Thursday, April 28, 2016

बाथरूम

दो बाल्टी कोने में ऐसे बैठी है जैसे दो अनजान सखी हो। एक मग आधा पानी में ऐसे डूब रहा है जैसे साहिल पर खड़ी प्रेमिका ने उसकी तरफ पीठ कर ली और वो डूबने से पहले एकबार उसकी शक्ल देखना चाहता हो।
छोटी सी चार दीवारी में ओडोनिल की एक अंग्रेजी किस्म की खुशबू अकेली भटक रही है उसका खुशबू से कोई ताल्लुक नही लगता है हां वो बदबू की एक रसायनिक शत्रु जरूर है।
पीयर्स आधा घिस गया है वो पारदर्शी है मगर उसकी दोनों साइड पर दो अलग अलग बदन छपे हैं। एक रिन की छोटी टिकिया इस कदर उदास बैठी है जैसे उसे ससुराल में रोज़ सेवा कर कर के दम तोडना हैं।
हैंगर पर कुछ पुराने कपड़े सो रहें है उनको कल सुबह की बारिश का इन्तजार है।देह की गन्ध और पसीने की नमी उनका बिस्तर और तकिया है,वो एक दुसरे में गूँथे हुए है मानों कोई बचपन के बिछड़े हुए भाई हो।
एक तरफ कोने में अधोवस्त्र टंगे है उनको हमेशा दोयम दर्जे का माना जाता रहा है ये उनका स्थाई मलाल है। टूथब्रश अब अपने अस्त व्यस्त बालों के साथ एक स्टैंड में अकेला खड़ा है उसका लिंगबोध सबसे गहरा है वो बच्चों के छोटे ब्रश का स्वघोषित बाप बना बैठा है। टूथपेस्ट इस बात पर नाराज़ है कि उसके अंदर जो हवा गई थी उसनें बाहर आनें से इनकार कर दिया है वो अंदर ही मेंथॉल के संग आइस पाइस खेल रही है। टूथब्रश को हम सब मतलबी लगतें है क्योंकि उसको अंतिम सीमा तक निचोड़ कर हम अपने चेहरे पर मुस्कान और साँसों में ताजगी भरेंगे।प्रत्येक सदस्य रोज़ अपने ढंग से उसका गला दबाएगा और वो आह तलक न भर सकेगा।
वाश बेसिन सिविज जज की तरह एक कोने में खड़ा है उसके अधिकार बेहद सीमित है मगर रोज़ सफाई की पहली अर्जी उसी की अदालत में दाखिल होती है उसके सर पर दो टैप इस तरह बैठे है मानों एक उसका पेशकार हो और दूसरा सरकारी वकील। उसके पाइप में निस्तारित वादों का कचरा जमा है वो जल्दी उसकी निकासी चाहता हैं।
कोने में कुल जमा चौबीस छिद्र वाला एक ढक्कन लगा है जो रोज़ साबुन/शैम्पू के फैन को झेलता है सबसे लम्बे मगर सबसे कमजोर बाल उसके हलक में फंस जातें है उसको सांस लेने में कितनी तकलीफ होती है कोई इसकी सुध नही लेता है उसके चेहरे पर झाडू के निशान छपें है उसे नफरत है बेतुके झाग से। वो चाहता है कि वो केवल पानी को छानता रहें और गाता रहें मॉर्निंग रागा। हमारे शरीर में पानी की मात्रा कितनी कम है रोज़ इसकी रिपोर्ट होती है यहां ये अलग बात है उससे कोई पूछता नही है।
शैम्पू के दो डब्बे सोचते है उनका मालिक पश्चिम में रहता है मगर वो पूरब में भी अपनी कुलीनता से जमें हुए है उनका अपना एक उत्पाद वाला अभिमान है हाल फ़िलहाल वो किसी देशी उत्पाद से खुद को असुरक्षित महसूस नही करतें उन्हें लगता है उनका कब्जा गुणवत्ता से अधिक हमारे जेहन में हैं।
रोज़ जिनके कान ऐंठे जाते है वो दो पानी के नल खुद को सबसे उपेक्षित महसूस करते है जरा सी छूट मिलतें ही उनको टप टप आंसू बहाते हुए रात में सुना जा सकता है मैं कभी कभी छोटे बच्चे की तरह उनको रात में देखनें जाता हूँ कि वे सोये कि नही। रात में जो आख़िरी सदस्य उनका उपयोग करता है वो कभी कभी लाइट बन्द करना भूल जाता है ऐसे में अंदर के कई लोग सो नही पातें है ये सबकी  शिकायत है।
जहां रोज़ हम चमक कर बाहर निकलतें है वहां कीअंदर की दुनिया में हमारी एक एक चीज़ की रोज़ हाजिरी लगती है ये बात किसी को नही पता है जब बाथरूम स्लीपर घिस जाती है तब फर्श हमें फिसल देता है ताकि सम्भलतें हुए हम जान सकें कि तरलता पर चलनें के लिए एक मजबूत आधार का होना जरूरी है हमारी जिंदगी में इतना सबक वही से मिलता है।
जिसकें समक्ष हम दिगम्बर रहतें है वो हमारी निजता का सबसे सुरक्षित प्रहरी है।जो जानता है हमारे सारे अंदरुनी सच मगर नही करता कभी कानाफूसी किसी से। अगर हम कुछ दिन वहां न जाएं तो वो देखता है हमारी राह सच्चे दोस्त की तरह। उसे लगता है जब तक वहां हमारा वहाँ आना जाना लगा हुआ है तब तक वो सुन सकता है हमारे एकांत की बुदबुदाहट उधेड़बुन और योजनाओं से उपजी खीझ।हमारे सबसे बेसुरे गीत वही रिकॉर्ड है वो हमारे गानें से भांप लेता है हमारा रोज़ का मूड।
पूरे घर में एक यही जगह है जहां हम अपने सबसे नैसर्गिक स्वरूप में दाखिल होते है चौबीस घण्टें में कम से कम एक बार। ये हमें ठीक उस रूप में जानता है जितना हम खुद को जानतें है एकांत के प्रलाप में।बाहर की दुनिया की लड़ाईयों के मांग पत्र हम यही सुनातें है मन ही मन और हमें ऐसा लगता भी है जैसे कोई हमें सुन रहा है बड़ी आत्मीयता के साथ और क्या पता सुनता भी हो !

