Monday, January 30, 2017

चाय की बातें

दृश्य एक:
सुबह की चाय पी रहा हूँ।चाय पीना एक सामान्य घटना है मगर चाय को महसूस करना एक विलक्षण अनुभव। चाय के ज्ञात अरोमा में बहुत सी गुमशुदा खुशबुएँ भी शामिल रहती है उन्हें महसूस करने के लिए बस नाक छोटी करनी पड़ती है यही कारण है मैं अपनी तमाम निपुणताओं के बावजूद तुम्हें खुद चाय बनाकर पिलाना चाहता हूँ। मुझे पता है मीठा तेज हो गया और अपनी अकुशलता छिपाने के लिए मैं दूध ज्यादा डाल दूंगा। मैं इतना बेख्याल और जल्दबाजी में रहूँगा कि अदरक अपना अर्क उबाल के बीच भी बचा कर ले जाएगा भले ही उसकी चाय की पत्तियों से कोई दोस्ती मरते दम तक न हो मगर वो मेरे हाथ की बनी चाय में अपना स्वाद नही छोड़ना चाहता है। क्यों? वो इसलिए क्योंकि उसे तुम्हारे कंगन और चूड़ियों की जुगलबंदी उसे उपजे संगीत की आदत जो लग गई है।
मुझे पता मेरे हाथ से बनी चाय औसत होगी मगर फिर भी तुम उसे बढ़िया घोषित कर दोगी और इस घोषणा के पीछे मेरी झूठी प्रशंसा शामिल नही होगी अलबत्ता तुम चाहती हो कि मै चाय के लिए किसी पर निर्भर न रहूँ जब दिल करे बनाकर पी लूँ इसलिए तुम चाय की गुणवत्ता पर कोई चर्चा नही करती जबकि मैं तुमसे कुछ टिप्स की उम्मीद लिए बैठा हूँ। मैं तुमसे निराश नही होता हूँ बल्कि चाय के अपने औसत से भी कम स्वाद की प्रशंसा को तुम्हारे बिन रहने की आदत विकसित करने के तौर पर ग्रहण करता हूँ तुम्हें ये बात अच्छी लगती है ये बात मुझे तुम्हारी चाय की आख़िरी चुस्की बताती है।

दृश्य दो:
आज चाय तुमने बनाई मैं चाहता था तुम्हारे साथ किचन में खड़ा रहूँ मगर तुम्हें न जाने क्यों ये शिष्टाचार विरुद्ध लगता है तुम्हें मेरा इस कदर आम होना पसन्द नही है शायद की मै सिंक में हाथ धोकर तुम्हारी ही चुन्नी से हाथ पूँछ लूँ या फिर उचक कर वहीं किचन की स्लेप पर बैठ जाऊं एकाध बार मैंने ऐसा किया तो तुम्हें मेरी यूं बैठकर टांग हिलाना कतई पसन्द नही आया इसलिए कहा चला बैठो मैं वही आती हूँ बनाकर।
ये हमारी पसन्द का पहला मगर बड़ा प्यारा टकराव है जिसे मै टालता नही हूँ और अक्सर वही किचन में खड़ा हो जाता हूँ और कुछ ऐसी हरकतें करता हूँ जो तुम्हें पसन्द नही है मसलन मैं सिंक के दोनों टैप खोलकर बेवजह पानी चेक करता हूँ और दोनों हाथ गीले कर लेता हूँ पिछले दफा तुमनें चिढ़कर कहा भी था पिछले जन्म में पलम्बर थे क्या?
मैं यही नही रुकता फिर मसालों के ब्रांड पर अपनी बिन मांगी राय देने लगता हूँ ये अपने आप में कितनी बेतुकी बात है कि मै कहूँ की छौंक के लिए तुम कौन सा तेल यूज़ करती हो? जबकि गैस पर चाय चढ़ी हो। पसन्द तो तुम्हें मेरा लाइटर को बेवजह कट-कट करके चलाना भी नही है इसलिए मेरे हाथ से लाइटर लेकर कहती हो बिस्किट कौन से लोगे बेकरी के या सिम्पल वाले जबकि तुम्हें पता है मुझे बिस्किट नही पसन्द है मैं तुम्हें चिढ़ाने के लिए बिस्कुट बोलता हूँ इस पर तुम हंसती हो और किचन में की गई मेरी सारी हरकतों को माफ़ कर देती हो।
मैं कहता हूँ कि मै केवल नमकीन लूँगा इस पर तुम व्यंग्य करते हुए कहती हो ये चाय है बाबु!शराब नही इसे चाय के अंदाज़ से पीना पड़ेगा।

