Sunday, December 29, 2013

प्रपंच

कल रात बेहद मानसिक खीझ के पलों में यह फैसला किया था कि यह फेसबुक डिलीट (डिएक्टिवेट नही) करना है रात कई दफा प्रयास किया लेकिन जुकरबर्ग साहब के कारिन्दें बार-बार टेक्निकल एरर दिखा रहे थक कर रात 11 बजे सो गया सुबह उठा इसी संकल्प के साथ कि उठते ही डिलीट कर दूंगा लेकिन सुबह भी वही दिक्कत आयी फेसबुक डिएक्टिवेट करने का ऑप्शन दे रहा है डिलीट के नाम पर ना नुकर कर रहा.... फिर सोचा जब अस्तित्व नही चाह रहा है तो बलात अपनी मानसिक कमजोरी को तकनीकी पर थोपना उचित नही है इसलिए न डिएक्टिवेट किया ( और अकाउंट डिलीट तो हो ही नही रहा था )
फेसबुक पर रहना और ठीक ठाक लोकप्रियता के साथ रहना लेकिन अचानक ही यहाँ से उच्चाटन हो जाना मेरे लिए नई बात नही है ऐसा कई बार हुआ है लेकिन बात अकाउंट डिएक्टिवेट पर जाकर थम जाती थी कल मै अकाउंट डिलीट करने का फैसला कर चुका था...यह प्रथम दृष्टया मानसिक अस्थिरता का प्रमाण लगता है लेकिन आध्यात्मिक अर्थो में यह उस शाश्वत भटकन का प्रभाव है जो एक स्थान,मनुष्य या तकनीकि अधिक समय तक आसक्ति या रस नही बने रहने देना चाहती है यह सपनों की उस मृगमरीचिका के जैसी है जिसका पीछा करना बाध्यता लगती है लेकिन वो है भी या नही इस पर भी सवाल हमेशा बना ही रहता है।
जीवन में स्थाई कुछ भी नही है यह शाश्वत बात है लेकिन कई बार यात्रा पर चलते-चलते लगता है शिखर से शून्य और शून्य से शिखर तक निरंतर यात्रा ही अपने अस्तित्व के सवालों का खुद जवाब दे सकती है यह निजि चयन का मामला है जहाँ आप लोक मे रहकर भी लोक से मुक्त रहना चाहते है और जब आपको लगता है कि आप किसी खास स्थान वस्तु या मनुष्य पर अटक गए है तभी इनरकॉल कहती है निकल लो यहाँ सें....लेकिन निकलने के क्रम और प्रयास में वृत्त की भांति गोल-गोल घूम कर वही आ जाते है जहाँ से कभी चले थे..।
बहरहाल, जिन-जिन फेसबुकिया मित्रों को मैने अकाउंट डिलीट करने जा रहा हूँ कि सूचना देकर उनका मानसिक दोहन किया उन सभी से क्षमा प्रार्थी हूँ अपनी पूरी काहिली और जाहिली के साथ मै यही पर हूँ....लेकिन कब तक यह मुझे भी नही पता है।

