Friday, October 31, 2014

कर्ज

आफरीन ! बस ज़बान एक बार यही कह कर खामोश हो गई दिमाग में तमाम खूबसूरत ख्यालात होने के बावजूद ज़बान का बागी बन जाना तुम्हारी संजीदा शख्सियत और पाक सूरत-शीरत की ब्यानहलफी थी। तुम्हारे जिस्म और रुह के अक्स मेरे चश्मे तर मे इस कदर उतर आए कि मेरी पलकों के लब अपनी खुश्की को तर करने लगे थे।
ख्वाबों की दस्तक उलटें पांव आई इसलिए मै अंगडाई नींद ख्वाब और हकीकत में महीन फर्क नही कर पाया तुम्हारी बातों की रुहानियत इस कदर मुझ पर तारी हो गई कि मेरी इबादत में गुनाह की तौबा से लेकर दुआ तक तुम्हारी शक्ल अख्तियार कर लेती थी। मुसलसल हादसों के बीच नामुकम्मल जिन्दगी के तराने तुम इतनी खूबसूरती से गुनगुनाती कि मै अकेला शामीन होते हुए खुद को महफिल में पाता।
तुम्हारी हंसी के सदके ये सारी कायनात उठाती थी क्योंकि इसके बदले उसका खूबसूरत दिखने का मतलब पूरा होता था एक दफा तुम्हें नींद मे मुस्कुराते देखा यकीनी तौर पर यह मुस्कान तुम्हारे ख्वाबों में मुश्किल हालातों पर फतेह की बानगी भर थी तुम रोज़ खुद से एक जंग लडती ये जंग वजूद की सच्चाई ईमान की पाकीजगी और ख्यालों के पुरकशिस होने की जंग थी इस जंग के पैयादे वक्त और ह कीकत का स्याह चश्मा लगाए हुए थे उनके अंधे हमले तुम पर रोज़ बढते जाते मगर तुम्हारी रुहानियत की फूंक से उन्हे गर्द की तरह उडा देती।
तुम्हारे पल्लु की गांठ में इस तरह की जंगे फतेह करना का माकूल नुस्खा बंधा था यूं तो उसमें तुम्हारी मुहब्बत की सल्तनत का एक नक्शा भी था मगर उस तलक पहूंचने के लिए जरुरी सफर की तैयारी मै कभी न पूरी न कर सका।
दरअसल तुमसे मिलना खुद से मिलना था तुम्हारा वजूद एक साफ आईना था जिसमे खुद का अक्स इतना साफ नजर आता कि कई दफे घबरा कर आंखे बंद करनी पडती तुम्हारी कोशिसे निहायत ही संजीदा कोशिसे थे बल्कि यूं कहूं कि एक पीर की तरह अपने मुर्शिद को इल्म अता करने की कोशिसे थी उसकी रोशनी मे मै अदब और इल्म के हरफ सीधे करना सीख पाया।
तुम्हारी जहीन गुफ्तगु के कुछ ही लम्हें मुझे खींच कर मेरा कद और मैयार इतना बडा कर गए कि अब कुछ दोस्तों को रश्क होने लगा है मगर मेरे दिल मे अफसोस की शक्ल में यह बात भी हमेशा के लिए दफन है तुम्हें पाने की चाह मेरी सबसे बडी नादानी थी जिस दिन तुम मुझे हासिल हुई दरअसल उसी दिन मैने तुम्हें खो दिया था। शायद तुम्हें इस बात का इल्म हमारी पहली मुलाकात के बाद हो गया था मगर तुमनें मुझ पर जाहिर नही होने दिया और अपने हिस्से की गुमनामी समेट कर तुम चुपचाप निकल गई।
तुम्हारा आखिरी खत मेरे लिए आज भी उतना ही मुकम्मल ब्यान है जितना तुम्हारा वजूद था अपनी तमाम खला खलिशों के बावजूद तुमने इस खाकसार को अपने दीवान ए आम से उठाकर दीवान ए खास मे पनाह दी मेरे मुस्तबिक को हरफ हरफ मेरे कानों में फूंका और अपनी दुआ में शामिल करके मुझे मुहब्बत की तहजीब और सलीके से रुबरु कराया यह एक ऐसा कर्ज़ है जो मै कभी अता कर ही नही सकता।
ये खतनुमा तहरीर तुम्हारी मुहब्बतों के कर्जे की अदायगी की कोई रस्म भर नही है बल्कि मेरे कतरा-कतरा पिघलते वजूद की सच्चाई है जिसको ब्यां करकें मै जितनी शिद्दत से तुम्हें याद करता हूं उतनी ही शिद्दत से तुम्हें भूलने की जद्दोजहद भी करता हूं मेरे बिखरे वजूद का यह एक बडा यकीनी सच है जिसकी बुनियाद को तुम्हारे दुआओं के कलमें उसको हर मौसम में सीलन से बचाते है यही एक वजह है कि दुनिया को मेरे अफसानों में जिन्दगी का पता मिलता है वे खुद को उसके जरिए न केवल खुद तलाश पाते है बल्कि गहरी गुफ्तगु भी कर पाते है।
शुक्रिया ! एक छोटा और दुनियादारी का अल्फाज़ है तुम्हारी कसीदगी के लिए मेरे पास केवल कुछ अनुछुए जज़्बात है कोई हरफ नही है बतौर फनकार ये मेरी सबसे बडी हार और मजबूरी है।
मुआफी तुम कभी दोगी नही क्योंकि जिसको तुमने माफ किया वो फिर कभी तुमसे मिल न सका शायद एक आखिरी दफा हमारी मुलाकात जरुर होगी इस बात को लेकर हम दोनो जाहिरी तौर पर बेफिक्र है...!

'कर्ज फर्ज : पहली क़िस्त'

Thursday, October 30, 2014

नवम्बर

एक यह नवम्बर है और एक वो नवम्बर था। नवम्बर तो हर साल ही ग्यारहवें महीने के हिसाब से आता है और आता भी रहेगा मगर इस बार का नवम्बर जाते साल से ज्यादा तुम्हारे हिस्से की विदाई का कैलेंडर मुझे थमा गया है। जैसे रोज़ रात को सोने के बाद इसकी कोई तयशुदा गारंटी नही होती है कि कल सुबह हम जग ही जाएंगे आठ घंटे की नींद रोज़ सपनों और हादसों से लडती है ठीक वैसे ही तुमसे मिलने के बाद इसकी कतई उम्मीद नही थी तुम्हें याद करते हुए मुझे नवम्बर की भी याद आने लगेगी तुम तो मेरे लिए जनवरी थी भले ही धुंध मे लिपटी हुई थी मगर जून में लू के थपेडों मे तुम्हे याद करके खुद मे हिमालय सी ठंडक महसूस किया करता था।
हकीकत का मिराज़ बन जाना तुम्हारे लिए भी अप्रत्याशित था और मेरे अविश्वसनीय। महीने दर महीने तुम्हारें सम्बंधों का ज्वार-भाटा मुझे किनारे तक ले आता मगर फिर जिन्दगी की ढलान मुझे समंदर की तरफ लौटा देती थी। हर बार की तरह इस सर्दी में मेरे पास तुम्हारी यादों का अलाव भी नही होगा मेरी अंगीठी मे इतनी सीलन भर गई है उसे लाख धूप दिखा दूं मगर उसमे धुआं ही उठेगा सुलगते जज़्बातों पर वक्त ने ऐसा ठंडा पानी डाला कि अब उनका कोयले की तरह दोबारा जलना मुश्किल नजर आ रहा है।
इस सर्दी में तुम्हारी बेपरवाह बातों का मफलर मेरे आधे कान ही ढक पा रहा है बार बार फिसल कर गलें मे फांसी की तरह फंस जाता है मै उसी की गर्माहट से तुम्हारे लिखे खत गीत की शक्ल मे गुनगुनाता हूं मेरे आसपास के लोगो का अनुमान है कि इस सर्दी में मै मतिभ्रम का शिकार हो गया हूं उनका सन्देह मेरी चुप्पी से और गहराता जाता है।
इस नवम्बर में जब बिस्तर को धूप दिखाई तो उसने अपनी तह में बसे किस्सों को बचाने के लिए चादर की सिलवटों को आगे कर दिया मुझे अन्दाज़ा नही था कि वो अपनी नमी से लडता हुआ भी तुम्हें इस तरह से याद रखेगा। शाम के बाद रोज़ बिस्तर पर तुम्हारें स्पर्शो की नदी बर्फ सी जम जाती है और इस सर्द मौसम मे भी मेरी पीठ को गरम अहसास देती है। इस नवम्बर में कम्बल की अपनी एक अलग किस्म की जिद है वो मुझे मूंह नही ढकने देता है उसे मेरी गर्म सांसो से तुम्हारी खूशबू के उड जाने का भय है उसके इस बडप्पन का लिहाज़ करते हुए मुझे रात मे कई दफा तुम्हारी खुशबू से छींक आ जाती है और मै तुम्हारे ख्वाबों से जाग जाता हूं। बिस्तर की इस मतलबी दूनिया के बीच एक उधडा हुआ तकिया ही ऐसा है जो मेरी गर्दन के नीचे तुम्हारे नाम की फूंक मारकर मुझे किसी फकीर की माफिक दुआ देता रहता है उसी के भरोसे मेरे हिस्से कुछ घंटों की किस्तों की नींद आ जाती है।
ठीक एक महीने बाद ये साल हमेशा के लिए एक पुराने कैलेंडर का हिस्सा बन जाएगा मगर साल गुजरने से कुछ चीज़े नही गुजर जाती है जैसे तुम मेरी अन्दर बीत तो गई हो मगर अन्तस से रीत नही पा रही हो। नवम्बर के बाद दिसम्बर का वक्त मेरे लिए और भी भारी होगा क्योंकि एक तरफ साल के बिछड्ने का गम होगा और दूसरी तरफ तुम्हारी बातों के बैनामें दाखिलखारिज़ की मियाद पूरी कर चुके होंगे। इस आती सर्दी के साथ तुम्हारे जाने की तैयारी मेरे लिए ठीक वैसी है जैसे उत्तरी ध्रुव पर किसी पर्यावरण वैज्ञानिक को पत्नि के बीमार होने के खबर का मिलना। बीतते साल में तुम बीत रही है मै अपने गर्म कपडों की मरम्मत के लिए शहर मे एक ऐसा दर्जी तलाश रहा हूं जो बिना ज्यादा सवाल किए उन पर पैबंद लगा दें। अब शायद अलगे साल नवम्बर में ही तुम्हें मेरा खत मिलें और शायद ना भी मिले ये तो बस एक आत्म सांत्वना से भरा कोरा अनुमान है जिसके सहारे मै खुद को वक्त की आंच पर धीरे-धीरे सेंक रहा हूं इस आते हुए नवम्बर में...।

