Tuesday, December 19, 2017

‘आवारगी’

लौटना एक क्रिया है.
और मैं इसे विशेषण में बदलने से बच रहा हूँ. मन का व्याकरण हर बार की तरह व्युत्पत्ति के सिद्धांतो का अतिक्रमण करना चाहता है. जब हम कहीं जाते है तो लौटते वक्त उतने नही लौट पाते जितने हम गए होते है कई बार हम थोड़े से बढ़कर आते है तो कई बार हम थोड़े से घट कर आते है.
समय एक महीन आवरण भर है जिस इस पर अतीत है तो दुसरे पार भविष्य मैं वर्तमान में यात्राएं करता हूँ और अतीत को याद करता हूँ मेरे सामने जो भविष्य खड़ा है वो थोड़ा उलझाऊ किस्म का है इसलिए मैं उसकी तरफ पीठ कर लेता हूँ.
देह की अपनी एक मौलिक गंध है मगर देह की गंध देह से विलग होकर बहती है उसे महसूस करने के लिए हम खुद नही हो सकते है उसे वही महसूस कर पाता है जो उसके लिए पात्र है.यह पात्रता किसी भी योग्यता से अर्जित नही की जा सकती है यह खुद के अंदर स्वत: स्फूर्त घटित होती है. तुम्हारे साथ मेरी देह की गंध मेरा साथ छोड़ देती है इसलिए भी मैं हल्का महसूस करता हूँ. मेरे पास तुम्हारी देह गंध की कुछ स्मृतियाँ बची है. मगर उन स्मृतियों का मिलान कभी संभव नही है इसलिए मैं उन्हें अपनी देह पर वहां छोड़ देता हूँ जहां-जहां मेरा खुद का हाथ बमुश्किल जाता है.
रास्तों और बादलों के अलावा हवा के पास अपनी एक अय्यारी है वो अपनी दिशा हमें देख बदल लेती है और हमारा वहां तक पीछा करती है जहां से हमारी साँसों की गति असामान्य न हो जाती हो.हवा की आदर देने की इस अदा पर धरती फ़िदा है और वो आसमान को कहती है कि प्रेम में निजता का एक गहरा मूल्य यदि तुम्हें समझना है हवा से सीखना चाहिए.
उदासी मुझे अब संक्रमित करती है मैं अचानक से खुश होता हूँ और फिर बेहद उदास हो जाता हूँ.उदास रहते हुए मैं सबसे ज्यादा खुद के बारें में सोचता हूँ इसका अर्थ यह हुआ कि तुम्हारी प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई रिश्ता उदासी से नही है.
जब मैं लौट रहा होता हूँ तो मेरे साथ बहुत कुछ लौट रहा होता है जो मुझे रोज अलग-अलग शक्ल में दिखाई देता है मैं उस सब से बात नही करना चाहता हूँ मगर वो मुझे अपने अपने हिस्से की बातें रोज़ करते है. कल मुझसे एक रास्ते ने कहा कि तुमने चौराहे से लेफ्ट क्यों लिया था? जबकि वो रास्ता थोडा ऊबड़-खाबड़ था. मैंने कहा मुझे जीवन में असुविधाएं पसंद है इस बात पर रास्ता कोई ख़ास खुश नही हुआ मगर उसी रास्ते पर खड़े आवारा घास ने मुझसे गले मिलकर कहा तुम मेरे सबसे अच्छे दोस्त हो.
‘आवारगी’

©डॉ. अजित 

Sunday, December 17, 2017

मायालोक

वो एक मायावी स्त्री थी।
मायावी इसलिए नही कि उसकी बातों में कोई इंद्रजाल था मायावी इसलिए कि उसको देखकर अलग सम्मोहन होता था और सुनकर अलग।
मैं जब उसको अपने नाखुनों को तराशते हुए देखता था तब मैं जान पाता था कि कोई तीव्रता कलात्मक रूप से कैसे खूबसूरत हो सकती है आप खुद चाहे कि वो आपके गर्दन का ग्लेशियर तोड़कर पर पीठकर कुछ नदियों के गलियारें बना दें।
उसकी हंसी में नाराजगी और नाराज़गी में हँसने की तमाम वजह मौजूद रहती थी उसकी आँखों के नीचे गहरे डार्क सर्कल बने हुए थे मैंने जब पढ़ी पढ़ाई बातों के हिसाब से उसको कहा कि ये डार्क सर्कल स्ट्रेस से बनते है तो वो मेरी इस बात पर ठहाका मारकर हंस पड़ी और बोली कम से कम तुम इन पढ़े लिखे बौड़म लोगों में मत शामिल हो। आंखों के नीचे डार्क सर्कल स्ट्रेस से नही सपनों के अलावा में मुस्कान सेकनें से बनते है मगर ये बात कभी कोई स्त्री तुम्हें नही बताएगी वो स्ट्रेस वाली स्थापना से खुद का तादात्म्य स्थापित करके तुम्हारी बात की पुष्टि कर देगी।
उसने एकदिन अपनी आंख से थोड़ा काजल लिया और मुझसे कहा क्या तुम इसका स्वाद बता सकते हो मुझे लगा काजल का क्या स्वाद होगा मैनें कहा काजल तो बेस्वाद होता है इस बात पर वो फिर हंस पड़ी और बोली, क्या तुमनें कभी चखा है किसी स्त्री की आंखों का काजल? मैनें कहा नही। फिर उसने चखने के लिए सहमति नही दी मगर वो मेरी आँखों में डर को पढ़ चुकी थी उसने मुस्कुराते हुए कहा- काजल के स्वाद से डरता हुआ पुरुष मुझे सुंदर लगता है क्योंकि यहां वो अपनी सीमा को स्वीकार करता है। कुछ ही दुःसाहसी स्त्री का काजल का स्वाद चख कर उसका स्वाद बता पाते है क्योंकि क्या तो यह मनुष्य को मौन कर देता है या फिर विद्रोही।
उसकी पैर की अंगूठे के नजदीक वाली उंगली अंगूठे से बड़ी है मैंने उसे देखकर एकदिन अंदाजन कहा कि तुम स्वेच्छाचारी हो उसने कहा यदि यह तुम्हारा अनुमान है तो मैं इस पर कुछ नही कहूंगी मगर यदि यह तुम्हारा अनुभव है तो मैं कहूंगी यह सच है।

#मायालोक

©डॉ. अजित

Monday, December 11, 2017

‘बारिश के वजीफे’

बारिश का अलगोजा बड़ी मद्धम तान  छेड़ रहा है. इसके सुर बादलों की गोद में बिखरे पड़े हैं. बारिश जब हंसती है तो हवा थोड़ी उससे चिढ़ जाती है और बूंदों को अधिकतम दूरी पर पटक देती है. बूंदे इस बात पर नाराज़ नही होती है बल्कि खुश होती है क्योंकि इस बहाने से उन्हें अपनी सखी सहेलियों को दूर से देखकर जोर से चिल्लाकर आवाज़ लगाने का सुख मिलता है.
इस हल्की फुलकी बारिश में तुम अपनी खोयी हुई चीजें तलाश रही हो ये भी एक अजीब संयोग है कि पुरानी चीजों को तलाशते वक्त तुम एक नया गाना गुनगुना रही हो उस गाने को सुनकर बूंदों को अपने गीत थोड़े अरुचिकर लगने लगते है इसलिए वो थोड़ी देर के लिए थमकर तुम्हें देखने लगी है. मैं मन ही मन कहता हूँ कि बारिश थम गई है मगर असल में बारिश तुम्हें देखने के लिए रुकी हुई है जैसे ही तुमनें गाना बदला बूंदे जोर से हंसी और फिर से तेज बारिश शुरू हो गई है.
मैं तुम्हारी अंगडाई में छिपा इन्द्रधनुष देखता हूँ मगर इधर रौशनी जरा कम है इसलिए उसके आधे रंग मेरी एक आँख देख पाती है और आधे रंग दुसरी. मैं सोचता हूँ कि इन बूंदों की एक फुहार तुम्हारी पलकों के छज्जे पर आकर बैठ गई है और तुम अपनी गति से पलक झपकती जा रही हो, मैं तुम्हें थोड़ा विलंबित करना चाहता हूँ मगर मैं बूंदों के गुप्तचर के रूप में फ़िलहाल तुम्हें मुखातिब नही होना चाहता हूँ. इसलिए चुपचाप उस फुहार को आंसुओं के जल में मिलता देखकर एक विचित्र से संतोष से भर जाता हूँ.
बारिश की बात हो और चाय की न हो ऐसा करना कुफ्र होगा इनदिनों अकेले चाय बनाता हूँ अब मुझे खराब चाय और अच्छी चाय में भेद करने की आदत नही रही.अब मैं चाय पीता हूँ तो उसके गुणधर्म पर कोई चर्चा नही करता मुझे लगता है मेरी ये आदत भी तुम्हारे साथ ही चली गई. मुझे याद है एक बार मैंने चाय पीते हुए कहा था कि चाय मुझे एक बिछड़ी हुई प्रेमिका लगती है. इस पर तुमने हंसते हुए पूछा था कि और शराब? मेरे पास तब इस सवाल का कोई ठीक-ठीक जवाब नही था मगर अब है. शराब एक रंजिश की तरह है जो गाहे-बगाहे बदला लेने आती रहती है. दोस्त और दुश्मन के बीच का कोई रिश्ता अगर होता हो तो शराब फिलहाल वही है मेरे लिए.
बारिश की बूंदे देख मैं चाय और शराब दोनों को भूल गया हूँ मैंने हवा को महसूसने के लिए अपना हाथ खिड़की से बाहर निकाला तो पाया हवा थोड़ी सर्द जरुर है मगर वो इतनी सर्द बिलकुल नही कि तुम्हारी यादों की बुक्कल खोलने का ही मन न करें.
इसलिए फिलहाल मैं देहरी पर बैठकर बारिश को विदा गीत सुना रहा हूँ मगर वो तुम्हारी खोयी हुई चीजों को तलाशने के कभी इस दर तो कभी उस दर भटक रही है मैं उनकी बेचैनी देख और समझ रहा हूँ फिलहाल तुम्हें उनकी कोई खबर इसलिए नही है क्योंकि ठीक इसी वक्त तुम बादलों को देखकर अनुमान लगा रही हो कि ये बारिश कब थमेगी?
जब बारिश थम जाए समझ लेना मैंने फिर से तुम्हें याद करना शुरू कर दिया है.
‘बारिश के वजीफे’

© डॉ. अजित 

Saturday, December 9, 2017

ईश्वर और प्यार

दृश्य एक:
चर्च की बेल्स अभी बजते-बजते थमी है। प्रेयर का मॉर्निंग सेशन खत्म हो चुका है। मनुष्य चुप है मगर कामनाओं,प्रार्थनाओं और ईश्वर में गहरा सम्वाद चल रहा है। ईश्वर ने अपने अनेक प्रतिरूप बनाए मगर फिर भी उसके कान पर्याप्त नही पड़ रहे है। मनुष्य मौन है मगर चर्च के अंदर भारी कोलाहल है।
फादर बाइबिल हाथ मे लिए खड़े है मगर उनके हाथ बंधे हुए है उनके आशीर्वाद में कागज की खुशबू है मगर वो जीसस के भरोसे रोज़ आशीर्वाद बांट देते है। जीसस ने अब उन्हें आशीर्वाद देना बंद कर दिया है।
एक खत आज मदर मेरी के नाम मिला है फादर उसे पढ़ रहे है खत की भाषा से यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि खत स्त्री ने लिखा है या पुरुष ने। यह खत मनुष्य के दुःखों के वर्गीकरण की बात करता है और ईश्वर पर सन्देह करता है। ईश्वर इस बात पर संतुष्ट है कि ईश्वर पर सन्देह करने की बात उसे चर्च के माध्यम से पता चली है।
फादर के पास खत का कोई जवाब नही है इसलिए वो इसे जीसस के कदमों में रख देते है जीसस खत पढ़ना चाहते है मगर वो खुद सलीब पर टँगे है इसलिए मनुष्य के रोष की बात शब्दों की यात्रा तय करके वही समाप्त हो गई है।

