Thursday, October 30, 2014

आदत

...और अंतत: तुम्हारी स्मृति मेरे पास केवल अफ़सोस के रूप में बची।कभी तुम्हारे साथ उठने बैठने सोने जागने की आदत थी तुम न बदलनें वाली आदत ही नही बल्कि आदत से बढ़कर लत की तरह थे।
वक्त की चालाकियों में तुम्हारा अर्जुन बन जाना किसी भी एकलव्य के लिए सदमें से कम नही है। जबकि तुम्हारे लिए मैंने कितने एकलव्य पैदा किए ये तुम्हें भी पता है।
तुम खुद के प्रभाव में थे या किसी प्रभाव ने तुम्हें अपने प्रभाव में ले लिया उसके बाद तुम तुम न बचें मुझे लगा था तुम्हारी समझ तुम्हें भेद की दृष्टि देगी मगर तुम भेद के नही विभेद के साधक बन गए थे।
बहरहाल, खुश रहो अपनी गणनाओं के हिसाब से जियों तुम्हारी समीकरण के हिसाब तुम्हारी प्रमेय सिद्ध है मेरे खुद की जोड़ घटा से हासिल में तुम्हें ढूंढने की आदत छोड़ने की कोशिस कर रहा हूँ अगर छोड़ सका तो।

'आदतें यूं ही नही जाती'
© डॉ.अजीत

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