Thursday, October 30, 2014

मेरी गति

जिस तरह डाकघर से चिट्ठियां आने का सिलसिला किस्तों में अपनी तयशुदा मौत को प्राप्त हुआ था ठीक ऐसे ही धीरे धीरे ई मेल की दुनिया सिमटने लगी थी बेकारी के दिनों में सीवी फॉरवर्ड का यह चश्मदीद गवाह था अब महीनों हो जाते है ई मेल के खाते को खोले और जब भी उम्मीद से खोलते है तो करोड़पति बनने के लन्दन की लाटरी जितने के कोरे ठगी भरे झूठ के इश्तेहार वहां मिलते है तकनीकी के जानकार लोगो ने उन्हें स्पैम कहा था मगर मै उन्हें एक खीझ भरा मजाक कहता हूँ जो हमारे साथ किया जाता आ रहा था। अब डाकिया फोन का बिल भी नही लाता क्योंकि उसकी विदाई मोबाइल कर चुका है अब डाकिए के पास यदा कदा बैंक के कर्जे के नोटिस रस्म पगड़ी के कोने कटे पोस्टकार्ड और भाई के म्यूच्यूअल फंड के स्टेटमेंट होते है अब डाकिए से मेरा कोई भावनात्मक रिश्ता नही है जो कभी हुआ करता था। इन्टरनेट की गति में भी खत लिखना अब आउटडेटिड है ई मेल की जरूरत कामकाजी लोगों की जरूरत भर रह गई वो भी अपनी कमर पर न जाने कितने कितने केबी/जीबी का अटैचमेंट का बोझ ढोंते है साल भर।
दरअसल ये स्पानटेनियस डायलोग का दौर है इनबॉक्स/व्हाट्स एप्प में गपियानें का दौर है इस समय सारा जोर केयरिंग की बजाए शेयरिंग पर है हम कुछ भी अपने अंदर बचाकर नही रखना चाहता यहाँ तक इमोशन भी रोज़ नए पैदा करते है और रोज़ उन्हें खर्च कर देते है एक दुसरे की जिंदगियों में बेहताशा शामिल होने के बावजूद भी हमें खुद नही पता है कि ये रिश्ता कितना लम्बा चलने वाला है। गति और कहन इस दौर की आत्मा है अब वो दौर नही रहा जब हम किसी के साथ एक ख़ास इमोशन में लम्बें समय तक पॉज़ मोड़ में रहते थे एक दुसरे को मिश्री की तरह घोलते हुए घूट घूट चखते थे।
जिस गति से हम लिख/पढ़/कह रहें है उससे यह आभास होता है न जाने हम कितनी बड़ी जल्दी में है कितना कुछ समेटना चाहते है मगर रोज़ सुबह से शाम तक इतने किरदार जी चुके होते है कहीं दफा तो खुद के सच को लेकर खुद ही भ्रम का शिकार हो जाते है। चिट्ठियां गई ई मेल गया जाना इस फेसबुक और व्हाट्स एप्प को भी हैं तकनीकी से अरुचि या तकनीकी का व्यसनी दौर हमारे जीते जी ही आ जाएगा मनुष्य इन सबके सहारे इतनी गति से अपनी कक्षा के चक्कर लगा रहा है कि अब उसके द्वारा भेजें गए चित्रों से आदमीयत के बदलते मौसम का पूर्वानुमान नही लगा सकते है। रोज़ भरने रोज़ खाली होने के क्रम सम्वेदना भी अपरिपक्व भ्रूण जन रही है मगर हमने इन सबके बीच अपने होने का अर्थ तलाश लिया है भले अर्द्धचेतन को इस हाथ की सफाई और नजरबंदी के खेल का सच पता रहता हो मगर हम त्वरित प्रतिक्रिया और सम्बन्धों में तेजी से जुड़ने-टूटने के वर्चुअल चलन भी खुद ही तान साधने में समर्थ हो गए है। बौद्धिक जुगाली और आंतरिक सतही अंतरंगता के इस दौर में मुझे ठहराव चाहिए था मेरी एडिया फिसल कर घिसने लगी थी मेरी दोनों कोहनी छिली हुई थी मेरी रीड मनुष्य की रीड होने पर हद दर्जे की शर्मिंदा थी क्योंकि तमाम बातें जानने के बावजूद भी मै भी वही करता था जो दौर की सबसे बड़ी जरूरत थी। जिस दिन मैंने जरूरतों के हिसाब से खुद को ढालना सीख लिया उस दिन मेरे वो इश्तेहार उल्टा होकर मेरी पीठ पर चिपक गया जिस पर लिखा था-
तमाम मजबूरियों के बावजूद अपनी शर्तो पर जीता हूँ मैं !

© डॉ.अजीत

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