Wednesday, December 25, 2013

कोरस

एक तरफ हर पांच-सात मिनट फेसबुकिया पिंग (कमेंट्स और चैटिंग की) की गुडक-गुडक की आवाजें वही दूसरी तरफ दूसरे कमरे से कलर्स/स्टारप्लस की सास-बहुओं के सीरियल के कोरस की आं...आं...आं की नैपथ्य ध्वनि जो पत्नि के नेत्रों को सजल करने वाली आवाजें है इधर मै कभी चुप्पी में जीता हूँ तो कभी कभी किसी बात पर मुस्कुरा भी पडता हूँ हमारे इन दो कमरों के ध्वनिलोक में समानांतर दो दुनिया लम्बे समय से बसी हुई है। पत्नि जब कभी रसोई में होती है तो स्त्री दारुण कथा के धारावाहिकों की आवाज कार्टून में तब्दील हो जाती है फर्क बस इतना होता है कि मेरे कमरे की कमोबेश वही आवाजें होती है और पास के कमरे सें ओगी,डोरेमोन,भीम आदि की आवाजें आने लगती है इस तरह से घर के अन्दर चारदीवारी और सामानों के बीच तीन अलग अलग दुनियाओं का अस्तित्व है उनका अपना-अपना कोरस है और यह सब इतना सहज है कि कभी एक दूसरे को प्रभावित भी नही करता है इसमे बच्चों के लिए मनोरंजन प्रधान है पत्नि के लिए अपने अस्तित्व को तलाशना प्रमुख है और मेरे लिए लोक पर खुद बलात आरोपित करने की सारी कवायद चलती है जहाँ कभी मै कभी पसर्नल स्टेट्स लिखता हूँ तो कभी 'कवि' बन अपनी रचित कविताओं के जरिए अपने आसपास के संवेदनशील लोगो को यह बताना और जताना चाहता हूँ कि मै अन्दर से कितना द्रवित महसूस करता हूँ। कुल मिलाकर शब्दो के भ्रम और शब्दों के ब्रहम होने के मध्य हमारी ध्वनियां सूक्ष्म रुप से बसी हुई है जिससे हमे अपने अपने अर्थो में ऊर्जा मिलती है।
सांसारिक वजह जब आपको बांधने मे असमर्थ होती है तब हम अपनी एक समानांतर दुनिया रचते है जिसमें हम खुद को लगभग नायक सिद्ध करते हुए अपने संघर्ष को और तरल बनाने की कवायद भी करते है ऐसा ही नही है कि हर बार बात संघर्ष से शुरु होकर संघर्ष पर ही समाप्त होती हो कई बार हम खुद को एक युक्तियुक्त सांत्वना देने के लिए भी यह सब प्रपंच करते है फिर ध्वनियों के सन्दर्भ सें चाहे मेरे फेसबुक की पिंग की आवाज हो या फिर पत्नि के सीरियलस के कोरस का दुखद प्रलाप दोनो एक दूसरे को एक समकोण काटते हुए साथ चलते नजर आते है। बात बेहद आम है और कोई महत्व या मूल्य की नही लेकिन दो कमरों में जीती-मरती दो जिन्दगीयाँ कैसा अपने आप को बाह्य दुनिया से जोड लेती है यह निसन्देह रोचक है।

Thursday, December 19, 2013

सदी की सलाह



मदिरासेवनोपरांत सोशल मीडिया,फोन या अन्य संचार तंत्र पर बने रहना किसी भी प्रकार से विवेकपूर्ण और मित्रोहितकारी नही है। उक्त मनोदशा में मन पर पडी संकोच की चादर हट जाती है और मनुष्य भावनातिरेक अवस्था में भावुक किस्म की बातें करने लगता है ये बातें दिन भर दृढता से बंधे  मनुष्य के उस कमजोर पक्ष की तरफ भी ले जा सकती है जो सर्वथा अपवंचना का शिकार रहा होता है या फिर ऐसी अवस्था में वो हर एक बात आहत कर सकती है जिसको अमूमन रोजाना आप नोटिस न करते हुए लगभग नजरअन्दाज़ कर देते है। कुल मिला कर इस पेय के सेवन के बाद आपको खुद के करीब रहना चाहिए न कि लोक में अपने दमित अभिलाषाओं या शिकायतों को अभिव्यक्त या आरोपित करने में लग जाओं इससे आपकी बातों को गंभीरता से सुनने की प्रवृत्ति तो घटती ही है साथ ही सुबह जब आप अपने कहे लिखे ब्रहम वाक्यों के प्रमाण ( यथा एसएमएस, चैट बॉक्स) देखते है तो एक खास किस्म की ग्लानि और अपराधबोध का हैंगओवर जरुर होता है कि ये मैने क्या कह दिया और क्यों कह दिया....बातें  भी कम से कम एक दिन तो पीछा जरुर करती है फिर आप  दिन भर मूंह छिपाते रहे या फिर अपना माफीनामा तामील करायें नही...नही मेरा कहने का ऐसा मतलब नही था  हो सकता है उन्माद की अवस्था में कुछ ज्यादा लिख-बोल दिया हो आदि-आदि। ऐसी मनोदशा में मै किसी भी प्रकार का स्टेट्स/कमेंट/चैट/एसएमएस/कॉल से मुक्त रहकर अपने अस्तित्व को महसूस करने  और उसके उत्सव में खो जाने को सबसे अधिक उपयोगी समझता हूँ इसलिए जब कभी भी ऐसा अवसर फोन/इंटरनेट/टीवी आदि सब बंद करके मद्धम रोशनी में सूफी संगीत या गजल का लुत्फ लें,नाचें,गाएं,रोएं  तो सबसे बेहतर है ये सब भी न हो तो अपने साकी और रहबरों से गुफ्तगू भी की जा सकती है कुछ अपनी कहना कुछ उनकी सुनना इन संचार-सूचना के तंत्रों पर अटके रहने से कई गुना बेहतर अनुभव होगा कम से कम रात गई बात गई जैसा हाल तो रहेना न कि अगले दिन आप खुद के दिव्य रुप के प्रमाण देखकर कभी असहज तो कभी अचरज़ महसूस करते रहें। इति सिद्धम।