‘नवम्बर से नवम्बर तक

आदत

...और अंतत: तुम्हारी स्मृति मेरे पास केवल अफ़सोस के रूप में बची।कभी तुम्हारे साथ उठने बैठने सोने जागने की आदत थी तुम न बदलनें वाली आदत ही नही बल्कि आदत से बढ़कर लत की तरह थे।
वक्त की चालाकियों में तुम्हारा अर्जुन बन जाना किसी भी एकलव्य के लिए सदमें से कम नही है। जबकि तुम्हारे लिए मैंने कितने एकलव्य पैदा किए ये तुम्हें भी पता है।
तुम खुद के प्रभाव में थे या किसी प्रभाव ने तुम्हें अपने प्रभाव में ले लिया उसके बाद तुम तुम न बचें मुझे लगा था तुम्हारी समझ तुम्हें भेद की दृष्टि देगी मगर तुम भेद के नही विभेद के साधक बन गए थे।
बहरहाल, खुश रहो अपनी गणनाओं के हिसाब से जियों तुम्हारी समीकरण के हिसाब तुम्हारी प्रमेय सिद्ध है मेरे खुद की जोड़ घटा से हासिल में तुम्हें ढूंढने की आदत छोड़ने की कोशिस कर रहा हूँ अगर छोड़ सका तो।

'आदतें यूं ही नही जाती'
© डॉ.अजीत

मेरी गति

जिस तरह डाकघर से चिट्ठियां आने का सिलसिला किस्तों में अपनी तयशुदा मौत को प्राप्त हुआ था ठीक ऐसे ही धीरे धीरे ई मेल की दुनिया सिमटने लगी थी बेकारी के दिनों में सीवी फॉरवर्ड का यह चश्मदीद गवाह था अब महीनों हो जाते है ई मेल के खाते को खोले और जब भी उम्मीद से खोलते है तो करोड़पति बनने के लन्दन की लाटरी जितने के कोरे ठगी भरे झूठ के इश्तेहार वहां मिलते है तकनीकी के जानकार लोगो ने उन्हें स्पैम कहा था मगर मै उन्हें एक खीझ भरा मजाक कहता हूँ जो हमारे साथ किया जाता आ रहा था। अब डाकिया फोन का बिल भी नही लाता क्योंकि उसकी विदाई मोबाइल कर चुका है अब डाकिए के पास यदा कदा बैंक के कर्जे के नोटिस रस्म पगड़ी के कोने कटे पोस्टकार्ड और भाई के म्यूच्यूअल फंड के स्टेटमेंट होते है अब डाकिए से मेरा कोई भावनात्मक रिश्ता नही है जो कभी हुआ करता था। इन्टरनेट की गति में भी खत लिखना अब आउटडेटिड है ई मेल की जरूरत कामकाजी लोगों की जरूरत भर रह गई वो भी अपनी कमर पर न जाने कितने कितने केबी/जीबी का अटैचमेंट का बोझ ढोंते है साल भर।
दरअसल ये स्पानटेनियस डायलोग का दौर है इनबॉक्स/व्हाट्स एप्प में गपियानें का दौर है इस समय सारा जोर केयरिंग की बजाए शेयरिंग पर है हम कुछ भी अपने अंदर बचाकर नही रखना चाहता यहाँ तक इमोशन भी रोज़ नए पैदा करते है और रोज़ उन्हें खर्च कर देते है एक दुसरे की जिंदगियों में बेहताशा शामिल होने के बावजूद भी हमें खुद नही पता है कि ये रिश्ता कितना लम्बा चलने वाला है। गति और कहन इस दौर की आत्मा है अब वो दौर नही रहा जब हम किसी के साथ एक ख़ास इमोशन में लम्बें समय तक पॉज़ मोड़ में रहते थे एक दुसरे को मिश्री की तरह घोलते हुए घूट घूट चखते थे।
जिस गति से हम लिख/पढ़/कह रहें है उससे यह आभास होता है न जाने हम कितनी बड़ी जल्दी में है कितना कुछ समेटना चाहते है मगर रोज़ सुबह से शाम तक इतने किरदार जी चुके होते है कहीं दफा तो खुद के सच को लेकर खुद ही भ्रम का शिकार हो जाते है। चिट्ठियां गई ई मेल गया जाना इस फेसबुक और व्हाट्स एप्प को भी हैं तकनीकी से अरुचि या तकनीकी का व्यसनी दौर हमारे जीते जी ही आ जाएगा मनुष्य इन सबके सहारे इतनी गति से अपनी कक्षा के चक्कर लगा रहा है कि अब उसके द्वारा भेजें गए चित्रों से आदमीयत के बदलते मौसम का पूर्वानुमान नही लगा सकते है। रोज़ भरने रोज़ खाली होने के क्रम सम्वेदना भी अपरिपक्व भ्रूण जन रही है मगर हमने इन सबके बीच अपने होने का अर्थ तलाश लिया है भले अर्द्धचेतन को इस हाथ की सफाई और नजरबंदी के खेल का सच पता रहता हो मगर हम त्वरित प्रतिक्रिया और सम्बन्धों में तेजी से जुड़ने-टूटने के वर्चुअल चलन भी खुद ही तान साधने में समर्थ हो गए है। बौद्धिक जुगाली और आंतरिक सतही अंतरंगता के इस दौर में मुझे ठहराव चाहिए था मेरी एडिया फिसल कर घिसने लगी थी मेरी दोनों कोहनी छिली हुई थी मेरी रीड मनुष्य की रीड होने पर हद दर्जे की शर्मिंदा थी क्योंकि तमाम बातें जानने के बावजूद भी मै भी वही करता था जो दौर की सबसे बड़ी जरूरत थी। जिस दिन मैंने जरूरतों के हिसाब से खुद को ढालना सीख लिया उस दिन मेरे वो इश्तेहार उल्टा होकर मेरी पीठ पर चिपक गया जिस पर लिखा था-
तमाम मजबूरियों के बावजूद अपनी शर्तो पर जीता हूँ मैं !

