Wednesday, June 22, 2016

सम्वाद

दृश्य एक:

देवताल में यह ऋषि मार्तण्ड का आश्रम है।
यज्ञ धूम्र से वातावरण दिव्य सुगंधी से आप्लावित है। गौशाला में गाय भोर के स्वागत में आत्मातिरेक संतुष्ट हो एक लय में अपने कान हिला रही है। ऋषि पुत्र खरपतवारों के पुष्पों पर मोहित हो कौतुहलवश कुछ फूल तोड़कर अपनी माता को दिखातें है तथा उनके रंग एवं कुल की समस्त जानकारी चाहतें है। उनकी माता उनके इस अवांछित कर्म से पहले थोड़ी कुपित होने का अभिनय करती है फिर वो अपने पुत्रों की सरलता पर मुग्ध उनको वनस्पति तथा मनुष्य के सम्बन्ध पर एक सरस कोमल पाठ पढ़ाती है।

दृश्य दो:
आश्रय के निकट एक छोटी नदी कल-कल की ध्वनि में बह रही है। उसके अंदर जो छोटी शिलाएं है वो अपनी दिशा को लेकर आश्वस्त नही है वो शीघ्रता से किनारे का आश्रय चाहती है बड़ी शिलाएं उनके भाग्य की अनिश्चितता पर लेशमात्र भी चिंतित नही है। नदी का जल वेग के अधीन है मगर फिर भी छोटी शिलाओं को न्यूनतम चोट पहुँचाना चाहता है इसलिए वो छोटी कंकरों से कहता है कि उसको अधिकतम हिस्सों में विभाजित कर दें। बड़ी शिलाएं अपने हिस्से का एकांत ढो कर बूढ़ी हो चुकी है मगर उनके अभिमान में किंचित भी कमी नही है उनकी उदारता संदिग्ध है बावजूद इसके वो नीचे से टूटनी शुरू हो गई है।

दृश्य तीन:

मार्तण्ड ऋषि के प्रिय शिष्य वसन्त सुकुमार और ऋषि पुत्री प्रज्ञा में प्रेम को लेकर एक सार्वजनिक विमर्श चल रहा है। शास्त्र में रूचि रखने वाले अन्य शिष्य इसे व्यर्थ का विषय मानतें है इसलिए वो लगभग अरुचि से दोनों के तर्क सुन रहें है।

वसन्त सुकुमार कहता है ' प्रेम का उत्स मन है मगर इसकी यात्रा देह से गुजरती है। देह से विवर्ण होकर न प्रेम सम्भव है और न आराधना। प्रेम का विपर्य प्रायः घृणा समझा जाता है मगर यह पूर्णत: सच नही है प्रेम का कोई विपक्ष नही है यह एकल मार्ग है जो विपक्ष दिखतें है वो मात्र रास्ते के कुछ पड़ाव है जिन्हें कुछ प्रेमी लक्ष्य के रूप में रूपांतरित कर देते है।
प्रेम अनुराग की देहरी पर बैठा सांख्य सिद्ध पुरुष है जो आदि से समन्वय अभिलाषी है इसका विस्तार मुक्ति की सापेक्षिक चाह भर नही है बल्कि ये विस्तार के साथ अनन्त के शून्य में विलीन होने की यात्रा है।'

प्रज्ञा प्रतिवाद करती है और कहती है ' मन की यात्रा मन से आरम्भ होकर मन पर ही समाप्त होती है। मन को देह की इकाई नही है मगर ये देह को भौतिक अवस्था में स्तम्भित रखनें में समर्थ है। प्रेम दरअसल मनुष्य की नैसर्गिक आवश्यकता भर नही है यह प्रकृति का एक हस्तक्षेप है जो मनुष्य की संवेदना को परिमार्जित और परिष्कृत करनें के लिए अस्तित्व का एक सहयोगी उपक्रम है।
मैं प्रेम को प्रतिछाया के रूप में देखती हूँ मगर ये नियंत्रण से मुक्त है प्रारब्ध और नियति के हाथों ये शापित है अनुराग वर्जनीय नही मगर अनुराग को उसकी सही दशा और दिशा में समझनें के लिए प्राणी प्रायः त्रुटि कर बैठता इसलिए प्रेम मार्ग और लक्ष्य दोनों से च्युत होकर विभरम की ध्वनि देना लगता है।