Monday, December 9, 2013

दोस्तों का सर्वे

दोस्तों से मुद्रा उधार मांगने के लिए कितनी लम्बी चौडी उधेडबुन और मानसिक भूमिका से गुजरना पडता है अब आप कहेंगे कि नही दोस्तो से कैसा संकोच नही भाई मै इससे सहमत नही हूँ दोस्त चाहे लंगोटिया किस्म का हो या फिर दूनियादारी दोनो से ही पैसा उधार मांगने के लिए उधार का साहस जुटाना पडता है और जब आप किसी से अपनी जरुरत कहे और सामने वाला जिज्ञासावश पूछ ही बैठे कि कहाँ जरुरत पड गई भाई ऐसे में अपनी जरुरत की उपयोगिता सिद्ध करने के लिए तमाम शब्द सामर्थ्य का प्रयोग करना पडता है ये तो अच्छी बात है कि ऐन वक्त पर दोस्त मदद भी कर देते है वरना आप अपनी कहानी कहे और सामने वाला हाथ खडा कर दे ऐसे मे फोन काटना कितना भारी हो जाता है ब्याँ नही किया जा सकता है। आदर्श स्थिति वही है कि आपका अपनी ही आमदनी से काम चलता रहा है कभी मांगने का कारोबार नही करना पडे लेकिन दूनियादारी में बिना लेन-देन के काम नही चलता है शायद आदम के इगो को घटाने और बढाने के लिए इससे बढिया रीति विकसित ही नही हो पायी है पैसा स्वामित्व भाव तो पैदा कर ही देता है सो याचको की टोली का मेरे जैसा नायक अक्सर यही सोचता रहता है कि मुद्रा की अवधारणा सहअस्तित्व और इंसानी जरुरतों के इर्द-गिर्द क्यों नही रह पाती है।
बहरहाल इस पोस्ट के बहाने के बेशर्म किस्म का सर्वे भी करने जा रहा हूँ फेसबुक पर जुडे मेरे सभी मित्र यह बताएं कि वें जरुरत पडने पर मेरी कितनी (धनराशि) की मदद कर सकते है वह भी बिना यह पूछे कि मुझे क्या जरुरत आन पडी है इस पोस्ट पर आयें कमेंट मेरी फेसबुकिया दोस्तों के बीच मेरी क्रेडिट लिमिट का भी निर्धारण करेंगी...हालांकि जो लोग मेरी गांव की पृष्टभूमि जानते है ( मसलन जमींदार का पुत्र वगैरह-वगैरह) उनके लिए यह पोस्ट एक सदमे से कम नही होगी लेकिन अपनी फितरत ही ऐसी है हमेशा जैसा फील करते है वैसा ही लिखते है और इमेज़ कॉनशिएस मै कभी रहा भी नही हूँ। सो आपका समय शुरु होता है अब......जरा बताएं कि आप अपनी गाढी मेहनत की कमाई में से अधिकतम कितनी सहयोग राशि मुझे बतौर उधार देने की हिम्मत रखते है जबकि आपको यह भी पता हो कि हाल फिलहाल कम से कम से दो साल पैसा वापिस आने की कोई सम्भावना नही है।
यह एक अपने किस्म का पहला और गंभीर फेसबुकिया प्रयोग है इसे न तो व्यंग्य समझा जाए और न ही एक चलताऊ किस्म की पोस्ट ना ही मेरी अभिलाषा छ्द्म लोकप्रियता हासिल करने की है सो एक हाथ अपने दिल पर रखे और एक अपनी जेब पर और फिर उसके बाद अंको में वह राशि बताएं जितने की मदद करने की हिम्मत आप 24X7 रखते हैं... और हाँ किंचित भी यह सोचकर घबराये नही कि मै आपके कमेंट के बाद आपके इनबॉक्स में आकर अपनी तुरंत डिमांड रख दूंगा क्योंकि फिलहाल मुझे ऐसी कोई जरुरत नही आन पडी है। मेरी जिज्ञासा खुद की फेसबुकिया हैसियत (क्रेडिट लिमिट के सन्दर्भ में) जानने की है सो अभी तक मेरी गालबजाई पर हौसला बढाने वाले दोस्तों अब आपकी बारी है कि एक रोचक,अजीब और बेशर्म किस्म के सर्वे पर भी अपनी वैसी ही बेबाक राय रखें जैसी अभी तक आप मेरी फेसबुकिया पोस्ट पर रखते आयें है....