© डॉ.अजीत

Tuesday, October 28, 2014

वादा

तुमने एक ही वादा लिया था यह वादा किसी किस्म की गोपनीयता का वादा नही था ना ही हमेशा के लिए तुम्हारा बनें रहने की कोई शर्त थी ना ही इसमें केवल तुम्हें और तुम्हें चाहने की जिद थी तुम्हारा वादा दरअसल तुम्हारा डर था और डर से बढ़कर निर्वासित या अज्ञात रहनें की तुम्हारी आदिम चाह थी। दुनिया भर में मेरी जो मशहूर खूबी थी मिलनें के पहले दिन से ही वह तुम्हें थोड़ा डराती थोड़ा असहज करती तुमनें अभिव्यक्ति नही अनुभूति का रास्ता चुना था तुम रोज़ अपने आसपास पसरें दुखों को इकट्ठा करती और इसी रास्ते पर चलकर अपने लिए एक कुटिया बनाने की कोशिस करती वो कुटिया हमारी सच्ची मुकाकातों की गवाह थी,लगभग हर मुलाक़ात पर तुमनें कसम की तरह उस वादे को दोहराती तुम्हें मेरी वादाखिलाफी का एक अज्ञात भय सदैव बना रहता मेरी आश्वस्ति के कुछ दिन बाद तुम फिर से मेरे कॉलर को सीधा करती हुई कहती तुमसें जो कहा है बस वो कभी मत करना।
सच बताऊं निजी तौर पर जब तक तुम साथ थी मैंने तुम्हें दिए वादे को कभी गम्भीरता से नही लिया मगर जब से तुमने उलटे कदम अपनी दुनिया में वापसी की मै लगभग रोज़ उस वादे की जिम्मेदारी के बादलों से घिर जाता और मेरा मन अंदर तक भीगता रहता तुम्हें याद करके मेरी आँखों कभी नम नही होती बल्कि उनकी रोशनी बढ़ जाती पुतली अपने अधिकतम विस्तार तक फ़ैल जाती यह चमक किसी बच्चें की आँखों की चमक के जैसी थी जो उसकी आँखों में कोई नया खिलौना मिलनें पर आती है।
तुम्हारे वादे में एक छिपा हुआ इम्तिहान था जिससे रोज़ गुजरना होता था तुम्हारे जाने के बाद मेरे पास कोई जरिया नही था तुमसें यह बतानें का कि तुम मेरे लिए क्या थी और जो जरिया था वो तुम्हारे वादे की गाँठ से बंधा था तुमनें भविष्य को बहुत पहले देख लिया था जिन दिनों मै लिखने/कहने के शिखर पर था तब तुमने कितना सोच विचार कर अपने वादे की भूमिका सोची होगी यह बात आज भी मुझे हैरान करती है।
खैर ! न तुम तब गलत थी और आज हो और न ही कल गलत साबित होगी मेरे आत्ममुग्धता के दौर में भी तुमने अपने वादे के जरिए मेरे अंदर खुद को हमेशा के लिए सुरक्षित कर लिया था अंदर झाँककर जब तुम्हें देखता हूँ तो तुम्हें बेहद निश्चिन्त अवस्था में पाता हूँ इस वादे की वजह से मेरी कसमसाहट को देखकर तुम आधी गाल से आज भी मुस्कुराती हो ये तुम्हारी जीत है तुम्हारे वादे की जीत है मगर इसमें मेरी भी हार नही है तुम्हारी इस युक्ति से तुम दिल पर काई की तरह जम गई हो जिस पर फिसलता हुआ मै अनंत ब्रहमांड की यात्रा कर सकता हूँ।
आज भी तुमसे ज्यादा तुम्हारा वादा याद करता हूँ और खुद को अनुशासित रखने की कोशिस करता हूँ तुमनें मेरी तरफ पीठ करके कहा था मुझे खुद के अंदर बचाकर रखना मुझे शब्दों के जरिए खर्च मत कर देना मै चाहती हूँ खोटे सिक्के की तरह तुम्हारी कभी न खर्च होने वाली पूंजी बन कर तुम्हारी जेब में अकेली खनकती रहूँ। तुम न मुझे खर्च कर सको और लोभवश छोड़ ही सको।
आज जब मै जब अंदर से भर गया तो यह वादाखिलाफी की पहली क़िस्त यादों के बैंक से निकाल लाया हूँ इस उम्मीद पर कि इसे तुम मेरी वादाखिलाफी नही खुद से बात करने की एक आदत मान माफ़ करोगी वैसे भी इसमें तुमसे ज्यादा तुम्हारे वादे का जिक्र है। फिर भी माफ़ करना मुझे इतना तो हक तुम पर आज भी समझता हूँ।

'वादें और यादें'

दिल का खत

कुछ बातें इतनी बेवजह किस्म की होती है कि मन चाहकर भी उनकी वजह नही तलाश पाता है वजह तो वहां तलाशी जाती है जहां कोई शक-शुबहा हो कुछ रिश्तें पानी की तरह तरल और कांच की तरफ पारदर्शी होते है उनके तटबंध बाँध पाना या किसी एक फ्रेम में उन्हें लगाना लगभग नामुमिकन होता है।उसके लिए उससे मिलना ठीक इतना ही बेवजह किस्म का था या फिर उस मेल मिलाप की वजह को स्वयं ईश्वर ही कीलित या अभिमंत्रित रखना चाहता था। उन दोनों के बीच दोस्ती से ज्यादा और प्रेम से कम जैसा कुछ था वो एक स्थाई भ्रम की धुंध में सूरज को देखने जैसा था उन रिश्तों में जनवरी की ठंड और जून की लू का कोकटेल शामिल था। उनके बीच लौकिक और अलौकिक कुछ नही था बल्कि वो अपने अपने हिस्से का निर्वात और निर्वासन भोगकर लगभग रेंगते हुए एक दुसरे के करीब पहूंचे थे दोनों ही अतीत वर्तमान और भविष्य से इतर एक नए काल की बुनियाद भरने की कोशिस करते मगर इस कोशिस में वें रोज़ परस्पर धंसते भी जाते उनका कोई सहारा नही थी यही एक सबसे बड़ा सहारा था। उन दोनों के अपने जीवन में कोई प्रेम का अभाव नही था दोनों ही लगभग तृप्त थे परन्तु बेवजह सी सही कोई एक वजह जरुर थी जिसके कारण दोनों ही क्षितिज के पार झाँक कर देखना चाहते थे यहाँ अपने-अपने घोषित/स्वीकृत सम्बन्धों में बेईमानी नही बल्कि खुद के साथ ईमानदारी का हवन चल रहा था जिसमें दोनों वक्त की समिधा लगाते समझ के मन्त्र फूंकते और विश्वास के घी से रोज़ समूल आशंकाओं को स्वाहा कर देते उनका सम्वाद अग्निहोत्र सा पवित्र था।
उन दोनों के देह ने अपने अपने विमर्श स्थाई रूप से स्थगित कर दिए थे मानो देह नश्वर भाव से रोज उनके मध्य गल कर सिमटी जाती और मन मुखर होता जाता था उन दोनों का ज्ञात अज्ञात से बड़ा था व्यक्त अव्यक्त से व्यापक था दोनों भिन्न भिन्न समय में एक ही बात को भिन्न तरीके से सोचते मगर उनके सिरे आपस में जुड़ते चले जाते उन दोनों के धड़कनों में नमी में सिकुड़ी किसी सारंगी के तारों सी कर्कशता होती मगर जब एकबार सम्वेदना सध जाती तो उनकी सरगम में राग को भी विस्मय होने लगता दोनों की तत्परता कभी अधीरता की शिकार न होती थी उन दोनों के स्पर्श सदैव कुंवारे ही रहें उनका नयापन स्पर्शो की नमी में भी अपनेपन की बोनशाई को पुनर्जीवन देने की सामर्थ्य रखता था।
उन दोनों की आँखों की दोस्ती उनकी दोस्ती से कई गुना गहरी थी दोनों एक दुसरे के पलकों पर जमी वक्त की गर्द को आंसूओं से धोते थे उनका बिस्तर उनकी करवटों का सच्चा गवाह था मगर ख़्वाबों की वजह से तकिए ने इस बात की गवाई देने से साफ़ इनकार कर दिया था कि वो दोनों गहरे अवसादयुक्त द्वंद के शिकार थे।
वे न रिक्त थे न अतिशय भरें हुए उनके पास अपना गुरुत्वाकर्षण नापने का अवैज्ञानिक यंत्र था जिसकी अदला बदली से वें इस ग्रह पर अपनी वस्तुस्थिति का आंकलन करते उनका मिलना दरअसल एक झरनें और एक नदी का मिलना था एक की चोट और एक की ओट को समझने के लिए पत्थर बनना पड़ता था वो भी मूर्ती में ढलनें की अभिलाषा को छोड़कर।
मैंने उन दोनों को समन्दर में समाते देखा आज भी लहरों पर काजल से लिखी उनकी दो दो शब्द की चिट्ठियाँ मुझ तक पहूंचती है वो कुछ कहना चाहते है मगर मै पढ़ नही पाता हूँ क्योंकि मेरे पास आँख नही और आँख होंगी भी कैसे मै कोई शख्स नही बल्कि उन दोनों का एक दिल हूँ जिसे दुनियावी तूफ़ान के बाद एक लहर ने किसी निर्जन टापू पर पटक दिया था कई बरस पहले....!