दृश्य चार:
ऋषि पुत्र आसमान की तरफ देखकर वर्षा का अनुमान लगा रहे है उनके पास कुछ अनुमानित कथन है वो उसकी पुष्टि आश्रम के आचार्यो से चाहतें है मगर आचार्य कहते है प्रकृति के बारें में अनुमान विकसित करना शास्त्रोक्त नही है। केवल सिद्ध पुरुष मौन के बाद इस पर कुछ बोलने के अधिकारी है।वे उन्हें प्रतीक्षा के कुछ मौलिक सूत्र देते है जिन्हें सुन ऋषि पुत्र असंतुष्टि की हंसी हंसते है और अपनी अपनी भविष्यवाणी प्रकाशित कर देते है।

सूत्रधार:
प्रकृति,प्रेम,प्रतीक्षा तीनों पर भाष्यों की आयु बेहद सीमित है तीनों अनित्य है मगर उनकी नित्यता भी असंदिग्ध है।
जो ज्ञात है वही अज्ञात है और जो अज्ञात है उसको जानने के लिए मनुष्य व्याकुल है। ये व्याकुलता उसे मुखर बनाती है। जैसे बादलों के सहारे धरती करवट बदलती है जैसे नदियों के किनारे हर साल समन्दर के लिए गुप्तचरी करते है ठीक वैसे ही मनुष्य अपने लिए असंगतताओं का चयन करता है। ये चयन मनुष्य की सबसे बड़ी सुविधा है और यही सबसे बड़ी असुविधा।

(समाप्त)

©डॉ.अजित

Tuesday, June 21, 2016

सुबह

ये डेनमार्क की एक सुबह है।

सूरज अपने औसत क्षेत्रफल से डेढ़ गुना छोटा निकला है। खगोलशास्त्र के लिहाज़ से ये कोरा गल्प है मगर प्रार्थनाओं का मनोविज्ञान साफ तौर पर इसकी वजह जानता है। सुबह हर देश की लगभग एक जैसी ही होती है किसी भी देश के देर तक सोते हुए लोग हमेशा कुछ न कुछ खो देते है ये अलग बात है जो रात में देर से सोते है वो पहले से कुछ बेहद प्यारा सामान कहीं खो चुके होते है।

सुबह की अच्छी और खराब बात यही है कि ये समय से नही आती है सब अपनी सुबह के इंतजार में है। कुछ फूल बिना किसी के इंतजार में खिल गए है उन्हें बारिश का भी इंतजार नही है बारिश यहां की सबसे उपेक्षित चीज़ है मगर वो धरती के सहारे जब भी मिलनें आती है हमेशा धरती को रुला कर जाती है।

कुछ रास्तों के कान थोड़े बड़े है वो मुद्दत तक करवट नही लेते है मगर उन्हें बच्चें बूढें जवान सबके कदमों के निशाँ साफ तौर पर याद है। लोग गुजर जातें है फिर रास्तें उन कदमों के निशान को उठाकर अपने संग्रहालय में ले जातें वहां किस्म किस्म के लोग यूं ही बेजान टंगे है रास्तों के पास हंसने का केवल एक ही विषय है वो उन लोगो के बारें में अनुमान लगाते है जो लौटकर नही आतें।

पार्क में कुछ बुजुर्ग बातें कर रहें है मगर मजे की बात ये है उन बातों में किसी की कोई दिलचस्पी नही है खुद उन बुजुर्गों की भी नही एक आदमी के पास अतीत की बातें है तो एक के पास भविष्य की चिंता दो आदमी ऐसे है जिनके पास केवल सहमति है उनके पास कोई विचार नही है वो मुग्ध भी नही है मगर फिर अचानक से एक खड़ा होता है और एक पेड़ की तरफ इशारा करता है और कहता है कोई बता सकता है ये पिछले जन्म में कहाँ पैदा हुआ था इस बात पर सब हंस पड़ते है इस तरह से सुबह के हिस्से में पहली बूढ़ी हंसी आती है।

