Sunday, October 26, 2014

हिसाब

फेसबुक ने इतना कुछ दिया:

ख्यात कवि/लेखक/पत्रकार पोस्ट पर आतें है इनबॉक्स में भी कई दफे शाबासी दे जातें हैं
वकील/जज़ लिखे हुए को वैध/प्रमाणिक मानते है और नियमित पढ़तें भी है।
गृहणी/कामकाजी महिला मित्रों को लिखें हुए में सम्वेदना तथा ईमानदारी प्रतीत होती है।
डॉक्टर/यूनिवर्सिटी प्रोफेसर्स अनुज मित्र समान स्नेह रखते हैं।
पुलिस अफसर मित्र कविता को समझने की कोशिस करने लगे है।
देश के लगभग आधे दर्जन शहरों में फ्री में चाय दाल रोटी का इंतजाम है।
एक मित्र कनाडा एक अमेरिका एक हांगकांग आने का न्यौता दे चुके है यानि तीन देशों में फ्री रहने खाने और 'पीने' का इंतजाम है।
देश में ही दो तीन मित्र केवल ऐसे है जो मुझे मदिरापान के सत्संग पर बुलाने को लेकर उत्साहित है।
फेसबुक ने सतत लिखने की वजह दी मेरे लिए यह सबसे बड़ी बात है।
फेसबुक ने अंदर के भावुक लिजलिजेपन को मिटाया दुनिया प्रैक्टिकल होकर कैसे सोचती और जीती है यह फेसबुक की बदौलत ही सीख/जान पाया हूँ।
देह और पृष्टभूमि के मनोविज्ञान के इतर फेसबुक ने मेरे यह कथित रूप से लिखने वाले पक्ष को प्रकाशित किया वरना बहुत लोग कुछ और ही समझते थे।

फेसबुक ने इतना कुछ लिया:

समय
फोन पर इन्टरनेट का खर्चा
हर वक्त ऑनलाइन दिखने का समाजिक कलंक
फोन पर चिपके रहने का सामाजिक व्यंग्य
आभासी संसार ।
टच स्क्रीन पर टाइप की वजह से दाएं हाथ के अंगूठे में दर्द ।
एक दो फेसबुकिया दोस्तों की दुश्मनी टाइप की नाराजगी।

सारांश:
जिन्दगी से उलझते हुए खुद को एकत्रित करने की जद्दोजहद में फेसबुक पर आता हूँ किसी का दिल न दुखे यही कोशिस रहती है बाकि तो एक यात्री हूँ जब तक सफर में हूँ जिन्दा नजर आता हूँ जिस दिन रुक गया उस दिन वहीं समाधि बन जाएगी।

'मेरा फेसबकिया हिसाब-किताब'

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