डिसक्लेमर: इस पोस्ट का उद्देश्य किसी मित्र की आत्मीयता धन के सन्दर्भ में आंकना कदापि नही है और न ही मै दोस्तों को परखने में यकीन रखता हूँ आप सभी मेरे लिए जीवन की स्थाई पूंजी से भी बढकर है। यह केवल एक खाली दिमाग की उपज मात्र है।

Tuesday, December 3, 2013

एक किरदार ऐसा भी-05


सुसी-गांव के बच्चों की बुआ 


गांव के विभिन्न किरदार ब्याँ करते-करते खुद ब खुद लोग सामने आकर खडे हो रहे है मैने कभी पूर्व योजना से नही सोचा था कि कैसे लोगो पर लिखना है और न ही यह तय किया था कि इन-इन लोगो पर लिखना है जैसे ही एक शख्सियत पर लिख कर समाप्त किया उसके तुरंत बाद ही मुझे दूसरा किरदार नजर आने लगा कि अब इसकी बारी है गांव के जीवन में सहअस्तित्व की अवधारणा में जीते ये किरदार हमारे गांव के लिए किसी पूंजी से कम नही है इनका मूल्य भले ही गांव के लोगो ने उस रुप मे नही पहचाना हो लेकिन मेरे दृष्टिकोण से अभी तक प्रकाशित किया जा चुका हर शख्स अपने आप में अनूठा है उसके व्यक्तित्व का अपना एक प्रकृतिजन्य वैशिष्टय है और इसी वजह से वो शख्सियत हमारे दिल औ दिमाग मे लम्बे समय तक बने रहेंगे।