दृश्य तीन:
हम चुपचाप एक दुसरे के चाय का कप पकड़ने के तरीके को देखते है। मेरी ग्रिप तुमसे थोड़ी कम 'क्लासी' किस्म की है उसमें एक देहातीपन है जो एक बढ़िया ड्राइंग रूम में छिप नही पाता है। तुम मुझे चमच्च से नमकीन देती हो मगर मै हाथ फैलाने में थोड़ा संकोची हूँ मगर फिर भी हथेली में चमच्च लायक जगह बना लेता हूँ तुम्हें ये बात अच्छी लगती है कि मेरे हाथ कांपते नही है।
मैं चाय की तारीफ़ नही करता और मुझे पता है तुम तारीफ़ सुनना नही चाहती क्योंकि तुम्हें पता है तुम चाय बनाने में इस कदर माहिर हो कभी खराब चाय बना ही नही सकती।
पिछली दफा दूध नही था तो तुमनें ब्लैक लेमन टी बनाकर पिलवाई थी, मुझे याद है।अमूमन मुझे चाय हेल्थ के एंगल से पीने की आदत नही मगर उस दिन सच में वो चाय डिटॉक्स करने वाली थी सुबह के हैंगओवर को उसने ऐसा विदा किया कि मैंने साधिकार कह दिया आज नाश्ता भी यही करूँगा वरना पहले ये सोच रहा था आज चाय पीने को कैसे मना करूँगा और सुबह सुबह तुमसे लेमन सोडा बनाने के लिए कहता तो तुम तुरन्त समझ लेती कि बीती रात ज्यादा शराब पी है मैंने।

चाय की बहुत सी बातें है मगर कुछ बातें ऐसी है जिन्हें बताने का दिल करता है और कुछ ऐसी जिन्हें छिपाने को।

© डॉ.अजित

Friday, January 20, 2017

उसने कहा था- दो

उसने कहा था
रिश्तों की कभी नैसर्गिक मौत नही है !

तब मैने कोई प्रतिवाद नही किया था शायद तब मै जीवन के नशे में था इसलिए मौत के विमर्श में उलझना नही चाहता था। जीवन और मृत्यु के प्रश्न वैसे भी बेहद निजी किस्म के होते है। मृत्यु की महानता पर मुग्ध हुआ जा सकता है मगर एक घटना के तौर मृत्यु बाह्य तत्वों के लिए कब सुखद रही है भला?

इन दिनों मैं सोचता हूँ नैसर्गिकता आखिर क्या है? क्या जीवन में घटनाक्रमों को सहजता से घटने देने में यकीन रखना नैसर्गिकता है या फिर कुछ मान्यताओं के मध्य किसी आत्मीय रिश्तें को अकेला छोड़ देने को भी  नैसर्गिक कहा जा सकता है।

दिल दरअसल बड़ा मतलबी होता है वो दिमाग के तमाम सवालों को टालता रहता है उसे साथ चाहिए शायद कोई एक साथी भी जिसके साथ वो हंस सके रो सके। दिमाग की अपनी गणनाएं है वो रिश्तों के भविष्य के प्रश्नों में उलझाकर वर्तमान में उस मौत की भूमिका रच देता है जिसको बाद अप्रत्याशित समझ खुद को कोसा जा सकता है।