'दो-दो शब्द की चिट्ठियां'

Monday, October 27, 2014

मौसम

उसका आना एक संयोग था मगर उससे मिलना एक हासिल की गई उपलब्धि। उसकी अपनी एक लय गति और ऊर्जा थी वो न ज्यादा उलझी हुई बातें करती और न ज्यादा सुलझी हुई संकेतों में अपनी बात कहना उसकी खासियत थी उसके संकोच को पढने के लिए बस एक पल के लिए अपनी आंख बंद करनी पडती, उसकी बातें कविता उपन्यास दर्शन या मनोविज्ञान की नही अपने आसपास पसरे जीवन की बातें थी वो बेजान खुशियों को मन के धागे से पिरोकर एक खूबसूरत माला बना देती जिसे पाकर कोई भी आम इंसान देव तुल्य हो सकता था। उसकी बातों की एक अपनी खुशबू थी आप कितने ही व्यस्त हैरान परेशान क्यों न हो उसकी बातें हर वक्त चेहरे पर एक इंच मुस्कान लाने की कुव्वत रखती थी।
वो दूर देश से आई पुरवाई के जैसी थी जो उमस भरी गर्मी में मन की धरती पर अपने स्नेह की बिना शर्त बौछारें बरसा कर चली जाती वो जितना कह पाती उससे ज्यादा उसका अनकहा रह जाता है वो रोज़ खुद से बातें करती मन ही मन तय करती कुछ सवाल मगर फिर खुद उनके जवाब सोच अक्सर चुप हो जाती। उसकी बातों मे बच्चों सा कौतुहल, बडो सी फिक्र और सखा सा अधिकार का इतना बेहतरीन समन्वय रहता है कि कई दफा खुद की वास्तव में परवाह होने लगती थी।
वो फूलों झीलों नदियों रास्तों से गहरी दोस्ती रखती थी उनके कान में खुशी के मंत्र फूंकने की उसकी ताकत पर ईश्वर भी मुस्कुरा सकता था रोज शाम वो अनजान रास्तों पर निकल जाती खुद से गहरी मुलाकातों के लिए उसने अपना रचा हुआ एकांत था जहां रोज़ शाम खूबसूरत लम्हों को मन की आंखों मे कैद करती हुई विदा होते सूरज़ के माथे को अपनी फूंक से सहला देती फिर वो शाम को धीरे से आने को कहती ताकि वो खुद को तलाश सके गुम होती रोशनी में। गति और बदलता वक्त उसका सबसा बडा भय था।
उसका सब कुछ अपना था अपनी हवा अपना सूरज़ अपना चांद और अपने तारे। वो रच लेती थी अपनी एक समानांतर दूनिया फिर उनसे बतकही करती उसकी आंखों में दुस्वप्नों की घुसपैठ थी मगर उसे भूलने का हुनर आता था। उसकी आंखों समंदर की गहराई थी वो अपने समा लेती थी अपने आसपास के दुख। उसके अन्दर खुशी को एक स्ंक्रमित बीमारी बनाने की एक जिद देखी जा सकती थी और निसन्देह वो इसमे एक हद तक कामयाब भी थी। वो बिखरे टूटे सम्बंधो की कुशल उपाचारिका थी उसकी बातें मरहम का काम करती थी।
उसको जब भी उदास देखना सबसे मुश्किल पलों मे से एक होता बिना किसी दुनियावी के रिश्तें के दुआ में उसकी खुशियों की दुआ भी शामिल रहती थी क्योंकि जीवन मे वो उस सूरज़ की तरह थी जिसके छिपने पर मन उदास अनमना हो जाता जिससे मिलना भर रोज़ जिन्दगी से लडने की वजह देता था।
सबसे बडी बात यह थी उसकी मुस्कान दिल को राहत देती उसकी पलकों का पॉज़ खुद को उसकी नजर से देखने की वजह देता उसकी आंखें उस दूनिया में जाने का रास्ता देती जहाँ खुद से प्यार होने लगता और उसको खोने का डर जीने से बडा था इसलिए उसकी नाराजगी मे सबसे बडा अपराधबोध यही होता है कि शायद खुद हमें खुद की ही नजर तो नही लग गई।

‘वो कौन: ना मै जानूं ना वो

Sunday, October 26, 2014

हिसाब

फेसबुक ने इतना कुछ दिया:

ख्यात कवि/लेखक/पत्रकार पोस्ट पर आतें है इनबॉक्स में भी कई दफे शाबासी दे जातें हैं
वकील/जज़ लिखे हुए को वैध/प्रमाणिक मानते है और नियमित पढ़तें भी है।
गृहणी/कामकाजी महिला मित्रों को लिखें हुए में सम्वेदना तथा ईमानदारी प्रतीत होती है।
डॉक्टर/यूनिवर्सिटी प्रोफेसर्स अनुज मित्र समान स्नेह रखते हैं।
पुलिस अफसर मित्र कविता को समझने की कोशिस करने लगे है।
देश के लगभग आधे दर्जन शहरों में फ्री में चाय दाल रोटी का इंतजाम है।
एक मित्र कनाडा एक अमेरिका एक हांगकांग आने का न्यौता दे चुके है यानि तीन देशों में फ्री रहने खाने और 'पीने' का इंतजाम है।
देश में ही दो तीन मित्र केवल ऐसे है जो मुझे मदिरापान के सत्संग पर बुलाने को लेकर उत्साहित है।
फेसबुक ने सतत लिखने की वजह दी मेरे लिए यह सबसे बड़ी बात है।
फेसबुक ने अंदर के भावुक लिजलिजेपन को मिटाया दुनिया प्रैक्टिकल होकर कैसे सोचती और जीती है यह फेसबुक की बदौलत ही सीख/जान पाया हूँ।
देह और पृष्टभूमि के मनोविज्ञान के इतर फेसबुक ने मेरे यह कथित रूप से लिखने वाले पक्ष को प्रकाशित किया वरना बहुत लोग कुछ और ही समझते थे।

फेसबुक ने इतना कुछ लिया:

समय
फोन पर इन्टरनेट का खर्चा
हर वक्त ऑनलाइन दिखने का समाजिक कलंक
फोन पर चिपके रहने का सामाजिक व्यंग्य
आभासी संसार ।
टच स्क्रीन पर टाइप की वजह से दाएं हाथ के अंगूठे में दर्द ।
एक दो फेसबुकिया दोस्तों की दुश्मनी टाइप की नाराजगी।

सारांश:
जिन्दगी से उलझते हुए खुद को एकत्रित करने की जद्दोजहद में फेसबुक पर आता हूँ किसी का दिल न दुखे यही कोशिस रहती है बाकि तो एक यात्री हूँ जब तक सफर में हूँ जिन्दा नजर आता हूँ जिस दिन रुक गया उस दिन वहीं समाधि बन जाएगी।

'मेरा फेसबकिया हिसाब-किताब'

Saturday, October 25, 2014

इतवारी बात

मेरी दृष्टि और चित्त सदैव से ही अलोकप्रिय श्रेणी की तरफ ज्यादा आकर्षित होता रही है जो लोकप्रिय है अति स्वीकृत है उसे मै भीड़ के उपभोग के लिए छोड़ देता हूँ। ऐसा मै कब से हूँ मुझे खुद याद नही है मगर जो परित्यक्त है त्याज्य है या फिर लोक की दृष्टि में लगभग महत्वहीन है उन सबमें गहन दर्शन और कलात्मक मूल्यों की खोज करना मेरा प्रिय शगल रहा है। टेपरिकॉर्डर के जमाने में मुझे न जाने क्या सूझी मैंने हिन्दी फिल्मों के लोकप्रिय गीत के सेड वर्जन जो बहुत छोटे होते है ( एक मुखड़ा एक अन्तरा अधिकतम) उनको ऑडियो कैसेट मे रिकॉर्ड करवाया एक कैसेट में लगभग तीस वर्जन रिकॉर्ड हो गए थे मेरी इस सनक पर कैसेट रिकॉर्डर भी हैरान था उसने एक कैसेट रिकॉर्ड करने के तीन गुने पैसे लिए थे। उस कैसेट को सुनना बड़ा डिवाइन प्लीज़र देता था, एक-दो मिनट से बड़ा कोई ट्रैक नही था जिन गानों के रोमांटिक वर्जन का उपयोग प्रेम पत्र के विकल्प के रूप में कर रहे थे ( उस दौर में प्रेमी/प्रेमिका को कैसेट गिफ्ट करने का भी रिवाज़ था) उनके सेड वर्जन को मैंने अपने कलेक्शन में पनाह दी थी और यकीनन वो मेरा एक बेहतरीन कलेक्सन था।
जो उपेक्षित तन्हा और निर्वासन काट रहे थे उनसे मेरी गहरी मुलाकातें होने लगी थी मैंने लोकप्रिय आकर्षक और अलोकप्रिय उपेक्षित में ऐसा संतुलन साध लिया था कि मै उतनी ही घनीभूत संवेदना के स्तर से दोनों से जुड़ गया था।
झील की ख़ूबसूरती पर उसके धैर्य पर कितनी कविताएँ लिखी गई कुछ नें उन्हें बुद्ध सा धीरजधारी बताया तो कुछ ने उनके इन्तजार पर कसीदे पढ़े मगर मै उन सब से उकता कर पोखरों और गाँव के तालाब (जोहड़) की तरफ लौट आता वो इतने तन्हा थे कि कोई उनके किनारे उनकी पीड़ा पूछने नही आता था वो हद दर्जे के उपेक्षित थे उन्हें दुर्गन्ध का पर्याय समझा जाता मगर मेरे लिए वो सिद्ध कोटि की अमूर्त चेतनाएं थी जो किसी से कोई शिकायत नही करती जो तमाम बहकर आने वाली गन्दगी को अपने दिल में पनाह देती उनके पानी की सतह पर जब जब काई को बढ़ते देखता तो मेरा मन उनके प्रति कृतज्ञता से भरता चला जाता वो अपनी हदों की कैद में जीने वाले स्थिरमना साधक लगने लगते जो तमाम अवशिष्ट को अपने अंदर समा लेने के बाद भी और कवियों स्त्रियों बच्चों के द्वारा अघोर उपेक्षा झेलने के बाद भी भूमि में जल स्तर को उचित  बनाए रखने में अपना निर्लिप्त योगदान करते रहते इस दौर में वो कम ही बचें है मगर जो बचें है वो मेरे लिए झील की ख़ूबसूरती से कई गुना अधिक समादृत है।
सवाल तो यह भी उठना लाज़मी है कि उपेक्षित तन्हा अलोकप्रिय श्रेणी की चीज़ों में मेरी दिलचस्पी की वजह कहीं ये तो नही कि कहीं मै खुद भी उसी बिरादरी का तो नही हूँ तभी उनकी खोजखबर लेने की सामाजिकता निभाता जा रहा हूँ। हो सकता है इस अवधारणा में कुछ सच्चाई भी हो मगर लम्बे समय से ही मेरी रूचि हाशिए पर जीते लोगो,वनस्पतियों,कला,संगीत और प्रकृति के अन्य तत्वों में सतत किस्म की बनी हुई है। लोकप्रिय और स्वीकृत वस्तुओं में मेरा क्षणिक आकर्षण बचता है इसलिए दुःख झूठ अवसाद उपेक्षा तन्हाई के मुकदमें में फंसे लोगो की खोजखबर लेता मैं खुद बहुत दूर निकल आया हूँ इस अज्ञात दुनिया का दर्शन वास्तव में उस प्रचलित दर्शन से न केवल गहरा है बल्कि बहुत अर्थों में व्यापक भी है। जिसको जितना जानते है यह उतना ही विस्मय से भरता है इसलिए कहता हूँ दुनिया में कुछ भी निरूद्देश्य और निष्प्रयोज्य नही है बस खुद का चश्मा बदलना होता है दुनिया इस तरह से भी खूबसूरत दिख सकती है बस अपने दिल को बड़ा और नाक को छोटा करने की जरूरत है।