एक बच्चा रो रहा है ऐसा लग रहा है उसका ईश्वर से सीधा संवाद हो रहा है। एक बच्चा हंस रहा है उसे देख सुबह अपनी यात्रा की थकान भूल गई है। धूप है मगर ठण्ड अनुपस्थित नही है फिर भी लोग धूप का आदर करतें है मगर वो चाहती है लोग उससे प्यार करें।

और मैं इस वक्त उपग्रह की तरह अपनी कक्षा के चक्कर काट रहा हूँ ताकि कुछ पूर्वानुमान भेज सकूं मेरी मदद से सुबह यह तय करेगी कि उसे धरती के किस हिस्से से प्यार करना है और किससे बातचीत कुछ दिन के लिए बंद रखनी है।

'ओ रे यायावर'

Sunday, June 19, 2016

खत: नंदिता दास

डियर नंदिता दास,
मन के ऊष्णकटिबंधीय मौसम पर खड़ा सोच रहा हूँ इस खत को शुरू कहाँ से करूँ?
ख्याल इस कदर आपसे में गुथे है कि एक का सिरा पकड़ता हूँ तो दूसरा छूट जाता है।

तुम्हें कुछ कहने के लिए धरती के सबसे उपेक्षित टुकड़े पर मैं समाधिस्थ बैठा हूँ यह लगभग प्रार्थना के क्षणों के जैसा है या फिर मन के सूखे निर्जन रेगिस्तान में एक आवारा बदली के टुकड़ी के इंतजार में आसमान की तरफ देखनें जैसा भी इसे समझा जा सकता है।

तुम्हें कुछ कहने से पहले किसी मांत्रिक की तरह मेरे होंठ कंपकपा जाते है। तुम्हारे अस्तित्व का सम्मोहन सीधे मेरी सोई हुई रूह के बालों में  कंघी कर उसके हाथ में एक पतंग थमा जाता है फिर वो बिना के डोर के आसमान में आवारा उड़ती फिरती है।

खूबसूरती की जिस दुनिया में गोरे लोगो का कब्जा था वहां तुम्हारे सांवलेपन ने एक ऐसा समयोचित हस्तक्षेप किया किया तुम्हारे कारण सांवले लोग खुद से प्यार करना सीख गए। तुम्हारा होना उनकी आँखों में आत्मविश्वास का होना है। तुमनें बताया यदि खुद पर भरोसा किया जाए तो दुनिया की हर स्थापित मान्यता को बेहद अकेला किया जा सकता है।

तुम्हारे अस्तित्व का सम्मोहन इतना गहरा है कि मैं निर्बाध इस पर बोलता रह सकता हूँ और उतनी ही सघनता के साथ तुम्हें देख मुद्दत तक मौन रह सकता हूँ। ये एक बड़ी दुलर्भ सी बात है।

तुम हंसती हो तो लगता है दिन में सूरज के आतंक के बीच भी कुछ सितारे बादलों को हटा धरती को देखनें चले आए हो। तुम्हारे अस्तित्व को देखने के लिए उपग्रह की तरह सतत् यात्रा में रहना पड़ता है तभी तुम्हें पूर्णता के कुछ अंशो में देखा जा सकता है। जब चेतना की ऊंचाई से तुम्हें देखता हूँ तो तुम्हारा कद और भूमिका बेहद व्यापाक पाता हूँ मानो धरती के दो ध्रुवों के मध्य तुम्हारे अस्तित्व का एक पुल बना हो एक तरफ हारे हुए लोग हो और दूसरी तरफ जीत से मायूस बैठे लोग।

मैं यदा कदा असंगत कविताएँ लिखनें वाला एक अकवि हूँ मगर तुम्हें देखता हूँ तो सम्वेदना के न जानें कितने अमूर्त प्रतीक और बिम्ब मुझे बताते है कि तुम्हारे व्यक्तित्व की अनगिनत ढंग से टीकाएं की जा सकती है।

