Tuesday, June 9, 2015

दर ब दर

डेढ़ साल हो गए दिल्ली गए। ऐसा नही है दिल्ली में मेरे तलबगार नही है बस मेरी तलब दिल्ली को लेकर थोड़ी कमजोर पड़ जाती है। दिल्ली में मेरे एकाध ठिए है जहां सत्संग होता रहा है। कम से कम दो नए दरवाजों की कॉल बेल मुझे बजानी थी मगर मेरी ऊंगलियां माथे का पसीना ही पूंछती रह गई।
कई बार दिल करता है दिल्ली जाऊं मगर ऐन वक्त पर मैं दूसरी बस में बैठ लेता हूँ ये बस मुझे किसी मंजिल तक नही ले जाती आधे रास्ते पर उतार देती है वहां खड़ा हो मैं दिशाशूल का विचार करता हूँ उस वक्त मेरी पीठ दिल्ली की तरफ हो जाती है।
मैं अब लखनऊ जाता हूँ वहां दरीबा कलां में होटल प्रीत के कमरा नम्बर 407 में रुकता हूँ। लखनऊ अदब का शहर है मुझे वहां का पॉलीटेक्निक चौराहा कुछ कुछ भूल भूलैय्या जैसा लगता है मैं नाक की सीध चलता हूँ फिर वहां से राईट ले लेता हूँ पिछले दिनों मैं बापू भवन मॉल एवेन्यू के चक्कर काटता रहा हूँ राजभवन और विधान सभा के बीच में मेरे जूतों नें कुछ चाँद जमीन पर बनाएं है वे सब एक दिन धूल में उड़ जाएंगे इस तरह इस शहर में मेरा आख़िरी कदम खत्म होगा।
दिल्ली दिलवालों का शहर है विक्टर्स की सिटी है दिल्ली में मुझे मेट्रो रेल मेरी बड़ी बहन जैसी लगती है उसके रहतें मैं आश्वस्त हो सकता हूँ कि किसी को तिलकनगर तो किसी को शाहदरा फोन करके बुला लूँगा वो मेरा हाथ थामें अपनें घर तक ले जाएंगे जैसे कोई लम्बी कैद के बाद रिहा होकर अनजान गलियों में भटकना चाहता है ठीक वैसे ही मैं भी एक दिन दिल्ली आना चाहता हूँ मगर कब ये पता नही।

'दर ब दर'

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