Friday, February 1, 2019

‘देह-मोक्ष’


देह के विकट अरण्य में भटककर तुम तक पहुंचा हूँ. मुझसे अभी नैमिषारण्य तीर्थ के सत्संग की भांति प्रवचन की अपेक्षा न रखो. मैं विचार,तर्क,जिज्ञासा और कौतूहल के सारे बाण रास्ते में मिली एक छोटी नदी में बहा आया हूँ. पढ़ने के लिए तुम मेरी आँखें पढ़ सकती हो और सुनने के लिए तुम मेरे हृदय की ध्वनि सुन सकती हो दोनों समवेत स्वर में तुम्हारे प्रोमिल स्पृशों की कातर अपेक्षा में कराह रहें हैं.
जानता हूँ तुम्हें पराजित पुरुष पसंद नही है ,मगर मैं विजय-पराजय के चक्रव्यूह को तोड़कर तुम तक पहुंचा हूँ .मुझे प्राश्रय दो. और यदि कुछ देना ही चाहती हो तो विस्मय नही अपनी लता समान भुजाओं में मुझे एक मासपरायण विश्राम दो.यदि मुझसे कुछ लेना ही चाहती हो तो मेरे कौतुक को मुझसे विछिन्न कर दो. मेरे मस्तक पर शीत स्वेद की कुछ बूंदे आवारा भटक रही हैं उन्हें अपने अंगवस्त्र का पता दो ताकि वें हवा की हत्या से बच जाएं.
तुम्हें तलाशता हुआ मैं मन के बीहड़ वनों से अकेला गुजरा हूँ मेरे अनेक युद्ध मन की कामनाओं और असुरक्षाओं के साथ कथा प्रान्तर में चलतें रहें है. मैंने हार और जीत में संतुलन साध लिया था तभी एक ऋतुपर्ण पर तुम्हारी तर्जनी प्रतिलिपि मुझे मिल गई है मैं उसकी गंध में आधे दिन तक अचेत लेटा तुम्हारी अंगुलियों की नाप लेता रहा इसके लिए मैंने अपने निकट की वनस्पतियों पर अवांछित हिंसा भी की मगर उन्होंने मेरी आँखों की चमक देखकर मुझे क्षमा कर दिया.
मैंने ओक से जल पीते हुई झरने की तरफ देखा तो मुझे वो तुम्हारी पीठ की भांति दिखने लगा मुझे ऊपर देखतें हुए चक्कर नही आ रहें थे और न मेरी प्यास ही तृप्त हो रही थी ठीक उस वक्त मैंने तुम्हारी पीठ के भूगोल को समझा और मैं अंगुल से तुम्हारी मेरुदंड के इर्द-गिर्द चैतन्य नाड़ियो की संख्या को गिनता हुआ समय का एकदम सटीक आकलन सीख गया. अब मैं यह वाक्य तभी पूरे आत्मविश्वास के साथ कह सकता हूँ कि मेरा समय खराब चल रहा है जब मैं तुम्हारी नाड़ियाँ गिनने से कई प्रकाश वर्ष की दूरी पर स्थित रहूँ.
मुझे घाटियों ने तुम्हारे तलवों के एकांत का सच्चा पता दिया. मैं रास्तें में मिली गुफाओं को जब भी कौतूहल से देखता और उनमें दाखिल होने को तत्पर होता तभी घाटी के गुप्तचर मेरे कान में यह बात कह जाते कि अभी मुझे अपने तलवों का मिलान तुम्हारे तलवों से करना है उसके बाद ही मैं अपनें जीवन की अधिकतम छलांग लगा सकता हूँ. उनकी बात सुनकर मुझे हँसी आ गई क्योंकि मेरे तलवों की गहराई देखकर एक बार एक सैनिक ने कहा था तुम युद्ध के लिए बने हो जब मैंने उसको अपनी एक प्रेम कविता सुनाई तो उसकें खुद को संपादित करने में लज्जा का अनुभव किया और मुझ से बिना नेत्र सम्पर्क किए उसनें धीरे से कहा, सच बात तो यह है कि तुम केवल प्रेम के लिए बनें हो.
एकदिन मैं पहाड़ी लताओं के झूले पर एक लम्बी पींग भरी तो मुझे पहाड़  ने उस तरफ धकेला जहां से समंदर दिखाई देता था. पहाड़ पर समंदर देखने का अनुभव मेरा पास है इसलिए मैं दावे से कह सकता हूँ तुम्हारे हृदय के निकट से तुम्हारी आँखों में देखना ठीक वैसे ही झूले झूलने जैसा अनुभव है. समंदर की सुबह उदास होती है और पहाड़ की शामें मगर तुम्हारे तुम्हारी आँखों में झांकते समय समंदर और पहाड़ मिलकर आईस-पाइस खेलने लगते हैं. तुम्हारी धडकनों में बसनें वाली लज्जा मौसम की गुप्तचर है इसलिए तुम्हारी साँसों के आरोह-अवरोह में मौसम अपना घर बदल लेते हैं.
मुझे अब कोई प्रतिप्रश्न न करों !  मेरी टीकाएँ और भाष्य अब सब निस्तेज हो चुके हैं समय के आचार्यों ने उनसे गुण को छान लिया है अब वो केवल कोरी शुष्क बातें हैं. उनकी विवेचना से कोई मार्ग नही मिलेगा. मैं अपने सब मार्ग बंद करके तुम्हारे मार्ग पर आया हूँ. इसलिए मुझसे मानचित्र पर चर्चा न करो.मैं सामीप्य की आकांक्षा में आतुर हूँ मगर उदंड या अनुशासनहीन नही हूँ इसलिए मेरा आग्रह से अधिक निवेदन में भरोसा हैं. मैं चाहता हूँ तुम अपनें विस्तार के निर्जन टापू की तरफ अपनी ऊँगली से एक संकेत कर दो ताकि मैं अपने उत्साह को बचा रखूं. मुझे पता है कि तुम्हारा संकेत कभी निरुपाय नही रहता है यदि तुमनें अपनी देह में मुझे शरण दी तो निसन्देह इस चैतन्य आतुरता का अंतिम पाठ मोक्ष की तरह ही उच्चारित किया जाएगा और काया पर पूर्वाग्रह बनने कम होंगे.

‘देह-मोक्ष’
© डॉ. अजित