ख्याल हिचकी की गैरहाजरी में आता है। तुम्हारा साथ मुझे उन विश्वासों की तरफ ले जाता है जिनमें मेरा कभी विश्वास नही रहा है मगर तुम्हें सोचते हुए मै कभी प्रार्थना करता हूँ तो कभी संदेह से आसमान ताकने लगता हूँ।
सुनो ! कुछ दिनों के लिए तुमसे नाराज हो रहा हूँ  तुम्हारी बिना किसी गलती के यह एक तरीका है तुम्हारी यादों के चलचित्रों को धीमी गति से देखने का तुम इन दिनों में गणित पढ़ो शायद लघु दीर्घ समीकरणों को सिद्ध करने का कोई प्रमेय तुम सीख सको फिलहाल हमारें परिचय में एक सम्बन्ध में तब्दील करनें के लिए तुम्हारा जोड़ गुणा भाग में माहिर होना जरूरी है क्योंकि मुझे लिखने के सिवाय कुछ भी नही आता है कुछ भी तो नही...!

'कुछ आपबीती-कुछ जगबीती'