Wednesday, December 30, 2015

आँखें -2

एक वर्जन यह भी:

छल और प्रेम में विश्वास और सन्देह में तुम्हारी आँखों के फेरे बंधे थे। सप्तपदी की तरह इन आँखों के अपने कुछ वचन थे जिन्हें दोहराना नही पड़ता था। तुम पलकें झपकती तो कुछ वादे आईस पाईस खेलनें लगतें। इन खंजन नयनों में आग्रह आमन्त्रण या सपनों का बासीपन नही था बल्कि इनमे खुली आँखों से देखे कुछ अलहदा ख़्वाबो के जोखिम की बन्दनवार टँगी थी।
इन दो आँखों की कैफियत समन्दर किनारे अधलेटे दो आवारा परिंदों के माफिक थी जो साँझ ढलनें के बाद कहीं लौटना नही चाहते थी वो बाहों के घेरों में कुछ कुछ अंतराल में चारों युगों को पहरेदार बना इश्क में अय्यारी करने का हुनर सीखना चाहते थे।
अपनी अनामिका से तुमनें काजल एक टीका मेरी मुस्कान पर लगा दिया मुझे अचानक देख जो एक बूँद आँख से छलक आई थी उससे तुमनें मेरी पीठ पर एक वृत्त बनाया और उसके ठीक मध्य कामनाओं का एक अमूर्त चित्र खींच दिया।
दरअसल ये महज दो आँखें नही थी बल्कि ये दो खिड़कियां थी जिन पर कांधा टिकाए हम दोनों एक दुसरे के मन की गिरह खोलनें के लिए अपने अपने उदास गीत गुनगुना रहे थे। तुमनें एक अंगड़ाई ली और कुछ देर के लिए तुम्हारी पलकें सुस्तानें नीचे उतर आई उसी दौरान में मैंने एक गुजारिश का छींटा तुम्हारी आँखों पर मार दिया तुमनें आँखे खोली मेरे हिस्से में कुछ गुमशुदा शाम आई।
इन्ही आँखों के सहारे मैंने ख्वाहिशो की कतरनें तुम्हारे मन के पते पर पोस्ट की और तुमनें उनकी सिलवट को सीधा करते हुए अपने लबो पर ज़बां फेरी यकीं करना इन लम्हों में मेरा वजूद इस कदर बह गया कि आज तलक मैं गुजिश्ता लम्हों से गुजारिश करता हूँ कि तुम्हारी आँखों के जरिए मुझे मेरा गुमशुदा पता चल जाए ताकि मेरी गुमराही खत्म हो और इन्तजार की शक्ल मुझे तुम हासिल हो फिलहाल तुम मुस्कुरा सकती  हो मगर हंसना मत क्योंकि तुम्हारी पलकों के छज्जे पर कुछ मेरी ख्वाहिशें बैठ डूबता सूरज देख रही है।

Tuesday, December 29, 2015

उसकी आँखें

' उन आँखों में एक कातरता थी। करुणा और अवसाद का सम्मिश्रण बन आँखों सी तलहटी से बह रहा था। आँखों के कोण  उन अक्षांशों पर स्थापित हो गए थे जहां निकटता और दूरी को एक साथ देखा जा सकता था।
आँखों के जरिए एक जीना ठीक उसके दिल में उतरता था मगर दिल के दरवाजे पर सांकल चढ़ी थी। वो जब देखती तो कोई प्रश्न शेष न बचते उसकी आँखों का भूगोल निर्जनता के कई खोए मानचित्र लिए थे जिनकी शिनाख्त करने की हिम्मत बड़ी मुश्किल से जुटा पाता था।
वो नदी की तरह विकल थी मगर उसने अपने किनारों को तन्हा नही छोड़ा था उसके पास कुछ वजीफे थे जो उसनें स्पर्श की शक्ल में किनारों को दिए थे। उसकी आँखों में नदी के जलस्तर को नापने का पैमाना था वहां वेग की उथल पुथल उतनी साफ़ नही पढ़ी जा सकती थी मगर उसकी आँखों के जरिए कुछ अनुमान और गणनाएं अवश्य की जा सकती थी मसलन आंसूओं की आद्रता का स्तर क्या है वो सूखकर ग्लेशियर बनेंगे या फिर बहकर समाप्त हो जाएंगे हमेशा के लिए।
वो प्रकृति का अनहद नाद थी जिसकी ध्वनि आँखों के रास्ते सुनी जाती थी उसका काजल आवारा बदरी की टुकड़ियों का एक समूह था जो वक्त बेवक्त बरस जाया करता था इसी के जरिए आँखों की नमी चमक में तब्दील होती थी।
वो जब देखती तो शब्द दुबक जाते वाणी और स्वर अर्थ खो देते और आँखें भाषा का अधिकार पा लेती उसकी आँखों के महाकाव्य पढ़ने के लिए गर्दन नीची नही करनी पड़ती। उसे पढ़ते हुए जाना जाता शब्द का ब्रह्म हो जाना उसकी आँखों का अपना एक स्वतन्त्र शब्दकोश था जिसके पन्ने स्वतः पलक झपकनें के अंतराल पर पलटते जाते।
वो एक नदी थी वो एक महाकाव्य थी वो एक जीवन्त आख्यान थी और उसकी आँखें इल्म और अदब की दरगाह थी जहां कलन्दरो को पनाह मिलती थी उसकी निगाह में आतें ही खाकसार मुरीद और मुर्शिद एक साथ हो जाते थे।

Thursday, December 17, 2015

छायायुग

वहां हर स्त्री पर एक पुरुष की छाया थी और हर पुरुष पर एक स्त्री की छाया की तलाश में गुम था।
एक बात जो तय थी वहां शायद हमेशा धूप रहती थी दिन निकलनें और साँझ होने जैसे सुंदर कल्पनाएं वहां मिथ्या थी।
आकृतियों के मध्य जीवन था और जीवन के ठीक बीच में कुछ रिश्तें आड़े तिरछे फंसे हुए थे वहां बाहर की दुनिया में एक व्यवस्थित कोलाहल था मगर अंदर की दुनिया में एक ख़ास किस्म की नीरवता पसरी हुई थी।
अधिकार वहां सबसे अधिक करुणा का पात्र था क्योंकि ये दिन में इतनी दफा जगह बदलता था कि ये समझना मुश्किल था कि सुबह का निकला रात तक कहाँ पहुँचेगा।
वहां की दुनिया थोड़ी तिलिस्मी थी वो दावों की दुनिया था जिसमें दिन भर कोई न कोई किसी का खण्डन करके अपने जगह सुरक्षित करने की जुगत में था।
छायाओं के मध्य वास्तविक आकार थोड़े धूमिल हो गए थे इसलिए वहां पुरुष और स्त्री के लिंग पर प्रायः सन्देह किया जाता वो अनुमानों और सम्भावनाओं की उजड़ी हुई मगर हरी भरी दुनिया थी।
उस दुनिया को देखनें के लिए रोशनी नही सघन अंधेरा चाहिए था तभी दीवारों पर हाथ लगाते हुए अनुमान के भरोसे मंजिल की तरफ रोज़ कुछ लोग निकल पड़ते थे।
वो दुनिया था या एक छाया थी इसका भेद अज्ञात रहा मगर उस दुनिया का आंतरिक सच रहस्यमयी ढंग से बिखरा हुआ था जिसे देखनें के लिए कभी कभी ऊकडू बैठना पड़ता या फिर किसी से महज बस इतना पूछ लेना होता है कोई है क्या वहां?

'छायायुग'

Wednesday, December 16, 2015

सम्बोधि

तुम मेरे जीवन का एक मात्र असंपादित अंश थी
अंश इसलिए कहा क्योंकि तुम्हें सम्पूर्णता में पाने की मेरी पात्रता थोड़ी कमजोर थी।
तुमनें एकदिन महर्षि रमण का एक किस्सा सुनाया उनके एक जिज्ञासु शिष्य ने कहा गुरुदेव क्या आप मुझे शक्तिपात से सम्बोधि की अवस्था में पहूंचा सकते हो? महर्षि रमण बोलें हाँ ! मगर क्या तुम इस अवस्था में हो कि तुम शक्तिपात को ग्रहण कर सको?
इस किस्से के जरिए तुम मुझे मेरी अपात्रता नही बता रही थी बल्कि तुम कहना चाह रही थी कि देने वाला कई बार देने की इच्छा होने के बावजूद भी नही दे पाता है। तुमनें एक प्रसंग का सहारा लिया और प्रेम की दुनिया में मेरी उपस्थिति का भौतिक आंकलन कर लिया।
फिर मैंने विषय बदलते हुए कहा क्या तुम मुझे सम्पादित करना चाहती है तुमनें तुरन्त इनकार किया नही मैं इसके लिए पात्र नही हूँ।
दरअसल पात्रता और अपात्रता के मानकों की दुनिया के जरिए तुम प्रेम की इस सम्बोधि में मुझे देखना चाहती थी जहां मैं केवल रहूँ और अनुराग की दासता में कोई ऐसा हस्तक्षेप न करूं जिससे हमारी अपनी स्थापित दुनिया थोड़ी भी अस्त व्यस्त हो।
अचानक तुमनें एकदिन पूछा समय क्या हुआ है मैंने घड़ी देखनी चाहिए तो तुमनें मेरी कलाई को अपनी हथेली से बन्द कर दिया और कहा अनुमान से बताओं
मैंने कहा मेरे अनुमान अक्सर सही नही निकलतें है मैं अंदाजन चूक जाता हूँ फिर भी मैंने कहा एक बजा है शायद।
तुमनें उसके बाद घड़ी नही देखी और न मेरे अनुमान की सत्यता की जांच की तुम्हारी इस बेफिक्री ने सच कहूँ मुझे समय से बहुत दूर कर दिया।
इस घटना के बाद हमारा दोनों का अपना एक मौलिक समय तय हुआ जो अधिक प्रमाणिक लगा मुझे।
बोध जब गहराता गया तब ये तय करना मुश्किल हो गया कि तुम निकट हो या दूर जब मैंने इसके बारें में तुमसे सवाल किया तब तुमनें सिर्फ इतना कहा निकटता और दूरी मेरी दिलचस्पी का विषय नही है तब शायद तुम यह कहना चाह रही थी कि हमें नदी पुल के जरिए नही झूला डालकर पार करनी चाहिए।

'बोध-सम्बोधि'

Saturday, November 21, 2015

अंतिम आश्रय

तुम्हारे पास मेरा अंतिम अरण्य था।
मेरे भटकाव का एक अंतिम पड़ाव था जहां से मुझे मंजिल नजर आ रही थी मैंने दूर से मंजिल को देखा और केवल एक बार मुस्कुराया। तुमनें उस क्षण मुझे देखा और बातचीत का विषयांतर कर दिया मैंने इसे हस्तक्षेप की तरह नही लिया बल्कि मुझे अच्छा लगा तुमनें मेरे सम्मोहन को तोड़ दिया।
तुम्हारी यात्रा मुझसे अलग थी इसलिए हमारी थकन और अनुभव दोनों भिन्न थे मगर आत्ममोह की अवस्था में भी कोई एक दुसरे को कमतर नही समझता था। हमारी रूचि के केंद्र अब विमर्श नही थे शायद हमारी अनुभूतियां आपस में ठीक ठीक बात कर लेती थी। जैसे मैंने एकदिन कहा कि मेरा अप्रासंगिकताबोध कहीं अधिक गहरा है तुमनें मुझे करेक्ट तो नही किया मगर कहा तुम असावधानी में जीवन जीने के आदी हो गए हो। तुम्हारी उपस्थिति का एक अमूर्त मूल्य था मेरे लिए इसलिए सारे संयोगो में से एक संयोग ऐसा बन जाता था जब तुम्हारे आसपास मेरी ध्वनियाँ आश्रय पा जाती थी।
समय के आर पार लौटते हुए मैंने एक बार हाथ हिलाया तो तुम्हें लगा कि मैं विदा चाह रहा हूँ तुमनें मेरे चेहरे पर अरुचि नही पढ़ी थी इसलिए तुमनें कहा आगे देखो कही चोट न लग जाए उस समय मैं समझ पाया तुम आगे देखने की बात के जरिए मुझे सचेत करना चाह रही थी क्योंकि तुम्हारे अर्थो में सबसे गहरी चोट चैतन्यता से अस्त व्यस्त हो जाने की थी।
हमनें एक दुसरे को देखा और बस इतना कहा चलो चलतें है उस वक्त चलना एक क्रिया थी मुझे लगा ये हम दोनों के अस्तित्व का विशेषण है।

'अंतिम आश्रय'

Friday, November 20, 2015

एक पाती

तुम थोड़े अलग थे। अलग इसलिए कि तुम एक ही मनोभाव की मनमुताबिक़ दस किस्म की व्याख्या कर सकते थे और अच्छी बात ये भी थी कि ऐसा तुम किसी को खुश या प्रभावित करने के लिए नही करते थे।
तुम्हें मैंने तटस्थता से महीनों केवल देखा और सुना था तुम्हें देख मैं निष्कर्षों की जल्दी में नही थी बल्कि अक्सर ये सोचती थी कि तुम अपने बारें में तय की गई हर राय को एकदिन गलत साबित कर दोगे।और एक दिन तुमनें वही किया भी।
तुम्हारे तर्क इतने मौलिक किस्म के थे कि उन्हें किसी अवधारणा के संदर्भ लेने की आवश्यकता नही थी। अलबत्ता तो तुम बहस से बचते थे मगर यदि कहीं कहना जरूरी हुआ तो तुम्हारी समझ और विनम्रता बहस की सबसे चमकीली वस्तु हुआ करती थी।
मुझे लगा था कि तुम एक मुक्त चेतना है फ्री फ्लो में बहते एक पानी के स्रोत की तरह तुम्हें न कहीं पहुँचनें की जल्दी थी और न एकदिन समाप्त होने का भय तुम क्षणिकता में जीवन को जीने के आदी थे।
मेरा तुमसे भले ही कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष किस्म का कोई रिश्ता नही रहा था मगर फिर भी मैं खुद को तुम्हारे करीब पाती थी। तुम्हें अवसाद में देख मैं फ़िक्र और खुशी दोनों एक साथ महसूस करती फ़िक्र इस बात कि तुम्हारी लड़ाई खुद से कितनी बढ़ गई है और खुशी इस  बात कि तुम चरम् अवसाद के पलों में भी अपनी रचनात्मकता को बुझनें नही देते बल्कि मैं मतलबी होकर कहूँ तो तुमनें अवसाद के दौर में अपने जीवन का सर्वश्रेष्ट रचा हैं।
अचानक मैंने पाया तुम्हारे जीवन के केंद्र बदल गए है मैं ये नही कहूँगी कि तुम रूपांतरित हो गए बल्कि बड़ी निर्ममता से कहना पड़ रहा है कि तुम बदल गए थे।ये बदलाव अनापेक्षित था क्योंकि मैं तुम्हारे रूपांतरण को लेकर सोच रही थी बदलाव को नही। एकदिन तुमनें बातचीत में कहा था जो मुझे प्रिय है मैं आगे चलकर उससे एक सुरक्षित दूरी बना लेता हूँ। तुम्हारा ये बदलाव हमारे मध्य यही दूरी लेकर आया था मैं तुम्हें प्रिय थी ये अर्थ निकालना अब जरा मुश्किल था मेरे लिए क्योंकि तुम जिस तरह से दिखने और पेश आने लगे थे उसे देख मैंने तय कर लिया था अब तुम्हारा साथ अपने अंतिम पड़ाव पर था।
मैंने तुम्हें हंसते हुए अलविदा कहा मगर कुछ सवाल आज भी दिल में है तुम से जुड़े सवाल कम से कम मैं जेहन में नही रख पाती हूँ आज भी। ये सवाल मुझे कभी परेशान नही करते है बल्कि अक्सर मुझे रास्ता ही दिखाते है जब जब मैं तुम्हारी याद में भटक जाती हूँ।
तुम अब कभी मिलोगे इसकी उम्मीद नही है मगर तुम खो गए इसका कुछ दशमलव दुःख मुझे हमेशा रहेगा।

'एक पाती'

Monday, October 12, 2015

नवरात्रि

सतत् ऊर्जा के संचयन, संलयन और रूपांतरण के लिए शक्ति के साथ एक बेहतर संयोग और समन्वय आवश्यक है। पुरुष और प्रकृति के तादात्म्य से पूर्णता जन्म लेती है दोनों एक दूसरे के पूरक है। ऊर्जा के एक स्थाई स्रोत के रूप में शक्ति की उपस्थिति को अनुभूत करनें के लिए खुद के शिव तत्व को परिमार्जित करना पड़ता है तभी इसका सहज साक्षात्कार सम्भव है। चैतन्य यात्रा में शिव-शक्ति,पुरुष-प्रकृति ये सब उस आदि ब्रह्म के प्रतीक है जिनका अंश लेकर हम इस ग्रह पर विचरण कर रहें हैं।
मन के तुमुल अन्धकार के समस्त प्रयास शक्ति से सम्बंधता बाधित करने के रहते है वो हमें दीन असहाय भरम में पड़े देखना चाहता है उसकी चाह में कुछ अंश प्रारब्ध का है तो कुछ हमारे कथित अर्जित ज्ञान का।
शक्ति स्वरूपा नाद को अनुभूत करने के लिए कामना रहित समर्पण चाहिए होता है अस्तित्व को मूल ऊर्जा स्रोत से जोड़ने की अपेक्षित तैयारी भी अनिवार्य होती है। 'स्व' को व्यापक दृष्टि में पूर्ण करने के लिए शिव और शक्ति से सम्मलित ऊर्जा आहरित करनी होती है।
आप्त पुरुष अहंकार को तज शक्ति की सत्ता को स्मरण करते है उसकी उपस्थिति में याचक नही अधिकारपूर्वक ढंग से खुद को समर्पित कर पूर्णता की प्रक्रिया का हिस्सा बनतें हैं।
पौराणिक गल्प से इतर पुरुष प्रकृति के सांख्य योग के बीज सूत्र सदैव से अखिल ब्रह्माण्ड में उपस्थित रहते है। अपनी तत्व दृष्टि और पुनीत अभिलाषा से उनसे केंद्रीय संयोजन और सम्वाद की आवश्यकता होती है।
शिव तत्व को शक्ति के समक्ष समर्पित करके खुद की लघुता का बोध प्रकट होता है और यही लघुता अस्तित्व की ऊंची यात्राओं का निमित्त बनती है कण कण में चेतना और संवदेना को अनुभूत करनें के लिए खुद को देह लिंग और ज्ञान के आवरण से मुक्त कर सच्चे अर्थों में मुक्तकामी और पूर्णतावादी बनना पड़ता है।
रात्रि अन्धकार का प्रतीक लौकिक दृष्टि में मानी गई है परंतु रात्रि वस्तुतः अन्धकार की नही अपने अस्तित्व की अपूर्णता का प्रतीक है दिन के प्रकाश में अन्तस् के उन गहरे वलयों को हम देख नही पाते है जिन पर अहंकार की परत जमी होती है रात्रि का अन्धकार अन्तस् में प्रकाश आलोकित करने का अवसर प्रदान करता है जिसके माध्यम से हम अपने अन्तस् में फैले अन्धकार को देख सकते है और बाहर से अन्धकार से उसकी भिन्नता को अनुभूत कर सकते है।
शक्ति की उपादेयता हमें आलोकित और ऊर्जित करने की है पुरूष और प्रकृति का समन्वय ब्रह्माण्ड के वृहत नियोजन का हिस्सा है जो जीवात्माएं इस नियोजन में खुद की भूमिका को पहचान लेती है वें सच में अस्तित्व की समग्रता को भी जान लेती है। शिव शक्ति के तादात्म्य के अनुकूल अवसर के रूप में संख्याबद्ध दिन या रात का निर्धारण एक पंचागीय सुविधा भर है इस उत्सव में खुद को समर्पित और सहज भाव से शामिल करके खुद को परिष्कृत किया जा सकता है और उस अनन्त की यात्रा की तैयारी के लिए आवश्यक ऊर्जा का संचयन भी किया जा सकता है जिसके बल पर हमें पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण तोड़कर एक दिन उसी शून्य में विलीन हो जाना है जहां से एकदिन सायास हम यहां आए थे।

'नवरात्रि और सवेरा'