दृश्य दो:
कैथरीन अपने प्रेमी से पूछती है
क्या तुम प्यार को जानते हो?
वो जवाब देता है मैं प्यार को जानने की कोशिश में हूँ!
वो फिर दुसरा सवाल करती है
क्या तुम ईश्वर को मानते हो?
वो जवाब देता है मैं ईश्वर को मानने की कोशिश में हूँ
दोनों सवाल एक दुसरे से भिन्न है
दोनों में कोशिश एक कर्म है जो घटित हो रहा है
कैथरीन अब कोशिश को समझना चाहती है
मगर इसके लिए कोई सवाल नही करती है
वो अपने प्रेमी का माथा चूमती है और कहती है
कोशिश करो कि जल्द दोनों को जान जाओ
वो पूछता है क्या तुमनें दोनों को जान लिया है?
कैथरीन थोड़े आत्मविश्वास से जवाब देती है
मैंने जानने कभी कोशिश नही की
मैं ईश्वर और प्यार को प्रक्रिया के तौर पर शायद ही कभी जान पाऊँ
हां ! तुम परिणाम के तौर पर
ईश्वर और प्यार को जरूर जान लेना
मैं तुम्हारे अनुभव से दुनिया के अनुभव का मिलान करूंगी
ईश्वर और प्यार दोनों को समझने का मेरा यही तरीका है
दोनों में मेरी दिलचस्पी बस इतनी है।
अब कैथरीन और उसका प्रेमी प्यार और ईश्वर से साक्षात्कार के अपने-अपने तरीके के अनूठेपन पर मुग्ध होकर एक दुसरे के लगे लगते है और विदा लेते है।

©डॉ. अजित

Tuesday, December 5, 2017

देवता का मनुष्य होना

दृश्य एक:
ऋषि पुत्री विहार कर रही है. यौवन के अपने कौतूहल है. वो फूलों को देखती है और उन पर मंडराते भंवरों को अपलक निहारती है. वो नही चाहती है कि उनकी आवृत्ति में कोई व्यवधान उत्पन्न हो. मंद-मंद हवा बह रही है मगर हवा लौटकर वापस आने में इतना विलम्ब कर देती है कि फिर हवा की जरूरत समाप्त हो जाती है.
ऋषि पुत्री सामवेद का एक मन्त्र गीत की शक्ल में गुनगुना रही है यदपि यह यज्ञ का मन्त्र है मगर उसके कोकिला कंठ से इस मन्त्र को एक सुगम गीत में परिवर्तित कर दिया है. वो रास्ते से छोटी-छोटी कंकर उठाती है और बार-बार अपनी मुट्ठी में उन्हें बंद करके उनकी मन ही मन गणना करना शुरू कर देती है. यह एक विचित्र खेल वो खेल रही है जिसमें खुद ही खुद की परीक्षा ली जाती है.
इस अरण्य में एक मीठा पानी का सोता बहता है वो आज वहां नही जाएगी बल्कि वो आज अपनी प्यास को लेकर वन में भटकना चाहती है.ऐसा करके वो अपने हृदय स्पंदन में मधु के अनुराग को देखना चाहती है. उसी गति देख अनुमान लगता है कि वो आज खुश है मगर वास्तव में वो आज न खुश है और न दुखी. वो अनजान रास्तों से गुज़र रही है क्योंकि आज उसे कहीं पहुंचना नही है.

दृश्य दो:
ईश्वर के सम्मुख उपेक्षित देवता एक अधियाचन लिए खड़े है. उनके अंदर इस बात का रोष है कि देवत्व होने के बावजूद उनका जिक्र मृत्यु लोक में मात्र किसी मन्त्र या किसी ग्रन्थ तक सिमटकर रह गया है. बहुधा मनुष्य उनका नाम और उनकी शक्तियों से अपरिचित है. न कोई उनका आह्वाहन करता है और न ही उनका विर्सजन होता है. देवलोक में उनका उपेक्षा से भरा एकांत उनके अंदर उद्गिग्नता और रोष भर रहा है. जब उनकी शक्तियों का कोई उपयोग ही नही है और न ही उनसे कोई भयभीत महसूस करता है तो फिर वें उन शक्तियों का क्या करें? आज वो ईश्वर को अपना देवत्व लौटाने के लिए आए है. उन्हें मनुष्य अपने से अधिक आकर्षक दिखता है जो अपनी इच्छा इसे मनुष्य,देवता और यहाँ तक ईश्वर के तरह पेश आता है.
ईश्वर के पास उनकी शंकाओं का कोई ठीक-ठीक समाधान नही है वो उन्हें शास्त्र के किसी तर्क से संतुष्ट नही कर सकता है यह बात ईश्वर ठीक से जानता है. देवताओं के उपेक्षाबोध को तोड़ने के लिए ईश्वर उन्हें मनुष्य बनाने का खतरा नही लेना चाहता है क्योंकि उसके बाद खुद ईश्वर की सत्ता को चुनौति मिलने की संभवाना बढ़ जाती है.
ईश्वर पूजा, प्रार्थना, वरदान शक्ति से वंचित देवताओं से कहता है कि तुम मनुष्य की तरह व्यवहार कर रहे हो जबकि तुम देवता हो इस पर देवता हसंते हुए कहते है कि आप भी मनुष्य की तरह व्यवहार कर रहे है जबकि आप तो स्वयं ईश्वर है !
ईश्वर अब चुप है मगर देवता उसकी आँख में प्रत्युत्तर की अपेक्षा से झाँक रहें है अंत में ईश्वर ने ध्यान के नाम पर आँख बंद कर ली और देवताओं में हार कर मनुष्य की आँखों में उसी उम्मीद से देखा आरम्भ कर दिया.

© डॉ. अजित  

Monday, December 4, 2017

नीदरलैंड की सुबह

दृश्य एक:
नीदरलैंड की एक दोपहर है मगर ये दोपहर शाम और सुबह के मध्य टंगी दोपहर नही है. धूप बढ़िया खिली है मगर कितनी देर खिली रहेगी इस बात का कुछ पता नही है. पार्क में एक बच्चा खेल रहा है और उसे दो महिलाएं देख रही है इस घटना में कोई नूतनता नही है मगर दोनों बच्चें को खेलता देखकर खुश है. यह बच्चा इन दोनों महिलाओं में से किसी का नही है. एक प्रेमी युगल एक दुसरे का हाथ थामे चल रहा है. अचानक से लड़की ने लडके का माथा चूमते हुए कहा तुम सूरज की तरह हमेशा मुझे रौशनी देते रहना.लड़का खुद को सूरज नही चाँद समझता है इसलिए वो एक फीकी मुस्कान से हंसता है इस बात पर लड़की हैरान नही है मानो उसे खुद के कथन की असत्यता को पहले से बोध था.  
दृश्य दो:
स्ट्रीट फ़ूड की एक छोटी सी दूकान है जिसे एक बुजुर्ग महिला चलाती है. दो लड़कियां वहां आती है और उससे पूछती है कि आप कितना कमा लेती है इससे? बुजुर्ग महिला हंसते हुए कहती है बस उतना जितने में मुझसे हंसते हुए सोचना न पड़े. इस जवाब को समझने के लिए अभी दोनों लड़कियों की उम्र कम है इसलिए वो पास्ता ऑर्डर करके स्टूल पर बैठ जाती है. पास्ता खाते हुए दोनों बातें कर रही है. एक लड़की कहती है कि दुनिया में मनमुताबिक मिलना आसान काम नही होता है दुसरी इस पर जवाब देती है कि बेहद आसान होता है बस हमें पता होना चाहिए कि असल में हमें चाहिए क्या? ये बात बुजुर्ग फ़ूड वेंडर भी सुन रही है वो कहती है क्या तुम्हें फिलहाल पास्ता ही चाहिए था? दोनों इस बात पर हंस पड़ती है और कहती है शायद नही.
दृश्य तीन:
क्रिस्टीन को प्यास लगी है उसके पास पानी है . वो एक कैफे में दाखिल होती है और एक पानी की बोतल खरीदती है. पानी को पीने से पहले वो एक बीयर केन लेती है और बाहर निकल जाती है. प्यास अभी भी लगी है मगर उसके पास बीयर और पानी दो तरल पदार्थ है. वो पहले एक बीयर केन पीती है अब उसे पानी कि प्यास नही बची है मगर बोतल वो साथ लिए घूम रही है. वो सोचती है कि जीवन में विकल्प हमेशा हमें हमारी पहली ख्वाहिश से दूर कर देता है. उसका मूल्य कम हो जाता है वो हमारे साथ होकर भी किसी काम का नही रहता है. क्रिस्टीन पानी की बोतल से मुक्ति चाहती है मगर उसमें उसका निवेश शामिल है इसलिए फिलहाल उसे साथ लिए घूम रही है . क्रिस्टीन को अपनी उस प्यास पर संदेह होता है जो पानी की बजाए बीयर से बुझ गई मगर फिलहाल उसे अच्छा लग रहा है इसलिए पानी कि बोतल कोई बोझ नही है. जब मनुष्य को अच्छा लगता है तब वह हर किस्म के बोझ को भूल जाता है यह सोचकर वो एक घूँट पानी पीती है वो भी बिना प्यास लगे ही.

© डॉ.अजित 

Sunday, December 3, 2017

‘बेपते की चिट्ठी’