किसी भी रिश्तें की नैसर्गिक मौत शायद इसलिए नही होती क्योंकि हमारा चुनाव उसे दुखांत के जरिए विस्मृत करने का होता है या अस्तित्व का हस्तक्षेप कुछ ऐसी निर्मितियां बनाता है जिसे सोचकर विलग होने के कारणों का औचित्य सिद्ध किया जा सके।

नैसर्गिक न होना औचित्य के लिए अनिवार्य है यदि मृत्यु नैसर्गिक हो तो शोक की तीव्रता में सार्थकता के स्तर पर अंतर आ जाएगा। जो छूट गया है उसमें उस छूटे जाने की आत्मप्रवंचना जीवनपर्यन्त प्रताड़ित करती है। किसी रिश्तें की नैसर्गिक मौत न होने का एक अर्थ यह भी निकाला जा सकता है उसमें दीर्घायु की परिकल्पना पहले दिन से ही नही थी।

जिस साथ का छूटना जन्म के साथ आया हो उसके लिए कुछ भी अनैसर्गिक नही है मनुष्य की चाह के रूप में वो एक नियोजित हस्तक्षेप है वो समानान्तर हमारे साथ पलता है। एकदिन स्वतः आत्मघाती हो हमारी सबसे प्रिय वस्तु को हमसे मांग लेता है और हम अतिशय परिपक्व होने का अभिनय करते हुए इस सच को स्वीकार कर लेते है कि ये तो एकदिन होना ही था।

रिश्तों की नैसर्गिक मृत्यु नही होती है इसमें एक पंक्ति यह जोड़कर कि ये तो एकदिन होना ही था हम मृत्यु की वेदना कम नही कर सकते मगर इसके अलावा और बचता भी क्या है जब देखते ही देखते दृश्य से एक चित्र नेपथ्य में चला जाता है और स्मृतियां सही गलत के मुकदमें में हमे आजीवन कारावास की सजा सुनाकर खुद स्मृतिलोप को चुन लेती है।

© डॉ.अजित

#उसनेकहाथा

Thursday, January 19, 2017

उसने कहा था-एक

उसने कहा था
हर रिश्ता एक एक्सपायरी डेट के साथ आता है !

तब ये बात बीमारी में कोई एक्सपायरी डेट की गोली खाने के बाद की दुश्चिन्ता जैसी लगी थी। मै रिश्तें के अवसान को लेकर इतना अधिक अति संवेदनशील हो गया था कि मैंने अपनी सारी क्षमता इस कथन को खारिज़ करने में लगा दी थी।

मैंने कहा रिश्तों की आयु निर्धारित करना संभावित पलायन की भूमिका है मैंने इसे एक बौद्धिक चालाकी करार दिया साथ डरे हुए बड़प्पन के साथ यह कहा रिश्तों के एक्सपायरी जैसे मुर्दा शब्द क्यों जोड़ना जिस दिन तुम्हें लगे रास्ते बदलने है मुझे साधिकार अन्यत्र दिशा में चला जाऊँगा।

साधिकार कहने की बुद्धिमानी एक कोरा गल्प थी क्योंकि जिसको इतना अधिकार दिया जाता है क्या उसका साथ छोड़ने की हिम्मत बच पाती है? शायद नही।

रिश्तों की एक्सपायरी डेट आखिर क्या हो सकती है?और क्या ये सच में होती है या होनी चाहिए और यदि इसका अस्तित्व है तो फिर रिश्तों के जरिए हम स्वपीड़न या परपीड़न का हिस्सा क्यों बनते है।

ये कई सवाल थे जिनके जवाब मैंने तलाशने की बहुत कोशिश की मगर दवाई के पत्ते की तरह जब तक मै आख़िरी मंजिल तक पहुंचा अस्तित्व के स्तर पर मैं उघड़ चुका था। मेरे बारे में कुछ अनुमान लगाए जा सकते थे मेरा पता गुमशुदा था और लिखवाट के जरिए मेरी उपयोगिता पर कुछ सांत्वना भरी बातें कही जा सकती थी।