Thursday, October 8, 2015

औसत

मनुष्य के पैमाने सर्वोत्तम की तरफ आकर्षित होते है निम्न या औसत के प्रति वो उपेक्षाभाव अपना लेता है। यह मूल्यांकन की सदियों पुरानी परम्परा की कन्डीशनिंग है।इससे मुक्ति दुलर्भ है। बिना किसी महानता के विज्ञापन या धारण स्थापन के बताता हूँ मुझे औसत, औसत से नीचे की या फिर हाशिए की चीजें सर्वाधिक आकर्षित करती है। उपेक्षा में जीते जीते औसत दर्जे के लोगो का सौंदर्य बहुत प्रिजर्व किस्म का हो जाता है। ऐसे ही सौंदर्य को देख मैं अभिभूत और चमत्कृत होता हूँ।
मसलन मुझे बहुत गोरा रंग कभी आकर्षित नही करता है जिनका रंग सांवला है या गेहुँआ है मुझे उनके तेज में एक ख़ास किस्म की अलौकिकता नजर आती है यहां तक अफ्रीकन कॉन्टेन्ट की स्त्रियों में भी मैं गहरे सौंदर्य मूल्य पाता हूँ। गोरी देह या गोरा दिखनें की चाह शायद हमारे मन की ग्रंथियों का परिणाम होती है। ऐसा नही कि मुझे गोरे लोग अप्रिय है मगर मुझे स्वाभाविक रूप से सांवला,गेहुँआ या डार्क कॉम्प्लेक्शन ही आकर्षित करता है। पुरुषों के मामलें में कद भारतीय समाज का एक बड़ा मानक है मगर मुझे कद कभी एक मानक नजर नही आया न ही मैं शरीर सौष्ठव से किसी पुरुष का मूल्यांकन करता हूँ मुझे औसत लम्बाई और सामान्य कद काठी के लोग पसन्द है। देह को कसनें के लिए ज़िम में पसीना बहाते हुए युवाओं की अपेक्षा मुझे वो युवा ज्यादा प्रभावित करता है जो साईकिल पर गेहूं रख चक्की पर आटा पिसवाने जा रहा हो या मेडिकल स्टोर से दवा घर के बुजुर्ग के लिए दवा खरीद रहो हो।
समाज के स्थापित पैमानों और मानकों पर परखे जाते हुए स्त्री पुरुष अपनी सहजता खोते हुए एक बाह्य दुनिया को इमिटेट करना शुरू कर देते है।रंग,कद और देह के इतने दबाव होते है कि बाजार इसका खूब फायदा उठाता है।
...इसलिए कहता हूँ अपनी सहजता में जियो आप जैसे भी है परफेक्ट है किसी के लिए खुद बदलनें की जरूरत नही ग्रूमिंग की अवधारणा आपको उनके हिसाब से देखनें की है जिनका आपके सुख दुःख से कोई सरोकार नही है इसलिए यदि आप औसत या औसत से नीचे के किसी पायदान पर समाज ने बैठा दिए है वो उसके अवसाद में मत रहो खुद को सम्पूर्णता में स्वीकार करो और अपने मन की मौज़ में जीने की आदत विकसित करो बाह्य दबाव का कोई बदलाव आपके अंतर्मन को सच्ची खुशी नही दे सकता है।
दुनिया की परवाह न करों इसी जालिम दुनिया में मेरे जैसे आपके कद्रदान भी बसते हैं।

Wednesday, October 7, 2015

बज़्म

चराग मद्धम है लौ भभक रही है शायद बज़्म के हिस्से में अंधेरा सौंप कर इन्हें बुझ जाने की जल्दी है। हवा रोशनदानों मे झांक कर उलटे पांव बादलों के घर लौट रही है उनके पास महफिल की बेरुखी के किस्से है इस साल अफवाह की फसल से ही बारिश होगी हवा ने यह मानकर उस घर की चौखट को छोड दिया है।
सांझ के पास चंद उलहानें है इसलिए वो चुपचाप आकर उस कमरें में पसर गई है जिसकी खिडकियों में शिकायत के जालें लगें है।
कुछ खत कुछ खताओं को वक्त का डाकिया तामील करा कर दोपहर में ही चला गया था जैसे ही उसनें खत और खताओं का मनीआर्डर थमाया उसकी साईकिल की चैन उतर गई उसने ऊकडू बैठ घर की दहलीज़ को देखा और फिर बिना मुडकर पीछे देखे वो चला गया।
शाम से बज़्म मे तन्हाई और खामोशी है चराग कहकहों से उकता गए है मगर जलना उनका नसीब है इसलिए वो जल कर बुझ रहें है और बुझ कर जल रहें हैं। ख्यालों की चादर पर सिलवटें पड गई है अब उन्हें सीधा करने के लिए जितना झुकना जरुरी है उतना झुकने के लिए एक खास का हौसला चाहिए। सबसे गहरे दोस्त नें हौसला उधार देने से मना कर दिया तो ऐसे ही बेतरतीब ज़मीं पर पसर गया फिर उसने छत की तरफ देखा और मन ही मन कहा आखिर शाम हो ही गई अब रात हो जाए तो बेहतर हो।
रात बीत जाएगी कल नई सुबह आएगी मगर वक्त के कुछ लम्हों के अटके अहसासों की सुबह का आना थोडा मुश्किल लग रहा है वो रात के बाद सीधे रात में उतरती है उन्होनें बेरुखी की सीढी मन के दालान मे लगा ली है।
कुछ बीत जाएगा कुछ रीत जाएगा और कुछ रह जाएगा बेआसरा रात का यही स्याह पक्ष है जिसकी गवाही में कोई चराग कभी बोलने को तैयार नही होगा। दुआ करता हूं कोई हवा का झोंका इन्हें जल्द बुझा जाए ताकि कुछ खुशफहमियां और डेढ दिन की उधारी जिन्दगी जी सके।

‘बज़्म और खामोशी’

Sunday, October 4, 2015

अधार्मिक के नोट्स

मेरा मन मन्दिर के अंदर जाते है स्वार्थी हो जाता है फिर वो करबद्ध होकर तमाम अतृप्त कामनाएं ईश्वर के हवाले करता है और चमत्कार की आश्वस्ति लेकर धीमें धीमें उलटे पाँव मन्दिर के चौखट से बाहर निकलता। घण्टे घड़ियालों शंख की आवाज़ मन्दिर की अंतिम सीढ़ी तक साथ देती है और हंसते हुए कहती है ईश्वर ने तेरी बात सुन ली है आगे क्या होना है क्या नही होना है ये बात कोई नही जानता है शायद ईश्वर भी नही।
जब मैं चर्च में जाता हूँ तो मुझे पुराने चर्च सबसे ज्यादा आकर्षित करते है पहाड़ पर बने चर्च का वास्तु मुझे सबसे ज्यादा बांधता है। चर्च के अंदर जाकर मैं कुछ भी मांगता नही हूँ बल्कि डार्क ब्राउन रंग की लकड़ी की बेंच पर हाथ फेरता हूँ और चर्च की छत को देखता हूँ सामने रखी प्यानों के बटन दबाने की जरूर इच्छा होती है फिर इसके बाद मैं अपने तमाम पापों का कन्फेशन करता हूँ और जीसस से कहता हूँ कि वो मुझे माफ़ करें यहां मैं कुछ चमत्कारिक कामना नही रखता हूँ चर्च में केवल मैं अपने मन का बोझ हलका पाता हूँ कन्फेशन के दौरान ही मुझे अनुभूति होने लगती है कि ईश्वर ने मुझे माफ़ कर दिया है इस तरह से मन के अंदर कुछ और दुनियावी पाप का स्पेस बनाकर लौट आता हूँ। जीसस से मिलकर मेरी करुणा का स्तर निसन्देह बढ़ जाता है।
मेरे घर से कुछ दूर मस्जिद है रोज़ मैं उसकी अजान सुनता हूँ हालांकि वो अरबी भाषा में है इसलिए उसके मानें मुझे समझ में नही आते है मगर मुल्ला जी जिस तरन्नुम में अजान देते है वो मुझे हमेशा बढ़िया लगती है सब कुछ बेहद सधा हुआ लगता है। मैं मौलवी साहब से मिलनें कई बार मस्जिद में भी गया हूँ वहां उनकी तस्बीह सुरमा और इत्र मुझे अच्छा लगता है मैं उनसे पूछता हूँ अल्लाह दयालु है तो फिर हम इतने क्रूर क्यों हो गए है मौलवी साहब कुरआन की एक आयत पढ़कर  सुनाते है तब मैं जान पाता हूँ कि इस्लाम जो हमें बताया जा रहा है वो असली इस्लाम नही है। मैं नमाज़ पढ़ते हजरात को देखता हूँ उनका अनुशासन मुझे प्रभावित करता है मगर मैं अल्लाह से कुछ मांगता नही हूँ बस मौलवी साहब से कहता हूँ कि वो अमन के लिए दुआ किया करें। इल्म से ज्यादा अमन इस वक्त की जरूरत मुझे लगता है।
एक सिख परिवार में मेरे पिताजी की गहरी दोस्ती थी पिताजी के मित्र को मैं चाचा कहता हूँ कभी कभी उनसे मिलनें जाता हूँ उनसे मिलकर मुझे बहुत अच्छा लगता है क्योंकि जितनी पंजाबी मुझे आती है उन्हें उतनी ही हिंदी आती है हम आपस में उधार की भाषा में बात करतें है। सहमति के लिए 'आहो' कहना मैंने उनसे ही सीखा है छोटे से भाषा ज्ञान के बावजूद हम खूब बातें करते है हमें भाषा कभी बाधा नही लगती है। उनके घर के पास ही गुरुद्वारा है एकाध बार मैं वहां भी गया हूँ वहां ज्ञानी जी सबद कीर्तन करते रहतें है हारमोनियम और तबले की संगत से गुरबाणी सुनने में अजीब सा दिव्य सुख मिलता है। मन क्यूँ बैरां करें...! ये सबद मुझे विशेष प्रिय है। मैं गुरुद्वारे में लंगर खाता हूँ वहां की दाल मुझे बहुत बढ़िया लगती है हाथ में मांग कर रोटी खाना मुझे अन्न का सम्मान करना सिखाता है। गुरुद्वारे में जाकर मेरी रूह को संगीत और संगत की खुराक मिलती है वहां मैं मन्नत जैसी चीज़ें भूल जाता हूँ वहां तन्मयता से बर्तन मांझती सिख महिलाओं के देख बस मैं मन ही मन इतना कहता हूँ रब राखां।

'अधार्मिक के नोट्स'

Friday, October 2, 2015

रसोई

रसोई के बारें में सोचता हूँ तो लगने लगता है घर के अंदर यह वो कोना है जहां रोज़ यज्ञ होता है मगर एकल आहूतियां केवल ऋषि पुत्रियां देती है। गर्मी और बरसात के दिनों में जब हम कूलर पंखे और एसी में भी असहज महसूस करते है तब स्त्रियां रसाई में भोजन की समिधा लगाती हैं। जिस जगह से सबका पेट पलता है वातानुकूलन की दृष्टी से वो जगह बिलकुल भी सुविधाजनक नही है। प्रायः हम तो इसी सवाल से खीझ जातें हैं कि आज क्या बनाया जाए मगर जो रोज़ नित्यकर्म से बनाने की प्रक्रिया से गुजरती है नीरसता का अंदाज़ा लगाना भूल जाते है।
एग्जॉस्ट फैन की सीमाओं के मध्य चरम् गर्मी में गैस की आंच में खड़े रहना छौंक के धुंए को लगभग रोज़ झेलना और इसके बावजूद बिना किसी शिकायत के नियमतः रोज़ यथासमय खाना तैयार करना कम चुनौतिपूर्ण काम नही है।हम तो दुसरे कमरें में छौंक के धुएं से छींक आने भर से परेशान हो जाते है मगर जिसकी दुनिया इसी धुंए में रंगी होती है उसकी तकलीफ का अंदाज़ा लगाना अक्सर भूल जाते है।
रसोई अपने आप में किसी को स्त्री को सिद्ध करने की प्रयोगशाला है जिसमें दायित्वों की सदियों पुरानी कंडीशनिंग से स्त्रियां अपने वजूद को सिद्ध करती रहती है ये उनके मन की उधेड़ बुन की सबसे सच्ची गवाह है। रसोई उस उदास गीत को सुन सुन कर बूढ़ी होती है जिसे स्त्री अपने सबसे तन्मय पलों में गाती है। व्यापक संदर्भो में देखा जाए तो रसोई का हर कोना एक भरा पूरा आख्यान है। एग्जॉस्ट फैन की सीमाबद्ध जिजीविषा स्त्री मन के द्वन्दों को धुएँ की भाँति घर की चारदीवारी से बाहर छोड़ आती है ताकि वो एक राहत भरी सांस ले सके। सिंक में अटे पड़े बर्तन रोजमर्रा के छोटे छोटे शिकवों के प्रतीक लगने लगते है जिन्हें इच्छा अनिच्छा के बावजूद रोज़ स्त्री मांझ कर साफ़ करती है ताकि बची रहे शुद्धता।
रसोई के अंदर स्त्री की दुनिया बड़े वैचित्र्य से भरी होती है वो वहां जीवन में घुले दुखों को सब्जी की तरह कांटती छांटती है दाल से कंकड़ की तरह बुनती है और फिर उम्मीद की थाली में अपने अधिकतम् प्रयास से रोज़ सुख परोस देती है। पसन्द नापसन्द के पैमानें पर उसकी खुद की पसन्द सबसे निम्नतम स्तर पर होती है वो ख्याल रखती है बच्चें वयस्क और प्रौढ़ों का। कितने।लोग यह सच जान पातें होंगे कि बेहद स्वादिष्ट खाने बनाने की प्रक्रिया में खुद स्त्री का स्वादबोध इतना पीछे चला जाता है जब आप उसके बनाएं खाने से तृप्त हो रहे होते है सच तो ये है उस वक्त उसकी भूख मर चुकी होती है वो खा लेती है बेमन से सब बचा कुचा।
स्त्री को अपने मन की तरह रोज़ साफ़ करनी होती है रसोई।वो नियत करती है दाल मसालें और बर्तनों का स्थान ताकि चरम् दबाव में भी वो अस्त व्यस्त न हो। रसोई में बचता अन्न और उसे निष्प्रयोज्य समझ जब फैंकना होता है तब किसी किस्म के अपराधबोध से एक रोज स्त्री गुजरती है उसका आप अंदाज़ा नही लगा सकते है अन्न को फैंकना उसे लगता है उसके अनुमान के कौशल का असफल हो जाना।
स्त्री के जिन झक सफेद हाथो की सुंदरता पर आप होते है मोहित उन पर चढी होती है एक अंश आटे की सफेदी और बार बार डिटर्जेंट से हाथ धोने की आदत का रंग। रसोई में बहे पसीनें का मूल्य इसलिए नही समझ आता सबको क्योंकि वो रसोई से खाने की टेबिल तक आते आते निष्ठा और प्रेम की आंच में सूख जाता है और स्त्री उसी की ठंडक में रोज़ परोसती है गर्मागरम भोजन।
एक स्त्री के जीवन में रसोई जितनी जीवन्त है पुरुष के जीवन में वो इतना ही तटस्थ स्थान रखती है पुरुष के पास अर्थ है जहां से रसोई के साधन निकलतें है और वह इसे अपना अधिकतम योगदान समझ मुक्त हो जाता है मगर स्त्री के मनोरथ है जहां से रसोई के नए अर्थ विकसित होते है जीवन आगे बढ़ता है।
रसोई की साधना निसन्देह अधिक व्यापक और गहरी है स्त्री मन के विस्तार की सबसे निर्जीव किस्म की साक्षी है रसोई मगर एक छोटे स्थान पर स्त्री को स्वयं की मुक्त सत्ता का बोध इतना गहरा होता है कि वहां अधिकार से सब अपने मन मुताबिक़ नियोजित करती है ऐसे में रसोई के भूगोल में बड़ी गहराई से सांस लेता है स्त्री के स्वतन्त्रताबोध का गहरा मनोविज्ञान।
रसोई के सहारे स्त्री की यात्रा को देखा जा सकता है और इस यात्रा के मूल्य को समझने के लिए कम से कम एक दिन बिताना पड़ता है रसोई में वो भी बिना किसी खीझ के जोकि तमाम पुरुषों के लिए एक बेहद मुश्किल काम है इसलिए पुरुषो की उपस्थिति को रसोई खुद करती है अस्वीकार और प्रायः बड़बड़ाते हुए पुरुष बाहर निकल आतें है यह कहते हुए हमारे बसका नही ये तामझाम।

'रसोई का मनोविज्ञान'

वजीफे यादों के

मैं तुम्हें कभी याद नही करता। याद करना एक सायास उपक्रम है तुमसे मेरे हर बंधन अनायास किस्म के है ऐसे में तुम जब याद आती हो बस आ ही जाती हो। निसन्देह तुम्हारे साथ मेरी जीवन की कुछ बेहद सुखद स्मृतियाँ जुड़ी हुई है एकाध तकरार को छोड़कर। तुम्हारें बारें में सोचने भर से मेरी पलकों के झपकनें का अंतराल थोड़ा विलम्बित हो जाता है। आँखों के अंदरुनी हिस्सों में मुस्कान करवट लेने लगती है और बोझिल चेहरे पर भी एक इंच मुस्कान तैर जाती है।
तुम्हारे स्पर्श मेरे जीवन की अविस्मरणीय पूंजी है उन्हें मैं रोज़ सम्भाल कर रखता हूँ तुम्हारी धड़कनों के बंद मेरी धड़कनों की गिरह को रोज़ दूर से रफू कर जाते है। तुम्हारी खुशबू के अनुलोम विलोम से मेरे मन का बासीपन दूर हो जाता है।
रात में सोने से ठीक पहले मेरा तकिया मेरी गर्दन पर तुम्हारा नाम लिखता है और मैं थोड़े से तुम्हारे उन्माद में करवट लेता हूँ फिर बरबस ही मैं बेवजह मुस्कुरा उठता हूँ और नींद में तुमसे मिलनें की गुजारिश अपने अवचेतन के बड़े बाबू के यहां आमद कराता हूँ मगर अफ़सोस तुम ख़्वाब में नही मिलती हो।
तुम ख़्वाब में कैसे मिलोगी तुम मेरे मन की ध्वनि की कोई वर्जना नही हो जो तुम्हें अवचेतन में धकेल दिया गया हो तुम तो मेरी साक्षात अनुभूतियों का केंद्र हो इसलिए तुम्हें रोज़ मैं यादों के सहारे इकट्ठा करता जाता हूँ।
तुम्हें याद कर मैं मुस्कुरा सकता हूँ ये क्या कम बड़ी उपलब्धि है एक अलसाई करवट में तुम्हारी याद का वजीफा मुझे मिलता है और मैं रूह की खुराक से आश्वस्त हो जाता हूँ।
छोटे छोटे ख्यालों और अहसासों में तुम्हारी यादों को डुबोता हूँ और फिर उन्हें मन के छज्जे पर टांग देता हूँ उनसे टपकता अहसास मुझे पहाड़ की बारिश जैसा अहसास देता है अपनेपन की उसी ऊंचाई से मैं तुमसें तुम्हारी गहराई से मिलनें आता हूँ।
बहरहाल, कुछ दिनों से तुम्हारी यादों की नौकरी पर हूँ इसलिए लगता नही है कि तुमसे दूर हूँ। मेरे न लगने से तुम नजदीक नही हो जाती हैं यह बात जानता हूँ फिलहाल तुम्हें याद करके बस इस दूरी के भरम को मिटा रहा हूँ और ऐसा लग रहा है जैसे नींद में मुस्कुरा रहा हूँ।
अभी अभी ख्याल आया पता नही इस वक्त तुम क्या कर रही होगी कुछ भी कर रही होंगी मगर ये तय है कम से कम मेरी तरह से किसी को याद नही कर रही होंगी।

'यादों के वजीफें'