तुमनें देह को वर्ण से मुक्त नही किया बल्कि देह को इस वर्ण के साथ अभिमान के साथ रहने का कौशल सिखाया है तुम्हें देख न जानें कितने लोग सन्तोष की रोटी आत्मविश्वास की चटनी के साथ सार्वजनिक तौर पर खा सकते हैं।
एक इंटरव्यू में मैंने तुम्हारा काजल ध्यान से देखा तो पाया कि यह कुछ कुछ वैसा है जैसे ईश्वर ने धरती की सबसे उपेक्षित झीलों की अपनी चूल्हें के कोयलें से मेढ़बंदी कर दी हो ताकि वो आपस में मिलें बिना भी सहजता से रह सकें और उनका जलस्तर बचा रहें।

तुम्हारी आँखें निरुपाय मनुष्य को बताती है कि दुःख उतनी भी व्यक्तिगत चीज़ नही है जितना इसे समझ लिया जाता है तुम्हारी पलकों पर दुनिया के उस हिस्से का पता लिखा है जहां दुनिया के सताए हुए लोग एक दूसरे के ज़ख्मो की मरहम पट्टी करते है और कोई अहसान भी नही जताते।

तुम्हारी ऊँगलिया अपेक्षाकृत लम्बी है मानो ईश्वर ने इन्हें आसमान के बालों में कंघी करने के लिए बनाया हो तुम्हारे नाखूनों की कलात्मक बुनावट मेसोपोटामिया के छोटे पहाड़ी टीलों के जैसी है जहां से छलांग लगा कर सभ्यता के विकास का पूरा पाठ बहते हुए पढ़ा जा सकता है।

परम्परा के लिहाज़ से तुम उस मिट्टी से आती हो जो इंसान को छूकर उसे उसकी समस्त कमजोरियों के बावजूद देवता बना देती है मगर मैं देवता बननें का अभिलाषी नही हूँ देवत्व के ग्लैमर से कई गुना बड़ा परिचय यह है कि मैं नन्दिता दास को थोडा बहुत जानता हूँ थोड़ा बहुत इसलिए कहा क्योंकि तमाम प्रज्ञा तन्त्र के बावजूद तुम्हें पूर्णता में जान पाना मेरे सामर्थ्य से परे की बात है।

जहां तक मेरी जानकारी है तुम ज्यादा लम्बे बाल नही रखती हो यदि लम्बे रखती तो और अच्छा होता इसलिए नही कि मुझे लम्बे बाल पसन्द है बल्कि इसलिए फिर तुम्हारी छाया में अधिक लोग प्राश्रय पा सकतें है।फिलहाल जो तुम्हारे बाल है वो महज तुम्हारे बाल नही है बल्कि असमर्थताओं के पहाड़ की पीठ पर बादलों की आवश्यक छाया है ताकि सृष्टि के अंत के समय जीने लायक कुछ वनस्पतियां संरक्षित बच सके और जिंदगी की क्रूरता को थोड़ी दिन के लिए स्थगित किया जा सके। बहुत मतलबी होकर सोचने लगता हूँ तो तुम्हारे बाल मुझे उच्च हिमालय की तलहटी के कुछ छोटे छोटे अज्ञात जंगल लगनें लगते है जिनकी छाया में सुना है सिद्ध लोग समाधिस्थ है। दुनियावी झंझटो से निबटकर एकदिन उसी जंगल में सुस्ताने की कामना मन में लिए मुद्दत से मैं धरती पर भटक रहा हूँ।

मुझे उम्मीद है एक दिन तुम्हारी हंसी की बारिश में मौसम को चिढ़ाते हुए एक निर्जन पगडंडी पर मैं दिल की सिम्फनी बजाते हुए बहुत दूर निकल जाऊँगा तब ये खत एक वसीयत की तरह मेरे चाहनें वाले लोग पढ़ेंगे।

दुनिया की तमाम उम्मीदों के बावजूद मुझे बात की कतई उम्मीद नही कि एकदिन तुमसे मेरी मुलाकात होगी इंफैक्ट मैं चाहता भी नही तुमसे कभी मुलाकात हो मैं बस यूं ही दूर से तुमसे देखतें हुए दिन को ढलतें हुए देखना चाहता हूँ और इस तरह तुम्हें देखना ठीक वैसा है जैसे समन्दर के सफर में किसी अकेले मुसाफिर को शाम हो जाए।

किसी मोड़ पर यूं ही फिर मुलाकात होगी और हां!अंत में एक बात कहकर विदा लेता हूँ
तुम्हारी मुस्कान तुम्हारी हंसी से ज्यादा खूबसूरत है।