'इतवारी बात'

विचार

अतीत के हिस्से में तमाम झंझावतों के बावजूद एक इंच मुस्कान होती है वर्तमान स्थूलता ढ़ोने के लिए शापित होता है और भविष्य की इमारत में शंका/सन्देह की बुनियाद शामिल रहती है। अतीत वर्तमान भविष्य तीन काल नही तीन जीवन होतें है जिन्हें एक ही जीवन में जीना हमारे लिए अनिवार्य रूप से बाध्यकारी होता है।

'एक नितांत ही व्यक्तिगत विचार'

Thursday, October 23, 2014

आँखों देखी जंग

कुछ इल्म से अदावत हुई कुछ अदब से मुहब्बत हुई फिर एक दिन ख्वाब से जागा तो तुम्हें अपने सिराहाने पाया तुम्हारी आंखो मे झांकने की कई दफे नामुकम्मल कोशिसें की मगर तुम्हारी झुकी पलकों में महज़ हया नही थी उसमें एक ऐसा इनकार भी शामिल था जो हर बार तुम्हारी पडताल करने पहले मेरी आंखो पर अपना हाथ रख देता था।
तुम आंखो मे काजल लगाना भूल सकती थी मगर ये इनकार पलकों पर ऐसा टंगा था कि इससे तुम्हारी खूबसूरती मे दिन ब दिन इजाफा ही होता था आंखों का रास्ता दुनिया के लिए फिसलन भरा था मगर मेरे लिए यह तरल था क्योंकि मै चल नही बह रहा था और बहते पत्थर के बहने के लिए तुम्हारी आंखो से ज्यादा मुफीद जगह कोई नही थी।
तुम्हारी आधी सोई आधी जागी आंखों में समन्दर सी खामोशी थी मगर उनमें दरिया का शोर भी था जिसको मै केवल सोते हुई ही सुन पाता था। तुम खुद से जितनी बातें करती थी उन सबकी चुगली तुम्हारी आंखे मुझे कर देती फिर मेरे पास कहने के लिए कुछ न बचता मै केवल देख सकता था सन्देह की नदी, भय के जंगल और असुरक्षा की झाडी जो उग आती थी तुम्हारी आंखों में लगभग रोज़।
बंद पलकों का एक पुल रोज़ देखता था जिसके सहारे झूलते हुए जाना जा सकता था मन की करवटों का हिसाब जो तह दर तह काई की तरह दिल के जज्बाती पत्थरों पर जमती जा रही थी। देर रात नींद के दबाव और भोर में उठने के आलस के बीच तुम्हारी आंखों का एक अपना भूगोल होता था जिसमें समानांतर जिन्दगी कें अक्षांसों की दूरी नापने के लिए शिकायतों का फीता होना जरुरी था जब तुमसे मेरा कोई राफ्ता ही नही था तब कैसे शिकवें –शिकायतों की लम्बाई का फीता तैयार करता तुमसे ज्यादा तुम्हारी आंखो से मेरी जान पहचान थी और उनका भाष्य लिखने के लिए मुझे किसी सन्दर्भ की जरुरत नही पडती थी बल्कि मेरे लिखे एक एक हरफ से दुआ का काम लिया जा सकता था ऐसा कुछ मौलवियों नें अपनी अन्दरुनी तकरीर मे कहा था कभी।
तुम्हारी दोनो आंखों के बीच समतल दिखने वाली जगह यथार्थ का फर्श लगा हुआ था जिस पर नंगे पैर चलने की इजाजत थी वैसे तुमसे बिन इजाजत लिए मैने तुम्हारी एक आंख को बागी बना दिया था एक आंख में कुछ देर मै आराम फरमा सकता था और दूसरी आंख में तुम अपने सपने देख सकती थी फिर एक दिन ये राज़ जाहिर हो गया तब दिमाग ने अपना खेल कर दिया उसके बाद मेरी आमद तुम्हारी आंखों मे चुभने लगी ये बात मुझे तुम्हारे एक भांप की तरह उडे आंसू ने बताई वो अपनी हकअदायगी की आखिरी कीमत चुकाने मुझे केवल यह बताने आया था कि मै तुम्हारे चश्में-तर का मुस्तकबिल नही रहा हूं जज्बातों ने बगावत कर दी है सही-गलत पाप-पुण्य की एक जंग रोज़ बाबस्ता तुम्हारी आंखो में चलती है।
जिन आंखों की खूबसूरती पर कायनात को भूला जा सकता था वहाँ के अन्दरुनी हालात इतने खराब थे कि मेरा जिक्र तो छोडिए सोचने भर से आंसूओं को अपनी जगह छोडनी पड जाती थी अपनी ज्यादती और तुम्हारी कैफियत का ख्याल करते हुए मै बहुत दूर निकल आया हूं अब तुम्हें देख नही सकता और कभी देख सकूंगा इसकी उम्मीद बेहद कम है मगर तुम्हारी जरीन आंखों की पैमाईश मेरी आंखों में कैद है जिनकी किस्सागोई अब कभी कभी मेरी भी आंखे नम कर देती है ये ईलाज़ के माफिक है और मेरी आंखो की रोशनी तुम्हारे नाम के आंसूओं से रोज़ बढ जाती है यह पढकर तुम मुझे मतलबी समझ सकती हो वो भी मतलबी कहीं का।

'आँखों देखी जंग'

Monday, October 20, 2014

बड़ा मूर्ख

अतीत और वर्तमान में बीच फंसा मन जब खुद की परछाई की पड़ताल करता हुआ खुद पर एक जजमेंट चस्पा करता है How stupid i was ! मै भी कितना बड़ा मूर्ख था !
कभी इमोशनल फूल तो कभी वन वे ट्रेवेलर जैसे वर्जन सामने आ खड़े हो लगभग धिक्कारते हुए खिल्ली उड़ाते है।
एक ही गलती को बार बार करने के अपने सुख अपने दुःख है जिन्हें प्रारब्ध की पीठ पर लादकर हम नियति का एक तयशुदा चक्र पूरा करते है।
समझदार दुनिया में नादानी के स्थाई दूत बनना एक किस्म की ज्यादती है मगर इस ज्यादती के साथ जीते-जीते हमारी समझदार बनने की अंतिम इच्छाशक्ति भी खिड़की से कूद आत्महत्या कर लेती है।
दुनिया के पाठ और मन की ठाठ में अक्ल पिसती है उसे कोफ़्त होती है कि कैसे तजरबें भी इस वाहियात शख्स को अपने आसपास के सच से नही मिलवा पातें है।

'तजरबा,अक्ल और गुस्ताख दिल'