Wednesday, September 30, 2015

मेरे प्रिय

जो मुझे प्रिय है वो सदा के लिए प्रिय हैं। उसको खोने को लेकर मेरी लौकिक चिंताएं लगभग शून्य है। मुझे लगता है एक बार वो मेरे पते से भटक भी गया तब भी एक न एक दिन मुझ तक पहुँच ही जाएगा। मेरा चित्त जिसकी निकटता से आह्लाद महसूसता है उसको मुक्त रखना मेरे लिए अनिवार्य है तभी वह नैसर्गिक रूप से मुझसे जुड़ा रह सकता है। डर दुश्चिंता और अपेक्षाओं के बोझ से मैं अपने मन के प्रिय को निस्तेज या निष्प्रभ नही करना चाहता हूँ।
सम्भव है मुझे उससे सांसारिक शिकायतें भी हो मगर वो शिकायतें मेरे मन में उसका स्थान इंच भर भी इधर उधर नही कर पाती है इन शिकायतों का निस्तारण मैं बहुधा समय के ऊपर छोड़ देता हूँ।
जो मेरा प्रिय है वो किसी और प्रिय शायद ही बन पाता है यह एक मेरे अस्तित्व की कमजोरी कह लीजिए या खासियत मैं इसे स्व के गौरव के रूप में देखता हूँ।
मेरे लिए निकटता या दूरी से अधिक महत्वपूर्ण है सम्वेदना के कोमल तंतुओं को नर्म स्पर्शों से निहारते रहना उनमें गांठ न लगने देना इसके बाद मैं एक ऐसी गहरी आश्वस्ति से भर जाता हूँ कि मुझे यह भय नही रहता कि मेरे प्रिय को कोई अपने किसी भी साधन से मुझसे विलग कर सकता है।
क्षण भर के लिए यदि ऐसा आभास भी आता है तो मैं उस पर मुस्कुरा भर देता हूँ फिर वो शंका कपूर की डली की तरह उड़ जाती है मेरे लिए प्रिय होने का अर्थ है किसी का समग्रता के साथ प्रिय होना न कि कुछ कुछ बिन्दुओं के साथ किसी को प्रिय समझना।
मैं का अतिशय प्रयोग कतिपय मेरा अभिमान न लगें इसलिए बताना जरूरी समझता हूँ यहां मैं में भी हम समाहित है मतलब मैं जिन्हें प्रिय हूँ और जो मुझे प्रिय है यह सम्वाद दोनों के चित्त की यात्रा का एक संक्षिप्त आख्यान भर है।

'मेरे प्रिय'

Sunday, September 27, 2015

इतवारी खत

अकेला होना मेरे लिए इसलिए भी कोई त्रासदी नही है क्योंकि इसमें कुछ अंशों में तुम्हारी भी महती भूमिका है। जिस स्थिति में तुम परोक्ष रूप से शामिल हो वो मेरे लिए कभी त्रासद नही हो सकता है बल्कि मैं उसमें उत्सव तलाश लेता हूँ।
तुम्हारे अपने स्थापित मानकों में हिसाब से मेरा कद छोटा है वय की लकीर हमारें मध्य तुम सम्पूर्ण उत्साह के साथ खींच देती हो। प्रेम तो खैर बड़ी गहरी और व्यापक जिम्मेदारी है तुम सामान्य मैत्री की अर्हता में भी मुझे अनुत्तरीण पाती हो। बिना किसी प्रेम या मैत्री के तुम मुझ पर एक अधिकार समझती हो यह मेरे लिए थोड़ी द्वंदात्मक और थोड़ी विचित्र स्थिति है। तुम्हारी बातों से सीधे सीधे यह लगता है तुमनें मेरे बारें में कुछ अमूर्त किस्म का फ्रेंम तय किया हुआ है और उसमें मेरे वजूद को मनोकूलता से फिट करने का प्रयास करती रहती हो।
यदि मैं मुक्त यात्री की भाँति अपने अनुभव तुम से साँझा करूं तो तुम्हे यह मेरे अस्तित्व का सामान्य होना लगने जैसा प्रतीत होता है फिर तुम अपने चयन पर खीझती हुई एक हद तक उपदेशात्मक हो जाती है तुम्हारी खीझ में मुझे खारिज़ कर मेरा अन्य की भाँति सामान्य होना की धारणा को स्थापित करने का साफ़ दिखता भी है।
दरअसल, तुम अभी तय नही कर पाई हो कि मैं तुम्हारा क्या हूँ? यह अनिर्णय की अवस्था तुम्हें मेरी कक्षा के क्या तो बेहद नजदीक ले आता है या फिर बेहद दूर।
जानता हूँ तुम्हारा स्पष्ट बोलना निसन्देह कड़वा बोलना नही है मगर जितनी साफगोई से तुम सीधा मुझे कह देती हो कि मैं न तुम्हारा मित्र हूँ न प्रेमी और न परिचित उसे सुनकर एकबारगी मेरे कदम जमीन से लड़खड़ा जाते है मैं अपने गुरुत्वाकर्षण का केंद्र भूल जाता हूँ। इन शब्दों की ध्वनि मुझे पल भर के लिए दुनिया का सबसे निर्धन जीव बना देती है।
यथार्थ के धरातल मैं फिर भी खुद को समेटता हुआ तुम्हारे समानांतर चलता चला जाता हूँ यह ठीक वैसी बात है आप नदी के किनारे चलते चलते एकदिन इंसानी बस्ती तक पहुँचने की उपकल्पना अपने मन में बना लें खासकर तब जब आप जंगल में रास्ता भटक गए हो।
आत्मीयता के प्रकाशन में कतिपय तुम्हें मैं अपने अस्तित्व के संपादक के रूप में पाता हूँ गोया तुमनें मेरे जीवन के लिए कुछ असाईनमेंट तय किए हो और मुझे अपने तमाम कौशल से उन्हें पूरा करके आपकी नजरों में अपनी उपयोगिता और सतत् प्रासंगिकता सिद्ध करनी हो।
मैं किसी भी किस्म की बैचेनी का शिकार नही हूँ बल्कि तुम्हारी बातें बड़े ध्यान से सुनता हूँ और प्रकृति के खेल पर विस्मय से भरता हूँ। तुम्हारें मानक और मार्ग से चलता हुआ भले ही मैं तुमसे कितना दूर चला जाऊं तुम्हें इस बात की कोई पीड़ा नही है मगर यदि मैं अपनी अनियोजित यात्रा के अनुभव तुम्हारे साथ बांटना चाहूँ तो तुम्हें एक तो उनकी सत्यता पर सन्देह होता है दूसरा तुम्हे लगने लगता है मैं वाग् विलास के चलते भटक रहा हूँ।
मुझे अपने अकेलेपन से कोई असुविधा नही है जीवन को किसी किस्म की शिकायत या रंज के सहारे मैंने कभी ढोया भी नही है मगर तुम्हारे साथ न जाने क्यों मेरे कुछ आत्मीय अनुबन्ध के फंदे अटक गए है जानते हुए कि तुम स्वयं को सही सिद्ध करने के लिए किसी भी सीमा तक निष्ठुर या क्रूर हो सकती हो।
खैर...! जब ये सब इतना एकतरफा है तो इसे मैं अपना ही पागलपन कहूँगा लेकिन फिलहाल इतना ही निवेदन कर सकता हूँ कि कम से कम मुझे अपनी धारणाओं से जंगल से मुक्त रखिए मैं स्वतः एक दिन खुद ब खुद उलट पाँव से तुम्हारी दुनिया से ओझल हो जाऊँगा जानता हूँ इससे तुम्हें कोई ख़ास फर्क नही पड़ेगा मेरे हिस्से में एक उदास शाम भी न आएगी मगर मेरी समग्रता और मौलिकता का मूल्य तुम्हें शायद तब थोड़ा बहुत समझ आएगा क्योंकि मेरे न होने पर तुम्हें और कोई फर्क पड़े न पड़े मगर इतना अहसास जरूर होगा कि आदमी दिल का साफ़ था।

'इतवारी खत'

Thursday, September 17, 2015

खता और खत

तुमसे बिछड़कर ऐसा कतई नही है कि मैं तुम्हें शिद्दत से याद करती हूँ। ना ही तुम्हारी अनुपस्थिति में मैं किसी किस्म का खालीपन महसूसती हूँ। बल्कि दिल की चश्मदीद गवाह हर मुलाकात के बाद हर बार ऐसा होता है कि मैं तुम्हारी शक्ल भी न देखना चाहती हूँ। कुछ दिन के लिए मैं हो जाती हूँ बिलकुल बंद तुम्हारी कोई बात तुम्हारा कोई ख्याल अंदर-बाहर नही आने देना चाहती। अक्सर ऐसा हुआ है कि तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारा ख्याल आया और मैंने उसे हिकारत से विदा कर दिया। हर समय तुम्हारे बारें में नही सोचती मैं और ना ही मुझे ऐसा लगा कि तुमसे मिलकर मुझे कोई बहुमूल्य चीज़ हासिल कर ली हो। तुम में यदि मैं नकार गिनने बैठ जाऊं तो मुलाक़ात तो क्या तुम्हारे बारें में कभी बात भी न करूँ। ना तुम अतीत हो ना ही भविष्य ना तुम्हें देखकर किसी किस्म की पूर्णता का बोध होता है मेरी प्यास को लेकर तुम्हारे पास किसी किस्म की आश्वस्ति भी नही है।
कई बार मुझे तुम्हारा मेरे जीवन में होनें पर भी संदेह होने लगता है क्योंकि यहां पर तुम्हारे होने के कोई निशाँ आगे या पीछे नजर नही आते है। तुम में मेरी दिलचस्पी अपने अंतिम द्वार पर खड़ी सिसकती है यह ठीक वैसा है किसी ऊंचे पहाड़ से आत्महत्या की सोचना और फिर वहां की गहराई और ठंडी हवाओं में खोकर सम्मोहन में खो जाना।
अपने एक सफल सुखी जीवन में तुम्हारे लिए कोई स्थान मैं कभी नही पाती हूँ तुम एक क्षण की तरह आकर किसी पल में अटक गए हो मैं उसी पल में तुम्हें देखती हो और देखते हुए हमेशा खुद को दो हिस्सों में बटा पाती हूँ।
सच बात तो ये है तुम से न मेरी मैत्री है और न प्रेम ना तुम मेरे जीवन के किसी रिक्त स्थान को भरने वाले शब्द हो।
तुम्हारे बार इतना क्रूर स्पष्ट और व्यवहारिक सोचने के बाद आज एक आत्म स्वीकृति जरूर करना चाहती हूँ।
ना मैं तुम्हें विस्मृत कर पाती हूँ और न घृणा तपती दुपहर में पुरवा की एक ठंडी बयार की तरह तुम्हारा इन्तजार मुझे रहता है।
हर बार अंतिम मुलाक़ात के मानस के बावजूद कुछ न कुछ छूट जाता है हमारे मध्य जिसे रोज़ तुम्हारे खिलाफ बातें सोचकर मिटाने की असफल कोशिश करती हूँ।
न तुम मिटते हो न घटते हो किसी मिट्टी के बनें हो तुम।
हर बार की तरह आज फिर बड़बड़ाकर यही कहती हूँ मुझे खत्म करना है ये सब मुझे बर्दाश्त नही होता तुम्हारी छाया का बोझ।

'खता और खत'

Wednesday, September 2, 2015

सर्दी और स्वेटर

ये सर्दी का पहला हफ्ता अपने आने के इन्तजार में है धूप ने नमी को सोखने के जतन सूरज से गुरुमंत्र के रूप सीख लिए है। तेरी गली के नन्हे कुकरमत्तो ने सूरज की तरफ करवट ली और तुमने छत पर पहली दफा सूरज से आँख मिलाई तो मन पर बरसात ने जो काई जमाई थी वो सूख कर उखड़ने लगी मन की सख्त दीवारों पर इस धूप के स्पर्श ने उनका रेत झाड़ दिया।
अभी तुम छत से नीचे उतरी भी न थी कि सीढ़ियों पर ख्याल आया उस अधूरे स्वेटर का जो बिन नाप लिए किसी एक सर्दी में तुमने बुनना शुरू किया था उसके फंदे तुम भूल गई हो और शायद अब उस नम्बर की सलाई भी न मिल पाएं मगर उस अधूरे स्वेटर को इस सर्दी की धूप में पूरा करके कम से कम तुम उस अधूरी मानसिकता से निकल सकती हो जिसमें रंगो डिजाइन की उलझन नही बल्कि स्मृति के विषम फंदे उलझे पड़े जिसमें आस्तीन  छोटी पड गई है तुमने अपनेपन की कुछ बटन इस अधूरे स्वेटर के लिए चुने थे अब उनके भी कोने टूटने शुरू हो गए है।
यह गुनगुनी धूप तुम्हारे मन की शिकायतों को सेंक कर शायद पका दें फिर ये तुम्हें तकलीफदेह नही लगेंगी फिर तुम अपनी जीवन के विषम रंगों में रंगी अपनी उँगलियों को मन के ठहरे हुए पानी में साफ़ करके फिर से उन सलाइयों में फंदे पिरोओगी जिनकी लड़ाई से एक अधूरा स्वेटर बनना है।
इस जाड़े की इस पहली धूप में दोपहर बाद यादों के सन्दूक से निकालना होगा वो दो रंगी ऊन का गोला जिस पर नमी चढ़ आई है फिर बुनने होंगे कुछ बेवजह के फंदे, सलाइयों के नम्बर के साथ भी समझौता करना पड़ सकता है मगर तुम्हारा मन जब गुनगुनाता हुआ बुनेगा यह स्वेटर तो इस उधड़े हुए रिश्तें की तुरपाई भी होगी इस स्वेटर के बहाने यह बात मुझे आश्वस्त करती है और इसी बिनाह पर अगली सर्दी तक मै खुद आऊंगा चाय के बहाने यह स्वेटर लेने जो तुम बुन रही हो कई सालो से यह कोई वादा नही बस अधूरेपन से ऊबे एक अधूरे मन की अभिलाषा है।

'सर्दी स्वेटर और अधूरा मन'

© अजीत

Thursday, August 6, 2015

सराय

दिल की बस्ती में अधूरेपन कुछ मुहल्ले हैं. कुछ तंग गलिया अंत पर जाकर आपस में मिल जाती हैं.दीवार दिखती जरूर है मगर उसके सहारे खड़ा नही हुआ जा सकता है.स्मृतियों के जंगल से कभी कभी ठंडी हवा आती है अफ़सोस ये हवा भी इस दीवार को लांघ नही पाती.हम जब खुद को  कुछ आवारा टीलो के ओट लेने के आदी बना चुके होते  हैं तब इन गलियों में आकर सच में हमारा दिशाबोध समाप्त हो जाता है.खुद के सबसे सुखद पल को इसी दीवार सहारे उकडू बैठ कर सोचने लगते है.दरअसल वक्त के बीतने के बावजूद भी बहुत कुछ हमारे अंदर ऐसा बच जाता है जो न बीत पाता है और न रीत ही पाता है. समय का एक छिपा हुआ सच हमें चौकाने का भी है. अंतर्मन हमेशा अनापेक्षित को सोचने से इंकार करता है मगर जब वो घटित हो जाता है तब दिल में अफ़सोस के बादल जरूर आकर बेमौसमी बारिश कर जाते हैं.
जीवन को एक यात्रा भी मान लिया जाए तब भी हमारी मंजिल के अदलते बदलते पतों की वजह से यह तय करना जरा मुश्किल होता है कि किसका साथ और किसका हाथ कब कहाँ छूटने वाला है.जीवन में सबसे उपेक्षित पड़े पल दुःख की घडी के सच्चे साथी सिद्ध होते हैं.एक वक्त पर जो लोग जीवन में अपरिहार्य रूप से शामिल थे वे कब किस असावधानी की वजह से हाथ छोड़ देते हैं पता ही नही चलता है. कुछ ऐसे लोग जिन पर हमारी 'एक्सक्लूसिव खोज' का दावा रहा होता है वो कब बेहद मामूली चीज़ों के लिए अपना चयन अलग दिशा में सिद्ध करने में लग जातें हैं.
दरअसल किसी का मिलना और मिलकर बिछड़ना एकबारगी फिर भी स्वीकार किया जा सकता है मगर समय की अवांछित षडयंत्रो और समय के एक खास दबाव से उपजे विकल्प को देखते हुए अपनी स्मृतियों के सबसे निर्वासित कोने में छोड़ कर आने में जो थकान होती है उसकी टीस गाहे बगाहे दिलों में बेचैनियों के लिफ़ाफ़े खुले छोड़ देती है उनसे रिसते लम्हों की नमी से दिल ओ जेहन की आद्रता हमेशा बढ़ाती रहती है.यह एक जानलेवा बात जरूर है. 
धीरे धीरे सब कुछ व्यवथित दिखता है क्योंकि समय इस नियति की चक्र पर हंसकर आगे बढ़ जाता है और हम पीछे मुड़कर देखते हुए अपनी आस्तीन अक्सर शाम को गीली करते रहते है.शाम और रात आवारा किस्सों और खयालो की सराय हैं जहाँ के नीम अँधेरे में हम चुपचाप सिसकते है और अपनी रौशनी पैदा कर लेते हैं. ये हंसी ये मुस्कुराहट इसी रौशनी की पैदाइश है जिस पर दुनिया फ़िदा होती है.

'मन की सराय'

Monday, August 3, 2015

सावन

सावन का महीना आधा साल बीतने पर हर साल आता है। जब आधा बीत चुका होता है तब यह हरजाईयों के दिल को तसल्ली देने के लिए अपने साथ बारिश बूंदो की झड़ी भी लाता है। न जाने क्यों सावन इस बात से अनजाना रहता है कि आधा साल बीतते बीतते मन की अंधेरी गलियों में रोज़ होती बारिश ने अंदर लगभग बाढ़ जैसी स्थिति बना दी होती है अब बचे हुए पांच चार महीनों में कुछ लोग उसकी की सीलन में दिल को जलाकर रोशनी की नाकाम सी कोशिस करने वाले होतें हैं। सावन का महीना मुझे कोई ईश्वरीय षड्यंत्र का हिस्सा लगने लगता है मानों बाहर की बारिश अंदर की बारिश से कोई बदला लेना चाहती हो। दिल के गलियारों से गुजरते हुए हम मन के उस निर्जन टापू पर बैठ अंखड रुद्राभिषेक को देख सकते है जो मन की छोटी छोटी कामनाओं की पूर्ति ना होने पर भी चेतना के शिव तत्व पर रोज़ नियमित रूप से करता जाता है। किसी की स्मृतियों के स्तम्भन में मन वचन कर्म की त्रियुक्ति से हरी भरी बेल पत्र का अर्घ्य देते हुए उसे शीत आंसूओं के भाप से धोते है हमारी अनामिका के निशान उन पर स्थाई रूप से छपे होते है।
दरअसल सावन का महीना उपासना और मन के अनुराग के बिना शर्त अपर्ण का महीना समझा जाता है मगर सही गलत की भौगोलिक सीमा रेखाओं में फंसे दिलों के लिए यह मन के रास्ते कुछ कोमल अहसासों के तर्पण का महीना बन जाता है। कुछ ऐसे विरक्त साधकों की पड़ताल करते हुए अपने चित्त में अवस्थित शिव शक्ति की अनुमति अनिवार्य होती है तभी अनहद के नाद में मध्य सूक्ष्म आहों की शंख ध्वनि हमारी प्रखर चैतन्यता को जाग्रत करती है और हम टिप टिप पड़ती बूंदों के मध्य प्रेम के पंचामृत का आचमन कर पातें हैं।
सावन का महीना मुक्ति के पांचजन्य शंख में ध्वनि फूंकता है तभी तो इस ध्वनि से जहां अंदर कुछ टूटता है हम  अतीत के आरोग्य के लिए महा मृत्युंजय मंत्र का जाप मन ही मन करने लगते है।मन का पंचाग उसी क्षण सावन की घोषणा कर देता है बाकि काल गणना के लिहाज़ से साल में एक बार सावन आता है जबकि काल से होड़ में लगे कुछ निर्वासित लोगो के बारह महीने के सावन में ही जीतें है।

'सावन में मन'

Saturday, August 1, 2015

चाँद

आसमां के रास्तें एक चांद रोज़ जमीं पर उतरता है। जिसे मै देखता हूं और नरगिस के फूलों की मानिंद उसे छूकर खुशबू को रुह का पता देना चाहता हूं मगर वो बेफिक्र मेरी बेकली देख सिर्फ मुस्कुरा भर देता है। उसकी अधखिली हंसी के नूर से मेरे जिस्म की महीन परत बिखर जाती है उसकी रोशनी में मै खुद को पहले से ज्यादा साफ पाता हूं। दिल के गलियारों में सूफियों की टोली बसती है जो मुझे कलन्दर होने का इल्म अता करना चाहती है मगर उसे अभी मेरे गाफिल होने को लेकर शक ओ सुबहा है।
कभी कभी कायनात भी सब्र का इम्तेहान लेने लगती है चांद के पास तारों की गवाही है इसलिए वो खुद को सिर्फ मेरा होने का समन तामील नही होने देता उसके पास बारिश की बूदों के छोटे छोटे वजीफे है जो उसने बादलों से उधार लिए थे मुझ से रोज़ चांद चंद आवारा मसीहाओं के पते पूछता है और रोज़ अपनी याददाश्त का हवाला देकर बच जाता हूं। मेरे अपने वजूद के डर मुझ पर इस कदर तारी है कि मै ख्यालों की कतरन से किस्सागोई की पंतग उडाता हूं मगर उसकी डोर मेरे हाथ में नही है उसे वफा के कारोबारियों ने मुझसे छीन लिया है। मरासिम के खलीफाओं की बसती का मै अकेला गैर इल्मदार फकीर हूं।
चांद से मै इल्तज़ा की शक्ल में गुजारिश सौपता हूं खुद को खारिज़ करके अपने इश्क और जुनून की गवाही देता हूं मगर वो मेरा हाकिम बनने से मुकर जाता है जबकि उसने तन्हाई की सिसकियों में मेरी माथे पर भरोसे और उम्मीद का बोसा रफू किया था। पता नही मुझमें और चांद में कौन किसका मुरीद है कौन किसका मुर्शिद है। चांद को मुझसे इश्क है यह नही जानता मगर रात के तीसरे पहरें मे जब चांद सबसे अकेला होता है तब उसे मेरी तलब जरुर लगती है तभी तो वो खिडकी से रोशनी की शक्ल में मेरे सिराहने दाखिल होता है उसे पता है उस वक्त मै ख्वाबों में उसी को तलाश रहा हूं।
तमाम इल्म और अदब की पैबन्द के बावजूद मेरे अक्स में रोशनी आरपार दाखिल होती है मेरा वजूद वक्त की नमी से पसरी सीलन की वजह से इतना चुपचाप करवट बदलता है कि खुद मुझे खबर नही होती है। चांद मेरी बर्बादियों का चुस्त तमाशबीन है वो रुह की हरारत की वजह जानता हुआ इल्म के दवाखाने से मेरे लिए शिफा का शरबत नही लाता उसकी ठंडी आहों में तपन है जिसमें मै रोज जलता हूं एकदिन ऐसे ही जलता हुआ चांदनी के बीच कोयले से राख में तब्दील हो जाउंगा।

...अब मैने गुनगुनाना बंद कर दिया है चंदा रे चंदा कभी तो ज़मी पर आ बैठेंगे बातें करेंगे !

