Thursday, July 27, 2017

‘मन मेरा मंदिर’

दृश्य एक:
नदी किनारे एक मंदिर है. यह एक बरसाती नदी है जो बारिश के दिनों में यौवन पर रहती फिर साल भर बिरहन की तरह अकेले सिसकते हुए बहती है. मंदिर के प्रवेश द्वार से पहले बारह सीढ़ियां है. मंदिर के गर्भ गृह में एक बड़ा साल थाल रखा है जिसके ईश्वर के आचमन के लिए जल रखा है. उसी में कुछ भोर के टूट हुए तुलसीदल भी तैर रहे है. वो अपने बचपने पर इस कदर मुग्ध है कि उन्होंने ईश्वर की तरफ देखना भी बंद कर दिया है.
एक दीप टिमटिमाता है उसकी टिमटिमाहट की किसी निर्बल की मन्नत का बल शामिल है इसलिए वो ईश्वर को खुश करने के सारे जतन कर रहा है मगर एक ईश्वर है कि उसे फूंक मारकर बुझाने की जुगत में है. ईश्वर के पास मंदिर के अन्दर यही एक मात्र कौतूहल शेष बचा है.

दृश्य दो:
मंदिर पर कुछ धुंधले भित्तिचित्र बचे है उन पर छत से पानी रिस कर आता है और यह पानी उन भित्तिचित्रों के कला संयोजन में एक तरल हस्तक्षेप करता है उसके बाद चित्र के संदेश बदल गए है. वाराहमिहिर का एक भित्तिचित्र है उस पर पानी कुछ इस तरह से फ़ैल गया है कि लगता है जैसे साक्षात विष्णु और इंद्र की लड़ाई चल रही है इस तरह से कला प्रयोजन कथित देवयोग के कारण अपना विस्तार पा रहा है.मंदिर के प्रवेश द्वार पर एक पीपल का छोटा पेड़ उग आया है वनस्पति विज्ञानी इसे किसी पक्षी की करामात बता सकते है मगर मुझे यह पीपल का छोटा बच्चा दूध,कलेवा और धूपबत्ती की ऊब से जन्मा लगता है यहाँ से यह सीधा सूरज से बात करता है और वो हवा से कहता है कि तुम्हारी शीतलता का सारा सौन्दर्य सूरज के अनुग्रह के यहाँ बंधक रखी हुई है.

दृश्य तीन:
मंदिर के पीछे विजया के कुछ पौधे उग आए है. यहाँ उनके कौमार्य को कोई खतरा नही है इसलिए हवा में झूमते देखें जा सकते है शाम के वक्त उनकी उदासी देखने के लिए मंदिर के अहाते से कुछ चींटीयां उनके कोमल तनो के पास तक जाती है मगर उन्हें डर है कि विजया कहीं उनके होश स्थगित न कर दें इसलिए वो दूर से कतारबद्ध होकर उन्हें देखती है और लौट आती है. उनके समूह में अफवाहों के लिए कोई जगह नही है इसलिए बाहर के किसी विषय पर वहां बात नही होती है उनका मुख्य विमर्श भोजन से जुड़ा है. कुछ मादा चीटीं जरुर आटें में घुली कटुता का जिक्र करती है मगर उनकी चिंताओं पर नर शर्करा की उपलबध्ता की स्थिति बता कर पर्दा डाल देते है.

दृश्य चार:
मंदिर में वे दोनों कुछ मांगने आते है मगर जैसे ही ईश्वर के सम्मुख होते है उन्हें ईश्वर खुद निर्धन लगने लगता है वो प्रार्थना के लिए हाथ जोड़तें है मगर उनके प्रार्थना में ईश्वर के लिए प्रार्थना खुद के दुखों के विज्ञापन से पहले शामिल होती है. वे दोनों मंदिर से उलटे पैर लौटना चाहते है मगर ईश्वर को देखते हुए लौट पाना मुश्किल है इसलिए वो ईश्वर की तरफ पीठ कर लेते है. यह बात ईश्वर को आत्मतोष देती है कि कम से कम वो दोनों ऐसे है जिन्हें ईश्वर से कुछ नही चाहिए.