'बाथरूम: कुछ बातें कुछ मुलाकातें'

Wednesday, April 27, 2016

शाम की चाय

बहुत दिन हो गए तुम्हारे हाथ की चाय पिए।
गर्मी आ गई है मगर चाय की तलब कम नही हुई। आखिरी बार तुमनें जब पूछा था कि चाय पियोगे या नींबू पानी मैंने उस दिन से अपने पंचांग में लिख दी थी मौसम बदलनें की तिथि। रसोई में किस्म किस्म की खुशबूऐं कैद है मगर तुम्हारे हाथ की बनी चाय की खुशबू मेरे दिल में कैद है। गैस का लाइटर तलाशतें वक्त तुम्हारे माथे पर जो बैचेनी दिखती है वो बेशकीमती है मैं इतना अस्त व्यस्त तुम्हें हर वक्त देखना चाहता हूँ जहां कुछ मनचाही चीज़ न मिलनें पर तुम अपनी स्मृतियों को दांव पर लगा देना चाहती हो ये देख मुझे ये संतोष मिलता है अगर मैं किसी दिन गुम हो भी गया तो भी तुम मुझे तलाश ही लोगी।
दूध पर ज़मी मलाई को तुम जब फूंक मारकर अलग करती तो ऐसा लगता है कोई मौलवी अला बला को दुआ की फूंक से टाल रहा हो तुम्हारी साँसों की खुशबू की पहली आमद तब ही से दूध में समा जाती है फिर  वो चाय में महकती हैं।
तुम्हारे कंगन तो गोया दो उस्ताद है जैसे कप के कानों पर ऐसी हलकी चोट करतें है कि वो चीनी मिट्टी के कप भी अपने सुर साध लाते है सब कुछ इतनी बेखबरी में होता है मैं कप को छूते हुए भी डरता हूँ कहीं उन्हें ये शिकायत न हो कि मैंने तुम्हारे स्पर्श को धूमिल कर दिया है और उनके गीत भूला दिए है।
पिछले दिनों चाय बनाते समय तुम एक गाना गुन गुना रही थी गाने के बोल मुझे याद नही मगर तुम गानें के जरिए एक गुजारिश चाय को बता रही थी तुम्हारी वही गुजारिश चाय में मुझे तब बताई जब मैं आख़िरी घूंट के बाद कप नीचे रखनें वाला था।
चाय छानते वक्त तुम्हारे हाथ आज भी थोड़े कांपते है तुम्हारी पलकों के झपकनें की आवृत्ति भी बढ़ जाती है इसका एक अर्थ यह लगाता हूँ मैं कि तुम थोड़ी अतिरिक्त सावधान हो जाती हो नही चाहती एक बूँद भी बाहर छलकें ये ठीक मुझे एक बढ़िया साकी के जैसा लगता है वो भी नही चाहता कि शराब की एक भी बूँद बर्बाद हो इसलिए तुम्हारे हाथ की चाय में एक नशा भी होता है।
किसी दिन चाय पीने आऊंगा इस बार नींबू पानी के लिए नही पूछना भले कितनी गर्मी हो क्योंकि चाय का विकल्प पूछने पर मुझे ये लगने लगता है तुम्हारी स्मृतियों में विकल्पों की घुसपैठ हो गई है जो मैं नही चाहता मैं चाहता हूँ चाय मौसम की मोहताज़ न रहें और रिश्तें किसी किस्म के औपचारिक परिचय के फिर दोनों की खुशबू और तबीयत हमेशा ताज़ा रहती है यही ताजगी और तलब मुझे तुम्हारे दर तक लाती रहेगी हमेशा ये वादा रहा।