Thursday, October 16, 2014

दुआ में वक्त

जिन्दगी ग्यारह के पहाड़े जैसी आसान कब थी ये तो हमें सत्तरह की पहाड़े को रटाने की जिद पे अड़ी थी।
इसकी जिद के सदके उठाते उठाते हमारी पीठ झुक गई और दुनिया को लगा कि हम सजदे में थे।
जिन्दगी के आर-पार झाँकने के लिए खुद को ही जमा नफ़ी किया और हासिल सिफ़र पाया। जिन्दगी की जिद और हमारी गुस्ताख अक्ल में कभी यारी न हो सकी इन दोनों के बीच तन्हा दिल सिसकता रहा वक्त बेवक्त।
हमारे रतजगों के किस्से सुनने को ये उम्र कम पड़ेगी वो महज़ किस्से नही चरागों के सफर की दास्ताँ है रोशनी की चालाकियों की नजीरें है और अंधेरों के खूबसूरत मिराज़ हैं।
जरूरत पड़ने पर उन खतों को जलाकर रोशनी पैदा की जा सकती है जो अभी हाशिए पर लिखे पड़े है मन की स्लेट को साफ़ करने के लिए तुम्हारे दुपट्टे का एक कतरा उधार मांगा जा सकता है।
नाखून कुतरते या अलसाईं अंगडाईयों के निगेटिव अभी तक मन की अंधेरी लैब में टंगे है उनका कोई मुक्कमल अक्स नही बनता है सब के सब धुंधले है।
कुछ वाजिब वजह है तो कुछ गैर वाजिब मगर हमारे दरम्यां कुछ वजह जरुर खड़ी है उनको दरकिनार करने के लिए झरनों नदियों के पानी से कुछ नही होगा आंसूओं का सैलाब भी इनकी बुनियाद को हिला नही सका इन वजहों को काटने के लिए वक्त ही बेरहम आरी ही कुछ काम आ सकती है।
फिलहाल, वक्त के बदलने की फितरत सबसे बड़ा सहारा है बस दुआ यह करों कि वक्त मौसम सा बदल जाए आजतक तो यह कमबख्त हमारी मुट्ठियों से रेत सा फिसलता रहा है।

'दुआ में वक्त'

बातें है बातों का क्या

अगर तुमसे सम्पर्कशून्य होने के लिए महज़ यह साधना होता कि एक अदद आई डी डिएक्टिवेट कर दूं और फोन के दोनों सिम बदल लूं तो यह एक बेहद सहज़ और सस्ता साधन होता मगर तुम्हारी घुसपैठ जज्बातों से लेकर तसव्वुर में है जेहन में तुम्हारी यादों के जाले लगे है एक तुम्हारी दीद की उम्मीद सब उम्मीदों को अपने कब्ज़े किए हुए है। गैर दानिश्ता या दानिश्ता तुम्हारे अलफ़ाज़ मेरी याददाश्त के बालों में कंघी करते रहते है। तुम्हारी हंसी के बदले मै रोज़ मन की गिरह तौलने बैठ जाता हूँ तुम्हारी उदासी के राग रोज़ मेरे कान में महामृत्युंजय मंत्र फूंक जाते है। तुम्हें बिन बताएं हर शाम मै अपने चश्में को देखता हूँ उसकी एक लेंस में तुम्हारा अधूरा अक्स उभरता है। सर्दी की आमद पर तुम्हारा शाल मेरी नाक को बहुत याद आता है इस सर्दी में नाक और कान ने लाल होने से इनकार कर दिया है दोनों ने सर्द हवाओं के झोंको से दुश्मनी कर ली है।
तुम्हारे कंगनों के बीच में जो दो तन्हा चूड़ी है उनसे गवाही ली जाए तब शायद कुछ तुम्हारी भी कशमकश के राज़ जाहिर हो मगर उनके भी कोने टूटने शुरू हो गए है एक दिन वो भी तुम्हारी बेवजह की नाराज़गी से उकता कर तिड़क कर टूट जाएँगी उसको मनहूसियत की निशानी समझ कर तुम भले ही दफ्न कर दोगी मगर वो टूटे टुकड़े मरते दम तक सरकारी गवाह के माफिक मेरे ही तरफदार  रहेंगे।
भूलने को बड़ी नेमत समझता हूँ बदलनें को इंसानी फितरत मगर ये दोनों मुकदमें तुम्हारी अदालत में हार चुका हूँ फिलहाल बादलों के मार्फत चाँद के यहाँ अर्जी दाखिल की है कि रात को वक्त पर निकल जाया करें ताकि उसे देख तुम्हारा हाल जान सकूं मगर इन मतलबी बादलों ने बदलती रुत से मिलकर मेरी शिकस्त का पुख्ता इंतजाम किया हुआ है यह खबर आज ही मुझे एक टूटते तारें ने दी। तुम्हारी तमाम शोहरतों के आलम की बीच कुछ बर्बाद किस्म के मेरे भी खबरी है जिनकी अय्यारी की मदद से मै हर्फ़ हर्फ़ तुम्हारी खबर रखता हूँ।
तुम्हें भूलने के लिए जेहन में तल्खियों का होना बेहद जरूरी है मगर तुम्हारी तमाम तल्ख़ बातों के माने निकालने बैठता हूँ तो मुझे वो रूहानी नुक्तें लगने लगते है जो किसी मुसाफिर को सफर पर निकलनें से पहले कबीले का बुजुर्ग बयाँ किया करता था उसमें इल्म की खुशबू होती थी और तजरबें कैफियत।
अफ़साना या हादसा पता नही क्या थे तुम मगर जो भी थे उस पर तबसरा नामुमिकन है अब तुम्हारे ऐब की तनकीद करते हुए मै तुम्हें खारिज करता हूँ मगर यह भी उतना ही सच है कि तुम्हारा अदब इल्म और हुनर तुम्हारे वजूद से बहुत बड़ा है तुम्हारे मैयार को नाप पाऊँ इतनी मेरी न कैफियत है और हैसियत गोया तुम कोई करीबी दोस्त न होकर जीते जागते खुदा थे मेरे लिए।
तुम्हें खुदा कह कर खुद को हलका कर रहा हूँ क्योंकि मै भर गया हूँ अंदर से बेहद वरना मुझे खुद नही पता तुम मेरे लिए क्या थे कुछ थे भी या नही।

'बातें है बातों का क्या'

Wednesday, October 15, 2014

तिलिस्म

फिर उसने एक दिन खुश्क लबों से मन ही मन बुदबुदाते हुए कहा क्यों मिलें तुम मुझे ! ना ही मिलते तो अच्छा था कम से कम मै अपनी सिमटी दुनिया में खुश तो थी मेरे गम मुझे ताकत देते थे अब तुम मेरी कमजोरी बनते जा रहे हो खुद को इतना कमजोर कभी नही पाया। जानते हुए कि तुमसे मेरा कोई रिश्ता नही है न ही मेरे जीवन में कोई अभाव या रिक्तता है फिर ऐसा क्या था तुम्हारी बातों में कि तुम असर करते जा रहे थे तुम्हें जानने की मेरी इच्छा बढ़ती ही जा रही थी। भले ही तुमसे बात न होती हो मगर तुम्हारा सामने दिखना भर एक अलग किस्म की आश्वस्ति से भरता था।
मन के खेल थोड़े अजीब किस्म के होते है ये सरे राह चलता चलता खुद ही अटक जाता है बिन पूछे बिन बताए।
फिर उसने खुद को इकट्ठा किया और तय किया अब निकलना ही होगा इस वाग विलास से गर कुछ दिन और वह उसके साथ रुकती तो फिर वापसी के रास्ते बिखर जाते खुद ब खुद।
उसने लिखे कुछ अधूरे खत मगर उन्हें पते तक पहुँचाने की न उसमें हिम्मत बची थी न इच्छा  उन पर रसीदी टिकट लगा वसीयत के माफिक रोज़ तकिए के नीचे रख सो जाती थी उसके ख्वाब अचानक से अनमने हुए मन की कतरन थे जो उससे कभी कभार गुफ्तगु करने आते थे।
आहिस्ता आहिस्ता किसी को भूलना किस्तों में खुदकुशी करने जैसा था बतौर इंसान शायद यह अधूरापन ही हमें जिन्दा रखने की वजह भी बनता है और हम जीते चले जाते है एक बेमकसद जिन्दगी।
वो उसे देर से मिला था मगर मिलने के बाद उसकी तलाश का हिस्सा बन गया मगर उसके खुद के डर ने उसको रोज़ कहा इसकी बातें तिलिस्मी है इनके इंद्रजाल से निकलना मुश्किल हो जाएगा।
उसकी बुदबुदाहट आज मेरे पास पहूंची और मै देर तक हंसता रहा खुद की ज्यादती पर फिर शाम तक उदास बैठा उसके बाद कुछ कहने के लिए नही बचा था।

'टूटा तिलिस्म: छूटे हाथ'