दृश्य पांच:
ईश्वर उन्हें सच में कुछ देना चाहता है मगर जब वह अपनी जेब टटोलता है तो वहां उसे उनकी कामनाओं के कोई पत्र नही मिलते है इसलिए ईश्वर यह मान लेता है कि उनकी कोई मन्नत उससे नही जुडी है.
ईश्वर का यह मानना मंदिर की सत्ता के लिए एक सुखद संकेत है. घण्टे घंडियालो के शोर में ईश्वर थोड़ी देर सोना चाहता है क्योंकि एकांत में उसे वैसे भी नींद नही आती है. वो मनुष्य की तरफ देखता है और मनुष्य उसकी तरफ देखतें है.

इसी आशा के कारण मनुष्य और ईश्वर दोनों सदा के लिए सुरक्षित है. 
मन मेरा मंदिर


© डॉ. अजित



Wednesday, July 26, 2017

चाहत

अच्छा एक बात बताओं
चाहत आदमी को कमजोर बनाती है क्या?
प्राय: ! मैंने जवाब दिया
यह एक कूटनीतिक उत्तर है
मैं विस्तार से इस पर सुनना चाहती हूँ
क्या तुम किसी को चाहती  हो? मैंने पूछा
‘किसी को’ एक आग्रह है इसलिए इसका स्पष्ट जवाब नही है मेरे पास !
फिर भी समझ लो मैं चाहत में हूँ 
मेरा इतना होना महत्वपूर्ण है, वो इतना कहकर चुप हो गई
मैंने कहा
‘चाहत एक महीन बुनावट है एक किस्म का सीमांकन जिसमें आवाजाही के लिए हम एक वक्त नही चुन सकते है.जरूरी नही चाहत किसी अभाव से उपजी हो यह एक विस्तार का भी हिस्सा हो सकती है. जहां तक चाहत आदमी को कमजोर करने का प्रश्न है मैं कमजोरी और मजबूती को मनुष्य के संदर्भ में समझ नही पाता हूँ. मनुष्य को उसकी कामनाएँ लचीला बनाती है यह दीगर बात है कि आप अपनी लोच पर झूला झूलते हुए मन के सबसे उदास गीत पूरे उत्साह से गा सकते है या फिर इसी लोच पर सवार होकर आप अपने एकांत के सबसे उपेक्षित कोने में विश्राम की मुद्रा में भी जा सकते हैं. दोनों ही स्थितियां मुझे कमजोर नही लगती है.’

हम्म ! समझ गई तुम चाहत को शायद नही समझते हो !
शायद इसलिए कहा मुझे उम्मीद है एक दिन जरुर समझ लोगे
हालांकि उम्मीद अपने आप में एक आग्रह है
मगर मैं चाहती हूँ तुम चाहत को किसी आग्रह के कारण मत समझो
चाहत को बुद्धि के द्वारा भी परिभाषित न करों
मैं तुम्हें चाहत में मौन देखना चाहती हूँ.
...मेरे मौन होने से क्या मेरे चाहत में होने की पुष्टि हो सकगी? मैंने पूछा
नही तुम्हारे मौन होने से मेरा यह भ्रम दूर होगा कि
चाहत आदमी को कमजोर बनाती है

तुम्हें कैसे पता कि मेरा मौन होना वास्तविक मौन होना होगा
हो सकता है यह मेरा कुशल अभिनय हो!
चाहत में व्यक्ति अभिनय करना भूल जाता है
इतना मुझे पता है, यह कहकर वो हंस पड़ी.