तुम किस तरह से जीवन में आए थे और किस तरह से जीवन से चले गए इस बात को यदि मुझे समझाने की दृष्टि से कहने के लिए कहा जाए तो मेरा शब्दकोश एकदम निष्प्रयोज्य सिद्ध होगा. मेरे पास कोई ऐसा प्रतीक और बिम्ब नही है जिसके माध्यम से मैं तुम्हारे आने और तुम्हारे जाने की घटना को ठीक ठीक ढंग से बता सकूं.
कभी लगता है कि तुम एक स्वप्न की तरह आए और एक यथार्थ की भांति की चले गए मगर दुसरे ही पल मुझे लगता है कि तुम एक यथार्थ की तरह जीवन में शामिल हुए और स्वप्न की भांति अपनी विलुप्त हो गए. तुम्हारा आना न किसी प्रार्थना का परिणाम था और और तुम्हारा जाना न मेरी किसी सायास गलती का परिणाम है.
तुम्हारा आना कभी कभी किसी दैवीय हस्तक्षेप की तरह लगता है जो मुझे यह बताने आया हो कि जीवन की हर समस्या का समाधान आंतरिक होता है बाहर से हम केवल कुछ अंशो में प्रेरणा हासिल कर सकते है. तुम्हारा जाना मुझे किसी ऋषि के श्राप के जैसा लगता है जो अचानक ही मेरी किसी असावधानी से नाराज़ होकर मुझे दे दिया गया हो.
फ़िलहाल मैं तुम्हें देव और असुर,वरदान और श्राप दोनों से मुक्त रखना चाहती हूँ.तुम एक औसत मनुष्य थे मगर अपने औसतपन में भी तुम्हारे अन्दर आत्मीयता बहुत सघन रूप से विद्यमान थी. तुम उदासी का अनुवाद करना जानते थे इसलिए तुम्हारे सामने मुझे कभी अभिनय नही करना पड़ा.
तुम मुस्कानों पर ऐसी टीका कर सकते थे कि खुद की आँखों से खुद की मुस्कान देखने की एक अदम्य प्यास जाग जाती थी. ऐसा नही है कि तुम्हारे पास मेरे सारे दुखों के ज्ञात समाधान थे मगर इतना जरुर है कि तुम्हें यह ठीक-ठीक पता था कि दुखों को कैसा अकेला छोड़कर उनको तड़फते हुए देखा जा सकता है. तुम्हारे पास सुख का यह बेहद मौलिक किस्म का संस्करण था.
तुम सुख के एक खराब भाष्यकार थे मगर फिर भी तुम्हारे पास सुख एक ऐसी परिभाषा था कि मैं अक्सर इस बात को लेकर कन्फ्यूज्ड हो जाती थी कि मैं सुख को दुःख कहूं या दुःख को सुख. मैंने गाहे-बगाहे तुम्हारे मूड की परवाह किए बगैर तुमसे बहुत से ऐसे सवाल किए जो मुझे नही करने चाहिए थे मगर अब मैं तुम्हारे धैर्य की एक मौन प्रशंसक बन गई हूँ.
जिस दिन तुम मिले थे ठीक उसी दिन मुझे इस बात का बोध हो गया था कि तुम्हें सहेज कर रखना मेरे बस की बात नही है और एकदिन मैं तुम्हें जरुर खो दूँगी. और एकदिन वही हुआ मैंने तुम्हें अचानक से खो दिया. अच्छी बात यह रही कि मैंने कभी तुम्हारे ऊपर अनुराग की दृष्टि नही रखी अन्यथा तुम्हारी अनुपस्थिति में मेरे लिए खुद से बात करना बेहद मुश्किल हो जाता. मगर अनुराग की अनुपस्थिति का यह अर्थ बिलकुल नही था कि मुझे तुम पसंद नही थे. मुझे तुम पसंद थे और ठीक उतने पसंद थे जितनी मुझे अपनी एक कलम पसंद थी जिसमें बार-बार मैं रिफिल कराती थी. दरअसल तुम मेरे एक मौलिक किस्म के हस्ताक्षर से थे जिसकी एक कलात्मक ख़ूबसूरती थी मगर मैंने जिसकी मदद से मैंने कभी लाभ के लिए कोई धन आहरित नही किया. तुम लाभ-हानि, जीवन-मृत्यु, यश-अपयश से परे थे मगर मैं तुम्हें विधि हाथ नही कहना चाहती क्योंकि विधि के हाथ अक्सर बेहद छोटे होते है.
तुम एक आकाश थे जो थोड़ी देर सुस्ताने के लिए धरती पर आए थे तुम्हारी जरूरत इस ग्रह जैसी अनेक धरतियों को है. तुम एक चित्र में शामिल होते हो तो दुसरे चित्र से अनुपस्थित.
हीरा है सदा के लिए यह अक्सर हम सुनतें आए है मगर तुम सदा के लिए नही थे  इसलिए तुम हीरे से भी अधिक मूल्यवान थे. तुम्हारा होना अब एक चमत्कार सरीखा लगता है और तुम्हारा न होना इस बात की पुष्टि करता है कि कलयुग में कोई चमत्कार कभी घटित नही होता है.
तुम अपनी गति से शामिल हुए और अपनी लोक की गति से विलग यह कोई अनूठी बात नही है मगर अनूठी बात यह है कि तुम जब तक थे अपनी पूरी सम्पूर्णता में थे तुम्हें खोने के भय को मैंने कभी अपने मन में स्थान नही दिया उसका एक लाभ यह हुआ कि अब जब तुम नही हो तो मैं तुम्हें याद करते हुए भावुक नही होती बल्कि तुम्हारी बातें दोहरा कर मुझे एक अलग किस्म का आत्मविश्वास मिलता है और उसी आत्मविश्वास के बल पर मैं तुम्हारे खोने की बातें हंसते हुई बता रही हूँ.जबकि मैं यह जानती हूँ कि मेरे पास तुम्हारा नया पता नही है.
तुमनें एक यात्रा की और तुम्हारे साथ एक यात्रा मैंने भी की इस यात्रा की स्मृतियाँ मुझे हमेशा यह बात याद दिलाती रहेगी कि एक मनुष्य से प्रेम करने के हज़ार बहाने हो सकते है और उसे भूलने का एक बहाना भी कभी-कभी कम पड़ता है. मैं तुम्हारे साथ रहकर प्रेम और घृणा का भेद समझ पायी इसलिए अब मुझे प्रेम की आवश्यकता नही है. ये बात कहने का आत्मबल मेरे पास तब नही था जब तुम मिले थे.
तुम्हरा मिलना मेरे लिए खुद से मिलने जैसा है और तुम्हारा बिछड़ना भी मुझे मेरे और नजदीक ले आया है इसलिए मेरे मन में कोई खेद या संताप अब शेष नही है. मुझे बोध है कि तुम ठीक इसी वक्त किसी दुसरे वक्त और हालत से लड़ते शख्स की मदद कर रहे होंगे क्योंकि तुम इस दुनिया में इसी लिए आए हो.

‘बेपते की चिट्ठी’

© डॉ. अजित 

Wednesday, November 22, 2017

चिट्ठी-पत्री

प्रिय सखी,
मैं यह नही कहता कि दुनिया में सब कुछ यथार्थ से अभिप्रेरित होता है. कल्पना खुद में एक बहुत बड़ा सच है.कल्पना और यथार्थ में कभी-कभी भेद मिट जाता है, जीवन में एक समय ऐसा आता है कि जब कल्पना यथार्थ लगने लगती है और यथार्थ कल्पना में रूपांतरित हो जाता है. मैं तुम्हारा कोई परामर्शदाता भी नही हूँ कि जो अपने अनुभवों से तुम्हारी अनुभूतियों का मूल्यांकन करके तुम्हें कुछ सही-सही सलाह दे सकूं. मैत्री की अपनी सीमाएं होती है एक समय के बाद जो मित्र आपको सबसे अधिक जानने लगता है, उससे भी एक अजीब सा डर लगने लगता है इसलिए भी मैं तुम्हें कुछ कहने से बचता हूँ.
मनुष्य जितना व्यक्त होता है उससे कई गुना अव्यक्त रह जाता है, और ऐसा रहना उसके हित के लिए अस्तित्व का एक नियोजन होता है. जीवन एक बहुफलकीय चीज़ है इसलिए किसी भी वस्तु,घटना या रिश्तें के अपनी-अपनी सुविधा की दृष्टि से अनेक पाठ हो सकते है. मेरी बातों में पलायन के प्रशिक्षण की ध्वनि है. हो सकता है तुम्हें यह भी लगे कि मैं तुम्हें अपने मन की सबसे आदि अभिलाषा का पीछा करने से हतोत्साहित कर रहा हूँ. हो सकता है तुम मेरी बातों से इस कदर चिढ़ जाओं कि तुम्हें उनमें से एक कमजोर पुरुष की गंध भी आने लगे. ये बात मैं ठीक-ठीक जानता हूँ कि दुनिया कमजोर से कमजोर स्त्री भी एक कमजोर पुरुष को पसंद नही करती है यह बात हालांकि विमर्श की दृष्टि से पूर्वाग्रह से युक्त लग सकती है मगर यह एक मनोवैज्ञानिक सच है.
मन की अपनी बड़ी विचित्र दुनिया है ये कभी-कभी अप्राप्य को पाना चाहता है तो कभी अप्राप्य को पाकर भी एकदम अवाक खड़ा रह जाता है. हम एक ही समय एक व्यक्ति से प्यार भी कर रहे होते है और उसे नापसंद भी. ऐसा केवल मनुष्यों के साथ संभव है कि मनुष्य की चाहना एक समय के बाद रूपांतरित हो जाए और उसकी तलाश अपनी दिशा भटक कर उस स्थान पर केन्द्रित हो जाए जो खुद में दिशाविहीन हो.
मैं तुम्हें जानने का दावा नही करना चाहता क्योंकि यह संभव नही है कि कोई मनुष्य किसी दुसरे मनुष्यों को ठीक-ठीक जान जाए, जब हम यह कहते है कि मैं तुम्हें समझता हूँ तो उसका एक तात्कालिक अर्थ यह होता है मैं फिलहाल तुम्हें समझ रहा हूँ. समझ की यह क्षणिकता बाद में कितनी स्थायी रहेगी यह बात इतनी ही अनिश्चित होती  है जितनी बादलों को देखकर बारिश के होने की भविष्यवाणी करना.
मैं तुम्हें सावधान नही कर रहा हूँ और न ही किसी मानवीय समबन्ध से डरा रहा हूँ. हम मनुष्य है इसलिए यह सहज और स्वाभाविक है कि हम कुछ सपनें देखें और सपनें देखने की कोई तयशुदा सीमा नही होती है. बल्कि मैं तो यह कहूंगा हर ज़िंदा आदमी को ऐसे सपने जरुर देखने चाहिए जिनकी इजाज़त कल्पना और यथार्थ दोनों ही नही देते है.
तुम प्रेम पर मेरा अनुभव सुनना चाहती हो, तो सुनो ! प्रेम पर मेरा अनुभव प्रभाव की  दृष्टि से चमत्कारिक लग सकता है मगर उसका प्रभाव और शिल्प मूलत: एक गल्प है. प्रेम इतना निजी होता है कि इसके अनुभव और अनुभूतियाँ एक समय के बाद दुसरे के लिए गल्प बन जाते है.  वस्तुत: सच यह है कि मेरे पास कुशाग्र प्रेम दृष्टि है जिसके जरिए मैं अपने आसपास पसरे प्रेम को पढ़ लेता हूँ और उसको अपनी शब्द शैली में संगृहित कर लेता हूँ. मैं प्रेम का दस्तावेजीकरण करता हूँ और क्यों करता हूँ? इसका सही-सही जवाब नही है मेरे पास. मैं अपनी स्मृतियों को हमेशा एक अयाचित सुख के धोखे में रखने का कौशल सीख गया हूँ इसलिए मैं सामान्य-सामान्य सी बातचीत को कविता की शक्ल दे सकता हूँ.
प्रेम मनुष्य को रूपांतरित कर देता है मगर यह रूपान्तरण खुद देखने के लिए मात्र प्रेम में होना एक अर्जित योग्यता नही होती है बल्कि जब आप खुद किसी के प्रेम में होते है तो आपकी दृष्टि का अधिकतम विस्तार पहले से निर्धारित हो जाता है इसलिए आपके देखे दृश्यों की उपयोगिता उस व्यक्ति के लिए कोई खास नही होती है जो प्रेम को समझना चाहता हो.
मैं तुम्हें प्रेम नही समझा सकता हूँ और मुझे लगता कोई भी किसी को प्रेम नही समझा सकता है.प्रेम को लेकर सबकी मान्यताओं के अपने बेहद निजी और अंतिम किस्म के संस्करण होते है और उसके लिए वही उसका सच होता है, इसलिए मेरा सच तुम्हारा सच कभी नही हो सकता है. तुम्हें अपने सच से खुद ही साक्षात्कार करना होगा और जिस दिन यह बोध घटित हो गया उसके बाद मुझे नही लगता कि तुम्हारे पास प्रेम को लेकर कोई सवाल शेष बचेगा. इसके बाद तुम प्रेम को गा तो सकोगी मगर प्रेम को किसी को सुना न सकोगी.
इस चिट्ठी में मेरी बातें बेहद शुष्क और वैचारिक लग रही है मगर मैंने अपनी बात कहने के लिए कोई अतिरिक्त सतर्कता नही बरती है. प्रेम और रिश्तों से जुडी बातें पहले मुझे बहुत भावुक कर देती थी और मैं शब्दविहीन होकर अक्सर सोचा करता था कि कोई कैसे अचानक से किसी का सबसे प्रिय हो जाता और फिर कैसे वो उसकी दुनिया से एकदिन विदा भी हो जाता है. मैं पहले यह भी सोचता था कि जिससे आप प्रेम करते है या जो आपसे प्रेम करता है उसकी मृत्यु एक ही दिन होनी चाहिए. किसी के जाने पर कोई एक अकेला क्या करेगा? और इन सब बातों को सोच-सोच कर मैंने कई-कई रातें यूं ही जागते हुए बिताई है.
आदतन मेरे खत लम्बे हो जाते है मुझे आज भी संक्षिप्त रहने और कहने का कौशल नही आया है, शायद यही मेरे ज्ञात दुखों की एक बड़ी वजह है.मगर मैं तुम्हें कहना चाहता हूँ और किस अधिकार से कह रहा हूँ यह भी नही जानता हूँ कि तुम जीवन में भावनाओं के अपव्यय से हमेशा बचना और जीवन में अधिकार और प्रेम बड़े होश से किसी के साथ बरतना.
तुम बेहद निर्मल चित्त की हो इसलिए मैं अवांछित ढंग से तुमसे बड़ा होने का अभिनय कर रहा हूँ जबकि सच बात तो यह है कि मैंने बहुत सी बातें खुद तुमसे ही सीखी है. मेरे पास कुछ छोटी-छोटी व्याख्याएं है उन्हें अपने अनुभवों के भाव प्रकाश के साथ तुम्हें सौंप रहा हूँ मुझे उम्मीद ही नही पूरा भरोसा है कि तुम उनको विस्तार देकर जीवन को अपनी अनुभूतियों से सम्पन्न करोगी और कोई अनुभव तुम्हें आहत नही करेगा बल्कि हर अप्रिय अनुभव तुम्हें दीक्षित करेगा और और प्रिय अनुभव तुम्हारें अभौतिक सौन्दर्य में इजाफा करेगा.
शेष फिर...
तुम्हारा अल्पज्ञानी मित्र,
डॉ. अजित