©डॉ.अजित

अफ़सोस

अफ़सोस की शक्ल बदरंग होती है। ये न आता हुआ अच्छा लगता है न जाता हुआ। दिल जब धड़कते हुए इतनी आवाज़ करने लगता है कि आपके कान चाहकर भी अनसुना न कर सके तब पता चलता है दिल की बस्ती का आख़िरी पैरोकार भी इलज़ाम की तसदीक करके कहीं आगे निकल गया है। ज़ज्बात गैर जरूरी जाया न हो इस बात का इल्म रखते हुए भी अक्सर गलतफहमियों के शिकारे अपनेपन की झील में डूब जातें हैं। इंसानी वकार का ये कैसा दयार बनता जाता है जहां यकीं रोज़ नई शक्ल इख़्तियार कर लेता है।
ज़बां  नादाँ है ये जेहन की बारिकियों से वाकिफ नही होती है कभी दिल्लगी तो कभी दिल की लगी में ये उन वाकयो का जिक्र करते हुए फिसल जाती है जो जिक्र कभी अफ़साने में भी नही थे।
मुसलल रूप से किसी की निगाहों में अपने भरोसे का मुस्तकबिल तलाशना बेहद थकावट भरा काम है। बेसाख्ता ख्यालों की तुरपाई करते समय महज़ ऊँगली ही नही दिल के नरम गलियारें भी जख्मी हो जातें हैं। लफ्ज़ दर लफ्ज़ मरासिम के रेगिस्तान में तन्हा भटकतें दिल जेहन और जज्बात का कोरस न जाने कौन सी मौसकी छेड़ देता है और फिर कुछ भी सुनना मुनासिब नही लगता है।
दरअसल तुम्हारी निगाह में सिफर हो जाना सदी का सबसे बड़ा हादसा है यह महज एक हादसा ही नही रह जाता है ये खुद के रूह को जिल्लत के हवाले करने जैसा तजरबा देकर जाता है। दानिस्ता या गैर दानिस्ता कुछ लम्हें इस तरह हमारे दरम्यां दीवार की माफिक आकर खड़े हो जाते है कि उनके आरपार न मेरी आवाज़ जा सकती है न मेरी रूह की पाक गुहार तुम तलक पहूँचती है। वक्त कुछ इस तरह की लिखावट में मेरे माथे पर न जी गई तफ़रीह की तकरीरे लिखता है कि तुम्हें मेरा वजूद ही नाकाबिल ए बर्दाश्त हो जाता है।
बहरहाल ताल्लुकात में बहुत ज्यादा तकरीरे लफ्ज़ का वजन कम करती है इसलिए खुद की सफाई में कुछ कहने का वकार मेरे पास नही है। तुम जिस मेयार से मेरे बारें में राय कायम करती चली जाती हो उसकी बुनियाद बहुत गहरी नही है इसलिए मेरी तकलीफ बस इतनी सी है एक मुतमईन से सफर में तुम्हारी किस्सागोई में मेरा वजूद हाशिए पर बचा हुआ है,कहीं ऐसा न हो तल्खियों की आंधी में मेरे वजूद की पाकीजगी तौहीन का सबब बन तेरे दर से हवा हो जाएं इसलिए अपनी तमाम काहिली जाहिली के बावजूद मैं दुआं फूंकता हूँ कि रब तुम्हें इल्म की रोशनी और अदब का काजल अता फरमाए ताकि तुम सही गलत में फर्क कर सको मेरी रिहाई का मुस्तकबिल तुम्हारी मुंसफी में नही तुम्हारी रूहानी मौजूदगी में मुकर्रर हो बस मेरी इतनी सी ही आख़िरी ख्वाहिश है।

© डॉ.अजित

Monday, July 20, 2015

यात्रा

दो लम्हों में बीच सिसकती छोटी सी दूरी अचानक से कई सौ किलोमीटर में तब्दील हो जाती है। यादों के बीहड़ में भटकतें दिल एक बार बागी हो जाए तो फिर उसका विश्वास हर किस्म के तंत्र से स्वत: उठ जाता है अतीत की कोई वाचिक सांत्वना उसे आत्म समपर्ण के लिए प्रेरित नही कर पाती है।
यूं ही अकेलेपन की दहलीज़ पर बैठ बुदबुदाते ख्याल आता है कि दो विपरीत दिशा में खड़ी छाया की प्रतिलिपियां संरक्षित रखना कितना मुश्किल काम हैं। गाहे बगाहे दिन में एक बार कम से कम एकबार मन दूरियों की पैमाईश फांसलों के पैमाने से करने बैठ जाता है।
रात में ठीक सोने से पहले एक ख्याल की गंध बरबस चेहरे पर मुस्कान लाती है तो हम सिकुड़ कर खुद को उस क्षण के हवाले करतें है तभी वक्त की सिलवट हमें करवट बदलनें का हुक्म देती है और हम तकिए से खिसक कर उस दुनिया की गोद में सिर टिका देते है जहां नींद तो आती है मगर न सुकून मिलता है और न मनमुताबिक़ ख्वाब।
कभी कभी याद यूं भी आती है और हमें अकेला छोड़ जाती है दुनियादारी के गणित के बीच जोड़ घटा गुणा भाग और हासिल के बीच हम भूल जातें जिंदगी का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा और उसका एक छोटा सा किस्सा।

Sunday, June 21, 2015

मनडे रागा

किसी की स्मृतियों के स्थगन काल का हिस्सा बन जाना ब्रह्माण्ड की सर्वाधिक असुरक्षित जगह की नागरिकता के लिए आवदेन करने जैसा अनुभव था। मुद्दतों का सफर किस्तों में ख़तम हुआ मंजिल ने करवट बदली तो रास्तों ने पहचानने से इनकार कर दिया। एक सुबह आप जागतें तो पातें है कल रात सोने से पहलें आप जिस टापू पर अकेले नंगे पाँव टहल रहें थे उसको तो वक्त का समन्दर नील गया है वहां से अब दुर्लभ अनुभवों के संग्राहलय के लिए कुछ दस्तावेज़ मंगाए जा रहें हैं ताकि कम से कम उस जगह के नक्शे को संरक्षित करके रखा जा सके जहां अपनी मर्जी से आने जाने की आजादी सबको नहीं थी मगर जोखिम लेकर आप वहां के गाढ़े पानी में खुद की शक्ल देख सकते थे।
दरअसल बात सिर्फ इतनी सी होती है आप मन के स्तर सतत् प्रासंगिकता बचाए रखने के लिए स्मृतियों से कुछ पल रोज़ उधार लेतें है और जिस दिन आप कर्जा माफी की उम्मीद में अपनी फटी जेब देखतें है उस दिन आपकी रोशनी का एक हिस्सा स्वत: चला जाता है फिर आप दृष्टि दोष के सहारे अनुमानों में जिंदगी जीतें है स्मृतियों का यह एक बड़ा स्याह पक्ष है।

'मनडे मॉर्निंग रागा'

Tuesday, June 9, 2015

दर ब दर

डेढ़ साल हो गए दिल्ली गए। ऐसा नही है दिल्ली में मेरे तलबगार नही है बस मेरी तलब दिल्ली को लेकर थोड़ी कमजोर पड़ जाती है। दिल्ली में मेरे एकाध ठिए है जहां सत्संग होता रहा है। कम से कम दो नए दरवाजों की कॉल बेल मुझे बजानी थी मगर मेरी ऊंगलियां माथे का पसीना ही पूंछती रह गई।
कई बार दिल करता है दिल्ली जाऊं मगर ऐन वक्त पर मैं दूसरी बस में बैठ लेता हूँ ये बस मुझे किसी मंजिल तक नही ले जाती आधे रास्ते पर उतार देती है वहां खड़ा हो मैं दिशाशूल का विचार करता हूँ उस वक्त मेरी पीठ दिल्ली की तरफ हो जाती है।
मैं अब लखनऊ जाता हूँ वहां दरीबा कलां में होटल प्रीत के कमरा नम्बर 407 में रुकता हूँ। लखनऊ अदब का शहर है मुझे वहां का पॉलीटेक्निक चौराहा कुछ कुछ भूल भूलैय्या जैसा लगता है मैं नाक की सीध चलता हूँ फिर वहां से राईट ले लेता हूँ पिछले दिनों मैं बापू भवन मॉल एवेन्यू के चक्कर काटता रहा हूँ राजभवन और विधान सभा के बीच में मेरे जूतों नें कुछ चाँद जमीन पर बनाएं है वे सब एक दिन धूल में उड़ जाएंगे इस तरह इस शहर में मेरा आख़िरी कदम खत्म होगा।
दिल्ली दिलवालों का शहर है विक्टर्स की सिटी है दिल्ली में मुझे मेट्रो रेल मेरी बड़ी बहन जैसी लगती है उसके रहतें मैं आश्वस्त हो सकता हूँ कि किसी को तिलकनगर तो किसी को शाहदरा फोन करके बुला लूँगा वो मेरा हाथ थामें अपनें घर तक ले जाएंगे जैसे कोई लम्बी कैद के बाद रिहा होकर अनजान गलियों में भटकना चाहता है ठीक वैसे ही मैं भी एक दिन दिल्ली आना चाहता हूँ मगर कब ये पता नही।

'दर ब दर'

Wednesday, June 3, 2015

तीसरे पहर की बारिश

ये तीसरे पहर की बारिश है। कुछ ग्राम बूंदे तपती धरती पर शगुन के छींटे मारने आई थी। उनके पास आश्वस्ति के पैगाम थे। बादल दरअसल मौसम की चालाकियों में फंस गए है फिर भी वो अपनापन बचाकर रखना चाहतें है इसलिए धीरे धीरे टूट रहें हैं। धरती मौन है उसने थोडी देर के लिए आंखे मूंद ली है। जो बूंदे सबसे पहले धरती पर आई वो इतनी खुश नही थी वो तब आना चाहती थी जब धरती की त्वचा से शिकायत की गर्द उड जाए फिलहाल वो अनमनी इधर उधर गिर कर दम तोड रही है उनकी आंखों में हवा की खुशामद साफ नजर आती है।

तीसरे पहर की बारिश से शाम भी उदास है क्योंकि उसे अब चुपचाप रात के हवाले होना पडेगा आसमान में उडते कुछ परिन्दे दिशाभ्रम का शिकार हो अजनबी पेडों पर आश्रय तलाश रहें है। ये पेड किसी का इंतजार न करने के लिए शापित है इसलिए इन्हें किसी परिन्दे को देखकर रत्तीभर भी खुशी नही हुई है उनकी शाखें थोडी शर्मिन्दा जरुर है।

इस बारिश में कुछ शिकायतों के रंग भी घुले है इसलिए माथा धीरे धीरे ठंडा हो रहा है मगर कान अभी तक गरम है। इस बारिश के लहज़े अजनबी है इसलिए मै कमरें में ही बैठा हूं जब चाहने वाला कोई न हो तब बारिश के खतों की तलाशी लेने का मन नही होता है। बारिश के पास चाहतों के कुछ बैरंग खत है मगर वो उन्हें वापिस अपने साथ ही लेकर जाएगी उसने उनके पतें दिखाने से साफ इंकार कर दिया है।

कमरें की सीलन में बेहद मामूली इजाफा हुआ है। दीवार पर जमी धूल चिपक कर किसी पेंटिंग का आकार लेती है जैसे बिस्तर पर कुछ आडी तिरछी सिलवटें पडी हों मै इस पर थोडा विस्मय से मंत्रमुग्ध होता हूं। खिडकी से बाहर झांकता तो देखता हूं एक बादल के टुकडे के पीछे चांद झांक रहा है वो धरती की गर्दन पर एक स्वास्तिक का निशान बनाना चाहता है मगर बारिश के चलतें धरती के भीगें बालों ने उसका उत्साह कमजोर कर दिया है। वो अपना बचा हुआ आत्मविश्वास खो बैठा है।

ये तीसरे पहर की बारिश है इसलिए मेरा मन तीन हिस्सों में बंट गया है एक मेरे पास है एक तुम्हारे पास है और एक धरती की उदासी पर बारिश की मनुहार देख रहा है। समानांतर रुप से इन तीनों के पास अपने बंटे होने की कुछ पुख्ता वजहें है इसलिए मैने तीनों से बातें करनी बंद कर दी है क्योंकि यदि मै एक बार बातों में लग जाता तो फिर धरती और बारिश के विदा गीत में कोरस न बन पाता है। मेरे पास आश्वस्ति के स्वर नही है धमनियों में ध्वनि का बोध कमजोर है मगर मैं मध्य का एक सुर पकड कर कोरस बन खुद को इस तीसरे पहर की बारिश में शामिल कर रहा हूं। इस पहर की यही मेरी अधिकतम उपलब्धि है।

‘बारिश: तीसरें पहर की

Monday, June 1, 2015

मोशन इमोशन

गर्मी के कारण कल से मोशन लूज़ और इमोशन टाइट हो रखें है दोनों की थकान जीवन को विश्रांति से भर रही है। मैं पलकें मूंदे ध्यानस्थ हूँ तरल गरल के मध्य रेंगते शरीर को देखता हूँ। तन विरेचित होता है और मन अभी भी विषयगत दासता के चलतें गरिष्ठता की तरफ आकर्षित होता है। ताप के सन्ताप के मध्य मन की जलवायु समशीतोष्ण से ऊष्णकटिबंधीय हो चली है। छत पर एक कौआ कांव कांव करता है उसकी शिकायत है कोयल ने उससे सुर छल से छीन लिया है अब उसके पास कर्कश ध्वनि मात्र बची है मैं उसे यथास्थिति में जीने का सूत्र देने चाहता हूँ मगर वो भूख प्यास के कोलाहल के बीच अन्यत्र उड़ जाता है। चारदीवारी में कृत्रिम लू मुझ पर फैंकने वाले पंखें की तरफ मैंने एक बार अनमना होकर देखा तो लगा उसे जमाने भर से इतनी शिकायत है कि उसकी इच्छा कभी कोई नही पूछता दुनिया ने उपयोगितावाद के दर्शन के चलते उसका इतना उपयोग किया है कि वो खुद की गति भूल गया है बिजली से कोई दोस्ती नही है वो बस हवा को काट रहा है शायद मुझे देख उसे इंसान का इंसान से कमतर होना याद आता है इसलिए वो लू से मुझे पकाकर एक मुकम्मल इंसान बनाना चाहता है।
इस कमरें के चारों कोनों में चार छोटे त्रिभुज जितनी जगह खाली है वहां कोई झाड़ू नही पहूंच पाती है वो इन कोनों का खुद का बनाया निषिद्ध क्षेत्र है वो वहां कुछ बदलाव नही चाहते क्योंकि बदलाव का एक अर्थ सम्पादन भी होता है जो नैसर्गिक प्रवाह का मृत्यु गीत लिखता है बड़ी ही महीन लिखावट में।
नंगे पैर जमीन पर रखता हूँ तो तलवों को ठंडक का अहसास होता है ये ठण्ड बाह्य तापमान से प्रभावित नही है बल्कि इस एक स्थाई स्रोत भूगर्भ की नीरव शीतलता है जहां पिछले जन्म में मैनें अपने लिए एक टुकड़ा आरक्षित किया था।
धरती इसी जन्म में उऋण होना चाहती है इसलिए मेरे सपाट तलवों पर चन्दन वन का टीका लगा कहती है मन के ताप से मुझे मत तपाओं हो सके तो अपने पूर्व जन्म के संचित कर्म के बल से शीत स्तम्भित हो जाओं।
और मैं लूज मोशन तथा टाइट इमोशन के मध्य अपने तलवें सिकोड़ता हूँ फिर एड़ी घिसी चप्पल को पहनता हूँ धरती मुझसे नाराज़ नही होती बल्कि मुझे मुआफ़ कर देती है क्योंकि उसे पता है कल आज और कल मैं सोचालय के दर्शन पर टीकाएं कर रहा हूँ मुक्ति को अनुभूत किया जाता है अभिव्यक्त नही इस बात को धरती और इस कमरें से बेहतर कौन जान सकता है भला।

'सोच और मोच,

Thursday, May 14, 2015

गर्मी

गर्मी का मौसम है। लू चल रही है। सर्दी की तरह मन की रुमानियत तलाशता हूं मगर लाख आवाज़ देने पर उसका कोई पता नही चलता है। गर्मी के ये चार महीनें अपनी उपेक्षा से इतने आहत होंगे कि तपाते हुए मुझे भस्म करना चाहेंगे। इन चार महीनों में नही लिख पाउंगा मैं एक भी खत कविता या गज़ल। तापमान के लिहाज़ से मन के ग्लेशियर को पिंघलना चाहिए मगर मेरी केवल देह पर पसीना आता है मन का तापमान वही जनवरी में अटका हुआ है। नही जानता कैसे दिल की कन्द्राओं में जमीं आंसूओं की बर्फ सुरक्षित है।

कभी कभी जी अतिवादी हो जाता है। बंद कमरें में खिडकी पंखा सब बंद करके समाधिस्थ हो बैठ जाता हूं पसीना ललाट से चलकर एडी तक पहूंच जाता है मगर मन की स्याह ठंडी बर्फीली दुनिया पर लेशमात्र भी प्रभाव नही पडता है। देह भीगकर ठंडी हो जाती है गर्मी का अहसास भी लगभग समाप्त हो जाता है फिर भी मन किसी सवाल का जवाब नही देना चाहता है। यह स्थिर प्रज्ञ होने जैसा जरुर प्रतीत होता है मगर वास्तव में यह ऐसा नही है। खुद की तलाशी लेने पर मै इसे कुछ-कुछ द्वन्दात्मक भौतिकवाद के नजदीक पाता हूं। पता नही यह बाहर की गर्मी का असर है या अन्दर की यादों की ठंडक का मगर मै खुद से बहुत दूर निकल आया हूं।

गर्मी के इन चार महीनों के परिवेशीय प्रतिकूलता मुझे विवेक का दास बनाना चाहती है जबकि मै सर्दियों से दिल के सहारे जी रहा हूं और इस तरह जीना मेरे लिए सुखद भले ही न रहा हो मगर मै उस मनस्थिति को ठीक ठीक समझ पाता हूं। फिलहाल मै यह तय नही कर पा रहा हूं कि मै गर्मी के ताप से खुद का चेहरा कैसे साफ करुं।

