Wednesday, October 15, 2014

तिलिस्म

फिर उसने एक दिन खुश्क लबों से मन ही मन बुदबुदाते हुए कहा क्यों मिलें तुम मुझे ! ना ही मिलते तो अच्छा था कम से कम मै अपनी सिमटी दुनिया में खुश तो थी मेरे गम मुझे ताकत देते थे अब तुम मेरी कमजोरी बनते जा रहे हो खुद को इतना कमजोर कभी नही पाया। जानते हुए कि तुमसे मेरा कोई रिश्ता नही है न ही मेरे जीवन में कोई अभाव या रिक्तता है फिर ऐसा क्या था तुम्हारी बातों में कि तुम असर करते जा रहे थे तुम्हें जानने की मेरी इच्छा बढ़ती ही जा रही थी। भले ही तुमसे बात न होती हो मगर तुम्हारा सामने दिखना भर एक अलग किस्म की आश्वस्ति से भरता था।
मन के खेल थोड़े अजीब किस्म के होते है ये सरे राह चलता चलता खुद ही अटक जाता है बिन पूछे बिन बताए।
फिर उसने खुद को इकट्ठा किया और तय किया अब निकलना ही होगा इस वाग विलास से गर कुछ दिन और वह उसके साथ रुकती तो फिर वापसी के रास्ते बिखर जाते खुद ब खुद।
उसने लिखे कुछ अधूरे खत मगर उन्हें पते तक पहुँचाने की न उसमें हिम्मत बची थी न इच्छा  उन पर रसीदी टिकट लगा वसीयत के माफिक रोज़ तकिए के नीचे रख सो जाती थी उसके ख्वाब अचानक से अनमने हुए मन की कतरन थे जो उससे कभी कभार गुफ्तगु करने आते थे।
आहिस्ता आहिस्ता किसी को भूलना किस्तों में खुदकुशी करने जैसा था बतौर इंसान शायद यह अधूरापन ही हमें जिन्दा रखने की वजह भी बनता है और हम जीते चले जाते है एक बेमकसद जिन्दगी।
वो उसे देर से मिला था मगर मिलने के बाद उसकी तलाश का हिस्सा बन गया मगर उसके खुद के डर ने उसको रोज़ कहा इसकी बातें तिलिस्मी है इनके इंद्रजाल से निकलना मुश्किल हो जाएगा।
उसकी बुदबुदाहट आज मेरे पास पहूंची और मै देर तक हंसता रहा खुद की ज्यादती पर फिर शाम तक उदास बैठा उसके बाद कुछ कहने के लिए नही बचा था।

'टूटा तिलिस्म: छूटे हाथ'

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