सुसी (मूल नाम सुरेशो)मेरे गांव की लडकी है लडकी इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि वह गांव की बेटी है गांव के निर्धन ब्राहमण परिवार में उसका जन्म हुआ था अब उसकी उम्र अब पचास के पार हो चुकी है। सुसी को पैदाईशी रुप से वाकविकार (स्पीच डिसआर्डर) था संभवत: जन्म के समय मस्तिष्क में कोई क्षति हो गई होगी और इसी बीमारी का असर उसके संज्ञानात्मक विकास ( Cogitative Development) पर भी पडा वह मानसिक रुप से विकलांग नही थी लेकिन इसके अलावा उसके व्यक्तित्व और व्यवहार में असामान्यता जरुर थी वह ठीक से बोल न पाती थी उसका उच्चारण अस्पष्ट था वह बेहद तेज़ बोलती और चंचल भी थी एक जगह वह बैठी नही रह सकती है गांव की गलियों में उसके चक्कर लगते ही रहते थे कभी इस घर तो कभी इस घर गांव के लिहाज़ से वह ‘डारो’ (घूमंतू) थी। सुसी के सभी लक्षण मै उसके व्यस्क रुप के बता रहा हूँ उसकी अपने निजि जीवन की कहानी भी कम दुख और त्रासदी से भरी नही है।
मानसिक रुप से चुनौतिपूर्ण जीवन जीने वाले लोगो के लिए समाज़ में दया तो होती है लेकिन वो दया बेचारगी से उपजा आवेशभर होता है बाकि ऐसे लोगो के समुचित पुनर्वास की व्यवस्था अभी तक तो शहर में भी उपलब्ध नही है गांव में पुनर्वास जैसी कोई चीज़ होती है यह कोई जानता भी नही है।
सुसी का जितना किस्सा मुझे ज्ञात है उसके हिसाब से सुसी के घर वालों ने उसकी मानसिक अक्षमता के बावजूद उसका बाल विवाह कर दिया था उसके पति और ससुराल पक्ष को जैसे ही इस बात का पता चला कि सुसी एक सामान्य बहु नही है तो उन्होने उसके साथ बेहद अमानवीय किस्म का व्यवहार किया उसकी ससुराल पक्ष वालों ने उसका शोषण करना आरम्भ कर दिया उससे रात-दिन घर का काम करवाना और उसके साथ मारपीट करना भी शुरु कर दिया था। सुसी की शादी के कुछ दिन बाद हमारे गांव से उसके परिवार का कोई व्यक्ति जब सुसी से मिलने उसकी ससुराल गया तो सुसी उसके सामने फफक कर रो पडी और अपनी सारी व्यथा संकेतो के माध्यम से कह दी और उसने वहाँ अपना निर्णय भी सुना दिया कि अब उसे एक दिन भी यहाँ नही रहना है बस उसके बाद वह स्थाई रुप से अपने मायके यानि हमारे गांव आ गई। सुसी उसके बाद कभी वापिस अपनी ससुराल नही गई उसके गांव आने के बाद उसके सुसराल पक्ष ने भी शायद कभी उसकी सुध नही है उसके पति के बारे में कभी गांव में नही सुना गया हालांकि जो बाते सुसी के बारे में मुझे पता है वह नितांत ही स्मृति और जनश्रुति आधारित है।
सुसी ने इसके बाद अपने मायके को ही अपना सब कुछ मान लिया है सुसी अपने मनमर्जी से गांव में घूमती रहती थी गांव मे जब भी कोई शादी होती तो गांव की महिलाएं उसको कपडे भी देती थी सुसी के व्यक्तित्व की खास बात यह भी थी कि वह अपनी चाल-ढाल से बच्चों के मन में विशेष कौतुहल पैदा करती है वह जब गली मे चलती तो बच्चों की टोली उसके पीछे-पीछे चल पडते कई बार बच्चे उसको परेशान भी करते थे यानि उसको चिढाते भी थे अमूमन सुसी बच्चों पर गुस्सा नही करती थी लेकिन जब बच्चों की गुस्ताखियाँ बढ जाती तो वह बच्चो को अजीब तरह से डरा भी देती थी वो उसकी एक खास किस्म की भय पैदा करने की मुद्रा और आवाज़ होती थी उसका बच्चों को डराना केवल उनसे खुद को बचाना होता था क्योंकि कई बार बच्चे उसको बहुत परेशान करते थे। आज भी गांव की महिलाएं बच्चों को रोने से चुप कराने के लिए कह देती है कि चुप हो जा वरना सुसी आ जायेगी और जिस बच्चे ने सुसी का भय देख लिया वह तुरंत ही सुसी के नाम से चुप भी हो जाता थ। ऐसा भी नही था कि वह बच्चो मे भय का ही प्रतीक रही है वह स्वभाव से दयालु भी थी जब भी बच्चा बुआ जी कह कर माफी मांग लेता वह उसको प्यार भी करती थी।
सुसी के लिए आज भी गांव के हर घर का दर खुला है उसके लिए कोई भी भेद नही है उसे हर घर में आदर मिलता है महिलाएं उसको चाय भी पिला देती है और खाना भी खिला देती है और वो खुद भी मांग कर चाय पी लेती है सुसी के व्यक्तित्व में एक खासियत यह भी है कि सुसी अपने मन की मर्जी की मालिक है जहाँ उसका मन नही खाने का होता है वहाँ उससे कितना ही आंग्रह कर लो वह कुछ नही खायेगी...। सुबह-शाम उसको गांव के गलियों में घूमते देखा जा सकता था गांव के बच्चे जब उससे डर जाते तो बुआ जी-बुआ जी करने लगते थे और वैसे भी वह गांव के बच्चो की घोषित रुप से बुआ ही रही है।
सुसी से जब उसके पति की चर्चा करने की कोशिस करता था तो वह प्राय: कुछ चुप हो जाती या फिर अपनी ही अर्द्ध विकसित भाषा में अजीब-अजीब बडबडाने लगती है वह अपने पति को ‘बाबू’ कहती थी उसके सारे प्रलाप में केवल बाबू ही समझ मे आता था कई बार उसको चिढाने के लिए भी लोग कह देते कि बाबू आया हुआ है तुझे उसके साथ भेजेंगे बस फिर वो फट पडती उसकी भाषा तो समझ मे नही आती लेकिन उसकी अव्यक्त भाषा मे छिपा रोष जरुर प्रकट हो जाता हालांकि कुछ लोगो की यह भी मान्यता रही है कि सुसी अपने पति को भला-बुरा नही कहती है बल्कि अपने ससुराल पक्ष के दूसरे लोगो से वह ज्यादा खफा है।
सुसी ने सारा जीवन ऐसे ही ही संताप में बिता दिया उसका दुख किसी त्रासद कथा जैसा है जहाँ उसकी अक्षमता से उपजे उसके दुर्भाग्य ने उसको ऐसी जिन्दगी जीने के लिए बाध्य किया। यह तो गांव के जीवन की खुबसूरती कह लीजिए या गांव की सदाश्यता की सुसी ने अपना सारा जीवन गांव मे सहज और निष्कलंक बिता दिया है गांव में वह अपनी विधवा मां और भाई के साथ रहती थी अब उसकी मां का भी देहांत हो गया है सुसी का एक भाई शहर मे रहता है लेकिन भाईयों ने सुसी की कभी उस रुप मे देखभाल नही की सुसी के लिए सारा गांव ही भाई और पिता समान बनकर रहा है।
अब सुसी भी वृद्धावस्था की तरफ बढ रही है अब उसकी सक्रियता भी कम हो गई है उसको पेंशन मिलती है गांव से ही मुझे अपुष्ट जानकारी मिली उसके हिसाब से पता चला है कि उसका भाई उसको अपने साथ ले गया है शायद उसको मिलने वाली एक पेंशन भी एक वजह हो सकती है लेकिन यह खबर बेहद विचलित करने वाली है जो सुसी दिन भर गांव में घूमती थी उसके लिए शहर के दस बाई दस के दबडों मे रहना कितना दुष्कर हो रहा होगा इसकी कल्पना की जा सकती है।
बहरहाल सुसी के डर और प्यार को देखकर बडी हुई पीढी के लिए सुसी को भूल पाना जरुर मुश्किल है क्योंकि सुसी गांव के रिश्तों मे रची-बसी एक ऐसी शख्सियत है जिसको देखकर कभी डर लगता था तो कभी खुशी भी मिलती थी उसकी अट्टाहस भरी हंसी मुझे आज भी याद आती है आने वाली शादी ब्याहों और अन्य मांगलिक आयोजनो में सुसी की कमी जरुर खलने वाली है यह सारा गांव जानता और समझता है।