तुम्हारा
एक ईमानदार दर्शक

खत:निमरत कौर

डियर निमरत कौर,
उम्र में तुम शायद कुछेक साल मुझसे बड़ी हो फिर भी तुम ही कह कर सम्बोधित कर रहा हूँ। वजह ये नही कि मैं आयुबोध को मिटाना चाहता हूँ,बल्कि इसकी वजह ये है कि 'लंचबॉक्स' में तुम्हारी बातों ने मुझे बताया कि जीवन औपचारिकताओं के साथ बाँध लेना बुद्धिमानी नही है।जीवन तो हिस्सों में बटा होता है और खुशियों का कोई तयशुदा पता नही होता है वो संयोग से जीवन में दाखिल होती है बशर्ते हमनें एक खिड़की उम्मीद की खुली छोड़ रखी हो।

तुम्हारी फ़िल्म 'लंचबॉक्स' देखें मुझे अरसा बीत गया है मगर ये फ़िल्म मेरी दुनिया से बीत नही पाई तुम्हारी अति साधारण घरेलू छवि की एक प्रतिलिपि मैंने हमेशा अपनी बाई जेब में रखी उसका बाहर की दुनिया में मिलान किया मगर हुबहू तुम्हारे जैसा कोई नही मिला। खुशियों के लिहाज़ से तुम भूटान जाना चाहती थी और अपने दुखों के हिसाब से मुझे लगा तुम्हारा पड़ौसी बन जाऊँगा तो मेरी तकलीफे भी कुछ कम हो जाएगी मगर तुम बिना पता बताए ही निकल गई। मैं तब से भूटान का नक्शा अपने तकिए नीचे रख कर सोता हूँ मगर अफ़सोस आजतक एक भी ख़्वाब तुम्हारे देश का नही आया।

फ़िल्म तो बहुत से लोगो ने देखी और तुम केवल उसमें अपना किरदार निभा रही थी ये बात भी सभी जानतें है मगर मैंने तुम्हें जब पहली बार इस फ़िल्म में देखा तो मेरे मन में पहला ख्याल ये आया कि रसोई के छौंक में एक स्त्री के मन की कुछ परतें भी भांप बन रोज़ उड़ती है तुम्हारे जरिए मैं गले में लटके मंगलसूत्र की यन्त्र विधान की दृष्टि से विवेचना कर पाया छोटे काले दानों की माला के मध्य स्वर्ण जड़ित पैंडिल स्त्री को स्तंभित रखने का एक शास्त्रोक्त यन्त्र मंगलसूत्र है ये बड़ी पवित्र किस्म की सनातनी चालाकी है ये बात मैं  तुम्हें देखने के बाद ही जान पाया।

स्त्री सवाल न करें बल्कि अपने ध्येय पर अड़िग बनी रहे ये तो बरसों की कंडीशनिंग का हिस्सा रहा है मगर तुमनें बिना ख़ास कोशिशों के अपनी इच्छाओं का सम्मान करने के छोटे छोटे नुक्ते भी जरूर बताए। टिफिन बॉक्स में रखी छोटी छोटी पर्चियां कोई प्रेम पत्र नही थे दरअसल वो अस्तित्व के वो छोटे छोटे सूत्र थे जिन्हें कभी कामनाओं तो कभी वर्जनाओं के दबाव के चलतें किसी ने भाष्य के लिए उपयुक्त नही समझा था जबकि वो जीवन की मनोवैज्ञानिक सच्चाई और सेल्फ के विस्तार के बड़े महत्वपूर्ण दस्तावेज़ थे।

कुल जमा एक फ़िल्म और एक डेयरी मिल्क चॉकलेट के विज्ञापन में तुम्हें देखा है मगर सच कहूँ डेयरी मिल्क के विज्ञापन तक मैंने तुम्हें नोटिस नही किया था और न ही तुम्हारा नाम जानता था मगर लंचबॉक्स देखनें के बाद सबसे पहले मैंने गूगल करके तुम्हारा नाम पता किया।