Tuesday, October 14, 2014

निठल्ला दर्शन

समय का आभास बड़ा विचित्र धोखा है। सम्भावना का डीएनए क्यों नही परिवर्तित होता है हर बार किसी को एक यह लगता है कि मेरे द्वारा बहुत किया जा सकता है सिवाय मुझें छोड़कर। कुछ करना या कुछ भी न करना दोनों के अंतिम अर्थ पुरुषार्थ से जोड़ देना समाज की वृहत परम्परा का हिस्सा है। कर्म करना गतिशीलता और जीवित होने का सार्थक प्रमाण माना जाता है  मगर यह करना बाह्य अधिक है आंतरिक कम इसलिए कुछ भी न करना महज़ यथास्थिति बनाए रखने की युक्ति नही है दरअसल सक्रियता का अर्थ सामाजिक उपलब्धियों से जोड़कर देखा जाता है मगर निष्क्रियता में भी एक अंतक्रिया निहित होती है निष्क्रिय बाह्य दर्शन है आंतरिक रूप से उसमें इतने स्तर गूंथे हुए है कि हर स्तर की अपनी क्रियाएं है और अपने कर्म। समय के सापेक्ष दौड़ जीवनपर्यन्त चलती रहती है समय हमारी ऊर्जा का सुचालक है परन्तु समय क्या है क्या वक्त का बीतना समय है? या वक्त के सामने से हमारा गुजरना समय का एक संवेदी अहसास भर है। लोक के दबाव सतत रूप से क्रियाशील या कर्मशील होने की प्ररेणा जरुर देते है परन्तु यदि मन की यात्रा चेतना की गति का सहारा लेने की अभ्यस्त हो जाए तो फिर वहां अन्तस् के स्तर पर इस दबाव के प्रति एक विद्रोह भी उपजता है वह जीना चाहती है अपनी स्वाभाविक लय में जो निश्चित रूप से स्थैतिक भी हो सकती है। कुछ न करना जड़ता नही है बल्कि व्यापक अर्थों में उसकी गतिशीलता करने से कई गुना अधिक है क्योंकि कुछ भी करने की प्राय: वजह बाह्य होती है और कुछ न करने की आंतरिक। ज्ञात और अज्ञात के मध्य रेंगता यह दर्शन बाहर से जितना बौद्धिक किस्म का प्रतीत होता है अंदर से यह उतना ही विचित्र है। खुद को ठीक ठीक जान लेना और फिर खुद को स्वीकार भाव से अस्तित्व के हवाले कर देना निसंदेह दुर्लभ और साहस का विषय है परन्तु बाह्य दबावों के चलते खुद को एक सम्पादित यंत्र की  तरह देखना या निर्देशित करना बेहद मुश्किल काम है। मौटे तौर पर दुनिया में दो नस्लें है एक एचीवर्स की दूसरी लूजर्स की यह कोरा उपलब्धि का मनोविज्ञान है इसमें अस्तित्व की मौलिक प्रवृत्ति का प्राय: हनन होता है यहाँ दोनों ही दबाव की सूली पर टंगी मानव चेतनाएं है परन्तु हमें सहजता और उदाहरण तलाशने की आदत है इसलिए हमारी पीठ लूजर्स की तरफ होती है और अंगुली एचीवर्स की तरफ मगर मै एक साम्य बिन्दु पर दोनों को समान पाता हूँ बल्कि लूजर्स को एक पायदान अधिक दुस्साहसी। अलबत्ता तो शब्दकोष के इस शब्द पर ही मुझे सख्त ऐतराज़ है क्योंकि खोने की श्रृन्खला आंतरिक संदर्भो में कुछ पाने की कड़ियाँ भी हो सकती है मगर श्रेष्टता के बोध में उनकी पड़ताल करने कोई नही जाता है।
जो सतत अपनी सामाजिक प्रस्थितियां खोते चले गए या खोते जा रहें है जरूरी नहीं वें पलायनवादी हो उनकी आंतरिक लोच का विस्तार किसी भी कथित रूप से सफल या स्थापित से अधिक हो सकता है सम्भव है वो सिद्ध परम्परा के अज्ञात वाहक हो। चैतन्यता के स्वाभाविक नियोजन में घटना एक मूल्यवान अवधारणा है यह स्वत: घटित होती है या इसको घटित करने के नियोजन का सहारा लिया जाता है यह साधनों का विमर्श हो सकता है परन्तु कर्म जड़ता सक्रियता और निष्क्रियता के बीच बिन नियोजन के मौन बैठे हर मनुष्य में अपार सम्भावना है मगर वह सम्भावना बाह्य कारणों से नही आंतरिक प्रभावों से संचालित होती है वो समय की मांग करती है और धैर्य की भी जिसके लिए शायद यह उम्र भी कम पड़ सकती है।

'निठल्ला दर्शन'

Thursday, October 9, 2014

यादों के जंगल

कुंवारी सर्दी की एक अघोषित दोपहर है तीन नम्बर पर पंखा सेवक की भांति चक्कर काटता हुआ चलने का आभास दे रहा है खिड़कियो से आती रोशनी आँखों में चुभती है मगर उन पर परदें खींचने की हिम्मत नही है। एक पुरानी कॉटन पॉलीस्टर मिक्स की चादर छाती तक ओढ़कर हाथ का तकिया बनाए एक करवट लेटे हुए तुम्हारे बारें में सोचता हूँ और सोचता ही चला जाता हूँ।
कमरे की नमी,आधे अँधेरे की ठंडक और पंखे की हवा ने इतना मजबूर किया कि चादर में पूरे पैर नही पसार पाया।दोनों पैर दो के अक्षर की तरह जुड़कर मुझे गर्माहट देने का जतन करते है साथ ही दोनों पैर एक दुसरे से गणितीय समीकरण की तरह जुड़ने की युक्ति बनाते है।
याद नही कब से इसी करवट पड़ा हूँ मेरे कान का आकार मेरी बांह पर छप गया इससे एक तरफा दबाब का तुम अंदाज़ा लगा सकती हो कायदे से यह वक्त सोने के लिए मुफीद हो सकता है मगर तुम्हें सोचते हुए कब नींद आ पाती है। मेरे वजूद के बोझ से बिस्तर भी हैरान और परेशान है तकिया उलटा पड़ा हरजाई की तरह शिकायत कर रहा है मानों उसे मेरी बांह से रश्क हो रहा है। इस बेडशीट के अपने शिकवें है मेरी अवसाद की गर्द से इसको बैचेनी होंने लगी है ये इस बात पर भी थोड़ी हैरान है कि एक मुद्दत से इस पर मेरा एक भी आंसू नही टपका है।
इन सब अमूर्त आकृतियों के बीच मुझे देख ये कमरा भी उकता गया है दीवारों ने मेरी तरफ पीठ कर ली है बस एक अदद छत है जो ऊपर से सीधे मेरे दिल और दिमाग में एक साथ झांकती है उसे थोड़ी बहुत मेरी दिक्कतों का अंदाज़ा है।
इस कमरें की साँसे मुझे यूं बेतरतीब पड़ा देख घुटती है उन्हें नए एहसास की ताजी हवा और रोशनी चाहिए तुम्हें याद करते करते तुम्हारी बातें याद करने लगता हूँ तुम्हारी चुप्पी इस कमरें के रोशनदान में अभी तक टंगी हुई है तुम्हारे कहकहें अब पंखे की पंखडियों की सवारी करते करते बेहोश हो जाते है। इस बॉम्बे डाईंग की बेडशीट पर तुम्हारा लॉ ऑरेल में रंगा एक बाल अक्सर पड़ा मिलता है जबकि तुम यहाँ कभी नही आई शायद ये खुद तुमसे बगावत करके यहाँ तक पहूंचा है होते हुए दर बदर ।ये खुद ही उलझता रहता है और खुद सुलझ जाता है तुम्हारी यादों के अलावा बस एक यही तुम्हारी निशानी मेरे पास बची है तुमने तो कुछ भी देने से इनकार कर दिया था ये सब आ गई मुझ तक खुद ब खुद।
मै ऊब कर अंगड़ाई लेता हूँ जिसमे आधी ऊबासी भी शामिल है मेरी पलकों के छज्जे से तुम कूदकर आँख में आइस-पाइस खेलने लगती हो तुम मुझे दिखती भी हो और नही भी मेरे अक्स की पड़ताल लेने पर पता चल सकता है उसमे तुम्हारा कितना वजन शामिल है।
ख्यालों की तुरपाई करते समय एक टुकड़ा सुख तुमसे उधार लेता हूँ रोज़। दरअसल यह सुख की शक्ल में दुःख है जिसको जोड़ने के बाद उसकी सही तासीर का पता चलता है।
शाम होने को है अपनी उलटी चप्पलों को सीधा करते हुए मै निकल जाता हूँ नगें पांव उस जंगल की तरफ जहां कभी तुम्हें देखा था पहली बार वहां एक नदी कहती है अपने किस्से एक बरगद देता है दिलासा और कुछ कांटे बताते है यथार्थ देर रात इसी बिस्तर पर मै लहुलुहान लेटा मिलूंगा मगर तुम इस बात पर हैरत मत करना कि बिस्तर पर एक भी धब्बा नही है हो सके तो बस यकीन करना जो करना बेहद मुश्किल है।

'यादों के जंगल: डायरी नोट्स'

हिचकी

कुछ हिचकियाँ बेनामी होती है शापित होती है बदहवास दर ब दर भटकनें को दिल और दिमाग मिलकर भी इनके वास्तविक स्रोत को नही तलाश पाती है वो आती है अचानक और कह जाती है
याद करना और याद न आना सबके बस की बात नही होती। कभी कभी याद आती है उन अक्सों की जो वक्त की गर्दिशों में उलटे कदमों आँखों से ओझल होते चले जाते है बिन बताएं।

"हिचकी है कि याद तुम्हारी
समझ नही पाया
मगर कुछ न कुछ अंदर टूटा जरुर है
कतरा कतरा लहू रिसता है
मुस्कानों के रास्तें
कोई टोटका आज तक
न तुम्हारा पता ला पाया
न हिचकी रोक पाया
एक लम्हें के इस कम्पन में
छिटक कर गिर पड़ता हूँ
यादों के तहखाने में
जहां अब तुम्हारी दुआ की
रोशनी नही पहूँचती है।"