Monday, December 2, 2013

बातें गांव की---- एक किरदार ऐसा भी-04



यह ऐसा किस्सा है जिसका केन्द्रिय पात्र केवल शरीर से मेरे गांव से ताल्लुक रखता है बाकि उसके जैसी चारित्रिक विशेषताएं लगभग आपको हर गांव में देखने को मिल जायेगी इस तरह के किरदार लगभग हर गांव में ही पाये जाते है। ऐसे लोग अपनी पीढी के अकेले बचे हुए लोग है और इनके निर्वाण के बाद इन किरदारों के व्यक्तित्व मे रची-बसी एक परम्परा भी इनके साथ  समाप्त हो जाएगी।
गांव के रिश्ते के लिहाज़ से वह मेरा  भाई लगता है लेकिन उम्र मे मेरे पिताजी से भी बडा है गांव के बहुसंख्यक लोगो के लिए वह कोई चर्चा योग्य पात्र नही है ऐसा नही है वह कोई अपमानित होने वाला शख्स है लेकिन संयोग से वह अपनी पीढी और परम्परा का अकेला शख्स बन कर रह गया है गांव में मूल नाम के अपभ्रंश करने की बडी समृद्ध परम्परा भी रही है और नाम का सम्मानजनक सम्बोधन किसी की भी आर्थिक सबलता से तय होता है गांव भी इससे अछूते नही है। हमारे गांव के बडे परिवार मुखिया खानदान का एक छोटा और सीमांत श्रेणी का किसान है ‘पटम्बर आंधा’ आधिकारिक रुप से उसका नाम पीताम्बर है लेकिन गांव में वाचिक परम्परा की सुविधा और आर्थिक सम्पन्नता के वर्गीकरण के लिहाज़ से उसका नाम सदैव से ही ‘पटम्बर’ ही रहा है ( मै यह नही कहूंगा कि कालांतर मे पीताम्बर से अपभ्रंश होकर पटम्बर हो गया था) अब आंधा लिखने की वजह भी बताता हूँ पटम्बर को एक आंख से बेहद कम दिखाई देता है शायद बचपन मे ही ‘मायपोयिया’ हो गया होगा और सूर्यास्त के बाद उस आंख से लगभग दिखना बंद ही हो जाता है इसलिए पटम्बर को आंधा भी कहने लगे है गांव में शारिरिक अयोग्यता भी व्यक्तित्व के साथ ढोने वाली चीज़ बन जाती है इसलिए उसे गांव में सयुक्त रुप से पटम्बर आंधा कहा जाने लगा हालांकि उनको आन्धा कहने की एक और वजह यह भी है वो जिस मुखिया खानदान से सम्बंधित है वह भी गांव के बौंग ( लोकप्रचलित उपनाम) के लिहाज़ से आन्धे ही कहे जाते है इसलिए पटम्बर के साथ आन्धा शब्द दोहरे रुप मे चस्पा हो गया।
पटम्बर आंधा के पिताजी कभी हमारे जनपद के चोटी के पहलवान हुआ करते थे उनका नाम कुंदन था दंगल में उनसे हाथ मिलाने की जुर्रत बडे बडे शूरमा भी नही कर पाते थे उनके विषय में गांव में काफी किम्वदंतिया प्रचलित है मसलन उन्होने एक दंगल में सामने के पहलवान से हाथ मिलाकर उसके अंगुलियों के पोरो से खून की धारा चला दी थी, वो लडते हुए झोटे (भैंसा) को सींग पकडकर अलग कर देते थे, वो बैल के अगले दो पैरो को पकडकर उसे सीधा उपर उठा देते थे, वो वजन उठाने में भी बेहद बलशाली थे आदि आदि....ऐसे बलशाली पहलवान के पुत्र के रुप पटम्बर आंधा का जन्म हुआ लेकिन पिता की मृत्यु के बाद वो उनकी समृद्ध पहलवानी की विरासत को उस रुप मे आगे नही बढा सके हालांकि पटम्बर भी अपने जवानी के दिनों में अत्याधिक बलशाली रहे है लेकिन उनके किस्से दंगल में कुश्ती लडने के नही रहे बल्कि खेत से भारी वजन की घास की गठडी उठाकर गांव तक लाने तक ही सिमट कर रह गये।