रिश्तें जब एक्सपायर होते है तो उनको रिसाइकिल नही किया जा सकता है ये रिश्तों की सबसे खराब बात है वो जीवन में लटके रहते है बेताल से। मुझे पहले लगता था कि रिश्तें अस्तित्व के एक बड़े नियोजन का हिस्सा है मगर इस नियोजन में जब ये एक्सपायरी वाला हिस्सा शामिल हुआ तब मुझे ये एक बेहद लौकिक और मानवीय उपक्रम लगा।

अस्तित्व रिश्तें हमे सौंपता है और हम अपनी व्यक्तिगत सीमाओं के चलते उनकी मौत का एक तयशुदा सीमांकन अवचेतन में पहले ही दिन कर देते है। इससे एक बात लगभग प्रमाणित होती है मनुष्य रिश्तें सम्भालने में कमजोर है। विचित्र बात यह कि इस कमजोरी को एक ताकत के रूप में देखने की आदत मनुष्य ने विकसित कर ली है।

चलो मान लेता हूँ कि हर रिश्ता एक एक्सपायरी डेट के साथ आता है मगर वो डेट जो भी तय करता है वो हमसे कभी मशविरा नही करता यदि करता भी है तो हम अनुरागवश उस बात को छिपाते चले जाते है।

हर रिश्ता प्रकट और अप्रकट के मध्य कुछ जोड़ तोड़ के साथ जीता है शायद यही से उस एक्सपायरी डेट का कैलेंडर निकलता है जिस पर मुक्ति की शक्ल में निर्वासन की तारीख छपी होती है।

#उसनेकहाथा

Sunday, January 15, 2017

इंतजार

दृश्य एक:
लैम्पपोस्ट के नजदीक एक युवा लड़की खड़ी है। वो आसमान की तरफ देखती है और कहती है इसकी क्या जरूरत है यहां।
इस बात के दो अर्थ निकाले जा सकते है क्या तो वो लैम्पपोस्ट की बात कर रही है या फिर आसमान की। आसमान की जरूरत पर वही सवाल खड़ा कर सकता है जिसके पैरो तले की ज़मीन तेजी से खिसक गई हो। लैम्पपोस्ट की जरूरत उसे नही हो सकती इस बात इस इनकार नही मगर जब उसने आसमान की तरफ देखा उसकी एक आंख आसमान पर थी और एक लैम्पपोस्ट पर।
जब मैंने उससे पूछा तुम किसकी जरूरत न होने की बात कर रही हो?
उसने कहा तुम्हारी।
मुझे लगा मैंने कोई अवांछित हस्तक्षेप किया है उससे सवाल पूछकर इसलिए मैंने दोबारा उससे बस इतना पूछा क्या सच में मेरी जरूरत आसमान या लैम्पपोस्ट जितनी नही है?
उसने कहा जरूरत में सच की शर्त या शपथ लगानी मैं गैर जरूरी समझती हूँ।
उसके बाद मैंने कोई सवाल नही किया क्योंकि अब सवाल करने का मतलब था मै जरूरत के बिंदु पर अटक गया हूँ।

दृश्य दो:
यह सेंट्रल लन्दन का रेलवे स्टेशन है। एक कपल मेरे नजदीक खड़ा है हमें एक ही ट्रेन में सवार होना है। इस तरह से हम एक नजदीकी वृत्त में हम तीनों इंतजार में है।लड़की लड़के से पूछती तुम्हें इंतजार करना कैसा लगता है?
लड़का मुस्कुराता है और कहता है जिस इंतजार में तुम्हारा आना शामिल हो उस इंतजार में ख़ुशी शामिल रहती है इसलिए वो अच्छा लगता है।
लड़की इस जवाब से प्रभावित नही दिख रही है वो कहती है ये तो बड़ी लोकप्रिय सी बात हुई। इंतजार एक साथ अच्छा या बुरा दोनों लग सकता है क्या? वो नया सवाल पूछती है।
लड़का कहता है इंतजार में अच्छे या बुरे लगने से ज्यादा मिलना महत्वपूर्ण होता है सारी अधीरता उसी की होती है।
लड़की फिर से इस जवाब से कोई ख़ास संतुष्ट नही दिख रही है इसलिए वो कहती है तुम इंतजार को टाल रहे हो इसका मतलब तुम्हें इंतजार से डर लगता है।
हम्म..! लड़का इतना कहकर चुप हो जाता है।
दोनों मेरी तरफ देखते है शायद उन्हें पता है कि मै उनकी बातें सुन रहा हूँ।
मैं कहता हूँ ट्रेन राइट टाइम नही है।
लड़की कहती है कि आपने यह क्यों नही कहा ट्रेन लेट है?
लड़का कहता है अभी उद्घोषणा हुई है शायद ट्रेन समय से आ रही है
लड़की कहती है तुम शायद न कहते जो ज्यादा ठीक लगता मुझे।
उसे मेरे जवाब की प्रतिक्षा है मैं मुस्कुराता हूँ और ट्रेन का हॉर्न सुनाई देता है।
ये संयोग इंतजार का सबसे सुखद पल था।