© डॉ.अजीत

Wednesday, October 8, 2014

दोस्ती

उसकी सबसे घनिष्ठ दोस्त ने उसको लगभग डराते हुए कहा था तुम भोली हो भावुक हो यहाँ के लोगो की चालाकियां नही समझ पाओगी यहाँ बने रहने का एक ही सूत्र है लोगो पर संदेह करों उन्हें इतनी जल्दी अपना मत मानों मत बनाओं उन्हें अपनी जिन्दगी में लत के जैसा। उसकी दोस्त समझदार थी जिसकी हंसी में निजता की दीवार थी वो यहाँ अपने मन की कहने आती दूसरों को तटस्थता से पढ़ने आती दोस्ती के रिश्तें कमाने के लिए यह जुआघर उसके लिए किसी काम का नही था। दोस्त ने दोस्त की फ़िक्र में उसे खूब समझाया था मगर मन के राग कब किसकी फ़िक्र करते है वो जुड़ते है तो जुड़ते ही चले जाते है उसे कभी कभी उसकी बातों पर पल भर के लिए संदेह होता था मगर उसका दिल कहता सारी दुनिया एक जैसी थोड़े ही होती है सब ठग नही होते है। उसने दोस्त की सलाह को दरकिनार कर गुफ़्तगू का सिलसिला जारी रखा।
अभी तक वो आश्वस्त नही है कि वो गलत है या सही एक पल उसे लगता कि उसका कोई प्रयोग नही कर सकता है वहीं दुसरे ही पल अपने दोस्त की सलाह याद आनें लगती कहीं बाद में तन्हाई में दुःख का सबब न बनें ये एक दुसरे की जिंदगियों में यूं इस तरह से शामिल होना।
इसी फ़िक्र और ख़्वाब के बीच वो जीती जा रही थी एक अजीब सी दुनिया जहां रोज़ सुबह के किस्से शाम तक दम तोड़ देते थे जहां रोज नई वजह जन्म लेती थी और मै इन दो दोस्तों के बीच अटके उस खरपतवार सरीखे शख्स को याद करता हुआ कभी हंसता तो कभी उदास हो जाता है। रोजमर्रा के विचित्र संयोगों में एक यह भी संयोग शामिल था जिसको देखते देखते सुबह शाम अपनी गति से धीमी हो चली थी रात और दिन की लम्बाई घटती बढ़ती जा रही थी। इस ज्वार भाटें का ताल्लुक यकीनन आसमान पर टंगे चाँद से नही था।

'दो दोस्त एक परिचित और मै'

Saturday, October 4, 2014

मिलना बिछड़ना

कुछ लोग रास्ते में छूट जाते है कुछ का छूटना पहले ही दिन से तय होता है कुछ हाथ छुड़ा कर छिटक जाते है यह मेल-मिलाप और बिछडन एक शास्वत प्रक्रिया है और स्वाभाविक भी विज्ञान की कसौटी पर भी यह सिद्धांत: खरी उतरती है अत: किसी राग के चलते अवसाद में रहना या आत्मदोष में जीना किसी भी दृष्टि से औचित्यपूर्ण नही है। जो आपके अस्तित्व का हिस्सा है वह हर हाल में आप तक लौटकर आएगा और जो नही है उसे आपके आग्रह या संताप भी वापिस नही ला सकते है इसलिए नेह के बंधन इतने मत कसो जो बाद में तकलीफ हो सम्भावना हमेशा सांस लेती है मिलकर बिछड़ने की और बिछड़कर मिलने की बस समस्या तब होती है जब हम एकाधिकार चाहते है एकाधिकार एक किस्म का अतिवादी घुन है जो रिश्तों को धीरे धीरे चाटकर उन्हें अंदर से खोखला बना देता है इसलिए आग्रह अपेक्षा बंधन से मुक्त सांस लेते रिश्तें समाधिस्थ सन्यासी के समान जीवंत दिखते है और राग की चासनी में लिपटे रिश्तें अपनी लघुता के भंवरजाल में फंसकर हमारे मन की शान्ति का अपहरण कर लेते है।
इसलिए कहता हूँ जो जा रहा है उसको सम्मानपूर्वक जाने दो यदि आपकी चेतना सम्वेदना प्रज्ञा से उसका तत्व चिन्तन जुड़ा होगा तो अवश्य वह लौट कर आएगा दुनिया गोल है इसका एक मानवीय प्रमाण है यह मनुष्य की प्रवृत्ति भी है उसको राग स्नेह की दुहाई देकर मत रोको क्योंकि अलबत्ता तो वह रुकेगा नही और अगर रुक भी गया तो फिर उसका मन वह मन नही बचेगा जिसमे आपकी आसक्ति बची हुई है।
स्वीकार भाव में सम्पादन रहित जीवन जीने का कौशल सीखना आवश्यक है अन्यथा जीवनपर्यन्त दुःख द्विगुणित हो आपका दुखद मनोभंजन करते ही रहेंगे।
हे ! चराचर जगत की अपेक्षाओं के टूटने से आहत चेतनाओं अपने होने का उत्सव मनाओं ये मिल गया ये खो गया ये सब मन के भ्रम है न कभी कोई मिलता है न कभी खोता है हम खुद को किसी से जोड़कर खुद की यात्रा आसान समझने की भूल करते है जबकि सच तो यह है कि जीवन की चैतन्यता की यात्रा हमें नितांत ही अकेले पूर्ण करनी होती है इसे मंद मुस्कान के साथ पूरा करना है या शिकायत अफ़सोस करते हुए यह नितांत ही आपका चयन है।

'इतवारी प्रवचन'

Friday, October 3, 2014

क्लिनिक प्लस

आंवला रीठा शिकाकाई दही तेल मट्ठा और अन्य घरेलू बाल धोने की परम्पराओं के बीच 'क्लिनिक प्लस' शैम्पू का आना एक बड़ी क्रांति थी आज भी मेरे जेहन में क्लिनिक प्लस की खुशबू इस तरह बसी हुई है कि उसका स्थान कोई अन्य शैम्पू की खुशबू नही ले सकी। शैम्पू के अरोमा विज्ञान ने लाख तरक्की कर ली हो मगर आज भी क्लिनिक प्लस की खुशबू सबसे यूनिक और क्लासिक किस्म की बनी हुई है। कवि हृदय से कहूँ तो दूर छत पर किसी अनामिका के क्लिनिक प्लस से धुए बाल आज भी प्रेम कविता रचने की प्रेरणा बनने की क्षमता रखते है।
खुशबू का बड़ा विचित्र मनोविज्ञान होता है यह मन के तप्त तल पर शीतल छाया जैसी होती है यह हमें खुद के अच्छाईबोध से सेकण्ड्स के लिए कनेक्ट कर देती है मदहोशी में ही सही हम एक छोटी उड़ान भर अपने मन की मुंडेर का चक्कर लगा बिना थके लौट आते है।
हवा के रुख के बिना पानी की तरलता पर सवार होकर क्लीनिक प्लस की खुशबू जब भी मेरे दर तक आती मुझे हाथ में क्लीनिक प्लस का दो रूपए वाला सैचेट दबाए तुम नजर आती इस रसायन से बालों की ख़ूबसूरती बढती तो है ही साथ कुछ गंध प्रेमियों के दिमाग का डैनड्रफ भी साफ़ हो जाता है।

'क्लिनिक प्लस और मै'

छोटी खुशी

कई बार छोटी छोटी खुश होने की वजह हमारे आसपास ही होती है हम देख नही पाते है बस। कल से घर पर मै और राहुल (बड़ा बेटा) दोनों घर पर अकेले है उसकी खाने पीने और देखभाल की जिम्मेदारी मेरी है। कल उसे फिल्म दिखाई शाम को खुद पकाकर खाना खिलाया बोर्नविटा युक्त दूध बनाकर दिया दो तीन दफे।रात उसको अपने पास सुलाया दोनों एक ही चादर में सोएं रात में उसकी फ़िक्र रही कहीं पंखे में ठंड न लग रही हो आज सुबह उसको दूध और रोटी-नमक का नाश्ता कराया अभी उसको नहला कर आ रहा हूँ बाथरूम में उसके बालों में शैम्पू करते समय उसका हंसना या फिर उसकी ऐडी के आस पास का मैल उतारते समय उसका गुदगुदाना अंडरवियर पहनाते हुए उसका व्यस्कों की भांति शर्माना सच में गजब का स्प्रिचुअल प्लीज़र मिला है। हर घंटे बाद यह पूछना कि राहुल भूख तो नही लगी है अपनी जिम्मेदारी का बड़ा अहसास भर है। अभी जब उसके बाल बनाए तो मुझे खुद का बचपन याद आ गया हमारा नहाना बड़ा रोतडू किस्म का हुआ करता था आजकल के बच्चे समझदार है।
बहरहाल पिछले चौबीस घंटे बेहद जीवंत गुजरे है कभी कभी ऐसी जिन्दगी जीकर हम सच में सच्ची खुशी पातें है। राहुल की केयर में हर बात की राहुल से यह पुष्टि करवाना कि मम्मी भी ऐसे ही करती है क्या दरअसल उसकी मम्मी के कामों को कृतज्ञता से याद करने का तरीका भी रहा है जो होते हुए भी प्राय:नजर नही आता है।