मुझे पहाड बुला रहें है उन छोटे छोटे रास्तों के खत मुझे मिलें है जहां कभी मैने अपनें जूते के फीते बांधे थे। पहाड की चढाई चढते हुए मैने थकान में यूं ही बेतरतीब ढंग कुछ फूलों पत्तियों को क्रुरता से मसल कर फैंक दिया था उन्होने कहा है कि आ जाओं हमनें तुम्हें नादान समझ माफ कर दिया है अब हम तुम्हारा इंतजार कर रहे है। स्वप्न में मुझे मीठे पानी के छोटे छोटे स्रोत कहते है हम तुम्हारी हथेलियों को चूमना चाहते है तुमने कितनी मासूमियत से अपने हाथ को जोड ओक बना कर हमारा पानी चखा था तुम दिल के बुरे आदमी नही हो इसलिए प्यास के बावजूद विनम्र दिखाई देते हो वो अपना अपना पता मेरी जेब में रखतें है सुबह उठकर देखता हूं तो मुझे मेरी जेब थोडी गीली महसूस होती है।

कुछ पत्थरों ने भी सन्देशे भिजवाएं है कि उनका भार कुछ ग्राम में कम हो गया है वो सूरज़ के ताप के बीच मेरी पीठ की छाया में थोडी देर सोना चाहते है। उनका आग्रह है इसी गर्मी में उन तक मै आ जाऊं क्योंकि अगली गर्मी तक वो अपना स्थान छोड नदी मे कूद आत्महत्या कर लेंगे उनका प्रेम देखकर मैं द्रवित हो जाता हूं।

गर्मी का आना महज ताप का आना नही है गर्मी का आना मेरे लिए सर्दी का जाना और चांद का कमजोर पड जाना है ऐसे में मैं पहाडों से आश्रय मांगता हूं वें मेरे निर्वासन को भली भांति समझते है इसलिए उन्होनें मुझे भौतिक/अभौतिक शरण देना स्वीकार कर लिया है।

तुम वातानूकूलित कक्षों में बैठ लिक्विड डाईट और लेमोनाईड के प्रयोग करते रहना मै इस गर्मी में जीने के लिए पहाड पर जा रहा हूं अब मुझ तक तुम्हें अपनी बात पहूंचानें के लिए दुगनी गति से चिल्लाना पडेगा खैर इसमें तो तुम माहिर भी हो। मै ऊपर से तुम्हारे माथे का पसीना देख केवल मुस्कुरा दिया करुंगा मेरी हंसी तुम बादलों के गडगडाहट मे सुन सकोगी और हां कभी बेमौसमी बारिश आ जाए तो समझ लेना यहां मैनें तुम्हें याद किया है याद करके रोया हूं इस बात पर तो तुम खैर यकीन करनें से रही।

‘इस गर्मी

Wednesday, May 13, 2015

बेमौसमी बारिश

बेमौसमी बारिश है।तुम्हारे हाथ की चाय पीने का मन है। तेज़ हवाएं बारिश के साथ आईस-पाईस खेल रही है। बादलों की अफवाह का असर सीधा दिल पर हो रहा है। बारिश ने जो तुम्हारें खत पहूंचाए है उनकों पढनें के लिए मैनें पहले बूंदों के हवाले कर दिया है तुम्हारी बेरुखी की स्याही थोडी नमी सोख कर बह रही है मै उसे छू कर अपनी अनामिका से लिफाफे पर स्वास्तिक बनाता हूं इसके बाद तुम्हारें तमाम उलाहनें भी पवित्र दिखने लगें है।
मेरे माथे पर नमी है दिल में खुश्की और आंखों मे तरावट कोई देखे तो साफ अनुमान लगा सकता है कि मै किसी की याद में हूं। मै बारिश को देखता हूं और हवा के कान में मंत्र फूंकता हूं मै चाहता हूं बारिश तब तक न थमें जब तुम तुम्हारे मन के गीले होने की खबर बादल मुझ तक न पहूंचा दें।
अभी सोचा चाय और बारिश दो अजीब से बहानें है जिनके जरिए तुम्हारें आंगन में मै गाहे बगाहे दाखिल होता रहता हूं जबकि आजतक न वक्त पर चाय मिली है और न बारिश। आज की बारिश में तुम्हारे गीले तौलिए की कसम खाकर कह सकता हूं मै बूंदों के बीच खडा जरुर हूं मगर भीग नही रहा हूं। मै केवल कुछ बातें सोच रहा हूं बारिश मे भीगनें के लिए थोडा लापरवाह होना पडता है सोचकर केवल हंसा जा सकता है क्योंकि रोने की भी अकसर कोई वजह नही होती है। मेरे पास भींगने की तमाम वजह है और बारिश से बचकर अन्दर कमरें में दाखिल होने की एक भी वजह मेरे पास नही है क्योंकि वहां चाय के साथ तुम मेरी प्रतीक्षा में नही हो। तुम फिलहाल कहां पर हो यह बात मुझे बारिश बादल हवा बूंद किसी ने भी नही बताया है।
कुछ बूंदे मेरी त्वचा के तापमान से आहत है उन्हें मेरे मनुष्य होने पर सन्देह है वो आपस में गुपचुप ढंग से बात करती है और बादलों पर ताने कसती है कि उन्हें मैदान में भी पहाड पर क्यों पटक दिया है। ठंडी हवा मेरे कान के सबसे निचले हिस्से को मन्दिर की घंटी की तरह हिलाती है मगर वहां से कोई ध्वनि नही निकलती है हवा को मेरे कान के समाधिस्थ होने पर सन्देह है इसलिए वो बार बार तुम्हारा नाम लेती है ताकि मेरी तन्द्रा टूट सके।
बारिश का गीलापन मन के गलियारें में आकर एक छोटी नदी बन जाता है फिर यह नदी आंसूओं का एक न्यूनतम जलस्तर को बनाए रखनें में मदद करती है मगर इतनी तरलता के बावजूद भी मन की बंद गलियों से बाहर निकलनें के लिए आंसूओं को रास्ता नही मिलता है वो अन्दर ही मेरे लिए पर्याप्त नमी का इंतजाम करते करते सूख जाते है मेरा हृदय इसलिए भी सबसे खारा है यह राज़ आज तुम्हें बारिश के बहाने से बता देता हूं।
बारिश आई है मेरे मन का पंचाग इसकी वजह के लिए ग्रहों,नक्षत्रों की गणना करते हुए तुमसे दूरी की प्रकाशवर्ष में कालगणना में लग गया है मगर एक बडी बात है मेरे पास न दशमलव है और न मेरे पास शून्य है ये दोनों अंक तुमने मुझसे कभी उधार लिए थे मगर आज तक नही लौटाए है इसलिए मेरा अनुमान अक्सर गलत सिद्ध हो जाता है और तुमसें दूरी घटती बढती जाती है।
फिलहाल, बस इतना ही निवेदन करुंगा अगली मौसमी बारिश से पहले मुझे मेरा दशमलव और शून्य लौटा देना ताकि किसी बेमौसमी बारिश में तुम्हारी भौतिक दूरी का सही से आंकलन करके मैं कुछ सही भविष्यवाणी कर सकूं।
बाहर की बारिश थम गई है मगर अन्दर एक झडी लगा गई है वो कब थमेगी कह नही सकता हूं मेरे कान थोडें ठंडे हो गए है और हथेलियां गर्म तुम्हारे हाथ की चाय तो अब मिलने से रही इसलिए खुद ही जा रहा हूं एक कप चाय बनानें ताकि घूंट घूंट तुम्हें याद करता हुआ भूल सकूं।


‘बेमौसमी बारिश'

Monday, May 11, 2015

बातें

बहुत दिनों से तुमसे कुछ बातें करना चाहता हूं। ये कोई खास बातें नही है ये बेहद मामूली बातें है मसलन तुम्हारे स्लीपर का नम्बर क्या है? क्या तुम अब भी दस्तखत के नीचें छोटी लाईन खींच कर दो बिन्दू लगाती हो?तुम दाल से कंकर बीनते समय कौन सा गाना गुनगुनाती हो? तुम्हारे पर्स में क्या अब भी छोटी इलायची मिला करती है तुमनें चश्में का नम्बर लास्ट टाईम कब चैक करवाया था हंसते हंसते अचानक से तुम्हारी आंखों मे नमी क्यों उतर आती है वगैरह वगैरह। दरअसल ये बातें भी नही है ये तो कुछ अजीब से सवाल है जिन्हें सुनकर तुम अचरज़ से भर सकती हो या फिर खिलखिला कर हंस सकती हो। जब जब मै जिन्दगी के गणित मे उलझ जाता हूं सही-गलत नैतिक-अनैतिक सच-झूठ के अनुपात का आंकलन करनें में खुद को असमर्थ पाता हूं तब तब मुझे ख्याल आता है कि तुमसे फोन करके पूछूं कि तुम कपडें धोने के बाद कैसे नील और टिनोपाल का एकदम सही अनुपात रख लेती है ऐसे और भी छोटे छोटे सूत्र है जो मैं तुमसें सिखाना चाहता हूं।
मेरे पास इतने सवाल बचे है कि जवाब देते हुए तुम्हारी सारी उम्र कट जाएगी। इन सवालों के सबसे सही जवाब केवल और केवल तुम्हारे ही पास है इसलिए मै सवाल जोडता जा रहा हूं। ये सवाल मेरे लिए एक किस्म की पूंजी है जिनको मै समय आने पर खर्च करुंगा। कुछ सवाल मैने इसलिए भी बचाकर रख लिए है जब तुम लगभग मुझे भूलने वाली होगी या फिर मेरी किसी बात से बेहद आहत होंगी ठीक उस दिन मै एक सवाल तुम्हारी तरफ उछाल दूंगा और ये मेरा आत्मविश्वास है कि चरम नाराज़गी में भी तुम मेरे सवाल पर मुस्कुराए बिना न रह सकोगी।
ऐसा नही है मेरे पास सवालों की शक्ल में केवल बचकानी बातें है या कुछ अपरिपक्व किस्म की जिज्ञासाएं है मेरे पास इन सवालों के जरिए तुमसे वक्त बेवक्त बात करनें का एक विशेषाधिकार है यह विशेषाधिकार मैने कभी तुम्हारें सवालों के जवाब देकर कभी मौन रहकर तो कभी कुछ बातों को अनसुना करके अर्जित किया है।
दरअसल प्रतिदिन की बातों शिकवों शिकायतों और चाहतों के जरिए खर्च होती जिन्दगी में मै कुछ न कुछ बचाता आया हूं मेरे कहे गए के बीच हमेशा कुछ दशमलव में अनकहा बचता रहा है। इसी अनकहें की चिल्लर मेरी जेब में खुशी के साथ खनकती रहती है जब भी लगता है कि तुम्हें खोने वाला हूं मै एक ऐसी ही अनकही बात का सिक्का निकाल कर उसे टॉस के लिए हवा में उछाल देता हूं जिन्दगी की तमाम हार के बावजूद आज तक मै यह टॉस कभी नही हारा इसलिए कम से कम तुम्हारे बारें में कभी हारनें की नही सोचता हूं।
चलों ! एक शाम कुछ ऐसी ही अनकही बातों से रोशन करते है हो सकता है तुम्हारे पास भी कुछ ऐसे बेहद मामूली किस्म के सवाल हो मेरे जवाब तुम्हें संतुष्ट भले ही न कर पाएं मगर तुम उन्हें सुनकर खुशी जरुर महसूस करोगी मुझे ऐसा लगता है। मेरे सवालों का आदतन कोई निहितार्थ मत निकालनें लगना बस मै इतना ही निवेदन करना चाहता हूं क्योंकि मेरा कोई सवाल तुम्हारे विश्लेषण की उपज नही है तुम्हें आज तक मैनें बुद्धि और विश्लेषण के नजदीक नही जानें दिया है तुम्हारे लिए दिल और दिमाग के मध्य एक निर्जन टापू पर एक जगह सुरक्षित की है मैनें तुमसे बतियाने के लिए।उससे बढिया जगह मेरे अस्तित्व में नही है वहां अनुभूतियों घना जंगल है प्रेम के छोटे तटबंध वाली मीठी नदी है अपनत्व का झरना है और अपेक्षाओं से रहित एक खुला आसमान है मै चाहता हूं हम जब भी मिलें उसी जगह पर मिलें वो जगह ग्रह नक्षत्रों के सौभाग्य या दुर्भाग्य के प्रभाव से मुक्त है इसलिए भी वहां तुम्हें देखकर मै एक गहरी आश्वस्ति से भरा हुआ रह सकता हूं।
ये सब बातें केवल सवाल की शक्ल में नही है मेरे पास तुम्हारी कुछ बातों के जवाब भी है जवाब क्या मेरे पास कुछ कथन है कुछ कुछ उक्ति के जैसे जिन्हें तुम्हें सौप कर मै सन्दर्भ की कन्द्रा में सुरक्षित आराम करना चाहता हूं। मुझे उम्मीद है एकदिन हम अपनी अपनी बातें अपने अपने सवाल और कुछ थोडे से जवाब लेकर जरुर उस एकांत के टीले पर मिलेंगे इसी उम्मीद के सहारें मै अक्सर तुम से बतकही करता रहता हूं मै जितना लिखता बोलता हूं तुम्हारें बारें में वह उसका दशमांश भी नही है जितना सोचता और जीता आया हूं तुम और तुम्हारी बातों को। तुम्हें यह सब जानकर ठीक उतना आश्चर्य हो रहा होगा जितना एक जीबी के डेटा रिचार्ज़ में दो जीबी डाटा मिलनें पर हुआ था तुम यह सोच सकती हो कि मै इतना बोलने वाला लगता तो नही हूं मगर जिन्दगी अक्सर न लगने के सहारे ही आगे बढती है हमें जो जैसा लगता है वो वैसा होता है कब है। ये भी एक अधूरी बात है इसे मिलनें पर पूरी करुंगा हो सके तो मेरा इंतजार करना।

‘बातें-मुलाकातें

Monday, May 4, 2015

फेसबुक

दिखतें है जो सब जमें जमाए लोग
फेसबुक से है वो उकताए हुए लोग

लाइक पे हो जाते है खुश ओ'खफा
इसी पर अपने और पराए  हुए लोग

इनबॉक्स खाली है कमेंट भी हुए बंद
म्यूच्यूअल दोस्तों के है सताए हुए लोग

अपनी रिक्वेस्ट हुई एक्सेप्ट महीनों में
तन्हा मिलें सब मज़मा लगाए हुए लोग

गोया क्लिक न हुई तकदीर हो हमारी
दोस्तों को थे फॉलोवर बनाए हुए लोग

© डॉ. अजीत

Friday, May 1, 2015

शब्दों का सफर

मेरे पास शब्दों की कुल जमापूंजी इतनी थी जिससे मैं तुम्हारी कुछ पल की मुस्कान खरीद सकता था। मगर मैं अक्सर कुछ शब्द इसलिए भी बचा लेता था ताकि कभी तुम्हें तुम्हारें बारें में वो बात बता सकूं जो तुम खुद भी नही जानती हो। मन के भंवर में घूमते ये शब्द अक्सर आपस में इतने उलझ जाते थे कि मै यह तय नही कर पाता था कि इन्हें एक वाक्य में कैसे प्रयोग करुं।
निंदा और प्रशंसा से इतर ये शब्द मैने मन की उन दशाओं को बतानें के लिए बचाकर रखे थे जिनको व्यक्त करनें के लिए अक्सर भाव भी पीठ फेर लेते है। एक एक अक्षर को मैनें इस बात के लिए दीक्षित किया कि मेरी किसी बात से कला का अपमान या दुरुपयोग नही होना चाहिए तुम्हारे बारें इंच दर इंच ठीक वही बातें मैं कह सकूं जैसा मै महसूसता हूं मेरी अधिकतम तैयारी बस इतनी ही थी। इन शब्दों की वाग्मिता में भरम के फेर नही बल्कि ब्रह्म सी सच्चाई बची रहे इसके लिए मैंने इन्हें अपने अपमान के वटवृक्ष की छाया और आत्मीयता की नदी किनारें पाला है।
सुनो! कल रात मुझे अपनी कुछ किताबों के बीच तुम्हारी टूटी हुई चूडी का एक टुकडा मिला। उसका रंग मै फिलहाल भूल रहा हूं मगर उसकी खुशबू मुझे अभी तक याद है। उसके आर पार देखनें की कोशिस की तो चश्मा उतारना पडा और नंगी आंखों से मै तुम्हारी कलाई के वो महीन रोम देख पाया जिनके चित्र चूडी के एक इस टूकडें ने खींच कर कैद कर लिए थे। दो सोने के कंगनों के बीच जीते हुए यह जान पाया था सीमाओं के बीच जीने का बोझ। एक तरफ यह खुद को सुरक्षित महसूस करता था तो दूसरी तरह यह रहा है रात दिन बेहद बैचेन भी। और अंत: इसकी यही बैचेनी इसे तोड गई है। जानता हूं जब तुमसे यह बात कहूंगा तो तुम कहोगी एक निर्जीव चीज़ से यह सब कैसे पता चला तुम्हें? मै जवाब देने के लिए शब्दों को आवाज़ दूंगा तो वो तुम्हारी सन्देह भरी दृष्टि देख बाहर आने से इनकार कर देंगे।फिर भी मै इतना जरुर कह सकता हूं जब तुम्हारे इस चूडी के टुकडे को मै नंगी आंख से देख रहा था तभी यह छू गया था मेरी एक गाल से इसकी अधूरेपन की ठंडक नें ये सब राज़ मेरी गाल से कहा था जिसे कान के रास्तें मेरे दिल ने सुन लिया था। यकीन करो न करो तुम्हारी मर्जी।
आज सुबह मै सोचता रहा तुम्हारे बारें में और सोचता क्या रहा मैने देखा तुम्हारे मन और देह के इतर भी कुछ तुमसे जुडी हुई चीज़े ऐसी है जो तुम्हारें बारें मे जानती बेहद अनकहा भी। मैने जमापूंजी वाले शब्दों से कहा जरा बात करके तो देखों मगर वो उपयुक्त अवसर न होने की दुहाई देकर हमेशा की तरह चले गए नेपथ्य में। एक दिन तुम्हारा एक खत मिला उस पर तुम्हारा पता लिखा था मगर नाम किसी और का था मैने स्याही को सूंघ कर देखा तो कुछ अनुमान न मिला मगर दो वाक्यों के बीच मुझे तुम्हारी जानी पहचानी खुशबू आई दिमाग पर थोडा जोर देकर सोचा तो यह खुशबू तुम्हारी कलाई पर बंधे शुभता के धागे की थी जो रोज़ भीग भीग कर अपनी खुशबू को रुपांतरित करता चला रहा था यह खत उसके गंधहीन होने से ठीक पहले का था इसलिए मुझे खत पर तारीख देने की जरुरत महसूस नही हुई। खत को बिना पढे मैने रख लिया मगर लिखावट पर जमी स्पर्शो की नमी को जरुर अपनी पलकों से छुआ है एक बार यह किसी को याद करके भावुक होने से बचने का एक टोटका रहा है मेरा।

फिलहाल बातें बहुत सी है मगर आदतन जमापूंजी के शब्द साथ नही दे रहें इसलिए शेष फिर कभी।

‘शब्दों का सफर'

