Friday, October 31, 2014

कर्ज

आफरीन ! बस ज़बान एक बार यही कह कर खामोश हो गई दिमाग में तमाम खूबसूरत ख्यालात होने के बावजूद ज़बान का बागी बन जाना तुम्हारी संजीदा शख्सियत और पाक सूरत-शीरत की ब्यानहलफी थी। तुम्हारे जिस्म और रुह के अक्स मेरे चश्मे तर मे इस कदर उतर आए कि मेरी पलकों के लब अपनी खुश्की को तर करने लगे थे।
ख्वाबों की दस्तक उलटें पांव आई इसलिए मै अंगडाई नींद ख्वाब और हकीकत में महीन फर्क नही कर पाया तुम्हारी बातों की रुहानियत इस कदर मुझ पर तारी हो गई कि मेरी इबादत में गुनाह की तौबा से लेकर दुआ तक तुम्हारी शक्ल अख्तियार कर लेती थी। मुसलसल हादसों के बीच नामुकम्मल जिन्दगी के तराने तुम इतनी खूबसूरती से गुनगुनाती कि मै अकेला शामीन होते हुए खुद को महफिल में पाता।
तुम्हारी हंसी के सदके ये सारी कायनात उठाती थी क्योंकि इसके बदले उसका खूबसूरत दिखने का मतलब पूरा होता था एक दफा तुम्हें नींद मे मुस्कुराते देखा यकीनी तौर पर यह मुस्कान तुम्हारे ख्वाबों में मुश्किल हालातों पर फतेह की बानगी भर थी तुम रोज़ खुद से एक जंग लडती ये जंग वजूद की सच्चाई ईमान की पाकीजगी और ख्यालों के पुरकशिस होने की जंग थी इस जंग के पैयादे वक्त और ह कीकत का स्याह चश्मा लगाए हुए थे उनके अंधे हमले तुम पर रोज़ बढते जाते मगर तुम्हारी रुहानियत की फूंक से उन्हे गर्द की तरह उडा देती।
तुम्हारे पल्लु की गांठ में इस तरह की जंगे फतेह करना का माकूल नुस्खा बंधा था यूं तो उसमें तुम्हारी मुहब्बत की सल्तनत का एक नक्शा भी था मगर उस तलक पहूंचने के लिए जरुरी सफर की तैयारी मै कभी न पूरी न कर सका।
दरअसल तुमसे मिलना खुद से मिलना था तुम्हारा वजूद एक साफ आईना था जिसमे खुद का अक्स इतना साफ नजर आता कि कई दफे घबरा कर आंखे बंद करनी पडती तुम्हारी कोशिसे निहायत ही संजीदा कोशिसे थे बल्कि यूं कहूं कि एक पीर की तरह अपने मुर्शिद को इल्म अता करने की कोशिसे थी उसकी रोशनी मे मै अदब और इल्म के हरफ सीधे करना सीख पाया।
तुम्हारी जहीन गुफ्तगु के कुछ ही लम्हें मुझे खींच कर मेरा कद और मैयार इतना बडा कर गए कि अब कुछ दोस्तों को रश्क होने लगा है मगर मेरे दिल मे अफसोस की शक्ल में यह बात भी हमेशा के लिए दफन है तुम्हें पाने की चाह मेरी सबसे बडी नादानी थी जिस दिन तुम मुझे हासिल हुई दरअसल उसी दिन मैने तुम्हें खो दिया था। शायद तुम्हें इस बात का इल्म हमारी पहली मुलाकात के बाद हो गया था मगर तुमनें मुझ पर जाहिर नही होने दिया और अपने हिस्से की गुमनामी समेट कर तुम चुपचाप निकल गई।
तुम्हारा आखिरी खत मेरे लिए आज भी उतना ही मुकम्मल ब्यान है जितना तुम्हारा वजूद था अपनी तमाम खला खलिशों के बावजूद तुमने इस खाकसार को अपने दीवान ए आम से उठाकर दीवान ए खास मे पनाह दी मेरे मुस्तबिक को हरफ हरफ मेरे कानों में फूंका और अपनी दुआ में शामिल करके मुझे मुहब्बत की तहजीब और सलीके से रुबरु कराया यह एक ऐसा कर्ज़ है जो मै कभी अता कर ही नही सकता।
ये खतनुमा तहरीर तुम्हारी मुहब्बतों के कर्जे की अदायगी की कोई रस्म भर नही है बल्कि मेरे कतरा-कतरा पिघलते वजूद की सच्चाई है जिसको ब्यां करकें मै जितनी शिद्दत से तुम्हें याद करता हूं उतनी ही शिद्दत से तुम्हें भूलने की जद्दोजहद भी करता हूं मेरे बिखरे वजूद का यह एक बडा यकीनी सच है जिसकी बुनियाद को तुम्हारे दुआओं के कलमें उसको हर मौसम में सीलन से बचाते है यही एक वजह है कि दुनिया को मेरे अफसानों में जिन्दगी का पता मिलता है वे खुद को उसके जरिए न केवल खुद तलाश पाते है बल्कि गहरी गुफ्तगु भी कर पाते है।
शुक्रिया ! एक छोटा और दुनियादारी का अल्फाज़ है तुम्हारी कसीदगी के लिए मेरे पास केवल कुछ अनुछुए जज़्बात है कोई हरफ नही है बतौर फनकार ये मेरी सबसे बडी हार और मजबूरी है।
मुआफी तुम कभी दोगी नही क्योंकि जिसको तुमने माफ किया वो फिर कभी तुमसे मिल न सका शायद एक आखिरी दफा हमारी मुलाकात जरुर होगी इस बात को लेकर हम दोनो जाहिरी तौर पर बेफिक्र है...!

'कर्ज फर्ज : पहली क़िस्त'

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