Monday, November 20, 2017

‘फुटकर नोट्स’

तुमनें कभी दो स्त्रियों को आपस में लड़ते हुए देखा है? उनका पारस्परिक आरोपण के शब्द चयन पर कभी गौर किया है? ऐसा प्रतीत जरुर होता है कि वो बाहर की दुनिया के किसी शख्स से लड़ रही है मगर वास्तव ये लड़ाई बाहर की बजाए कई गुना आंतरिक है. बल्कि मैं यह कहूँ कि ये लड़ाई खुद की खुद के साथ अरसे से चल रही होती है बाहर की लड़ाई एक विस्फोट मात्र है. तात्कालिक रूप से आहत होकर फट पड़ना इसे ही कहा जाता है.
कोई भी लड़ाई एकदिन की किसी घटना का परिणाम कभी भी नही होती है हर लड़ाई की भूमिका बहुत समय पहले लिखी जा चुकी होती है. हम जब वास्तव में लड़ाई देखते है तब वास्तव में वो लड़ाई नही होती वो लड़ाई से मुक्ति की एक प्रतिक्रया भर होती है. सदियों से किस्म-किस्म की लडाईयां स्त्रीमन में चल रही है एक पुरुष होने के नाते उन लड़ाईयों पर मुझे बात करने का कोई अधिकार नही है और मेरा ऐसा करना खुद में संदेहास्पद है. मैं खुद के प्रति बहुत क्रिटिकल होकर सोचता हूँ कि ऐसी लड़ाई क्या मैं चिन्हित करके समझ सकता हूँ? शायद नही. मेरे पास कुछ अनुमान है उन्ही के भरोसे मैं यह उपकल्पना बना रहा हूँ कि आपस में लड़ती हुई स्त्रियों की पहली लड़ाई खुद से होती है और दूसरी किसी अन्य से.  कोई मेरे इस उपकल्पना को निरर्थक भी सिद्ध कर दें तब भी मुझे खराब नही लगेगा क्योंकि बात यहाँ लड़ाई की है और मैं बुरा केवल प्यार की बातों का मानता हूँ .
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क्या तुमनें शोक में स्त्रियों का विलाप सुना है? तुम्हें आश्चर्य होता  है कि किसी अनजान और पराए के दुःख में भी वे एक रुदन भरे सुर कैसे विलाप कर लेती है? विलाप दरअसल विरेचन का एक हिस्सा है अरस्तु की माने तो हर त्रासदी का बोध के स्तर पर एक गहरा मूल्य है. स्त्रियों के विलाप में कोरी शास्त्रीयता तलाशना अति बौद्धिकता होगी मगर स्त्रियों का विलाप निज दुःख का बाह्य जगत के दुखों के साथ तादात्म्य स्थापित करने का एक अनियोजित उपक्रम है.
जीवन के समग्र मानचित्र में त्रासदियों के टापू प्राय: सभी के हिस्से आते है यहाँ मैं स्त्री-पुरुष के भेद में नही पड़ना चाहता हूँ मगर स्त्रियों के दुःख के टापू हमेशा आंसूओं के समंदर से घिरे नही होते है वहां एक निर्जन,नीरव शुष्क थार का भी अस्तित्व रहता है. दुःख में विलाप दरअसल उस शुष्कता में तरलता का एक संबोधन भर होता है.
वैसे भी दुःख का भाईचारा सुख से कई गुना बड़ा होता है वो अपने जैसे लोग बहुत जल्द तलाश लेता है. मैंने जब एक शोकातुर स्त्री को विलाप करते हुए सुना ठीक उसी दिन मैंने अपने जीवन से आत्महत्या के विचार को सदा के लिए विदा कर दिया. मैं अपने जाने के बाद कम से कम इतना विकट दुःख किसी की आँखों में नही देखना चाहता हूँ. स्त्रियों के विलाप में एक पसरी हुई नीरवता है जिसके शोर में हम दुःख को महसूस कर पाते है.
स्त्रियों का विलाप दुखों से संधि का नही दुखों से प्रतिशोध का प्रतीक है.
‘फुटकर नोट्स’
©डॉ. अजित


Wednesday, November 15, 2017

‘अतीत-प्रीत’

तुमसे मिलकर जज किए जाने का कोई खतरा नही था. मैं तुम्हारे गले लग सकती है और मुझे इस बात का भय नही था कि तुम ये न सोचने लगो कि कहीं मैं तुमसे प्यार तो नही करने लगी हो. तुम वास्तव में वैसे दोस्त थे जैसा एक दोस्त को होना चाहिए. हमख्याल न होने के बावजूद तुम हमजबां थे.
लिंगबोध और लिंगभेद पर इतने विमर्श मैंने पढ़ें है मगर तुम्हारे साथ रहकर मैंने पहले बार लिंग के बोध से वास्तविक मुक्ति महसूस की. तुमसे मिलकर मैंने जाना कि स्त्री और पुरुष केवल दो देह भर नही बल्कि देह के शिखर पर चढ़कर एक अलग दुनिया देखी जा सकती है जो हम असल में कभी नही देख पातें है.
ऐसा नही है मेरी तुमसे विशुद्ध लौकिक दोस्ती थी कभी-कभी मुझे तुम पर गहरा प्यार भी आता था मगर ये प्यार मेरे अंदर को ऑब्सेशन कभी पैदा नही कर पाया इस प्यार के लक्षण में अमूर्त रूप मातृत्व प्रेम की छाया हमेशा शामिल रही. मैं तुम्हें खोना नही चाहती थी इसलिए हमेशा चाहती रही कि तुम अपने बारें थोड़े सावधान रहो.
यह सावधानी तुम्हारे उम्र भर काम आनी थी क्योंकि मुझे पता था एकदिन मैं नही रहूँगी. हालांकि तुमने कभी भावुकतावाश भी मुझे बाँधने का प्रयास नही किया इसी कारण मैं कभी भी तुम्हारे पास से जा ही नही पायी. तुम हमेशा एक गहरी आश्वस्ति में रहे मुझे नही पता यह तुम्हारा किस किस्म का बोध था मगर मैंने रिश्तों को लेकर तुम्हें कभी आवेश में नही देखा.
मनुष्य सदियों से सही-गलत,पाप-पुण्य के मुकदमों में उलझा हुआ है वह एक पल में खुद को सही पाता है मगर दुसरे ही पल में खुद को दोषी समझने लगता है. परिचय और संबोधनों के लोकाचार के बाद भी अंतत: एक स्त्री या एक पुरुष का ही परिचय बचता है. मन के प्रोमिल भाव और अनुराग एक समय के दूषित या बासी लगने लगते है. मगर तुम्हें देखकर लगता है कि जीवन को यदि थोड़ी देर हम अकारण जीना चाहें तो उस थोड़ी देर के लिए हमेशा तुम्हारी जरूरत रहेगी. इस मामले में मुझे तुम्हारा कोई विकल्प कभी नजर नही आया और आता भी तो मैं तुम्हारे बदले कोई विकल्प कभी न चुनती.
ऐसा नही था कि तुम में सब कुछ बढ़िया ही बढ़िया था तुम में भी कुछ खराबियां थी मगर उन खराबियों के बारें में सोचने पर वो हमेशा तुम्हारे कद के सामने बौनी नजर आयी और फिर मुझे भी थोड़े खराब आदमी हमेशा से पसंद रहें है अगर दुनिया में सभी लोग अच्छे हो जाए तो ये दुनिया कितनी नीरस हो जाएगी फिर हम मनुष्यों के पास निंदा करने के विषय कहाँ से आएँगे?
आज भी मैं अतीत में नंगे पाँव टहल आती हूँ और मेरे पाँव जख्मी नही होते है उसकी एकमात्र वजह यही है कि मेरे पास अतीत के नाम पर शिकायतों का वन नही है और न ही मेरे पास उथले हुए एकांत की स्मृतियाँ है बल्कि मेरे पास एक बेहद जीवंत जीवन है जहां मैं तुम्हारी आँखों में आँखे डाल कर आसमां को चुनौति देते हुए कह सकती हूँ तुमसे गहरा और बड़ा दोस्त ठीक मेरे सामने है.