© डॉ. अजित

#संवाद


अपढ़ता

हेनरी के पास एक कागज का टुकडा है वो उससे एक जहाज बना सकता है मगर उसने उसकी नाव बनाने की कोशिश की. नाव को जब पानी में छोड़ा गया तो नाव डगमगा कर चल तो पड़ी मगर वो एक तरफ से झुकी हुई लग रही है. हेनरी नाव को पानी में छोड़ता है और हाथ से पानी मे तरंग उत्पन्न करने की कोशिश करता है उसे लगता है यही तरंग उसे डूबने से बचा लेगी.
नाव एक तरफ झुकी हुई है इसलिए उसमें पानी भरना शुरू हो गया है हेनरी को पहले इस बात पर थोड़ी फ़िक्र हुई मगर उसने इसे नाव की नियति मान लिया है इसलिए अब उसकी दिलचस्पी नाव को तैरते हुए देखने के बजाए उसके डूबने की जगह देखने की है. एक झुकाव रचनात्मकता को विध्वंस के मनोरंजन में रूपांतरित कर देता है.
हेनरी के चेहरे पर नाव के डूबने का कोई क्षोभ नही दिख रहा है जैसे उसे पहले से पता था कि नाव को एक समय के बाद डूबना ही है वो डूबी हुई नाव को बेहद अनमने ढंग से पानी से निकालना चाहता है मगर तभी एक तेज धारा उस डूबी नाव को आगे बहा ले जाती है इस प्रकार से अपनी खूबसूरत बुनावट के बावजूद नाव गुमनामी की दिशा में आगे बढ़ जाती है और हेनरी अपनी स्मृतियों में नाव के डोलते हुए चलने की घटना को समेटकर खुश होता है.
हेनरी के हाथ में एक और कागज़ का टुकड़ा है वो इससे एक हवाई जहाज़ बनाएगा मगर उसे पता है कि ये जहाज़ भी कुछ ही समय बाद दिशा भटक कर किसी अनजान कोने में अटक जाएगा. ये ज्ञान हेनरी का उत्साह कम नही कर पा रहा है वो बनाकर चीजों के खोये जाने वाले भविष्य को लेकर आश्वस्त है इसलिए वो किसी भी वस्तु के मोह में नही है वो उन्हें यथास्थिति में देखता है और अपने कौशल का हस्तक्षेप करके उनका स्वरूप बदलता है.
अंत में वो हर चीज़ को उसकी नियति के हवाले कर देता है. प्रथम दृष्टया यह एक खेल या कौतुहल प्रतीत होता है मगर वास्तव में यह दोनों ही नही है यह दरअसल जीवन के दार्शनिक सच का एक क्रियात्मक प्रदर्शन है जिसे हम खेल समझ सकते और अपने आसपास के यथार्थ से विलग हो सकते है.
हेनरी के पास जीवन का एक पाठ है मगर वो खुद इसे नही पढ़ पाता है मनुष्य की यही अपढ़ता उसके ज्ञात दुखों का मूल है.

© डॉ. अजित 

Saturday, July 1, 2017

हफ्तेबाजी

इतवार:

दिन लगभग सवा घण्टे देर से निकला। बिस्तर के पास कुछ सपनें है जो उसके पास छाया की तलाश में ठहर गए है। वो लेटा हुआ प्रार्थना करता कि लाइट न जलाई जाए। जीवन प्रकाश का दास है वो ऊर्जा और अंधेरे को विपर्य समझता है। खिड़की से कुछ आवाजें छनकर आ रही है मगर उन्हें अपने भिक्षापात्र में लेने वाला कोई नही है इसलिए वो अकेली जंगल की तरफ लौट गई है जाते-जाते उन आवाजों ने मेरी एक उल्टी चप्पल सीधी की है। कमरे की गुमशुदा हवा ने ये शुभता का शगुन देखा और बादलों को जा सुनाया। हवा की करुणा देखकर बादल रोना पड़े और बारिश हो गई है। बारिश के मौन ने मुझे जगाया मुझे लगा कोई सिरहाने बैठा मेरे माथे पर हाथ फेर रहा है। इतवार एक न पढ़ा गया दस्तावेज़ है।

सोमवार:

सुबह आज अनुशासन की दास है। जिन्हें कहीं पहुंचना है वे सुबह अनमने होकर उठे और फिर एक नियत गति के शिकार होकर सुसज्जित हो अपने गंतव्य की तरफ निकल गए है। उनकी छाया घरों के एकांत से उकताकर मेरे नजदीक बैठ गई है। उनका आग्रह है कि मैं कर्मयोग के खंडन में कुछ बोलूं मगर मैं चुपचाप एक करवट लेटा हुआ उन्हें देख रहा हूँ उन्हें मेरी चुप्पी खली और उन्होंने मुझे एक पारंपरिक मनुष्य घोषित कर दिया। मैं उनसे कुछ कहने का साहस जुटाता हूँ तब तक उनकी सुनने का कौतूहल चूक जाता है। सोमवार अपने सबसे करीबी दोस्त को हड़बड़ी में लिखा गया एक खत है।

मंगलवार:
दिन आज थोड़ी देर से निकला है। दरअसल रात का एक कंगन मेरे सिरहाने कहीं खो गया था वो उसे व्याकुल हो तलाश रही थी इसलिए वो देर से मेरे पास से गई। मुझे सच मे नही पता था उसका कंगन कहां गुम हुआ है और अगर पता भी होता तो भी नही बताता ये बात सवेरा जानता है इसलिए उसने मुझे कभी भरोसेमंद नही समझा और अक्सर सुनाई वे सब खबरें जो मेरा मनुष्यता में भरोसा थोड़ा कमजोर करती है। मंगलवार जीवन के नियोजन का एक उलझा हुआ अनुवाद है।