Thursday, April 30, 2015

सफर और नोट्स

मुझे हासिल क्या किया तुमनें, तुम्हारें खुद के बनाए सारे पैमाने ही ध्वस्त हो गए। मेरा बिखरा हुआ वजूद दूर से जो कौतुहल पैदा करता था नजदीक से देखने पर तुम्हें फिक्रमंद करनें लगा है।तुम्हारी बैचेनियों की गिरह रोज खुलतें-बंधते हुए देखता हूं। तुम मुझसे जुडी स्मृतियों को एक सुखद ख्वाब समझ कर भूलना चाहती हो क्योंकि अब मेरा अज्ञात तुम्हें बुलाता नही है। एक लम्बें समय तक तुम अपने जीवन में मेरी भूमिका को लेकर उधेडबुन में रही अंत में खुद से लडते हुए तुमनें अपना तयशुदा बडप्पन ही चुना। दरअसल तुम्हारा जीवन बाहर से जितना बहुफलकीय और घटनाओं से भरा दिखता है अन्दर से वहां एकालाप का उतना ही एक गहरा सन्नाटा है यह बात तुम भी जानती है और संयोग से मै भी मगर तुम कभी इसे स्वीकार नही करोगी यह बात भी जानता हूं।
तुम्हारें व्यक्तित्व में जिज्ञासा का थोडा सतही रुपांतरण हुआ है शायद यही वजह है कि जिस प्रयोगधर्मिता को तुम अपना कौशल समझती है वह दरअसल तुम्हारें मन के अस्थिर आवेंगो का खुरदरा प्रतिबिम्ब भर है। यह बात कहनें में बडा ही विचित्र किस्म का दार्शनिक सुख देती है कि कोई भी चीज़ मुझे स्थाई आकर्षण में नही बांध पाती ! इसके पीछे का मनोवैज्ञानिक सच पता है क्या है? तुम्हारे अंदर खुद के कमजोर पड जानें का डर इतना गहरा व्याप्त है कि तुम अनुराग को अपनी चौखट की बाहर से ही बुद्धि की युक्ति से विदा करती आई हो मेरे हिसाब यह तुम्हारी सबसे बडी ज्ञात निर्धनता है।
जितना तुम्हें समझने की कोशिश करता हूं उतना ही सुलझता जाता हूं क्योंकि तुम्हारी उलझन को मै देख सकता हूं यह बात मै तुमसे कभी कहना नही चाहता था मगर कभी कभी जब तुम जीवन को अनुभव के चश्में से देखती तो तुम्हें खुद की होशियारी पर बडा फख्र होता है कि कैसे तुमनें अपनी यात्रा की विविधता को बिना कहीं अटके जारी रखा है मै उस वक्त तुम्हारे चश्में के पीछे की आंखों को पढ रहा होता हूं जो तुम्हारें मन के मानचित्र के निर्जन टापू का मानचित्र लिए उदास बैठी होती है।
मन के खेल बडे विचित्र किस्म के होते है यह बुद्धि को भी सांत्वना के सूत्र बांट सकता है उसे आत्ममुग्धता के खेल में अभिभूत कर सकता है मगर मन की एक कमजोरी होती है ये बिना बताए एक जिद पाल लेता है और जहां भी उस जिद से मिलता जुलता सामान दिखता है यह हमारें कदम रोक देता है। मेरा अस्तित्व तुम्हारी किसी खोई हुई जिद के आसपास का कोई बिखरा हुआ टुकडा रहा होगा तभी तुमनें उसको उठाया और अपने फ्रेम की कोई एक तस्वीर पूरी कर ली। मै कोई अकेला या अनूठा किस्म का व्यक्ति नही रहा हूं जो मै इस गर्व से भरा रहूं कि तुमनें मुझे चुनकर मेरा मूल्य पहचाना है दरअसल मै तो एक बडी फोटो एल्बम का एक छोटा सा टुकडा भर हूं जिसकी भूमिका एक पेज़ तक ही सीमित है जिस दिन कोई नई स्मृति कैद होगी मेरा पेज़ वक्त स्वत: ही पलट देगा फिर कभी गाहे-बगाहे नई पुरानी स्मृतियों के मेलें में कुछ लम्हें के लिए जरुर तुम्हारी आंखों के सामनें से गुजर जाया करुंगा। इस पर तुम हंसोगी या उदास हो जाओगी यह अभी नही बता सकता हूं।
खैर...! जिन्दगी की खूबसूरती कुछ लोग इससे गुजर कर महसूस करतें है कुछ लोग ठहर कर इसलिए किसी के तरीके पर सवाल खडा करने का कोई मतलब नही बचता है। अपनें बारें इतना जरुर बता सकता हूं मै लम्बें समय से वक्त के किसी एक पहर में अटक गया हूं और उसी के लिहाज़ से कभी जिन्दगी के खूबसूरत होने की बात करता रहता तो कभी उदासी के मज़में लगा लेता हूं। तुम्हारा चयन यात्रा के नाम पर अनुभवों का चयन है इसलिए अनुभूति अक्सर निर्वासित हो जाती है जब तक तुम अनुभव के तल से मुक्त नही हो जाओगी तब तक शायद तुम्हें रास्तें के मील के पत्थरों से दोस्ती करनें की फुरसत नसीब नही होगी। फिलहाल तुम मार्ग और साधनों के विमर्श में व्यस्त इसलिए मेरा तुम्हें कितनी भी आत्मीयता से आवाज़ लगाना शायद अप्रिय लग सकता है या तुम मेरे बचपनें पर भी खीझ सकती हो इसलिए मैं मौन होकर केवल देख सकता हूं और उम्मीद कर सकता हूं जिन्दगी के किसी मोड पर तुम जरुर मिलोगी और पुरानी दोस्ती के हक की बिनाह पर यह कहोगी यार तुम ठीक कहते थे तब ! क्योंकि हर वक्त मै और मेरी बातें सही ही रहेंगी इसकी भी कोई तयशुदा गारंटी नही है।
फिलहाल देने के लिए शुष्क शुभकामनाएं ही है जानता हूं कम से कम तुम्हें इस वक्त इनकी बिलकुल भी जरुरत नही है। फिर भी दे रहा हूं ताकि वक्त बेवक्त पर तुम्हारे काम आ सके।

‘सफर के नोट्स

Monday, April 20, 2015

टेलर मास्टर

टेलर की दुकान पर पड़ी कत्तरें कितनी ही रंगीन क्यों न हो कतर ब्योंत उनके रंग को भी खा जाती है। अलग अलग आकार में कटी पड़ी कत्तरें अपने रंग को भूल सफेद रंग से थोड़ी शान्ति उधार मांगती है इस सफेद कत्तर अपना एक कोना चुपचाप हिला देती है। इन्चिंग टेप से मास्टर जी लोगो के कद औ हद नाप रहे है लोग सीना फुलाने के चक्कर में पेट अंदर नही करते है क्योंकि यहाँ का झूठ साल भर भारी पड़ सकता है उनके आग्रह बेस्ट फिटिंग की है और टेलर मास्टर किसी व्यस्त डॉ की तरह उनका आधा मर्ज़ ही सुनकर अपनी बिल बुक में संकेताक्षरों में उनकी पैमाइश दर्ज करता जाता है। मास्टर जी की दुकान के डिस्प्ले बोर्ड कुछ बूढ़े कोट लाइन से टंगे है उन्हें हैंगर पर टांग दिया गया है वो गर्व से भरे पुरुषों के कंधें को ढकनें की आस खो चुके है वो कोसते है मन ही मन कि क्यों उन्हें थान की विराट से निकाल कर यहां सजा दिया गया है उनकी जेब में हवा तक नही जाती वें उन पुरुषों को श्राप देतें है जिन्होंने उनको टेलर के यहां से ले जानें में महीनों या बरस भी लगा दिए है। वे एक दुसरे को सांत्वना देते है और खुद पर लगे कागज के टैग (जिस पर उस रसीद का नम्बर लिखा है जब उनके लिए नाप ली गई थी) के पीलेपन को देखकर मायूस हो जातें है। उनके सामनें गले का बटन बंद किए कुछ शर्ट भी टंगी है वो इस तरह पैबंद है जैसे अभी किसी बेहद जिम्मेदार शख्स के अभिमान को बचाने के लिए उन्हें ही आगे रहना होगा हालांकि देर से घर जानें पर उनमें भी खुसर फुसर होती रहती है। पेंट टेलर की दुकान में आश्वस्ति से टंगी है उन्हें लगता है कि अपनी नंगई छिपानें के लिए उनको मनुष्य जरूर सादर लेकर जाएगा। टेलर के गलें में पड़ा इन्चिंग टेप साक्षात् शिव के गले में पड़े नाग के समान है वो टेलर की निपुणता का प्रतीक है टेलर की कैंची अपने वजन के हिसाब से कपड़े की कई तहों को बड़ी सफाई से काटती उसकी स्वामी भक्ति असंदिग्ध है। टेबल पर पड़ा चाक टूटता है मगर निशान गहरें बनाता जाता है ताकि कारीगर उसके जरिए कटाई छंटाई करीने से कर सकें और मास्टर जी की लिहाज़ बची रहें।
मशीनों का पैडल की मदद से सुर में बचता संगीत मास्टर जी यह आश्वस्ति देता है कि काम ठीक चल रहा है। धागा और खाली रील के डब्बे उपेक्षित पड़े अपनें यौवन को याद कर सिसकतें है मगर उनकी आह कोई नही सुनता वो अपने सिएं हुए धागे को देखकर मजबूत बनें की दुआ फूंकते हुए दम तोड़ देते है।
टेलर की दुकान पर सभ्यता की दुनिया के फैशनेबल तरीकें सांस लेते है कपड़े आते है और परिधान बनकर जातें है किसी ग्राहक का कद कितना घटा या बढ़ा है इसके बारें में एक टेलर से बेहतर भला कौन बता सकता है।

टेलर मास्टर: एक संसार 

Tuesday, April 14, 2015

संवाद

शिव:

हे शिवप्रिया! तुम नित्य और अनित्य के मध्य सुरभित चैतन्य रागिनी हो। तुम्हारी शिराओं के स्पंदन से नाद प्रस्फुटित होता है। तुम्हारी चेतना के स्रोतों से बहनें वाली ऊर्जा देह और मन का शंकुल बनाती है। तुम विपर्य को भी जीवंत सिद्ध करने मे समर्थ हो। अनंत के विस्तार का केन्द्र तुम हो और सृजन के समस्त शिखर तुम्हारे गुरुत्वाकर्षण सें संतुलन साधे हुए है। तुम्हारी व्याप्ति प्रति प्रश्नों के संभावित उत्तर को गुह्य अवश्य रखती है परंतु अखिल ब्रहामांड की बिखरी चेतनाएं इसी गुह्यता से अभिप्रेरित हो प्रकृति के विषयों से आरम्भ में चमत्कृत होती है फिर तत्व का अंवेषण करती हुई आत्म के सच का साक्षात्कार करती है। तुम दृष्ट भाव में रहकर चेतनाओं की यात्राओं का मात्र अवलोकन ही नही करती हो बल्कि उनके अंदर एक सिद्ध सम्भावना का बीज भी कीलित करती हो। प्राय: लोकचेतनाओं में तुम्हारी अंशधारित उपस्थिति तटस्थ नजर आती हैं मगर तुम तभी तक तटस्थ रहती है जब तक कोई विस्मय और चमत्कार के ऐन्द्रजालिक अनुभवों से मुक्त नही हो जाता है। चेतनाओं के इस मुक्ति के बाद तुम उन्हें वह मार्ग दिखाती हो जो देवत्व से परें ब्रहमांड को अनुभूत करने का अनिवार्य मार्ग है। कोई भी यात्री तुम्हारी सहायता के बिना स्व से आत्म की यात्रा को नही कर सकता है इसलिए तुम सदैव अनिवार्य और अपरिहार्य हो।

शक्ति:

हे महादेव ! आप साक्षात पुरुष प्रकृति के समंवय के सूत्रधार हो। आपकी भूमिका पर इसलिए भी टीका असम्भव है क्योंकि आप कोई एकल चेतना नही हो। आप मुक्त और सिद्ध चेतनाओं का एक समूह हो जो शून्य और अनंत के मध्य बिखरें अस्तित्व के गूढ रहस्य को जानते है। प्राय: आपको मौन या तटस्थ इसलिए देखा जा सकता है क्योंकि आप हस्तक्षेप से मुक्त हो। आपके विस्मय मे भी एक छिपा हुआ विस्मय होता है इसलिए प्राय: मै कोई प्रश्न नही करती क्योंकि प्रश्न स्वयं मे उत्तर लिए होता है। मेरी भूमिका आपका विस्तार नही है और ना ही मै समानांतर ही हूं। दरअसल जहां आप आरम्भ होते है वहां मै संतृप्त होती हो और जहां से मै दृश्य मे सम्मिलित होती हूं वहां मुझे खुद मेरी भी छाया नही दिखाई देती है इसलिए मेरी एक स्वतंत्र यात्रा है परंतु इस स्वतंत्रता में भी आपके अंशों की रेखाएं मुझसे मेरा क्षेम पूछती है और यही बोध मुझे योगमाया से मुक्त भी करता है। आप दिगम्बर और चैतन्य है इसलिए काल गणना और देह तत्व से मुक्त है आपके स्पर्शों में तत्व और मीमांसा के सूत्र है जिनका पाठ आभासी मुक्ति से वास्तविक मुक्ति की यात्रा में लोकचेतनाओं के अत्यंत आवश्यक है। ब्रहम के अंश और भ्रम के दंश को समझनें के लिए आपका उदबोधन अनिवार्य है। मै आपके आत्मिक सम्बोधन की ऋचाओं में अव्यक्त सूक्त तलाशती हूं ताकि समंवय के समय चेतनाओं को और अधिक परिष्कृत कर सकूं। आप अपनें सरलतम रुप में इसलिए उपलब्ध है ताकि चेतनाओं के वर्गीकरण में मुझे कोई असुविधा न हो इसलिए आप मेरे लिए भी अनिवार्य अपरिहार्य ही है।

‘शिव-शक्ति संवाद: माध्यम शायद मैं’

Saturday, April 4, 2015

नाई

नाई की दुकान धैर्य की परीक्षणशाला है अपनी बारी का इन्तजार करना सामाजिक समरसता का सबसे बड़ा उदाहरण है। भले नाई से डेढ़ दशक पुराना रिश्ता हो मगर वहां नम्बर आने पर ही उसकी कुर्सी पर बैठने की इजाजत मिलती है। जल्दी होने की बात पर और दुकान में घुसने से पहलें यह पूछना कितना टाइम लगेगा भैय्या? नाई को चिढ़ा देता है वो चाहता है आप चुपचाप आए और अपनी क्यू में बैठ पंजाब केसरी अखबार पढ़ना शुरू कर दें।नाई से ज्यादा सिद्धांतवादी कोई नजर नही आता है उसके लिए व्यवस्था सर्वोपरी है सम्बन्ध द्वितीय।
कंची की तुनकती आवाजें और टी वी पर चलता चित्रहार नाई की ऊर्जा के स्थाई स्रोत हैं। जिस गति से कंची चलती है वो नाई की निपुणता को भी बताती है बीच में वो कंघे की पीठ ठोकती है और कहती है थोडा रास्ता आसान करों कतर ब्योंत का।कंघा दो तरफा घिरा है मगर वो सहज है।
जमीन पर बूढ़े बच्चें अधेड़ युवाओं के बिखरे बाल आपस में एक दुसरे की उम्र पूछते है और उदास हो जाते है।
नाई का सबसे निर्मम हथियार उस्तरा है इतने अत्याचार तो पुरुषो की गाल पर उनकी पत्नि,प्रेमिका और माता-पिता ने भी नही किए होंगे जितनें जख्म ये उस्तरा दे जाता है गाल के निचले हिस्सें पर नाईयों द्वारा उस्तरे को उलटा खींचना भले ही एकबारगी गाल को रोमविहीन प्रतीत करवा देता हो मगर आफ्टर सेव लोशन की जलन साफ़ तौर पर त्वचा के साथ हुए जुल्म का इश्तेहार सुना कर उड़ जाती हैं। कटिंग सेविंग कलर मालिश यह पैकेज़ ग्राहक एक साथ लें यह नाई की आदि अभिलाषा होती है। जिस नाई ने हमारें बाल काटे होते है वो हमारे बच्चों के बाल काटते समय एक बेहद नैसर्गिक खुशी से भरे होतें है बच्चों को बेटा कहते समय उन्हें लगता है कि उनकी यात्रा बाप से बेटे तक आ पहूंची है। वो हमारे बच्चों में हमसे ज्यादा दिलचस्पी लेते है नाईयों का यह एक बेहद संवेदनशील पक्ष है।
मनुष्य के आदिम से सभ्य बननें की प्रक्रिया में मनुष्य एक नस्ल को नाई बनना पड़ा है अमूमन नाई हाजिरजवाब होतें है उनकी बतकही ग्राहकों को भले ही रूचिपूर्ण न लगें मगर सामाजिक चटखारें के तमाम विषय नाई के पास होतें हैं।
जब आप एक अंतराल के बाद नाई की दुकान पर पहूंचते तो वो ठीक दोस्तों की तरह पूछता है कहां थे इतने दिन बहुत दिन बाद चक्कर लगा कई दिन से सोच रहा था आप आए नही ये सवाल एक सांस में नाई पूछता है फिर इसके बाद दुसरा काम नाई का यह होता है कटिंग और सेविंग देखकर पूछना कि कहां कटवाए थे बाल फेस पर दानें हो रखें है कलम छोटी बड़ी छोड़ रखी है तब आप उसकी प्रशंसा में दो शब्द कहें और दुसरे नाई को कोसे बस नाई इतना ही सुनकर आपके उसके पक्के ग्राहक होने की पुष्टि कर लेता है।
सामाजिक जीवन में नाई हमारे जीवन से कुछ इस तरह से जुड़ा है कि आप हफ्ते दस में उससे मिलकर अपना कुछ बोझ हलका कर लेतें है और एक बार आपको लत लग जाए तो आप चाहकर भी अपना नाई और टेलर बदल नही पातें हैं और मेरे ख्याल से बदलना भी नही चाहिए।

चलिए मेरा नंबर आ गया है...शेष फिर !

'नाई की दुकान और मैं'

Wednesday, April 1, 2015

सज़ा

दुनिया में हर चीज़ के होने की एक पुख़्ता वजह होती है। बेवजह जो भी होता क्या तो वो जुनून होता है या फिर पागलपन। आसपास और नजदीक होने के महीन भरम होते हैं। मुक्ति दरअसल बड़ी विचित्र चीज़ है ये जब हमें मिलती है तो इसकी जेब में अतीत का एक अधूरा पता भी होता है। कभी उदास शामों में तो कभी लम्बी होती रातों में उसको पढ़ना चाहतें है तो अक्सर रोशनी साथ नही देती है।
खुद के लिए सबसे बेहतर विकल्प क्या है यह सोचने का सर्वथा मौलिक अधिकार शायद हमारे ही पास होना चाहिए कैसा अजीब महसूस होता है एक तो आप अपने एकांत से ऊबे है बैठे हो ऊपर से आपकी दृष्टि और विकल्पों पर टीकाएं की जाएं। दो चेतनाओं के मध्य सुरक्षित दूरी विकसित होने में समय के सारे समीकरण निष्प्रोज्य होते है क्योंकि इसके सूत्र न सबंधो के बीजगणित में मिलतें है और न अनुमानों के खगोल विज्ञान में।
समय का सहारा लेकर खुद को छलना मनुष्य की आदि परम्परा है। समय भले ही खोया-पाया के भाव से मुक्ति दे सकता है मगर कुछ अनुत्तरित प्रश्नों के जवाब समय के पास भी नही होतें है। जैसे दो जमा दो का जोड़ हमेशा चार ही नही होता है।
खुद की अप्रासंगिकता के चालानों के बीच एक अर्जी वादामाफ़ गवाह बननें की लगाई जाती है जिस पर खुशियों की कीमत मय सूद जमा करनी पड़ती है। अचानक से जब वक्त हाकिम बनता है तब रिहाई जिसे मुक्ति भी कहा जाता है उसके लिए सर झुकाएं चुपचाप खुद के घुटनों के बीच फंसे यादों के भँवर को देख यही कह सकते है गलती हुई साहब !
आसपास की रंगीनियत तब ना खुशी देती है और ना बैचेन करती है एक अजीब सी नीरवता को अपने चित्त में लिए हम दोनों हाथ जोड़ते है मुस्कुरातें है और हाकिम से कहतें है जलावतनी क़ुबूल है जनाब।
ख्वाबों के इश्तेहारों की दुनिया ऐसी ही होती है यहां कब आँख खुलती है और कब बंद होती है किसी को पता नही लगता है। नींद में हंसते हुए कुछ लोग सुंदर लगते है और आँख खुलनें पर उनकी जेब से वो अधूरा पता झांकता है जो उनके मुक्त चेतना होने का एकमात्र ज्ञात दस्तावेज़ भी कहा जा सकता है।
इस पारपत्र के सहारे वो लांघ जाते है ख़्वाबों और पागलपन की एक गुमनाम दुनिया चुपचाप बिना किसी को बताएं अजनबी होना उनकी जमानत की एक शर्त होती है जो आधी उनकी पीठ पर छपी होती है आधी माथें पर।

'आख़िरी इश्तेहार'

Monday, March 30, 2015

सर्दी-गर्मी

कल मार्च भी खत्म हो रहा है। नए साल के नए तीन महीने और पुराने साल के आखिरी तीन महीने मिलाकर आधा साल मेरी जिन्दगी में कुछ इस तरह दर्ज हो गया है कि इसके एक-एक दिन पर मैं घंटो व्याख्यान दे सकता हूं। अब जब मौसम करवट ले रहा है मेरे मन का पतझड अपने यौवन पर है। तुम्हारी अनुपस्थिति में मन की नर्म जमीं पर ख्यालों के सूखे पत्तों की एक तह जमा हो गई है जिसकी वजह से मुझे सांस लेने में कभी-कभी तकलीफ होती है।