गांव के लोगो के लिए पटम्बर आंधा एक कमअक्ला किस्म का इंसान हो सकता है लेकिन मै मनोवैज्ञानिक रुप से जब उसके व्यक्तित्व को जब देखता हूँ तो मुझे वह पिता की परम्परा की अपेक्षा और अपनी आंखो की कमजोरी तथा आर्थिक बदहाली से उपजे दबाव की उपज दिखने लगता है कदकाठी के लिहाज़ वह आज भी 6 फीट से अधिक लम्बा है और उम्र भी 70 के पार हो चुकी है। गांव में पटम्बर आन्धा का जिक्र जिस बात के लिए किया जाता है वह है उसकी खुराक। घोषित रुप से वह हमारे गांव का सबसे बडा खाऊ आदमी रहा है घर,शादी ब्याह या अन्य किसी भी कार्यक्रम में उसकी चर्चा उसकी गजब की डाईट को लेकर ही होती रही है गांव मे कभी दबे स्वर तो कभी मुखर रुप से उसका अत्याधिक खाना खाने की क्षमता और आदत होना एक प्रहसन का विषय रहा है लेकिन मै इसे उसके व्यक्तित्व की विशेषता के रुप में देखता हूँ।
लौकिक रुप से पटम्बर आंधा सम्मान/अपमान दोनो से ही मुक्त चेतना है वह लोगो की खुशियों में शामिल होना अपना अधिकार समझता है ईगो जैसी भी कोई चीज़ होती है वह कभी जान ही नही पाया है उसके व्यक्तित्व में जटिलताएं नही है भले ही उसके जीवन में प्रमुख अभिप्रेरणा भोजन है लेकिन इसके बदले मुझे उसके अन्दर एक सदाशयता ही नजर आती है।
पटम्बर आंधा एक अच्छा गल्प सुत्रधार भी वह किस्सागो भी है उसकी चुस्त जुमलेबाजी और अपने जवानी के दिनों के अनुभव खासकर यात्रा संस्मरण गजब के है जिसमे देहात के एक सरल और अनपढ इंसान के भदेशपन की महक आती है। पटम्बर आंधा भले ही सामाजिक रुप अधिक स्वीकृत या सम्मानित अवस्था में नही है लेकिन वह निर्द्वन्द है उसके जीवन में संकोच जैसी चीजों के लिए कोई  स्थान नही है गांव के मांगलिक कार्यक्रमों में वह आमंत्रण जैसी औपचारिकता का भी अभिलाषी नही है जिसे प्राय: उसकी कमजोरी के रुप मे देखा जाता है लेकिन मेरे हिसाब से ऐसा जीवन जीने का अभ्यास विकसित करना अपने आप में बडी बात है जहाँ आप लोक अपेक्षाओं से परे अपने जीवन के एक मात्र अनुराग ( भले ही भोजन हो) के सहारे जीवन जी पा रहे हो।
पटम्बर आंधे के खाना खाने के किस्से आज भी गांव मे इतने मशहूर है कि लगभग गांव के सभी लोग उनके बारे मे जानते है वह दो डोंगे भर के रसगुल्ले एक बारात मे खा गया था एक किलो बूरा चावल के साथ खाना उसके लिए कोई बडी बात नही रही है गांव में लडको की शादी मे दिए जाने वाले प्रीतिभोज ( मंढा) में उसके द्वारा 50-60 लड्डु खाया जाना भी कभी आम बात हुआ करती थी। अब बुढापे में उसकी भी डाईट घट गई है लेकिन मीठा खाने के मामले में आज भी उसको कोई सानी नही है। मैने एक दफा खुलकर उससे उसकी खाने की प्रवृत्तियों पर बात भी की थी तभी मुझे पता चला कि उसके लिए उसका इतनी बडी डाईट खाना कोई विषय ही नही है यह उसकी जीवन का हिस्सा भर है हालांकि वह अब यह भी कहता है कि गांव में उसके खाने को लेकर दुष्प्रचार अधिक हुआ है वह अब उतना बडा खाऊ नही रहा है लेकिन अपनी जवानी दिनों के दिनों को याद करते हुए वह खुद अपने खाने के किस्से ब्याँ करने लगता है।
अपनी उम्र के इस आखिरी पडाव पर पटम्बर आंधा अब भले ही अपने पुत्रों द्वारा बिना आमंत्रण के भोज पर जाने से रोका जाना लगा हो लेकिन इसके बावजूद भी उसके अन्दर कोई अपराधबोध नही है यह उसके व्यक्तित्व की सरलता ही है कि मैने शायद ही उसे कभी क्रोध मे देखा हो दरअसल वह अपनी ही धुन मे रहने वाला और सीधे रास्ते पर चलने वाला एक आम सच्चा देहाती मानुष है जो दूनियादारी के लंद-फंद नही जानता है अपनी क्षमताओं का ग्लैमराईजेशन भी उसको नही आता है वह साक्षी भाव से जीवन जीने का आदी है और अपने आसपास के लोगो को देखकर उनकी गति और बदलाव को देखकर यह जरुर लगता है पटम्बर आंधा जैसे लोगो अपनी पीढी के अंतिम लोग है ऐसे में उनके व्यक्तित्व का दस्तावेजीकरण हमारे लिए एक परम्परा के दस्तावेजीकरण का काम करेगा ताकि आने वाली पीढियों को ऐसे लोग सनद रहे। 