बुधवार:
मध्यांतर पर खड़ा है मैं खोए हुए लोगो की एक सूची बनाता हूँ। जो बेहद करीब थे मगर कहीं खो गए उनका नाम मैं भूल गया हूँ मगर उनकी शक्लें और लहजें मुझे ठीक ठीक याद है इसलिए आज के दिन ने मुझे लेखक से चित्रकार बना दिया है। अब सूची के स्थान पर मेरे पास कुछ चित्र है इन चित्रों की शक्लें आपस मे इतनी मिलती है कि कोई मुझे एक पागल प्रेमी आराम से समझ सकता है जबकि ये सब अलग-अलग लोग है। ये वो लोग है जिन्हें मैं सहेज नही पाया इसलिए अब इनके चित्रों के विज्ञापन का भी क्या करूँगा इसलिए मैनें सूची के चित्र एक एक करके हवा में उड़ा दिए। आज हवा नदारद है वो छुट्टी पर है इसलिए आधे चित्र मेरी पीठ तो आधे चित्र मेरी छाती से चिपकते हुए नीचे गिर रहे है। बुधवार नीचे गिरती हुई चीजों को देखने का दिन है।

बृहस्पतिवार:
एक खगोलीय पिंड की भांति मुझे अपने उपग्रहों के प्रेम है। मगर यह प्रेम नितांत ही यांत्रिक और बुद्धिवादी है इसलिए मेरे उपग्रह मेरा चक्कर लगाते हुए बेहद उदासीन प्रतीत होते है। उनके पास विकल्प है मगर मेरी बाह्य आकृति उनको बांधें हुए है जबकि मेरे अंदर का कोलाहल सुनने के लिए अपनी नियत कक्षा में चक्कर काट रहे है। उनके पास केवल अनुमान है क्योंकि प्रमाण मैनें अपने हृदय के संतृप्त ज्वालामुखी में जलाकर नष्ट कर दिए है। बृहस्पतिवार मानवीय कामनाओं को बुद्धि के द्वारा सिद्ध करने का एक गणितीय दिन है।

शुक्रवार:
सुबह जब मैं जगा मेरी गर्दन के नीचे कुछ कृतज्ञताएँ झूला डाल झूल रही थी उनके पैर मेरी पीठ के ठीक मध्य लगते थे।मुझे थोड़ी गुदगुदी हुई और आंख खुल गई। थोड़ी देर विस्मय से मैं खुद की त्वचा को देखता हूँ तुम्हारी देह की प्रतिलिपि वहां कुछ छुट्टे पैसे लेने आई है। मैं अपनी जेब की तलाशी लेता हूँ तो वहां तुम्हारा एक लंबा बाल पड़ा है वो मेरा हाथ पकड़ लेता है। मैं बाल को मुद्रा समझ सारी दुनिया मे भटक रहा हूँ इस बाल के बदले मुझे कोई न एक बूंद शराब की देता है और न एक गिलास पानी ही कोई पिलाता है। मैं इस बाल को दुर्लभ समझ किताब के मध्य रखता हूँ और उस किताब को कहीं रखकर भूल जाता हूँ। शुक्रवार दुलर्भ चीजों को कहीं रखकर भूलनें का दिन है।

शनिवार:
न्याय की दृष्टि यह कहती है कायदे से अब तक मुझे मर जाना चाहिए था। मगर मैं जीवित हूँ और जीवन के पक्ष में हजार प्रमाण प्रस्तुत कर सकता हूँ। आज मैनें रास्तों को शतरंज खेलते देखा हालांकि मुझे यह शह और मात का खेल बिल्कुल नही आता मगर इस खेल को रुचि से देखना यह बताता है कि मेरे हिस्सें भी कुछ शह और कुछ मात आई है। जिंदा रहना अपनी असफलताओं को मात देना नही शह देना है जिसकी कीमत हमें तब चुकानी पड़ती है जब खेल खत्म हो जाता है।
शनिवार पीछे मुड़कर देखने का नही एक जगह खड़े होकर होशपूर्वक देखनें का दिन है।

'हफ्तेबाजी'

© डॉ. अजित