‘अतीत-प्रीत’

©डॉ. अजित   

Tuesday, November 14, 2017

आज जाने की जिद न करो

आज जाने की जिद न करो
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जिद भी एक अजीब शै है. कभी तुम्हें बुलाने के लिए हुआ करती है तो कभी तुम्हें रोकने के लिए दरम्यां होती है. प्रेम ने मुझे थोड़ा जिद्दी बनाया है. शायद जिद से जुडी मेरी कोई स्मृतियाँ बेहद कमजोर है इसलिए मुझे अपनी या तुम्हारी आख़िरी जिद याद भी नही है. फिलहाल मैं आधी धूप और आधी छाँव में लेटी हुई जगजीत सिंह को सुन रही हूँ वो गा रहे है ‘अब अगर आओ तो जाने के लिए मत आना, सिर्फ अहसान जताने के लिए मत आना’ इस गज़ल को सुनते हुए धूप धीरे सरक रही और मैं छाँव की कैद में खुद को खड़ा पा रही हूँ.
मुझे धूप और छाँव से ज्यादा फ़िलहाल तुम्हारी फ़िक्र है मगर मैं इस फ़िक्र को शिकायत की शक्ल में कतई नही रखना चाहती हूँ ,इसलिए मैंने शिकायतों को एक मीठी नींद सुला दिया है फिलहाल मैं आँखें मूंदे आसमान को देख रही हूँ आसमान मुझे यूं देख मुझ पर हंसता है उसकी हंसी के सहारे बादलों की छोटी-छोटी बच्चियां हवा को साथ लेकर टहलने के लिए निकल गई है. मेरे कान की बालियाँ गज़ल के बोझ से थोड़ी थक गई है इसलिए वो सो गई है मैंने उनको इसलिए सोने दिया वरना उनका शोर मुझे गज़ल और तुमसे दोनों से जुदा कर देता.
दिल अजीब सी जिद पर अड़ा है यह बात कहते हुए मैं एक लम्बी सांस छोड़ना चाहती हूँ मगर ऐसा करने से फिलहाल बच रही हो मेरे ऐसा करने से धरती की दिलचस्पी मेरी जिद को जानने में हो सकती है. मैं नही चाहती कि मेरी जिद के बारें किसी को कोई खबर हो.इस दौर में जीने के लिए मुझे थोड़ी अय्यारी थोड़ी मसखरी सीखनी पड़ी है. जानती हूँ तुम मुझे अब कभी हासिल नही होंगे और हासिल शब्द से तुम्हें हमेशा ऐतराज़ भी रहा है यह खुद में एक जिद है कि किसी को हासिल ही किया जाए.
बादलों की तरह मैंने तुम्हें उन्मुक्त गगन में अकेला छोड़ दिया है, अकेला जानबूझकर कह रही हूँ क्योंकि यह बात तुम भी जानते हो मेरे बिना तुम सदा अकेले ही रहोगे. ये तुम्हारा या मेरा नही बस समय का एक चुनाव है इसलिए फिलहाल मुझे प्रेम में संदेह करने की आदत से मुक्ति भी मिल गई है.
तुम्हें सोचने के लिए पहली दफा ऐसा हुआ कि मुझे आँखें बंद करनी पड़ी है वरना तुम्हारा चेहरा हमेशा मेरी आँखों के सामने रहा है. अब लग रहा है तुम सच में बहुत दूर चले गए हो इतनी दूर कि शायद ही अब कभी मैं खुली आँखों से तुम्हें देख सकूंगी.
मेरी धड़कनों ने तुम्हारे स्पर्शो को आज शाम मिलने के लिए बुलाया है मगर उनका कहना है कि मेरे सुर बिछड़ गए है इसलिए उन्हें संदेह है कि वो मेरे साथ रहकर यादों का झूला झूल सकेंगे. तुम्हें मेरी भावुक बातों से हमेशा ऐतराज़ रहा है मगर अब देखो जब सब कुछ छूट गया है तो मेरे और तुम्हारे पास केवल भावुक बातें ही बची है जिनके सहारें हम गुजरे हुए वक्त की आँख में काजल लगा सकते है.
गज़ल खत्म हो गई है मगर मेरे सामने तुम खड़े हो मैं फिलहाल तुम्हारे कस के गले लगना चाहती हूँ ऐसा करते हुए शायद मैं सिसक कर रो भी पडूं, ये गले लगना विदाई के लिए गले लगना नही है मैं बस चाहती हूँ कि थोड़ी देर के लिए कालचक्र को विलम्बित कर दूं और देहातीत होकर समय की देहरी से पार निकल कर तुम्हारा हाथ थामे उस दिशा की तरफ निकल जाऊं जिस देस से लोग कभी विदेश नही जाते.
जिद,जुनून या प्यार अब कुछ भी नही आता है याद बल्कि अब मेरे पास कुछ गल्प है जो मैनें नही बनाए है उन्होंने मुझे बनया है फिलहाल मैं उन्ही की दहलीज़ में बैठी हुई वक्त के कंकर बीन रही हूँ ये काम मुझे धूप ने सौंपा था मगर मैं इसे छाया को सौंप कर अपनी छाया में एकदिन विलीन हो जाऊँगी.
जानती हूँ यह बात थोड़ी उदास करने वाली है मगर मैं भी चाहती हूँ कि इस बात पर तुम्हें उदास हो जाओ और फिर मेरे और तुम्हारे बीच की जिद हमेशा के लिए मोक्ष पा जाए.
‘ थोड़ी सी जिद, थोड़ा सा जुनून’

©डॉ. अजित 

Wednesday, September 20, 2017

मील-मील स्टील

तीसरे पहर की चाय का वक्त है। उन दिनों स्टील के गिलास में चाय पीते थे। मुझे स्टील के गिलास मे कम दूध वाली चाय शिद्दत से याद आती है।
चाय अपने आप मे एक माया है। चाय बतकहियों की सबसे चुस्त गवाह है। चाय पीते वक्त जाम की तरह आंखों में देखने की कोई अनिवार्यता नही है आप नजरें इधर-उधर किए भी चाय पी सकते है।
चाय पर की गई बातों का यदि भाषा वैज्ञानिक अध्ययन करें तो उनका मनोवैज्ञानिक बन जाना एकदम स्वाभाविक है।
चाय पर जो विषय छिड़ते है उनके पुरातात्विक सन्दर्भ कोई कुशल अध्येता उपनिषदों में भी खोज सकता है।
चाय मनुष्य के मामूलीपन का एक तरल दस्तावेज़ है जिसे पढ़ने के लिए सांसे गर्म करनी पड़ती है।
तुम्हारे हाथ की बनी चाय को मात्र पीना नही उसे जीना पड़ता है ये चाय कोई उत्तेजक पेय नही बल्कि तुम्हारी हाथ की बनी चाय जीवन के निष्फल आक्रोशों को शांत करने का एक दिव्य आयोजन है।
तुम्हारे हाथ की बनी चाय का अपना एक अरोमा विज्ञान है ये विभिन्न गन्धों का एक आकस्मिक फ्यूजन है उसके बाद चाय की स्मृतियां को खुद को माफ करने के लिए गवाह के तौर पर उपयोग किया जा सकता है।
तुम्हारे साथ और तुम्हारे हाथ की चाय पीने के बाद मैं सत्य के लिए दीक्षित हो गया हूँ अब जीवन की क्रूरतम सूचना मैं चाय पीते वक्त सुन सकता हूँ और अपनी सीमाओं का चिन्हीकरण कर सकता हूँ।
आज फिर स्टील की गिलास में चाय पीने का मन हो आया है, गिलास में चाय पीना यह बोध कराता है कि आप चाय के प्रेम में डूबे है और चाय को हर किस्म की सजावट से दूर रखना चाहते हो।
तुम्हें याद होगा चाय का गिलास थमाते हुए तुमने एक बार कहा था कि ध्यान से चाय थोड़ी गर्म है मगर मैं फिर भी बिना फूंक मारे पहली घूंट भर गया था। तब तुम्हें यह मेरी एक अच्छी आदत लगी थी मैनें जब इसका कारण जानना चाहा तो तुमने कहा कि मुझे अच्छी बात यह लगी तुम अपने अनुभव से सावधान होना पसन्द करते हो किसी के आग्रह और चेतावनी से नही।
चाय ने मुझे चैतन्य किया था और तुमनें मुझे शुभकामनाएं दी थी तुम्हारा चाय बनाने का कौशल अनुमान और अनुपात का दास नही था इसलिए चाय को लेकर तुम्हारा परफेक्शन का कोई दावा नही था।
तुम,चाय और वो समय आज भी जेहन में यूं ही अटका हुआ है न चाय ठंडी हुई है और न मैं ही चाय पीना भूला हूँ फिर क्या है जो ठहर गया है?
शायद वक्त ! मगर इसमें शायद लगा है इसलिए इस पर भरोसा नही किया जा सकता है। भरोसे की समीक्षा के लिए हम किसी दिन साथ चाय पीएंगे। वो दिन अभी तय नही है इसलिए वो दिन कैलेंडर का सबसे पवित्र दिन है ये बात मैं चाय पीते हुए कह रहा हूँ
उम्मीद है तुम मेरी इस उपकल्पना से जरूर सहमत होंगी ठीक वैसे जैसे तुम अपनी और मेरी चाय पीने की तलब से कभी सहमत हुआ करती थी।

©डॉ. अजित

'मील-मील स्टील'

Monday, August 28, 2017

#सुनो_ मनोरमा-5

आज सुबह से बारिश है. सुबह की बारिश में जब आँख खुलती है तो मेरी स्मृतियाँ मेरा थोड़ा साथ छोड़ना शुरू कर देती है फिर मैं खुद एकत्रित करता हूँ और कुछ करवटों के सहारे फिर से याद करने की कोशिश करता हूँ. मैं थोड़ा बदल गया हूँ पहले मैं बारिशों को कुछ इस तरह से याद रखता था कि हर बारिश के साथ मेरे पास एक किस्सा हुआ करता था अब मेरे पास केवल बारिश है. कई बार मेरा दिल तुमसे जुड़ी मेरी कुछ नाराजगियों को जोडकर देखना शुरू कर देता है मगर फिर भी मैं किसी निष्कर्ष पर नही पहुंच पाता हूँ, इसलिए मुझे तुमसे कोई शिकायत नही है. मैं इतना जरुर करता हूँ कि बारिश में अपनी कुछ शिकायतों की कागज़ की तरह तह बनाता हूँ उसे एक नाव की शक्ल दे देता हूँ उसके बाद मन के पतनाले के ठीक नीचे उसे अकेला छोड़ देता हूँ वो थोड़ी देर डोलती है फिर धीरे-धीरे बहती हुई दृश्य से ओझल हो जाती है.
मैं थोड़ी देर से आँख बंद करके पड़ा हुआ हूँ बारिश मेरे कान में आकर कुछ कहती है मगर मेरी आँख बंद है इसलिए मेरे कान की दिलचस्पी बारिश में बढ़ गयी है. बारिश मेरे कान पर पर सूखते हुए तुम्हारे स्पर्श देखती है मगर वो उनके लिए खुद एक छाता तान देती है बारिश तक नही चाहती कि नमी या तरलता के किसी आवेग में वो स्पर्श बह जाए मेरा कान यह देखकर थोड़ी हैरत में मगर मेरा नाक बारिश की इस कृपा के पीछे के कारण को ठीक से समझता है. आँख बंद करके जब मैं यह सब देख रहा हूँ फिर ऐसे में  बारिश को देखने के लिए मेरे पास न वक्त बचता है और मैं बहुत उत्साहित ही महसूस करता हूँ. हालांकि यह बात बारिश को खराब लगती है.
कल शाम मैं जब लौट रहा था मुझे रास्ते में एक आदमी मिला देखने में मुझे वो कोई यात्री लगा क्योंकि उसके पास सवाल बहुत थे. उसके सवालों की तुलना में मेरे पास जवाब कम थे मगर मैंने उसके सामने ऐसा प्रतीत नही होने दिया और उसके सवालों के बदलें उससे सवाल करने लगा. यह भी जवाबों से बचने का एक तरीका है जो मैंने कभी तुमसे सीखा था कल इस तरह से मैंने तुम्हें याद भी किया. मैं अपने मन की इस चालाकी पर बहुत मुग्ध तो नही था क्योंकि इसके कारण यात्री थोड़ा भ्रमित हो गया था. किसी यात्री को भ्रम में डालने की दुविधा से मैं काफी देर तक परेशान भी रहा हालांकि मैं उसको जाते वक्त यह कहा कि मेरी बात को अंतिम सत्य मत मानना मेरे पास केवल अनुमान है इसलिए जब भी कोई निर्णय करना तो अपने विवेक का जरुर प्रयोग करना.
जाते-जाते उसनें मुझे एक बात पूछी कि क्या कल बारिश होने की संभावना है? मैंने कहा बारिश के बारें में मेरे अनुमान प्राय: गलत साबित होती है इसलिए कुछ पक्का नही कह सकता हूँ मगर इतना जरुर है जिस दिन रात को आसमान को अच्छी नींद आती है उस दिन सुबह बारिश जरुर होती है वो मेरी इस काव्यात्मक बात पर हंसा मगर अच्छी बात है उसके फिर कोई सवाल नही किया.
शायद रात भर आसमान सोता रहा और बादलों ने अपने षड्यंत्रों से बूंदों को धरती के पास भेजने के लिए राजी कर लिया इसलिए सुबह से लगातार बारिश हो रही है. रह-रह कर बादल भी गरज रहे है मगर मैं इसे बादलों की गुस्ताखी समझता हूँ जब बूंदे धरती पर फिर बिखर रही होती है बादलों को आदर से उनको देखना चाहिए बादलों का शोर बूंदों के उत्सव में एक अवांछित बाधा है. बादल मुझे कम पसंद करते है इसलिए इस बार उन्होंने मेरी डाक जान बूझकर गुम कर दी है. जब बारिश एक पास तुम्हारी चिट्ठियाँ ही नही है तो मैं जागकर भी क्या करूंगा.
फिलहाल सोने जा रहा हूँ फिर से जानता हूँ सुबह की बारिश को यह बात अच्छी लगेगी मगर तुम्हें अच्छी नही लगेगी. आजकल मैं वही सब कर रहा हूँ जो तुम्हें अच्छा नही लगता है. न जाने क्यों?