'शाम की चाय'

Friday, April 15, 2016

गुमशुदा

सारंगी और वॉयलिन दो म्यूजिक इंस्ट्रूमेंट ऐसे है जब वो जिद पर आते है तब मुझ पत्थर को भी रुला देते है। एक मन के रेगिस्तान में बवंडर लाता है तो दूसरा मेरे हाथ पीछे बांध कन्फेशन के लिए किसी पुराने चर्च में घुटनों के बल खड़ा कर देता है।
ऐसा महसूसता हूँ दोनों के तार मेरे दिल के बीचोबीच खिंचे हुए है। जब कोई फनकार उन्हें छूता है दिल बेहद छोटा हो जाता है धड़कनें रास्ता भूल जाती है वें खोए हुए किस्सों से मंजिल का पता पूछती है।
जब कोई रूहानी आवाज़ इनका सहारा लेकर आलाप भरती है दिल में एक अजब बेबसी की हूक उठती है ऐसा लगता है ये हूक सीना फाड़कर बिजली की तरह चमकेगी और मुझे कोयला बना अनन्त में विलीन हो जाएगी।
सारंगी में लोक का अद्भुत संसार है जिसमें वो काँधे से टिकी एक प्रेमिका है जिसको बजाना उसके बाल बनाने जैसा लगता है वॉयलिन भी एक रूठी हुई प्रेमिका ही लगती है फर्क बस इतना उसको मनाने के लिए लगातार उसकी निगाहों में देखना पड़ता है वो स्पर्शों को साधना और सहेजना जानती है।
दोनों के तार दुःखो के झूले है जिन पर बैठ हम घबरातें हुए देवताओं के विलास लोक में अपने दुःखो के नोटिस चिपका कर आतें हैं।
दोनों ही जब बजती है तो खोए ख़्वाबों छूटे हाथों और किस्मत के तमाशों के खत बारी बारी से दिल की दराज़ में रखती जाती है।
जब इनकी बात सुनता हूँ तो खुद को भूल जाता हूँ दोनों से कुछ ऐसा रिश्ता है जैसे पूर्वजन्म का कोई अधूरा किस्सा आवाज़ दे रहा हो और मेरे कान इस दुनिया में उसकी शक्ल मिलाते गुमशुदा हो।
इसलिए भी सारंगी और वॉयलिन मैं आँखों से सुनता हूँ कानों से देखता हूँ और दिल को पुरज़ा पुरज़ा हवा में उड़ाता हूँ,हवा का रुख जानने के लिए नही बल्कि हवा का रुख बदलनें के लिए क्योंकि तब मनमुताबिक धड़कनें में चलें तो उससे भी इबादत में खलल पड़ता है।
सारंगी मुझे बताती है मैंने क्या खोया है वॉयलिन मुझे बताती है कि मैं क्या खोने जा रहा हूँ दोनों के सामनें मैं एक बेबस श्रोता होता हूँ जो अपने अतीत और भविष्य को देख लेता है मगर सम्मोहन में दोनों से ही इलाज़ के नुक्ते पूछना भूल जाता है।

'दो सखी'

Sunday, April 3, 2016

इतवारी सलाह

एक काम करो मेरे हिस्से की धूप को अपने दुपट्टे के एक कोने से बांध लो मेरी हिस्से की छाया में अपनी मुस्कान की धूप भेजो ताकि थोड़ी रोशनी हो सके। थोड़ी नमी उधार दो थोड़ी नमी उधार लो ताकि नमी एक जगह न बस सके।

यादों की पोटली में कपूर की एक डली रख दो और नाराज़ किस्सों को छुट्टी पर भेज दो अपनी अंगड़ाई से नदी का रास्ता बना दो हंसकर पहाड़ का थोड़ा दिल हलका कर दो।

झरनों को गूंथ लो हेयर पिन के साथ पंछियो को बैठा लो इयररिंग के पास। बुद्ध की तरह कर लो आँखें बंद और मुस्कुराओं मन्द मन्द। पलकों के छज्जे पर खेलने दो झूठे वायदों को आईस पाईस आँखों के समन्दर को करने दो हदों की आजमाईश।

तकिए को सुना डालो मन की सारी गहरी बातें बेड शीट से झाड़ दो शिकायतों की गर्द और ठीक करो उसकी सिलवटें मन की तरह।

बिंदी को टांक दो सितारों के साथ ताकि देख सके वो बेखबर रात।धरती पर  रखो दोनों पैरो का बोझ स्लीपर एक साइड से क्यों घिसते जाते है इतना मत सोचो रोज़।

इतवार के दिन ये कुछ बिन मांगे मशविरे है जो भेजता हूँ तुम्हें ख्यालों की शक्ल में इस उम्मीद पर कि समन तामील होंगे और तुम्हारी हाजिरी लगेगी गैर हाजिरी के रजिस्टर में।

'इतवारी बात'