Saturday, February 27, 2016

हीरो बनाम जीरो

ये एक खेदजनक बात थी कि हमारे नायक असल जिंदगी में बेहद अस्त व्यस्त थे। असल जिंदगी का यहां मतलब बेहद निजी किस्म की जिंदगी है इसलिए उनके नायकतत्व के साथ हमेशा कुछ अप्रिय प्रसंगों का सिलसिला चलता रहा।
व्यवस्था और अनुशासन बड़ी जटिल चीज है मूलतः मनुष्य एक अराजक प्राणी ही है हिंसा उसके अस्तित्व का बड़ा हिस्सा है। सिविलाईजेशन के चलते उसने अराजकता को छोड़ा है मगर एक हद तक ही।
तो क्या नायक हमेशा हमसे बेहतर होने या रहने के लिए बाध्य है? यह एक महत्वपूर्ण सवाल है। एक परिष्कृत मस्तिष्क चित्त और सम्वेदना के बावजूद कुछ कुछ हिस्सों में आदर्श बेहद क्रूरतम रूप से बिखर जाता है वहां सब कुछ अप्रत्याशित चीजों की स्थाई शरण स्थली है।
मैं नायक और नायकतत्व से एक सीमा के बाद एक सुरक्षित दूरी बना लेता हूँ ताकि जब मैं कुछ अंदरुनी सच का साक्षात्कार करूँ तब मेरा मन कोई प्रतिकार न करें।
टूटे बिखरे कमजोर होते इंसान की दुनिया में नायकतत्व एक अभिशाप जैसा है जिसके बोझ में उसकी पीठ झुकती जाती है और एकदिन सूखी लकड़ी की तरह आग में जलकर चटक कर टूट जाती है।
शिकायतें ऐसी चटक की ही ध्वनियों का एक औपचारिक दस्तावेज़ है जिसका पाठ हमें राहत भरी बैचेनी देता है।

'हीरो इन जीरो ऑवर'

Monday, February 1, 2016

भोजपत्र

स्मृतियों की प्रतिलिपियां एकत्रित कर रहा हूँ इनदिनों।
बात आवश्यकता की नही है इसलिए तुमसे कुछ भी पुनर्पाठ करने का आग्रह मैंने नही किया। मैं अतीत में अलग अलग मार्ग और माध्यम से उतरता हूँ क्योंकि जिस रास्ते से मैं तुम्हारे साथ आगे बढ़ा उस पर वापस लौटने की सुविधा नही है।
मैं कभी याद करता हूँ तुम मेरी किस बात पर पहली बार मुस्कुराई थी कब मेरे बेवकूफ़ाना सवाल पर खुल कर हंसी थी। तुम्हारी नाराज़गियों के किस्से मैं डाक टिकिट की तरह इकट्ठा कर रहा हूँ ताकि खुद के अलग होने के अहसास को जी सकूं।
स्मृतियों के आख्यान स्थाई नही होते है ये मनोदशा के हिसाब से अपना पाठ बदल लेते है ये बात मुझे उसदिन पता चली जब तुमनें एकदिन अचानक मुझसे पूछा था
'तुम मुझे किस रूप में याद रखना चाहते हो?' मैंने कहा था तुम्हें किसी एक आवृत्ति में बांधने के बारें में सोचा नही कभी। जानता हूँ इस जवाब से तुम थोड़ी निराश हुई थी क्योंकि मेरे लिहाज़ से भी यह एक सही जवाब नही था मगर इसका सहारा ले मैं तब तुम्हारी सम्भावनाओं का विमर्श कर रहा था। ये मेरी बड़ी गलती थी।
तुमसे मिलने के बाद सच कहूँ तो मैं कुछ अंशो में स्थगित हो गया हूँ और तुम्हारी स्मृतियां उसी स्थगन से छनकर मुझतक आती है। ज़िन्दगी के हिस्सों और किस्सों में तुम कहीं मेरी तरफ पीठ किए बैठी हो तो कहीं इतनी नजदीक हो कि मेरी छाया का आकार विस्तृत हो गया है।
इस बात तो मैंने तुमसें संकेतो में कहा भी मगर तुम शायद मेरे द्वन्द को समझ गई थी इसलिए जब मैं नदी का जिक्र करता तुम मुझे रेगिस्तान की मृगमरीचिका का वैज्ञानिक कारण पूछने लगती मैं समन्दर की मजबूरी जानना चाहता तो तुम क्षितिज की ख़ूबसूरती पर एक कविता लिखने का आग्रह कर बैठती।
तुम्हारी स्मृतियों की छायाप्रति मेरे पास थोड़ी अस्त व्यस्त जरूर है मगर सब की सब है इसलिए इनके दस्तावेजीकरण को लेकर आश्वस्त हूँ।
ऐसा करने की जरूरत क्या है? ये तुम्हारा पहला सवाल होगा जिसका जवाब इनदिनों इन्ही स्मृतियों के सहारे तलाश रहा हूँ मैं।

'स्मृतियों के भोजपत्र'