Sunday, August 27, 2017

#सुनो_मनोरमा -4

कुछ  फूल तुम्हारे लिए लाया था. इन फूलों के शायद कुछ वैज्ञानिक नाम भी तय किए गये हो मगर मैं इन्हें इनके नाम नही जानता हूँ. मैं इन्हें केवल इनकी गन्ध से जानता हूँ तुम शायद इन्हें इनके रंग भेद से भी जान सकोगी. रंगो को लेकर मेरा बोध थोड़ा कमजोर किस्म का है मेरे पास कुछ अलग अलग किस्म की गंध जरुर संरक्षित है जिन्हें मैं पहचान सकता हूँ.

जब मैं लौट रहा था ये फूल मुझे पत्तियों के पर अटके हुए मिले तब मैंने यह जाना कि फूल हमेशा धरती ही नही चाहता है वो कभी कभी हवा का तिरस्कार करता हुआ मध्य में रहना चाहता है इसलिए मुझे ये फूल पसंद आए मैं इनके एकांत को भंग करने का दोषी जरुर हूँ मगर मुझे पूरी उम्मीद है ये तुम्हारे एकांत के सच्चे साथी जरुर बनेंगे.

कल मुझे शाम को ऐसा लगा कि आज शाम कुछ जल्दी खत्म होने वाली है इसलिए मैंने हांफकर भागते हुए सूरज का एक फोटो खींच लिया फोटो हालांकि उतना अच्छा नही आया मगर मेरी इस हरकत से शाम को मुझ  पर थोड़ा प्यार जरुर आया ये बात मुझे सबसे पहले दिखे तारे ने हंसते-हसंते बताई. उसके बाद मैंने उसकी हंसी का अलग अलग भाषाओं में अनुवाद किया और मैंने उसको वादा किया कि मैं एक ऐसी लिपि विकसित करूंगा जिसको सिर्फ वो पढ़ सकेगा. तारे ने मुझसे कहा नही उसे भाषा में कूटनीति नही चाहिए इसलिए उसने कहा कि वो मेरे अनुवाद से खुश है. इसके बाद रात आ गई और हमारी बातें अँधेरे की ओट में छिपकर सोने चली गई.

मेरे पास कुछ छोटे-छोटे पत्थर के टुकड़े है मुझे उनके आकार ने आकर्षित किया तो मैंने उन्हें अपनी जेब में भर लिया मगर थोड़ी ही देर बाद मुझे उनका बोझ थोड़ा भारी लगने लगा उसके बाद मैंने उनको एक एक करके आसमान में उछाल दिया वो सब अलग अलग जगह पर गिरे इस तरह से पत्थरों को अलग करने का दोष मुझे लगा. मैं जब भी उन पत्थरों को याद करता हूँ तो मुझे अपने मनुष्य होने का विश्वास पुख्ता होता जाता है. मनुष्य ऐसे ही बोझ के कारण अपने आकर्षण को इधर-उधर फेंकने के लिए जाना जाता है. यह सोचकर मैं अपनी ग्लानी कम करने की कोशिश करता हूँ मगर फिर भी मुझे सपनें में वो पत्थर के टुकड़े एक साथ दिखाई देते है वो मुझे अक्सर कहते है  कि वो सब फिर से आपस में मिल गए है वो मेरी औसत बल पर हंसते है मगर मुझे उनकी हंसी देखकर अच्छा लगता है.

मिलने और बिछड़ने के मध्य पर एक जगह ऐसी होती है जहां न मिलना होता है और न बिछड़ना ही उस जगह का मानचित्र मेरे एक जेब में रखा हुआ था मगर मैं अपनी जेब तक जाने का रास्ता भूल गया हूँ इसलिए मेरे हाथ हवा में जीसस की तरह लटक रहे है तुम्हें यह करूणा से भरें नजर आते होंगे मगर सच बात तो यह है कि ये अपना रास्ता तलाश रहे है इसलिए इनकी गति को देखा नही बस महसूस किया जा सकता है.

आओ ! ये फूल तुम्हें दे दूं फिर उसके बाद मैं फूलों की स्मृतियों से मुक्ति पा लूंगा.
©डॉ. अजित

#सुनो_मनोरमा  

#सुनो_मनोरमा-3

जरूरी नही कि वही बात तुम्हारी हो जिसमें तुम्हारे नाम का जिक्र हो। कई बार मैं बातें जहां की करता हूँ मगर उसमें जगह-जगह तुम बैठी रहती हो। उदासी मेरे मन का स्थायी भाव है मगर कई बार मैं उदासी को ताश के पत्तों की तरह अलग थलग कर देता हूँ फिर मैं जिंदगी की कुछ बड़ी अकेली शय में तुम्हें हैरत से खड़ा पाता हूँ। क्या तुम सच मे मुझे उदास देखने की आदी हो गई हो?

मेरी मुस्कुराहटों की गति किसी निर्जन रेगिस्तान में शाम की समय घूमती पनचक्की की जैसी है जो बस हवा के खत पहुंचाने के लिए घूमती है उसकी मद्धम गति देख कभी कभी कभी लगता है उन्हें भी थोड़ा विश्राम चाहिए मगर हवा से निवेदन करने का साहस उनके पास नही है वो कृतज्ञता में विवश है। मैं मुस्कानों को इसलिए भी स्थगित रखता हूँ क्योंकि मैं अपनी उदासी को कृतघ्न नही देखना चाहता।

वैसे आज मेरी बातें जरूर उदासी भरी है मगर असल मे मैं खुश हूँ। जानता हूँ तुम पहला अनुमान यही लगाओगी कि जो आदमी यह कहता है कि आज असल मे मैं खुश हूँ वो दरअसल अंदर के किसी एक कोने से कमअसल होकर खुश होता है।
मेरी बातों में कोई नाटकीयता नही है और यकीन करना मैं तुम्हें लेकर बिल्कुल भी भविष्यवक्ता के स्वर में बात नही करना चाहता हूँ।

मेरे लिए तुम अज्ञात ही ठीक हो बोध की चादर से मैं रौशनदान नही ढकना चाहता हूँ भले मेरे मन की खिड़कियां पर्दे के बिना धूल से भर जाए मगर मैं हवा और रौशनी के अनुपात से परे तुम्हें अनुभूति और स्पर्शों  के परिचय के साथ मिलना पसन्द करूँगा।
अब बात मेरी पसन्द की होने लगी है इसलिए मैं विषय बदलना चाहूंगा क्योंकि मनुष्य अपनी पसन्द की बात करते करते अनुराग के राग पर मंत्रमुग्ध हो ध्यानस्थ होने लगता है फिर उसे अधिकार की समाधि प्राप्य लगने लगती है फिलहाल मेरी दशा और दिशा दोनों की एकरेखीय नही मैं अलग अलग आकृतियों के मध्य फंसा हूँ और यही से उनकी ज्यामितीय गुणवत्ता से उकता कर तुम्हें आवाज़ दे रहा हूँ इस उम्मीद के साथ कि ये आवाज़ देर सबेर तुम तक जरूर पहुंच रही होगी।