निमरत की ध्वनि अमृत से मिलती है जानता हूँ भाषाविज्ञानी मेरी इस धारणा से सहमत नही होंगे उनके हिसाब से तुम्हारे नाम का अर्थ अलग होगा मगर मुझे तुम्हारा अस्तित्व अमृत के जैसा ही लगता है हो सकता है निजी जिंदगी में तुम बिलकुल अलहदा हो मगर लंचबॉक्स के इस किरदार में तुम्हारा अस्त व्यस्त और हमेशा थोड़े तनाव में रहनें वाला नाखुश सा चेहरा ठीक वैसा लगता है जैसे किसी मन्दिर के कपाट बिना पंचाग में महूर्त देखे खोल दिए हो और ईश्वर भक्तों की न शक्ल देखना चाहता हो और न उनकी आवाज़ सुनना चाहता हो या फिर जिस तरह से दो कोयल जंगल में कूक उठाने की प्रतिस्पर्धा में स्वर की जिद पर उतर आती है और अंत में एक थक कर चुप हो जाती है तुम मुझे ऐसे ही थकी हुई एक कोयल भी लगी हो।

इस फ़िल्म में बिन चुन्नी जब तुम सब्जी काटती हो तो लगता है अनन्यमयस्कताओं की कतर ब्योंत कर रही हो उनकी सद्गति का पुख्ता इंतजाम तुम्हें पता है। एक अमूर्त आलम्बन ध्वनि और शब्दों के जरिए तुमनें जिया और सम्बन्धों का पुनर्पाठ बहुत से शापित लोगो को करवा गई इस बात के लिए कम से कम व्यक्तिगत रूप से मैं तो तुम्हारा कृतज्ञ हूँ।

बहरहाल,फ़िल्म में तो तुम भूटान चली गई थी और इरफ़ान यही अटक गए थे हकीकत में इरफ़ान तुमसे कभी भी मिल सकते है मैं शायद ही कभी मिल पाऊंगा और अगर कभी मिला भी तो इन सब बातों का वो वाचिक अर्थ नही बचेगा जो अब मैं लिखकर बताना चाहता हूँ इसलिए अंत में शुक्रिया कहूँगा इस बात के लिए कि तुम्हारे लंचबॉक्स ने मेरे जैसे चटोरे आदमी को खाने से ज्यादा पढ़ना सीखा दिया है अब मैं खत ही नही चेहरा भी पढ़ता हूँ और निसंदेह इसकी बड़ी वजह तुम्हारा चेहरा भी है जिस पर साफ साफ़ लिखा था खुशियों का एक सिरा संयोग से भी जुड़ा होता है और संयोग उम्मीद बचाने के काम आता है। जहां तक मन के खत का सवाल है क्या पता कब गलत पते पर एक सही खत पहूंच जाए।

आदतन खत लम्बा हो गया है उम्मीद है आगे कभी बात होगी तो तुम्हारे लंचबॉक्स की पर्चियों की तरह होगी तुम जीवन में विस्तार पाओं मैं तब तक सिमटने का हुनर सीख कर आता हूँ।

तुम्हारा
एक ईमानदार दर्शक


जिन दिनों...

जिन दिनों फेसबुक पर नही था मैं
याद कर रहा था
अपनी तमाम बदतमीजियां
जो की थी कभी फेसबुक पर
मसलन
इनबॉक्स में बेवजह बिफर जाना
खुद को बहुत आदर्शवादी दिखाना
रिक्वेस्ट न भेजना
न एड करते जाना

किसी से नम्बर मांग लेना
किसी के पवित्र आग्रह पर
इनकार कर देना
जिसको नम्बर दिया
उसका फोन न उठाना

जहां जहां ईगो हुआ घायल
तर्को की मदद से बहस को विषयांतर की तरफ ले जाना
विपक्ष को लगभग निःशस्त्र करने जैसी जिद पर उतर आना

जिन दिनों फेसबुक पर नही था मैं
याद कर रहा था तमाम बेवकूफ़िया
जैसे शराब पीकर ऑनलाईन आ जाना
पव्वे से लेकर बियर बार तक तस्वीरें चिपकाना
फिर कुछ दोस्तों से लड़खड़ाती जबान में बतियाना
भावुक होकर इमोशनल कमेंट लिख जाना
फिर सुबह उठकर पछताना

