Friday, August 25, 2017

#सुनो_मनोरमा -1

सुनो मनोरमा !
जब मैं कहता हूँ सुनो मनोरमा ! इसका एक अर्थ यह भी होता है कि मैं कुछ कहना चाहता हूँ मगर मैं कहने से अधिक सुनाना चाहता हूँ. क्या कहना और सुनाना दो अलग बातें हो सकती है? इस पर ध्वनिविज्ञानी भले ही सहमत नही हो मगर मेरा मन इस पर सहमत है कि दोनों अलग बातें है.
आज तुम्हें कुछ सुनना है और आज ही नही लगातार मैं विषयांतर करता हुआ तुम्हें कुछ न कुछ सुनाऊंगा. हो सकता है इन बातों में कोई रस या अर्थ की भूमिका न हो मगर ये बातें कुछ कुछ वैसी है जैसे बसंत बीत जाने पर कुछ हरी पत्तियाँ जिद पर उतर आती है वे अपने यौवन की खुमारी को खोना नही चाहती है.
मेरे बातों में प्रेम का वात्सल्य है मगर उसमे कोई करुणा नही है ये जगह-जगह से खुरदरी और महीन है. हो सकता है तुम्हें मेरी बातों में एक ही स्वर की पुनरावृत्ति लगे मगर ये दरअसल कुछ बिखरी हुई खुदरा बातें है इसलिए मैं इसे गान की प्रकृति के नाम पर छूट देने का साहस नही रखता हूँ.
मैं कहूंगा और अपने छिटपुट अधिकार से कहूंगा तुम्हें सुनाकर मैं मुक्ति का अभिलाषी नही हूँ और न ही मेरी पास हृदय में किसी किस्म की कोई सन्निकटता आ गई है .मगर मैं तुम्हें सुनाना चाहता हूँ अपने सबसे उदास गीत और अपने एकांत के सबसे उत्सवधर्मी क्षण. दोनों बातों में एक खास किस्म का विरोधाभास दिख रहा है मगर वास्तव में यह कोई विरोधाभास नही नही ये दरअसल कुछ असंगत समय के कतरने है जिनकी मदद से मैं मन के भूगोल पर पर कुछ निकटता के ज्यामितीय चित्र बनाता हूँ जो दूर से तुम्हें देखने किसी सघन जंगल का मानसचित्र प्रतीत होंगे मगर नजदीक से देखने पर तुम साफ़ तौर पर देख सकोगी कि एक रास्ता गोल-गोल घूमकर कैसे वही आकर मिल जाता है जहां से यह शुरू होता है.
मेरी बातें सुनकर तुम्हें रास्तों के सम्मोहन और मृग मरीचिकाओं के दर्शन होंगे हो सकता है तुम्हे लगे कि तुम किस अजीब से बंधन में बन्ध गई हो,मगर इतना तय है इन बातों के मध्य तुम किसी किस्म का निर्वात नही महसूस करोगी बल्कि ऐसा हो सकता है कि इन बातों की कडियाँ  आपस में जोड़ते हुए  तुम्हारी उंगलियाँ थोड़ी थकान महसूस करें मगर इन्ही बातों में हर किस्म की थकान से सुस्ताने के पते भी बंदरवार की शक्ल में तुम पढ़ सकोगी बस तुम्हें अपने मन की खिड़कियाँ जरुर खोलनी होगी ताकि हवा की आवाजाही ठीक से हो सके.
मनोरमा, मैं चाहता हूँ तुम इन बातों को बिना किसी विश्लेषण और सम्पादन के सुनों ठीक वैसे जैसे यह एक मानस का पवित्र पाठ हो, पवित्र इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि यह कोई कथा नही है और न ही किसी कथा की भूमिका है यह दरअसल किसी सुनसान रास्ते पर खुद के डर से लड़ने के लिए खुद से बातचीत है जिसमें जगह से जगह ईश्वर बैठा. एक ऐसा निरुपाय ईश्वर जो मनुष्य के डर और कामना को प्रार्थना की शक्ल में सुनता है और बाद में हंसता है. मैं इसी हंसी से आतंकित होकर तुमसे कुछ सुनाने आया हूँ
क्या तुम सच में मुझे सुनोगी मनोरमा?  मुझे नही मेरी बातों को जरुर सुनना जहां-जहां इन बातों मैं शामिल होता हूँ तुम मुझे छोड़ते जाना मगर बातों को सुनते और चुनते हुए जाना और जहां-जहां बातों से मैं निकलता जाऊँ वहां खुद को शामिल करते जाना. इसके बाद मुझे उम्मीद है कि तुम हर बात ठीक वैसे ही सुन सकोगी जैसा मैं तुम्हें सुनाना चाहता हूँ.
ये कोई भूमिका नही है बस एक जरूरी तैयारी है जो मैं खुद को सुना रहा हूँ अब अगला नम्बर तुम्हारे सुनने का है. तैयार रहना!
 ©डॉ. अजित

#सुनो_मनोरमा 

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