#सुनो_मनोरमा

Friday, August 25, 2017

#सुनो_मनोरमा-2

डियर मनोरमा,
परसों मैं घर से अचानक निकल आया है. थोड़ी देर मैंने सोचा कि मुझे कहाँ जाना चाहिए? फिर मुझे ये सवाल जंचा नही इसलिए  मैंने इसका जवाब नही तलाशा ,और कहीं के लिए निकल गया. घर एक खूबसूरत अहसास का नाम है ये आपको एक सुविधा देता है कि एक दिन लौटकर आने के लिए आपके पास एक ऐसी जगह है जहां आपका परिचय महत्वपूर्ण नही है. मगर कुछ दिनों से मैंने अपने घर से कुछ बातें की मसलन कि मेरे कितने दिन न लौटने पर उसे मेरी फ़िक्र होगी. घर कोई जवाब नही देता है शायद घर का ढांचा सवाल की बुनियाद पर खड़ा होता है इसलिए वो ताउम्र सवाल ही करता रहता है वो कोई जवाब नही देता है. प्राय: अस्तित्व का सवाल और एक अस्तित्व का लौकिक विस्तार घर को आकार देता है इसलिए घर ने चुपचाप मेरी बात सुनी. मैं थोड़ी देर दर ओ’ दीवारों को देखता रहा मगर उनकी अपनी एक बुद्ध साधना है इसलिए उनको देखा भी मुझे एक सीमा के बाद उनके ध्यान में खलल लगने लगा इसलिए मैंने देखना बंद किया और अँधेरे में घर की दीवार को अनुमान की मदद से छूते हुए बाहर निकल आया. निसंदेह बाहर रौशनी थी मगर वो अंदर जितनी अपेक्षित थी बाहर आकर मुझे वो उतनी ही अनापेक्षित लगी.
आज मैं जहां पर हूँ यह एक कमरा है मैं इसे घर कहने की आजादी से फिलहाल मुक्त हूँ. ये कमरा इस अनजान सफर पर मेरा नया दोस्त बना है मगर ये दोस्ती बेहद कम दिनों की है ये बात हम दोनों जानते है इसलिए मेरे मन को अनावृत्त होने में कोई भय नही लगा. घर की तरह इस कमरे के कान नही है इसकी चारों दीवारें आपस में कोई रिश्ता नही रखना चाहती है उनका अपना स्वतंत्र आयतन है. इस कमरे की दीवार पर एक तस्वीर टंगी है जिसे मैं एक पेंटिंग समझ सकता हूँ मगर इसमें एक नाव इस दशा में किनारे पर खड़ी है कि मैं इसे जीवन भी समझ सकता हूँ. इस चित्र में लहर थोड़ी शांत है इसलिए नाव को किनारे पर खड़ा देख मैं किसी यात्रा की कल्पना नही कर पाता हूँ. इस तस्वीर को देखकर मुझे तुम्हारी वो बात जरुर याद आती है जो तुम अक्सर कहा करती थी कि ‘ मेरे अनुमान हमेशा इसलिए गलत होते है कि मैं हर कहानी का सुखान्त चाहता हूँ’
रोज़ सुबह मैं खिड़की से दूर तक देखने की कोशिश करता हूँ मगर कभी-कभी स्व शर्मिंदगी में मुझे बिलकुल नजदीक देखने का भी जी चाहता है और मैं देखता-देखता अपने पैरो की तरफ लौट आता हूँ  मेरे पैरो की बनावट पर बचपन में मेरी मां बहुत मुग्ध हुआ करती थी ऐसा कुछ लोगो ने मुझे बताया था. मगर जैसे ही मैं बड़ा हुआ  मेरे पैर समतल धरातल पर थोड़े कमजोर साबित हुए धीरे-धीरे मेरे पैरों में एक ख़ास किस्म का वास्तु दोष व्याप्त हो गया, इसलिए मुझे खुद के बारें मे कभी कभी ऐसा जरुर लगता कि मेरी कदम जिस तरफ चलते है उन रास्तों का भूगोल थोड़ा बदल जाता है. मैं इस बात पर थोड़ा चिंतित भी रहता था मगर जब मेरी दोस्ती कुछ पहाड़ों से हुई तो उन्होंने मेरे मन के इस अन्धविश्वास को बेहद छोटा साबित किया. पहाड़ के सुनसान रास्तों पर उगी खरपतवारों ने मेरे पैरों की पैमाईश ली और बाद में मेरे तलवों को बताया कि मेरे पैरों पर कुछ नदियों ने अपने खत गुप्त भाषा में लिखे हुए है इसलिए मैं जब तक समंदर के किनारे तक नही चला जाता मेरी आवारगी का ये वास्तु दोष कुछ न कुछ असुविधा उत्पन्न करता ही रहेगा.  मेरे होने से किस किस किस्म की असुविधाएं उत्पन्न हो सकती है तुम उसकी साक्षी हो उनका जिक्र करने की शायद जरूरत नही है.
अगली बार मैं घर से निकल कर अगर कहीं जाउंगा तो वो कोई समंदर का किनारा ही होगा.शुभता-अशुभता से इतर मैं चाहता हूँ कि जिस जिम्मेदारी के लिए मुझे चुना गया है मैं उससे जल्द मुक्त हो जाऊँ.  मुक्ति एक चाह है जिसके लिए आदमी छटपटाता रहता है. चाहना का होना जिन्दा होने का प्रमाण है इसलिए मेरा निरपेक्षता का प्रयास प्राय: व्यर्थ ही साबित हुआ है.
अभी मैंने अपनी नब्ज़ देखी ये थोड़ी तेज़ चल रही है मगर यकीन करना मुझे बिलकुल डर नही लगा और न ही यह लगा कि एक अनजान जगह आकर कहीं मैं बीमार न पड़ जाऊं क्योंकि मुझे पता है ये किसी शारीरिक व्याधि का संकेत नही है दरअसल मैं तुमसे बातें कर रहा हूँ इसलिए मेरी देह थोड़ी हांफ रही है उसे मेरे मन ईर्ष्या हो रही है बाहर की दुनिया तो बहुत बाद में आती है पहले तो खुद तन और मन एकदूसरे को नीचा दिखाने की फिराक में लगे रहते है.
अच्छा फिलहाल के लिए इतना ही.
बाकी बाद में कहूंगा.

#सुनो_मनोरमा 

#सुनो_मनोरमा -1

सुनो मनोरमा !
जब मैं कहता हूँ सुनो मनोरमा ! इसका एक अर्थ यह भी होता है कि मैं कुछ कहना चाहता हूँ मगर मैं कहने से अधिक सुनाना चाहता हूँ. क्या कहना और सुनाना दो अलग बातें हो सकती है? इस पर ध्वनिविज्ञानी भले ही सहमत नही हो मगर मेरा मन इस पर सहमत है कि दोनों अलग बातें है.
आज तुम्हें कुछ सुनना है और आज ही नही लगातार मैं विषयांतर करता हुआ तुम्हें कुछ न कुछ सुनाऊंगा. हो सकता है इन बातों में कोई रस या अर्थ की भूमिका न हो मगर ये बातें कुछ कुछ वैसी है जैसे बसंत बीत जाने पर कुछ हरी पत्तियाँ जिद पर उतर आती है वे अपने यौवन की खुमारी को खोना नही चाहती है.
मेरे बातों में प्रेम का वात्सल्य है मगर उसमे कोई करुणा नही है ये जगह-जगह से खुरदरी और महीन है. हो सकता है तुम्हें मेरी बातों में एक ही स्वर की पुनरावृत्ति लगे मगर ये दरअसल कुछ बिखरी हुई खुदरा बातें है इसलिए मैं इसे गान की प्रकृति के नाम पर छूट देने का साहस नही रखता हूँ.
मैं कहूंगा और अपने छिटपुट अधिकार से कहूंगा तुम्हें सुनाकर मैं मुक्ति का अभिलाषी नही हूँ और न ही मेरी पास हृदय में किसी किस्म की कोई सन्निकटता आ गई है .मगर मैं तुम्हें सुनाना चाहता हूँ अपने सबसे उदास गीत और अपने एकांत के सबसे उत्सवधर्मी क्षण. दोनों बातों में एक खास किस्म का विरोधाभास दिख रहा है मगर वास्तव में यह कोई विरोधाभास नही नही ये दरअसल कुछ असंगत समय के कतरने है जिनकी मदद से मैं मन के भूगोल पर पर कुछ निकटता के ज्यामितीय चित्र बनाता हूँ जो दूर से तुम्हें देखने किसी सघन जंगल का मानसचित्र प्रतीत होंगे मगर नजदीक से देखने पर तुम साफ़ तौर पर देख सकोगी कि एक रास्ता गोल-गोल घूमकर कैसे वही आकर मिल जाता है जहां से यह शुरू होता है.
मेरी बातें सुनकर तुम्हें रास्तों के सम्मोहन और मृग मरीचिकाओं के दर्शन होंगे हो सकता है तुम्हे लगे कि तुम किस अजीब से बंधन में बन्ध गई हो,मगर इतना तय है इन बातों के मध्य तुम किसी किस्म का निर्वात नही महसूस करोगी बल्कि ऐसा हो सकता है कि इन बातों की कडियाँ  आपस में जोड़ते हुए  तुम्हारी उंगलियाँ थोड़ी थकान महसूस करें मगर इन्ही बातों में हर किस्म की थकान से सुस्ताने के पते भी बंदरवार की शक्ल में तुम पढ़ सकोगी बस तुम्हें अपने मन की खिड़कियाँ जरुर खोलनी होगी ताकि हवा की आवाजाही ठीक से हो सके.
मनोरमा, मैं चाहता हूँ तुम इन बातों को बिना किसी विश्लेषण और सम्पादन के सुनों ठीक वैसे जैसे यह एक मानस का पवित्र पाठ हो, पवित्र इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि यह कोई कथा नही है और न ही किसी कथा की भूमिका है यह दरअसल किसी सुनसान रास्ते पर खुद के डर से लड़ने के लिए खुद से बातचीत है जिसमें जगह से जगह ईश्वर बैठा. एक ऐसा निरुपाय ईश्वर जो मनुष्य के डर और कामना को प्रार्थना की शक्ल में सुनता है और बाद में हंसता है. मैं इसी हंसी से आतंकित होकर तुमसे कुछ सुनाने आया हूँ
क्या तुम सच में मुझे सुनोगी मनोरमा?  मुझे नही मेरी बातों को जरुर सुनना जहां-जहां इन बातों मैं शामिल होता हूँ तुम मुझे छोड़ते जाना मगर बातों को सुनते और चुनते हुए जाना और जहां-जहां बातों से मैं निकलता जाऊँ वहां खुद को शामिल करते जाना. इसके बाद मुझे उम्मीद है कि तुम हर बात ठीक वैसे ही सुन सकोगी जैसा मैं तुम्हें सुनाना चाहता हूँ.
ये कोई भूमिका नही है बस एक जरूरी तैयारी है जो मैं खुद को सुना रहा हूँ अब अगला नम्बर तुम्हारे सुनने का है. तैयार रहना!
 ©डॉ. अजित

#सुनो_मनोरमा 

Monday, August 21, 2017

नाटक

दृश्य एक:
नभ धवल मंजरी सी  बदरियो से आच्छदित है. उसका अन्तस पुलकित है मानों देवयोग से उसकी छोटी छोटी पुत्रियों के पैरों में स्वेत नुपुर बाँध दिए  गए हो .वायु के पुत्रों को उनके साथ खेलता देखकर नभ का चित्त आह्लादित है. पृथ्वी के पास मंगलाचरण के समाचार भेजने के लिए वर्षा की नन्ही बूंदों को पंचामृत से स्नान कराया जा रहा है उन्हें पृथ्वी पर जाकर ठीक उस स्थान पर बरसना है जहां पृथ्वी ने अपनी उत्कट प्यास को प्राण प्रतिष्ठित किया गया है. नभ के गुप्तचर वर्षा की सेनानायिका को पृथ्वी के सबसे उपेक्षित स्थानों के मानचित्र सौंप रहें है और उन्हें आवश्यक दिशा-निर्देश भी दे वो बिलकुल नही चाहते है कि इस बार की वर्षा अपने किसी अनुमान से चूक जाए और पृथ्वी के ताप के जरिए नभ के पास यह समाचार पहुंचे कि नभ और पृथ्वी के मध्य का संसार लगभग यह मान चुका है कि दोनों के सामीप्य की संभावना नगण्य है. पृथ्वी का द्वन्द यह है कि उसके पास कोई अनुमान नही है वह प्रतिक्षा के सुख को आम मंजरी की तरह खिलते हुए देखती जरुर है मगर उसके मन के संदेह ने  उसके आसपास एक मोटी परत दुश्चिंताओ की बना देते है जिसे नभ के प्रेम के द्वार भी भेद पाना संभव नही है.
दृश्य दो:
 धरती जब यहाँ से चली गई थी तो यहाँ केवल धरती की उखड़ी हुई त्वचा शेष बची थी उसमें न कोई गंध थी और न उसका कोई घनत्व ही शेष था. उसे हाथ में लेने पर भार का बोध नही होता था इसलिए उसने इसे धरती का सबसे का निर्वासित कोना कहा. एक बड़े अंतराल तक यह कोना अपने एकांत के शोक पर एकदम चुप रहा मानो उसके आंसूओं ने बाहर आने से मना कर दिया हो. धरती का यह कोना चुपचाप सिसकता था मगर इसकी सूचना किसी तक नही जाती थी. निर्वासन एक  युग के बाद अब यहाँ कुछ बदल रहा है. आवारा खरपतवार पर पहली बार कुछ रंग बिरंगे फूल खिले है उन्हें बारिश का स्नेह नही मिला मगर वो मात्र बादलों के काले रंग को देखकर अपने अंदर की प्यास को छिपा कर खिल आए है.
इस कोने में एक उपवन ठीक वैसा बन गया है जैसे यहाँ अभी इंद्र की सभा का कोई नूतन नाटक अभी मंचित किया जाएगा. पराग और परागकणों में बड़े और छोटे भाई वाली लड़ाईयां चल रही है वे अपना अपना सामान एक दुसरे से छिपा रहें है. धरती के इस निर्वासित कोने में भंवरो को आने की अनुमति नही है यदि कोई भटक कर आ भी गया तो यहाँ की शांत नीरवता उसकी बड़ी पवित्रता के साथ हत्या कर देगी.  धरती का यह निर्वासित कोना इनदिनों रस विमर्श के कारण एक रूपक बन गया है आश्चर्य इस बात का है कि इस बात की धरती को खबर नही है. जिस दिन धरती को इस मोक्षमय यौवन का बोध होगा धरती थोड़ी देर के लिए नि:श्वास होकर सीधी लेट जाएगी तब वो आसमान को देखेगी और कहेगी ‘ दृष्टि से ओझल होना प्रेम में खो जाना नही होता हो’ !
दृश्य तीन:
धरती और आसमान के मध्य एक रंगशाला है जिसे वैकल्पिक तौर पर नाट्यशाला भी कहा जा सकता है. इसके निर्माण में धरती और आसमान की पूंजी लगी है मगर इस पर किसी का कोई दावा नही है यह एक प्रकार से अखिल ब्रह्माण्ड की सम्पत्ति है. रंगशाला में मनुष्यों की पीठ पर प्रकाशित पराजय के चित्र, भित्तिचित्र के रूप पर मौजूद है घर से निकाले गए देवाताओं के लिए यह अस्थायी मनोरंजन के साधन है. इन देवताओं का स्थायी मनोरंजन मनुष्य की पराजय है.
धरती के आग्रह और आसमान के आदेश पर मैंने एक नाट्यशाला के लिए एक नाटक लिखा है. नाटक की दुविधा यह है कि इसमें कोई नायक नही है धरती इस बात पर खुश है मगर आसमान मुझे थोड़ा नाराज़ दिख रहा है. नाटक में प्रेम को त्रासद  कुछ इस तरह से कहा जाना है कि प्रेम पर सबका भरोसा और अधिक गहरा हो जाए और कोई भी खुद को बर्बाद करने में लेशमात्र भी संकोच न करें.
इस नाटक में प्रेम का दिव्य और लौकिक संस्करण दोनों उपस्थित करना है इसलिए मैनें नाटक में नायकत्व को अप्रकाशित रखने की बात सोची मुझे लगा कि दोनों बातों के साथ नायक को प्रस्तुत करना प्रेम का अपमान होगा. अभी इस नाटक के कुल तीन अंक मैंने लिखे है चौथा लिखने के लिए मैंने धरती से कहा है कि वो मेरे लिए  रौशनाई का प्रबंध कर दें  चूंकि ऊपर से आसमान मुझे लिखते हुए देख रहा है इसलिए मुझे नाटक का अंत छिपाना है और इस अंत को छिपाने के लिए जिस रौशनाई की मुझे जरूरत है वो केवल धरती ही मुझे उपलब्ध करा सकती है.
मुझे संदेह है यदि आसमान ने इस नाटक का अंत पढ़ लिया तो नाटक के मंचन के दिन बारिश भेजकर इसकी प्रस्तुति को जरुर बाधित कर देगा जबकि इस नाटक के अंत में आसमान नायक प्रतीत हो रहा है ये अलग बात है कि इस नाटक में कोई भी नायक नही है.