पिछले छ महीने का हिसाब-किताब करके तुम्हें ना भूलना चाहता हूं और ना याद ही रखना चाहता हूं। सर्दी की चाय की प्याली से बात शुरु होती है वो खत्म होने का नाम नही लेती है मेरे ज़बान पर कुछ जायके ऐसे चिपके है कि वो घुल नही पा रहें है। सर्दियों की धुंध और सर्दियों की बारिश में तुमसे जो मेरी बातचीत हुई उसको उलटा पढना शुरु करता हूं मेरी आखिरी बात का एक सिरा तुमसे हुई पहली बात से मिल जाता है फिर भी सारी बातें आपस मे दोस्त बन एक दूसरे की पीठ थपथपाने लग जाती है।

अब गर्मियां आने वाली है दिन अजीब से चिढचिढे हो गए है अब अगले चार महीनें मै तपता रहूंगा इस ताप से और मेरे जिस्म से बहता रहेगा तुम्हारा प्रेम इसकी ठंडक से ही मेरे शरीर का तापमान सामान्य रहेगा। चौबीस घंटे मे दोपहर और शाम का वक्त मुझ पर सबसे भारी गुजरता है दोपहर मेरे कान मे आकर कह देती है तुम मुझे भूलने ही वाली हो और शाम को जब मै सूरज से इस चुगली की सच्चाई जानना चाहता हूं वो चुपचाप आंख बचाकर निकल जाता है। अब इन चार महीनों में धूल-अंधड और बारिश के भरोसे ही रहूंगा ताकि मै कुछ भी स्थिर होकर सोच न सकूं।

तुम्हारा बारें में स्थिर होकर सोचना मुझे डराता भी और तपाता भी है फिर मै ताप के असर में मन ही मन न जाने क्या क्या बडबडाने लगता हूं। कहने को तो यह बसंत है मगर मेरा बसंत इस बार सर्दी की गोद में आकर चुपचाप चला भी गया है मेरा बसंत तब था जब सुबह सुबह उनींदी आंखों से बिस्तर पर तुम्हें याद कर मै मुस्कुरा देता था। तुम्हारे ताने सुनकर करवट बदलना भूल जाता था। इन सर्दियों में तुम्हारी वजह से मेरे संवेदनाएं इतनी जीवंत किस्म की थी कि मै बिस्तर तकिया गद्दा रजाई यहां तक दर ओ दीवार से भी बातें कर लेता था। और ये बातें कोई आम बातें नही थी बल्कि ये सब उतनी ही गहरी बातें थी जितनी कभी तुमसे आमने सामने हुई है। कल जब मै बिस्तर की सिलवट ठीक कर रहा था तब अचानक लगा किसी ने मेरा हाथ पकड लिया कुछ सिलवटों को शायद मेरी हस्तरेखाएं देखनी थी वो उनके जरिए तुम्हारे आने के महूर्त का पंचाग देखना चाहती होंगी शायद। आज सुबह तकिए को जब मोडना चाहना तो उसने इंनकार कर दिया पूछने पर कहने लगा थोडी देर आंखे बंद करके सीधे लेटे रहो मै तुम्हारी गर्दन पर फूंक मारना चाहता हूं मैने पूछा क्यों तो कहनें लगा मेरे ऐसा करनें से किसी के कान की बालियां होले-होले हिलेंगी और वो ऐसा करना चाहता है उसके पास ऐसा करने की सिफारिश है।

रोज सुबह मेरी चप्पल एक दूसरे के कान मे कुछ कहती हुई मिलती है उन्हें देख मुझे लगता है कि ये तो मेरी यात्रा का शकुन है मगर मुझे तुम्हारा पता नही मिलता है मै किताबों से लेकर कविताओं की तलाशी लेता हूं गुस्ताखियों की बंद दराज़ खोलता हूं जहां तुम्हारे खत तो मिलतें है मगर जहां पता लिखा होता है वहां की रोशनाई फैल गई है मै केवल उस पर स्पृश से तुम्हारी दिशा का अनुमान लगाता हूं और अपने जूतों पर पॉलिश करने लगता हूं।

गर्मी आ गई है। सर्दी चली गई है। मगर तुम ना कभी आई और ना कभी गई बस ये एक अच्छी बात है। यह अच्छी बात से बढकर एक भरोसा है कि कम से कम तुम आवागमन से मुक्त हो और कहीं एक दिशा में स्थिर हो। जब भी मुझे सही दिशाबोध हो जाएगा और मेरे जीवन का दिशाशूल निष्क्रिय हो जाएगा उस दिन मै भटकता हुआ तुम तक आ ही जाउंगा तब तक तुम इंतजार को मेरी तल्खियों से बीनती रहना और गुनगुनाती रहना कुछ ऐसा जिससे मै दूर से तुम्हारी आवाज़ पहचान लूं। आने वाली गर्मी में लू के बीच शीतल छाया की तरह तुम्हें अपने विकल जीवन में रखना चाहता हूं ताकि जब कहीं चैन न मिलें तो थोडी देर तुम्हारी छाया में चैन से बैठ सकूं पी सकूं तुम्हारे हाथ से दो घूंट पानी।

‘सर्दी से गर्मी तक’

Friday, March 27, 2015

इन्तजार

सुबह कहीं अटक गई है। सुबह कितने घंटे विलम्ब से चल रही है इसकी उद्घोषणा कोई नही करता है। रात अपने निर्धारित समय पर ही चली थी।याद करने की कोशिश करता हूँ तो मुझे शाम की एक चिट्ठी याद आती है जिसमें सूरज की तबीयत खराब होने का जिक्र हुआ था। अनुमान लगाता हूँ जहां अभी दिन निकला हुआ होगा वहां सूरज की बीमार रोशनी ही पहूंच रही होगी। मैं सुबह के इन्तजार में हूँ इसलिए मन्दिर की घंटियों,शंख और आरती की आवाज में मेरी कोई रूचि नही है। जो लोग मन्दिर के अंदर ये सब कर रहे है उन्हें सुबह का इन्तजार नही है बल्कि वो सुबह को विलम्बित होते देखना चाहते है ताकि उनकी उपयोगिता बची रहें।
काल का बोध एक चैतन्य घटना है परन्तु काल का चक्र एक भरम भी हो सकता है। दिन और रात की खगोलीय वजहों के अतिरिक्त कुछ दूसरी वजहें भी हो सकती है। कभी कभी दिन होता है और उसको रात समझनें को जी चाहता है ठीक ऐसे ही जब दुनिया थककर सो जाती है मैं रात को जागता हूँ और नींद से बात करने लगता हूँ पूछता हूँ क्या मेरी थकावट एकमात्र वजह है उसके आने की या फिर उसे मुझसे प्रेम है वो खुद थकी हुई आती है मेरे अंदर सोने के लिए। कल शाम जब सूरज डूब रहा था मैंने देखा धरती पर कुछ लोग खुश थे वो शायद रात के इन्तजार में रहें होंगे और रात का विलम्बित हो जाना शायद उन्ही की प्रार्थनाओं का परिणाम हो सकता है।
दोपहर अक्सर एक बात कहती है दिन आधा बचा है जबकि आधी रात अक्सर चुप रहती है वो न सोनें के लिए कुछ कहती है और न रोने के लिए। कुछ लोग निवृत्त हो सो जातें है और कुछ रोनें लगते हैं। रात दोनों के लिए आधी आधी बंट जाती है।
सुबह के इन्तजार में दो किस्म के लोग है एक मेरे जैसे जिन्हें सुबह से कुछ सवाल पूछनें है दुसरे जिन्हें सुबह को कुछ जवाब देनें हैं। आज सुबह तीसरें किस्म के लोगो के आग्रह से विलम्बित है ये वो लोग है जो रात की लम्बाई से संतुष्ट नही हैं इसलिए सुबह से एक टुकड़ा उधार मांगना चाहतें है और लगता है आज सुबह ने उनकी प्रार्थना सुन ली है।
मेरी प्रार्थना इतनी सी है कि सूरज की हरारत ठीक हो गई है क्योंकि यदि सूरज दिन में बीमारों वाली अंगड़ाई लेगा तो बादल इसका गलत अंदाजा लगा बरसनें के षड्यंत्र करनें लगेंगे फिलहाल न धरती चाहती और न मैं कि बारिश हो क्योंकि बारिश का मतलब है सुबह दोपहर शाम रात का फर्क का धुंधला जाना। यह फर्क दरअसल उस उम्मीद का प्रतीक है जो कहती है ना समय स्थिर है ना इसके प्रभाव इसलिए इसके हिसाब से अनुमान के छल से बचनें के साधन विकसित किये जाने चाहिए।
फिलहाल सुबह की आमद हो इसी के इन्तजार में हूँ क्योंकि वो एक चिट्ठी लेकर आनें वाली है जिस पर नाम किसी और का मगर पता मेरा लिखा है यदि वो मुझ तक सही सलामत पहूँच गई तो एक दिन उसकों जरूर उद्घोषणा के स्वर में बाचूंगा। आने वाली सुबह से इतना ही वादा है मेरा।

'सुबह का इन्तजार'

Wednesday, March 25, 2015

दोपहरी नोट्स

एक दिन आप तय कर लेते है अपनी जीने की एबीसीडी,फिर गढ़ना पड़ता है अपना खुद का व्याकरण। अकेला पड़ने के जोखिम तो होते ही है क्योंकि लोग आपको पढ़ते कुछ दूर साथ चलतें है फिर उन्हें समझ नही आपकी लिपि। ऐसे में सर्दी में भी बहकर सूख जाती पारस्परिक अभिरुचियों की छोटी सी नदी।
कोई दूर जाता तभी तक नजर आता है जब तक निगाह में रहता है फिर दृश्य से वो ऐसे हो जाता है ओझल जैसे अनजान शहर के रास्ते छूटते चले जातें हैं। मन का किसी के मन में  ठहरना एक घटना है बल्कि यूं समझिए एकतरफा घटना है आप जिस वक्त सोच रहे होते है अपनी भाषा में तब उसका अनुवाद करने वाली आँखें देख रही होती एक अलहदा ख़्वाब।
मन की सराय में सुस्ताते वक्त आप भूल जाते है अपना यात्री होने का चरित्र तब याद रहती एक ठंडी छाँव जिसमें बैठ आप जम्हाई ले रहे होते है तभी आँख से ढलक पड़ता है एक छोटा आंसू तब आप उसकी वजह भी नही जान पाते और वो एक छोटी समानांतर लकीर के रूप में समा जाता है चेहरे की खुश्क गलियों में।
आपका तय करना बहुत कुछ तय कर देता है अपने साथ फिर आप शिकायत नही कर सकतें क्योंकि शिकायत करने का अधिकार आपको कमाना पड़ता है और ये आप तभी कमा पातें है जब अपनें व्याकरण को प्रकाशित करके आप कम से कम अपना एक सहपाठी तैयार कर सकें। ध्यान रहें आपको एक सहपाठी चाहिए होता ना कि शिष्य या कोई गुरु।

'दोपहरी के नोट्स'

Friday, March 20, 2015

सनातन यात्रा

अब थक रहा हूं मैं।
एक ही बात कितनी ढंग से बताने की मेरी तमाम कोशिसें नाकाम रही है। शायद तुम्हारे पास वो चैनल ही नही जहां से तुम जज्बात की इन माईक्रो वेव्ज़ को रिसीव कर सको। मेरी सम्भावना तलाशने और तराशने की सभी युक्ति अब मेरे साथ ही थकने लगी है। मैं तुम्हें जो बताना दिखाना और जताना चाहता था उसके लिए दुनिया से अलग होने की जरुरत नही थी बस उसके लिए तुम्हें खुद को खुद से अलग करके देखने की आदत विकसित करनी थी जो तुम शायद नही कर पायी।
हर हाल मे खुद को सही साबित करके मै मानवीय सम्बंधो में अराजकतावादी नही होना चाहता हूं इसलिए अब खुद की अवधारणाओं की चादर समेट रहा हूं मेरी अनंत की यात्रा में उसकी भी अपनी उपयोगिता है। आज भी आपकी निजता और आपकी मानयताएं मेरे लिए उतनी ही समादृत है क्योंकि मै आपका मित्र रहा हूं कोई आपके जीवन दर्शन का सम्पादक नही था मैं।
मुझे अब तुमसे कोई शिकायत नही है दरअसल हम मनुष्य अपनें अनुभवों से अर्जित मान्यताओं में जीने के आदी है। यह हमें यह आश्वस्ति देता है कि हम कुछ गलत नही कर रहे है हर अनजानी डगर हमें डराती है उसके जोखिम हमें सिमटने पर मजबूर करते है। मनुष्य को समझ के साथ असंतुष्टि प्रारब्ध से ही मिली है वह प्राप्य से ऊब कर अप्राप्य की खोज मे लगा रहता है और इसी उपक्रम में उसे कथित रुप से आनंद भी मिलता है उसे लगता है उसके पास अंवेषणा है जिसके जरिए वो प्रयोग कर मानवीय सम्बन्ध की लोच को समझ सकता है। मिलना बिछडना इसी उपक्रम की अवैध संतानें होती है।
संवाद मे सम्प्रेषणशीलता का संकट सबसे बडा संकट होता है तब आप इतने संकोच से भर जाते है कि आपकी एक छोटी सी सामान्य बात भी अन्यथा लिए जाने की भूमिका लगने लगती है। मेरी चाह थोडी अजैविक किस्म की रही है मै मानव रचित मनोविज्ञान और समाजशास्त्र का अतिक्रमण कर सम्बंधों की नींव रखना चाहता रहा हूं इतना ही नही मेरे पास प्रकृति को भी मौसम विज्ञानियों, वनस्पतिविज्ञानियों, जीववैज्ञानिकों और पर्यावरण विदो से अलग देखने का चश्मा है।
मै नदी को दोस्त कहने लगता हूं उनके हवाले अपने गमों के बैरंग खत कर देता हूं कहता हूं दे देना मेरे उस नामुराद सागर दोस्त को। पहाड से सलाह मांगने उसकी चोटी पर अकेला चढ जाता हूं उसके कान में फूंकता हूं अग्निहोत्र मंत्र, झरनों से मेरी अजब सी दोस्ती है मै उनकी पीठ पर हाथ फेरता हूं और उनके बोझ के बारे मे पूछताछ करता हूं। बादलों से मै अफवाह शेयर करता हूं बारिश मे अपने आंसू मिला देता हूं ताकि वो थोडी खारी भी हो जाए। रास्तें की झाडियों और खरपतवार मुझसे से मेरे जूतों के फीते के मांग लेते है और मै उन्हें खुशी से दे कर आगे बढ जाता हूं। रोज मुंह धोने के बावजूद भी मेरी पलकों पर रास्तों की थोडी गर्द जमी ही रह जाती है और यकीन मानना इससे मेरी रोशनी बढती है मेरी आंखों मे बस यही तजरबे का सुरमा लगा होता है जिसके वजह से कभी तुम्हें ये आंखे बडी नशीली लगा करती थी।
मै अपने समय मे हमेशा अन्यथा लिए जाने के लिए शापित हूं एक दौर बीत जाने के बाद मै समझ आता हूं तब तक मै वहां नही मिलता हूं जहां से विदा हुआ था बस यही एक खेद जनक बात है। सनातन रुप से मेरी यात्रा अनावृत रुप से जारी है चेहरे बदलते है किरदार नही। अनुभव हमेशा मुझे नही सिखा पाता इसलिए अनुभव मुझसे नाराज़ रहता है। मुझसे नाराज़ लोगो की लंबी फेहरिस्त है मगर मुझे यकीन है जब मै उनके आसपास नही रहूंगा उनकी नाराज़गी भी ऐसे ही घुल जाएगी जैसे बरसात में पतनालें मे जमीं धूल घुल कर बह जाती है।

‘सनातन यात्रा

Sunday, March 15, 2015

दो बात

वर्तमान समय का सबसे बड़ा छल है जो भविष्य की गोद से निकल कब अतीत का हिस्सा बन जाता है पता नही चलता है। हम कौतुहल से भविष्य की तरफ देखतें है तो अतीत को दो हिस्सों में बाँट देते है। अतीत के एक हिस्से पर हम अपनी मूर्खताओं पर हंस सकते है फख्र कर सकतें है वही दुसरे हिस्से में अपराधबोध और भावुक मूर्खताओं के कैलेंडर टंगे होते है जिनके साल कभी नही बदलतें हैं।
वर्तमान के विषय में सबसे खतरनाक चीज़ एक यह भी होती है कि यदि जीवन में भौतिक उपलब्धियों की आमद नही है तो आपका वर्तमान भूत और भविष्य दोनों से ज्यादा क्रूर हो जाता है।
कुछ करने के भरम और कुछ भी न करने के करम के बीच फंसा होता है एक यथास्थितिवादी मन जो कभी बाह्य दुनिया के तमाशे देख ठहाका मार हंसता है तो कभी आत्मदोष का शिकार हो खुद से ही सवाल करता है कि इस व्यवहारिक और बुद्धिमान लोगो की दुनिया में आखिर मै कर क्या रहा हूँ क्या सहमति,समीक्षा और सांत्वना ही उसके जीवन की उपयोगिता के अधिकतम सूत्र है जिसका सर्वाधिक अभाव होते हुए भी उसे वही सबसे ज्यादा बांटनी पड़ती है ताकि वह काल के इस बोध में प्रासंगिक बना रहे।
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सबसे गहरी चोटें छिपाकर रखने के लिए शापित होती हैं। सबसे गहरे मलाल उन्हीं से जुड़ें होतें है जो दिल के बेहद करीब होते है। सबसे ज्यादा आहत वही बातें करती हैं जो कडवेंपन और स्पष्ट होनें में फर्क नही कर पाती। सबसे असुविधाजनक होता है किसी के जीवन में अपनी भूमिकाओं को बदलते हुए देखना। सबसे बड़ा भय किसी को खोने का होता है जिसके वजूद का हम खुद का हिस्सा मान जीने लगते हैं।
और सबसे बड़ा दुर्भाग्य होता है किसी के जीवन में अपरिहार्य न होना।
...इतनी बड़ी बड़ी बातों के बीच एक छोटा आदमी कैसे मुस्कुराने की सोच सकता था खुश रहनें की जरा सी आदत क्या हुई खुद को खुद की ही नजर लग गई।

Monday, March 2, 2015

अथ मुखपोथी कथा:

...फिर श्री माधव ने देवऋषि नारद जी से कौतुहल- कातर दृष्टि से पूछा
हे ! देवऋषि नारद आप इतने दिन कहां थे देवलोक में हम सूचना शून्य हो गए है यहां सबकुछ इतना व्यवस्थित है कि दिव्यता में भी रस नही आ रहा है। आप सम्भवतः मृत्युलोक की यात्रा से लौटें है कृपा करके वहां के मानवों का वृत्तांत कहो उसे सुनने की मेरी बड़ी अभिलाषा है।
देवऋषि नारद बोलें:
भगवन आपका अनुमान सही है मैं अभी सीधा मृत्युलोक से ही आ रहा हूँ अब वहां आपकी माया से प्रेरित होकर अज्ञानता का अभिनय नही होता है। मनुष्य उत्तरोत्तर चालाक होता जा रहा है वर्तमान में वहां के समस्त प्राणी समयरेखा के खेल में उलझे हुए है और कभी खुद को आनन्दित तो कभी अवसादित बताते हैं।
श्रीमाधव ने उत्सुकता से पूछा देवऋषि ये समयरेखा क्या है? क्या मनुष्य ने पृथ्वी ग्रह का विभाजन इस रेखा के माध्यम से किया है?
नारद जी बोले नही भगवन् यह कोई आकृति वाली रेखा नही है यह आभासी दुनिया की एक समयरेखा है। आंग्ल देश के एक उत्साही युवा जिसका नाम जुकरबर्ग बताते है उसनें एक ऐसा आभासी मंच तैयार किया है जिस पर संगणक अंतरजाल और चलदूरवाणी के माध्यम से मनुष्य अपने जैसे लोग तलाशता फिर रहा है देश काल धर्म भाषा लिंग से इतर मनुष्य ने अपने एकांत को समाप्त करने की एक युक्ति विकसित कर ली है। आर्यवर्त भारत में तो इस मुखपोथी की लोकप्रियता वर्तमान में शिखर पर है प्रभु। विद्यार्थी से लेकर उद्यमी तक शासकीय सेवा से लेकर निजी क्षेत्र तक,गृहणी,रोजगार और बेरोजगार श्रेणी के सभी मनुष्य इस मंच पर सक्रिय है। मृत्युलोक पर मनुष्य की शायद ही कोई ऐसी कोटि बची हो जो इस मुखपोथी और समयरेखा के फेर में न उलझा हो। मनुष्य की तकनीकी दासता की हालत यह है प्रभु कि अब मनुष्य के हाथ में चलदूरवाणी नामक यंत्र हमेशा रहता है और वो मार्ग पर चलता चलता भी उसमें खोया रहता है वो कभी मुस्कुराता है तो कभी अचानक से खामोश हो जाता है। मनुष्य अपनी निजता प्रकाशित करके लोकप्रियता हासिल कर रहा है। आपको समयरेखा पर खाने पीने रोने धोने,यात्रा, जीने मरने,सुख दुःख, लड़ने और पलायन तक सबकी सूचनाओं का आदान प्रदान मनुष्य को करते देख सकते है। वर्तमान में राजनीति का भी यह बड़ा साधन बना हुआ है।
मुखपोथी पर सुबह मनुष्य एक तस्वीर लगाता है फिर उसके अन्य मित्र उसकी प्रशंसा करते है शाम तक वो उसी प्रशंसा से ऊब कर नई तस्वीर लगा देता है फिर प्रशंसा का सिलसिला आरम्भ हो जाता है। मनुष्य क्षणिक रूप से खुश होता है फिर गहरे अवसाद में चला जाता है।
प्रभु ! मै पिछले एक महीने से इंद्रप्रस्थ में था वहां पुस्तकों का एक बहुत बड़ा मेला लगा हुआ था। अब पुस्तकों की बिक्री भी अंतरजाल के माध्यम से होने लगी है वहां लेखकों/कवियों/साहित्यकारों ने मेले में घूमकर अपने पाठकों के साथ बहुत से चित्र खिंचवाएं। पाठक बहुत प्रसन्न थे और बिना विलम्ब किए मेले से सजीव चित्रों का प्रकाशन मुखपोथी पर कर रहे थे।
अब लोकप्रिय लेखक वही है जो मुखपोथी पर अपनें पाठक तैयार करता है ऐसे लेखकों को हिन्द का एक प्रकाशन बहुत आदर देता है। कुछ बड़े लेखक मुझे जरूर अनमने नजर आए अब उन्हें भी लेखक कोनें में बैठ प्रवचन देना पड़ा वें अपनी दुलर्भ रहस्यता को लेकर चिंतित दिखे।
भगवन् इस मुखपोथी और समयरेखा ने आर्यवर्त में कवित्व को बड़ा मंच दे दिया है जो लम्बे समय से भरे हुए घूम रहे थे वे अब खुलकर काव्य लिख रहे है और तेजी से लोकप्रिय हो रहे है उत्तर आधुनिक काल की इस नई कविता ने स्थापित कवियों को चिंता में डाल दिया है वें मुखपोथी की कविता की दबे स्वरों में आलोचना करते है मगर अब वें खुद की अज्ञात कविताएँ भी इस मुखपोथी पर प्रकाशित करके यह बताते है कि देखों एक मुखपोथी के कवि और प्रकाशित किताबों वालें कवि के कवित्व में गुणात्मक अंतर होता है।
मैंने कुछ बड़े कवियों को उनकी बैठकों में सोमरस और धूम्रदण्डिका के साथ मुखपोथी की कविता और कवियों की अभद्र आलोचना करते भी देखा और सुना है।वो अप्रसन्न है भयभीत है असुरक्षित है यह मैं बताने में असमर्थ हूँ। ये स्थापित कवि केवल एक बात से अवश्य प्रसन्न है कि इनकी सजिल्द कविताओं की पुस्तकों के स्थाई ग्राहक ये मुखपोथी के ही कवि है बाकि सारी किताबें तो युक्तियों से शासकीय पुस्तकालयों में सुशोभित होती है।
हे ! भगवन मुखपोथी की दुनिया विचित्र रहस्यों से भरी पड़ी है सम्भवः है अब मनुष्य के व्यवहार के अध्ययन के लिए एक मुखपोथी अध्ययन शाखा विकसित की जाए और इस पर स्वतन्त्र शोध हो।
देवनारायण विस्मय से शून्य में देखते हुए बोले यह तो चमत्कार जैसा है देवऋषि ! परन्तु हमें यह अंतरदृष्टि से भी दिखाई नही दे रहा है लगता है देवलोक के संचार अभियंता को बुलाना पड़ेगा तब तक आप मृत्युलोक से यंत्रो का प्रबंध करों मैं यहां अंतरजाल खुलवाता हूँ।
मनुष्य की यह लीला देखनी ही पड़ेगी।
जो आज्ञा प्रभु !कहकर देवऋषि नारद अंतर्ध्यान हो गए।

Wednesday, February 25, 2015

बारिश

रात के बारह बजे के बाद से बारिश है।सुबह जगा तो लगा आज की सुबह कुछ जानी पहचानी सी है। जिनकी रुह पर छाले और पलकों पर जाले लगे होते है उनको बारिश महज़ मौसम का बदलना नही लगता।बल्कि इसकी महीन बूंदो के जरिए वो खुद को रफू करना चाहते है। बारिशों के लगाये पैबन्द अगली बारिश तक रुह से चिपके रहेंगे इसकी भले ही कोई गारंटी न हो मगर खुद की बैचेनियों की आग से झुलसते मन को बेशक ये बूंदे थोडा सुकून तो देती ही है।

एक बारिश खुद के अंदर रोज़ होती है मगर उसका गीलापन दिखता नही है क्योंकि दिल की धरती बेरुखी की गर्मी से इतनी तपती है कि आंसू भांप बन उड जाते है। बातचीत में मेरी पलकों पर जो नमी दिखाई देती है वो दरअसल इसी भांप की नमी है।

सुबह से कुछ किताबें तलाश रहा हूं जो पढी जा चुकी है। जब-जब बारिश होती है मुझे पुरानी किताबें याद आने लगती है और उनको दोबारा पलटना शुरु कर देता हूं। उसमें कुछ अंडरलाईन की गई ख्वाहिशें होती है जिन्हें वक्त के दबाव के चलते तब बचा लेता हूं ऐसी बारिशों के लिए। क्योंकि बारिश मे अक्सर यह महसूस कर पाता हूं कि किसी कहानी कविता या उपन्यास का लेखक कितना मेरे जैसा है और किताब में तुम कहां कहां बैठी हो। आज सुबह से कविता की वह किताब नही मिली जिसकी हर कविता में तुम्हें पाया था जैसे अक्षरों पर तुम्हारी मुस्कान सजी हो व्याकरण में तुम्हारा जीवन हो और पूर्ण विराम में तुम्हारी आश्वस्ति सांस लेती हो।

किताब न मिलनें पर थोडी देर अनमना रहा है आंखे बंद किए बूंदों की आहूतियां सुनता रहा धरती की दरारों में उनका समाना खुद से खुद का मिलने जैसा है। बूंदों के संगीत को सुनने के लिए चेहरे पर टंगे कान किसी काम नही आते इसके लिए दिल से दरख्वास्त करता हूं कि वो थोडी देर के लिए उसके साथ हुई ज्यादतियों को भूल जाए और दिल मान भी जाता है। तुम्हारें कंगन के बीच फंसी चार चूडियों की खनखन से पहला सुर उभरता है और मंद मंद धडकनों में छिपे छंद को आरोह अवरोह के जरिए ताल से साधता हूं फिर बूंदो का एक समूह ताल की थाप बन जाता है बीच बीच में तुम्हारी नई जूतियों का कोरस सुनाई देता है और पायल फिलर की तरह बूंदो के इस नाद में शामिल हो जाती है। ये संगीत दरअसल मन के अधूरे रागों का संगीत है इसलिए मेरी अधूरी जिन्दगी में बारिशों के जरिए बार बार मन को गीला करता है।

आंखे बंद किए मै बूंदों की चुगलियां सुनता हूं जो वें आपस में मेरे बारें मे करती है। बादलों की दुनिया में मेरी आवारागर्दी के किस्से अफवाहों की शक्ल में घूमते है। कुछ बदमाश बादल मेरी बर्बाद किस्म की जिन्दगी को देखने के लिए अपना भार भूल धरती के बेहद नजदीक चले आते है उसके बाद बरसना उनकी मजबूरी होती है। बारिश होने की साजिश में मौसम के अलावा मेरी भी इतनी भूमिका है यह बात कभी कोई मौसमविज्ञानी नही बताएगा।

पिछले एक घंटे से ‘दिल तो पागल है’ और ‘सर’ फिल्म के गाने रिपीट करके सुन रहा हूं ये एक अजीब सा पागलपन है जो बारिश होने पर मुझ पर हावी होता चला जाता है। खिडकी ठीक मेरे बिस्तर के पास है बारिशों में अपना वजूद खो बैठी ठंडी हवा मेरी गाल को छूकर कहती है नही सर्द गर्म तो नही है। मै मुस्कुराता हूं और बारिश को देखता हूं कुछ बूंदे मुझे यूं देखकर शरमा भी जाती है फिर खिडकी से बमुश्किल अपना हाथ बाहर करता हूं मेरी हथेलियों पर दरअसल मेरी गुस्ताखियों के किस्से सीमेंट की तरह पुते है बारिश की नन्ही बूंदे अपनी मद्धम चोट से मेरा हाथ धोना चाहती है मै हथेली नीचे कर देता हूं मेरे हाथ से रिसती बूंदे शायद मेरी इस चालाकी पर हंसती है क्योंकि जमीन पर गिरते वक्त उनकी आंखे चमकती देखता हूं।

अब जब बारिश थम गई है मेरे कानों में अभी भी बूंदों की आवाज़ गूंज रही है ये ठीक तुम्हारी मुस्कान और हंसी के बीच के जैसी है जिसके लिए मेरे पास शब्द नही है। अक्सर बारिश को सुनते हुए तुम्हें याद करता हूं मेरे शब्द खो गये है कहीं इसलिए फिलहाल बूंदों के संगीत से नई वर्णमाला सीख रहा हूं एक दिन इसके नोट्स भेजूंगा तुम्हें फिर तुम भी अपने हिस्से की बारिश को सुन सकोगी ठीक मेरी तरह।


‘बारिश का कोरस’

Friday, February 20, 2015

शाम

जाना तो तुम्हारा पहले दिन से ही तय था। यकायक चली जाती तो इतना कष्ट इतना संताप न होता। तुम इतनी आहिस्ता आहिस्ता नजरों से ओझल हुई कि उन लम्हों को सोचकर अक्सर शाम को जी बहुत बोझिल हो जाता है। तुम्हारा मिलना और मिलकर बिछड़ना महज एक किस्सा नही है जिसे किसी गहरे दोस्त के साथ शेयर करके जी को हलका किया जा सकें। ये एक मुसलसल हादसा है जिसकी टीस शायद कुछ छटांक भर बोझ दिल की नाजुक दीवारों पर ताउम्र चढ़ाती जाएगी।
कितना ही मतलबी होकर क्यों न सोच लूं मेरी सोच की धमनियों में तुम्हारी धड़कन का कम्पन स्पंदित होता ही रहता है। अफ़सोस यह भी है तुम्हारे मन को पढ़ पाने और उसमें मेरे लिए असमान वृत्तियों को देख पाने के बाद भी मै खुद के अनुराग की गति को नियंत्रित न कर सका। तुम्हें किस्तों में खोता गया और खुद को ये सांत्वना देता रहा शायद पहला रास्ता अंतिम रास्ते से मिल जाएगा और तुम लौट कर वहीं आओगी जहां कभी एक कौतुहल की कातर दृष्टि से मुझसे मिली थी।
अज्ञात और अप्राप्यता के बन्धन अपेक्षाकृत ज्यादा गहरे रहें होंगे जो तुम्हें मुझ तक लाए थे परन्तु जिस प्रकार से तुम्हारी चेतना और सम्वेदना में मेरे अक्स का अधोपतन हुआ वह मेरे लिए भी कई अर्थों में अनापेक्षित है।
कुछ अनकहे किस्सों की दास्तान को चुपचाप शून्य में पढ़ता हूँ तब तुम्हारी गति को नाप पाता हूँ एकांत की एकलव्य साधना के बीच भी मेरी निष्ठा उतना असर नही बना पाई कि तुम्हारी सिद्ध मान्यताओं में दशमलव में भी हस्तक्षेप कर सकूं।
फिलहाल तो बेवजह के तर्क मेरे म्यान में पड़े है उनकी व्याखाएं अब दर्शन और मनोविज्ञान दोनों से परित्यक्त है उन्हें नितांत ही मेरी कमजोरी समझा जा सकता है। सोच और अर्जित अनुभव के बीच जब अपवाद की स्याही सूख जाती है तब उस कलम को तोड़ देना ही श्रेयस्कर होता है और तुम्हारे लिए क्या श्रेयस्कर है यह निर्धारित करने का मुझे कोई अधिकार भी नही है।
लोक कयासों में तुम्हारी उपस्थिति शनैः शनै: विस्मृत हो जाएगी शायद सन्दर्भों के अंतिम पृष्ट पर भी मेरा कोई धूमिल जिक्र न हो परन्तु मेरे लिए तुम्हें ज्ञात अज्ञात के मध्य एक सुखद स्मृति के रूप में खुद को संपादित करने के गाहे बगाहे प्रयास हुआ करेंगे और इन्ही प्रयासों की छाँव में जब मै सुस्ताने के लिए बैठूंगा तब मन के वातायन में तुम्हारे कद की धूप जरूर में हृदय की विकल घाटियो में उतरा करेगी। यह मन की एक ऐसी प्राकृतिक घटना है जिस पर मेरा बस शायद कभी नही चलेगा।
कमजोर और मजबूर इंसान न तुम्हें तब पसन्द थे और न अब होंगे तुम्हारी यह सूक्ति वर्तमान में मेरे लिए सबसे बड़ी युक्ति है जिसके सहारे साँझ होने से पहले अपना सामान इकट्ठा कर रहा हूँ ताकि उस दिशा में निकला जा सके जहां सूरज देर से उगता है।


'शाम के काम'

Thursday, February 19, 2015

पर्स पुराण

अमूमन पर्स शब्द महिलाओं से जुड़ा शब्द है। पुरुषों में हम देहातीजन इसे बटुआ कहते है और अभिजात्य वर्ग के लोगो को वैलेट भी कहते सुना है। बहरहाल, मुझे खुद के बटुए को पर्स कहने की ही आदत है और कहने की नही अपने स्कूल के दिनों से ही पर्स रखने की आदत है। पर्स दरअसल एक किस्म की आश्वस्ति का प्रतीक भी है कि आपके पास मुद्राराक्षक को कैद करने का एक चमड़े का लिफाफा है। मेरे पर्स में सिक्कों को रखने की एक छोटी सी जगह है उसमें वैष्णों देवी से प्रसाद के साथ मिला एक मूर्ति वाला छोटा सिक्का है जिसे इस उम्मीद पर रखा गया है कि बुरी से बुरी हालत में भी वो अपनी तरफ कम से कम सिक्को को तो खींचता ही रहेगा और इस टोटके में इतनी सच्चाई है भी मेरा पर्स भले ही नोटविहीन हो गया हूँ लेकिन कभी सिक्काविहीन नही हुआ है। पिछले दो साल से मेरे पास एक ही पर्स है मेरे वजन के दबाव में उसके प्योर लेदर की बाह्य त्वचा बदरंग हो गई है। धन के मामलें में मेरे झूठ सच के वाग विलास का जितना बड़ा साक्षी मेरा फोन रहा है ठीक उतना ही बड़ा मेरे अच्छे बुरे दिनों का साथी यह मेरा पर्स भी है। कभी कभी सोचता हूँ तो पर्स एक नश्वर काया लगने लगती है जो मेरे साथ जीती है और जब उसकी आयु पूर्ण होती है अपने हिस्से की जमापूंजी आगे हस्तांतरित कर देह से मुक्ति पा लेती है। इसलिए पर्स की देह बदलती है आत्मा नही। मेरे दो एटीएम कार्ड और एक एक्सपायर्ड आई डी कार्ड इस पर्स की स्थाई धरोहर है। एक मेरा अतीत बताता है और दूसरें में मेरा भविष्य छिपा है। पर्स की अलग अलग जेब में कुछ न कुछ मैंने भरा हुआ है हर छटे छमाही जब मै कुछ अनमना होता हूँ और पर्स भारी लगने लगता है तब मैं इसकी सफाई करता हूँ। वैसे तो अपरिग्रही हूँ मगर तब पता लगता है कि क्या क्या चीजें मै बेवजह ढोता रहता हूँ अक्सर मुझे एटीएम के मिनी स्टेटमेंट, किरयाने का बिल, बच्चों के फीस की रसीद और अलग अलग जगह पैसे जमा करने की रसीदें पर्स में पड़ी मिलती है मतलब धन देकर भी धन की असुरक्षा से मुक्ति का कोई रास्ता नही मिलता है।
कुछ अनजान लोगो के विजिटिंग कार्ड भी लगभग साल भर तक मेरे पर्स में यूं ही बेवजह यात्रा करते है न मै उन्हें देख कभी उनसे बात करता हूँ न कहीं किसी से मिलनें जाता हूँ एक दिन उनको फाड़कर कूड़ा जरूर बना देता हूँ।
जितना बड़ा मेरे पर्स का पेट है उसको अपेक्षाकृत उससे कम ही मुद्रा के ग्रहण करने का अभ्यास है इसलिए अब वो मेरी तरह संतोषी हो गया है। इस उम्र में पर्स को डिमांडिंग होना चाहिए जबकि वो एकदम विरक्त भाव से मेरी जेब में पड़ा रहना चाहता है शायद उसे भी मेरी आदत हो गई है। आज जब मैंने अपने पर्स की पड़ताल की तो उसमें रसीदी टिकिट टेलर का कपड़े की कत्तर लगा एक बिल, एक अखबार के क्लासीफाइड की कतरन और मेरे और बच्चों के कुछ फोटो भी मिलें पर्स की एक जेब में एचडीएफसी बैंक में जमा की गई ईएमआई की 9 स्लिप भी मिली जबकि ये कर्जा कब का उतर गया मै अब भी प्रमाण लिए घूम रहा था मैंने उनके उतने टुकड़े किए जितने कर सकता था और यकीनन ऐसा करना मुझे सुखप्रद लगा।
ऐसा कई दफा हुआ मेरे साथ यह पर्स बारिश में भीगा मगर इसनें अपनी वफादारी की हद तक मेरी जमापूंजी की रक्षा की इसी वजह से इसकी अंदर से चर्म काया अब काली और बदरंग हो गई है मगर मुझे यह खूबसूरत दिखती है इससे वफ़ादारी की खुशबू आती है। मेरा पर्स मेरी आर्थिकी का सच्चा गवाह है और सबसे बड़ी बात साक्षी भाव में रहता है कभी किसी से कोई चुगली नही करता है ना शिकायत करता है। हाँ जब मैं इसको एक पखवाड़े तक खोलता नही हूँ और ऐसे ही बेतरतीब अलमारी में पटक देता हूँ तब इसे जरूर हीनता का बोध होता है इस निर्जीव की प्रार्थना की शक्ति से मुझे शायद धन मिलता है और मै उसे पर्स को सौंप कर फिर इसे जेब में डाल लेता हूँ।
इस पर्स को मेरी दिलदारी पर फख्र है तो मेरे अनियोजन से ये चिंतातुर भी रहता है ऐसा कभी कभी मुझे महसूस होता है ये कभी कभी जीरो बैलेंस के एटीएम को दुत्कारता होगा कि कमबख़्तो क्यों बोझ बढ़ा रहे हो मेरा जब तुम अयोजविहीन हो गए हो ! वो बेचारे मेरी काहिली का किस्सा सुनाकर पर्स में आश्रय पातें है इसका मुझे बोध है।
बहरहाल आज पर्स का अनावश्यक बोझ हलका किया तो इसी बहाने पर्स से बातचीत भी हो गई अब इसमें एक गांधी जी का चित्र कुछ सिक्के, जिन दवाईयों से मुझे एलर्जी है उनकी लिस्ट,कुछ शेर, इमरजेंसी कांटेक्ट की डिटेल्स और एक लिस्ट उन मित्रों की जिनसे मैंने उधार लिया हुआ है धनराशि के उल्लेख के साथ रख छोड़ी है ताकि सनद रहे और वक्त बेवक्त पर काम आ सके।

'मै और मेरा पर्स'