©डॉ.अजित

Sunday, January 8, 2017

हाथ

तुम्हारा हाथ जब हाथ में था ऐसा लगता था साक्षात् ब्रह्म से आश्वस्ति उधार मिल गई है।
तुम्हें देखते हुए कम से कम मौत के बारें में नही सोचा जा सकता था। तुम्हारा हाथ थामें ऐसा लगता जैसे पहाड़ ने थोड़ी हिम्मत भेज दी वो भी बिन मांगे।
तुम्हारे स्पर्शों ने मेरी रूह के जाले साफ़ किए तो तुम्हारे साथ ने मेरे अस्त व्यस्त वजूद को किताबों की तरह ठीक किया था।
जब तुम जाती तो मन करता हिम्मत करके कुछ लम्हों के लिए और रोक लूँ मगर इतनी हिम्मत नही जुटा पाया इतना बुझदिल तुम मुझे हमेशा समझ सकती हो।
दरअसल,तुम्हारा साथ हमेशा चुराना पड़ता सो मेरी थकन चिंता और बैचेनी हमेशा चोर के जैसी ही रही मैंने कुछ नही कमाया मगर मेरे खोने का भय हमेशा बड़ा था।
हमारी रेखाएं एक दुसरे के मन के तापमान को भलीभांति जानती है उनकी हमसे अच्छी जान पहचान है। एकदिन तुम्हारे हाथ ने मेरे हाथ से कहा चल झूठे! तब से मेरे हाथ का आत्मविश्वास थोड़ा कमजोर पड़ गया है वो तुम्हारी हथेली तलाशता है मगर छिप छिप कर।
तुम्हारी खुशबू का एक क्लोन मेरे जेहन में बसा है मगर उससे मिलनें की इजाज़त मुझे भी कब है जब जब तुम्हारी बातें सोचता हूँ तुम्हारी खुशबू मुझे कहती है दिमाग की बजाए दिल की सुनो फिर तुमसे मुलाक़ात होगी।
जब जब तुम गई मैंने सोचा ये तय है पहले से मगर मेरा सोचना उतना ही सतही था जितना साहिल पे खड़े होकर तूफ़ान का अंदाजा लगाना इसलिए मेरे मन का एक हिस्सा हमेशा तुम्हारे साथ तुम्हारे दर तक गया जब तक तुमनें मन पर लौकिकता की सांकल न चढ़ा ली हो।
मेरी कुछ जान पहचान तुम्हारे कंगन बिस्तर तकिए और  शॉल से है कभी उनसे मेरी बातें करना तो वो मेरे बारें में कुछ अफवाहें तुम्हें चटखारे से सुनाएंगे।
हालांकि मुझे पता है आप ऐसा कभी नही करेंगी क्योंकि तुम ऐसा कोई काम कभी नही करती जिसका कोई हासिल न हो।
ये आप और तुम में मत उलझना दरअसल बात इतनी सी है कि तुम्हारी बहुत याद आ रही है इसलिए मैं औपचारिक शिष्टाचार और सम्बोधन भूल गया हूँ इसलिए
माफी चाहूंगा दोस्त।

'यादें दर ब दर'