© डॉ. अजित  

बोध

दृश्य एक:
नार्वे की एक सुबह है  धूप थोड़ी तेज निकली है.
मैं एक तिराहे पर खड़ा हूँ अचानक अंगड़ाई आई और मुझे तोड़कर चली गई. शरीर की झंझनाहट के बीच मेरी नजर सामने की एक खिड़की पर गई. वहां एक लड़की मुंह बाहर निकाल कर जोर जोर से एक गाना गा रही है. मुझे उसकी भाषा नही आती है मगर वो जब एक अंतरे के बाद हंसती है तो मुझे न जाने क्यों ऐसा लगने लगता है कि उसकी भाषा मुझे आती है. मैं थोड़ी देर मन ही मन उससे उस भाषा में बात करता हूँ फिर उसे लगता है कि मैं उसे गाना गाते हुए देख रहा हूँ  बावजूद इसके वो खुद के गाने पर इस कदर मुग्ध है उसे मेरे इस तरह देखे जाने से कोई असुविधा नही है थोड़ी देर बाद वो गाना बंद कर देती है मगर खिड़की खुली हुई है. मैं खुली खिड़की के अंदर यही से दाखिल होना चाहता हूँ ये गाने के बाद का एक सतही मानसिक कौतूहल भर है,मगर फिर मुझे उस लडकी का गाना याद आता है और यह महसूस करता हूँ कि अभी दाखिल होने के लिए मेरा कद छोटा है फिर मैं दौड़ना शुरू करता हूँ और थोड़ा थककर उस कैफे में बैठ जाता हूँ जहां लोग शिष्टाचारवश मुस्कुराते हुए मिल रहे है.कैफे में नेपथ्य में बचता धीमा संगीत भले ही वेस्टर्न है मगर मुझे उसमें फोक की खुशबू आ रही है.

दृश्य दो:
घास का मैदान है. धूल का नामो-निशान नही है. घास का अकेलापन हरियाली के बावजूद थोड़ा गहरा है. एक युवा दम्पत्ति अपने बच्चे के साथ अभी यहाँ आई है. बच्चा अभी चलना सीख रहा है उसके कदमों में लड़खडाहट है  फिलहाल घास के लिए यह एकमात्र हंसने की वजह है. अब वो बिना हवा के इन्तजार के हंस सकता है.
बच्चा अकेला एक अलग दिशा में जाना चाहता है मगर उसे करने के लिए शायद ईश्वर प्रेरित कर रहा है. फिलहाल ईश्वर के इस इच्छा में मां की चिंता बड़ी बाधा है. मां नही चाहती है कि बच्चा उसकी नजर से दूर रहे.
 बच्चा घास पर खेलता है तो घास को ऐसा लगता है कि जैसे उसका कोई बचपन का दोस्त मिल गया हो वो उसे अपने कंधे पर बैठाना चाहता है. बच्चा जब चलते हुए गिरता है तो घास उसके घुटने में गुदगुदी करता है इसके बाद बच्चा जोर से हंसता है बच्चे के माँ-बाप इस बात से यह अंदाजा लगाते है बच्चा यहाँ आकर खुश है.

दृश्य तीन:
पीटर एक बार में वेटर है. रोज़ शाम को बार की रंगीन दुनिया से उसे गुजरना होता है. ड्यूटी के दौरान उसने महसूस किया कि जो लोग अकेले शराब पीते है वो अधिक सहृदय होते है उनके हृदय में अधिक करुणा होती है. उत्सवधर्मिता मनुष्य को एक सतह पर केन्द्रित कर देती है इसलिए समूह में व्यक्ति हिंसक भी हो सकता है. विल्सन टेनिस उसका प्रिय ग्राहक है जबकि उसने उसको आज तक सबसे कम टिप दी है. वो एक अधेड़ है मगर उसके आने पर पीटर को अच्छा लगता है जब-जब लम्बे अंतराल के बाद टेनिस बार में आता है पीटर उससे एक बात जरुर कहता है आपको यहाँ कम जरुर चाहिए मगर इतना कम भी नही.
पीटर को टेनिस की पसंदीदा ड्रिंक का पता है वो उसके कदमों की गति से यह अनुमान लगा लेता है कि आज कौन सी ड्रिंक सर्व करनी है. टेनिस इस बात से खुश कम चिंतित अधिक होता है. आज टेनिस ने कम पी मगर देर तक बैठा रहा जाते वक्त उसने पीटर से कहा ‘ यू नो ! दुनिया में सबसे खराब चीज पता है क्या है? जब आपको कहीं जाते वक्त यह लगने लगे कि अब मुझे यहाँ जरुर जाना चाहिए’
पीटर इस बात पर केवल मुस्कुराता है और कहता है ‘ मेरे ख्याल से सबसे खराब चीज वह है जब हमें यह पता चल जाता है कि हमारे लिए क्या खराब है और क्या अच्छा !


© डॉ.अजित  

Sunday, August 20, 2017

भटकाव

दृश्य एक:
निधि की एक किताब गुम हो गई है. वो उसे तलाश नही रही है बस उसे याद कर रही है. कई बार खोई हुई चीजों के गुम होने पर हम उसको तलाशना नही चाहते बस उसे याद कर-कर के घुलना चाहते है. निधि भी आज सुबह से बहुत धीरे-धीरे ऐसे ही घुल रही है. गुड या चीनी की तरह नही बल्कि रोशनाई की तरह.
वो खुद से सवाल करती है क्या कोई चीज़ हमें इसलिए प्यारी होती है कि उसके खो जाने पर हम उसका शोक मना सके. इसका जवाब उसे ठीक ठीक नही मिलता है. वो किसी वस्तु को खोने को सहेजने के कौशल से चूक जाना समझती है.
निधि के पास एक बेहद पुरानी किताब है जो कभी टेबल पर तो कभी बेड के नीचे पड़ी मिलती है मगर आज तक वो कभी ग़ुम नही हुई निधि के लिए उस किताब का कोई ख़ास मूल्य नही है मगर वो गुम नही हुई आजतक.
निधि उसे देखती है और मुस्कुरा कर बुक सेल्फ में रख देती है और अंत में खुद को यह दिलासा देती है कि जिसे खोना होता है वो खो ही जाता है एकदिन और जिसे साथ रहना होता है वो चलता रहता है चुपचाप अपनी गति से.
निधि को यह बात जरुर खराब लगी उसे अपनी एक जरूरी किताब खोने पर अपनी एक सामान्य किताब की उपस्थिति का बोध हुआ और फिर उसे उससे प्यार हुआ.

दृश्य दो:
पिता-पुत्र झील किनारे अकेले बैठे है. बेटा अपने पिता से पूछता है  
‘झील के नजदीक बैठना अच्छा क्यों लगता है’?
पिता इस सवाल पर थोड़ा चौंकता है फिर मुस्कुराते हुए  जवाब देता है
‘ शायद इसलिए क्योंकि मनुष्य जीवन में एक कोलाहल रहित ठहराव चाहता है’
पुत्र इस जवाब से संतुष्ट है फिर दोनों चुपचाप बैठे रहते है.
अचानक पिता सवाल करता है , क्या तुम आसमान के रंग को झील में देख पा रहे हो’?
बेटा कहता है ‘नही मुझे पानी में केवल बादल नजर आते है वो भी कभी-कभी’
फिर पिता झील देखना शुरू कर देता है और बेटा आसमान
दोनों एक दूसरे की आँखों में देखते है और समझ जाते है
रंग और गति दोनों दरअसल अवस्थाएं मात्र है
मनुष्य के पास अनुमान परिभाषा और व्यख्या मात्र है जिनकी
थोड़ी देर बाद
बेटा झील में एक छोटा पत्थर का टुकडा डालकर जल में कोलाहाल पैदा करता है
पिता आसमान में बादल देखकर बारिश का अनुमान लगाता है.

दृश्य तीन:  
जंगल में दो आदिवासी रास्ता भटक गये है.
वो अपने पदचिन्ह देखने की कोशिश कर रहे है
रास्ते उनकी मासूमियत पर फ़िदा है
वो पेड़ के तनों पर अपने कान लगाते है
अपने कबीले का पता उन्हें देना चाहते है
मगर पेड़ एक गैर की बारात में गये मेहमान की तरह चुप है
फिर अपनी बोली भाषा में आवाज़ लगाते है
जब आवाज़ की प्रतिध्वनि उन तक लौटकर आती है
वो समझ जाते है ये जंगल उनका नही है
वो रौशनी से अँधेरे की तरफ जाते है
फिर अकेले अकेले रास्ता तलाशने निकल जाते है
क्योंकि उन्हें पता है
साथ रहकर भटका जा सकता है
रास्ता हमेशा अकेले चलने से ही मिलता है.


© डॉ. अजित