उन दिनों
याद तो मुझे मेरी बेढंगी सेल्फ़ी भी बहुत आयी
खीझ की हद तक
दोस्तों को खुद की तस्वीरों से पकाना
आत्ममुग्धता को भी एक क्वालिटी बताना

रिपोस्ट के जरिए दोस्तों की याददाश्त आजमाना
पूछनें पर मुकर जाना
कमेंट के इंतजार में रातें बिताना
टच स्क्रीन का गर्म हो जाना
बेट्री एक प्रतिशत रहनें पर
घनिष्ठ दोस्त का इनबॉक्स में आना

जिन दिनों फेसबुक पर नही था मैं
याद कर रहा था
वो तमाम बातें जिनके साथ
फेसबुक पर था मैं।
© डॉ.अजित

Friday, June 17, 2016

नदी खत

तुम एक पहाड़ थे मेरे लिए।
जिसकी पीठ से लिपट मुझे थोड़ी देर सिसकना था। इन सिसकियों में कुछ ठण्डी आहें शामिल थी जिन्हें आंसूओं से गर्म करना था ताकि वे चाहतों के समन्दर में गिरने से पहले ही उड़ जाए।
मैं आंसूओं को बादल बनाना चाहती थी उसके लिए मैंने तुम्हारी पीठ चुनी तुम मेरे जीवन के पहले वो शख्स थे जिसकी रीढ़ की हड्डी झुकी हुई नही थी इसलिए मन में कहीं एक गहरी आश्वस्ति थी कि तुम्हारे आलम्बन से मेरी गति पर कोई प्रभाव नही पड़ेगा तुम्हारा पास अपेक्षाओं का शुष्क जंगल भी नही था इसलिए मैंने मन के अरण्य की कतर ब्योंत कर एक साफ रास्ता तुम तलक आनें का बनाया।
अमूमन पीठ का आलम्बन पलायन की ध्वनि देता है या फिर इसमें किसी को रोके जाने का आग्रह शामिल हुआ दिखता है मगर तुम्हारे साथ दोनों बातें नही थी।
तुम्हारी पीठ चट्टान की तरह दृढ़ मगर ग्लेशियर की तरह ठण्डी थी मेरे कान के पहले स्पृश ने ये साफ तौर पर जान लिया था कि तुम्हारे अंदर की दुनिया बेहद साफ़ सुथरी किस्म की है वहां राग के झूले नही पड़े थे वहां बस कुछ विभाजन थे और उन विभाजन के जरिए अलग अलग हिस्सों में तनाव,ख़ुशी और तटस्थता को एक साथ देखा जा सकता था।
तुम्हारे अंदर दाखिल होते वक्त मुझे पता चला कि जीवन में प्लस और माइनस के अलावा भी एक चुम्बकीय क्षेत्र होता है जिसकी सघनता में दिशाबोध तय करना सबसे मुश्किल काम होता है तुमसे जुड़कर मैं समय का बोध भूल गई थी संयोगवश ऊर्जा का एक ऐसा परिपथ बना कि यात्रा युगबोध से मुक्त हो गई निसन्देह वो कुछ पल मेरे जीवन के सबसे अधिक चैतन्य क्षण है जिनमें मैं पूरी तरह होश में थी।
तुम पहाड़ थे तो मैं एक आवारा नदी मुझे शिखर से नीचे उतरना ही था सो एकदिन
बिना इच्छा के भी मैं घाटी में उतर आई मगर मगर मेरी नमी अभी भी तुम्हारी पीठ पर टंगी है इनदिनों जब मैं यादों की गर्मी में झुलस कर एकदम शुष्क हो गई हूँ तो मैं चाहती हूँ तुम मेरी नमी को बारिशों के हाथों भेज दो मैं रोज़ बादलों से तुम्हारे खत के बारें में पूछती हूँ इस दौर के बादल बड़े मसखरे है वो कहते है उनके पास बिन पते की चिट्ठियां है उनमें से खुद का खत छाँट लो! अब तुम्ही बताओं जब तुम्हारी लिखावट पलकों के ऊपर दर्ज है मैं कैसे पता करूँ कि कौन सा खत मेरे लिए है?

'पहाड़ नदी और खत'