अंतर्मुखी

अंतर्मुखी व्यक्ति भले ही समाज की मुख्य धारा में उतने काम के न नजर आते हो लेकिन उनकी आत्मकेन्द्रिता प्रतीक होती होती है उनके अन्दर छिपी रचनात्मकता की, साथ ही आध्यात्म की सूक्ष्म वृत्तियों को समझने और बरतने की सबसे अधिक सम्भावना अंतर्मुखी व्यक्तियों के अन्दर छिपी होती है उनके चिंतन की व्यापकता का बडा आधार इससे भी तय होता है कि उनकी ऊर्जा संसार की अभिव्यक्तियों या संलिप्तताओं मे व्यय नही होती है यदि अंतर्मुखी व्यक्ति थोडा भी चैतन्य है तो वह अपने इस शीलगुण का प्रयोग अपने अस्तित्व के अनंत विस्तार और आत्म को समझने के लिए बखुबी कर सकता है। ध्यान,लेखन,सृजन के लिए परमात्मा के उपयुक्त चित्त यदि दिया है तो वह अंतर्मुखी जीव के अन्दर ही दिया है ऐसा नही है बर्हिमुखी इंसान किसी काम का नही है उसकी अपनी उपयोगिता है लेकिन प्राय: अंतर्मुखी इंसान खुद को हीनता के बोझ तले दबा पाता है जिसके चलते वह उस सृजनशील चेतना को विकसित होने का अवसर नही दे पाता है और अंतोत्गत्वा हानि विशुद्ध मानवीयता की ही होती है। समाज के दबाव से मुक्त होकर जीने की कला सीखने मे बरसो बीत जाते जाते है और तब तक ऐसे बहुत सी अंतर्मुखी प्रतिभाएं समाज़ की उस अपेक्षाओं की बलि छड चुकी होती है जहाँ मिलनसारिता और हंसमुख होना जिन्दा होने की अनिवार्य शर्त समझी जाती है।

Tuesday, November 19, 2013

तीन स्टेट्स

बुद्धिमान पत्नी
परिपक्व प्रेमिका
भावुक साथी
और सच्चे दोस्त

की तलाश में अपेक्षाओं के बीहड़ में भटकता जब रोज़ शाम अपनी कब्र में दाखिल होता है तब उसका एकांत उस पर हंसता है और वो नजर चुराकर बडबडाता है ये कमबख्त दूनिया मुझे गलत समझे जाने के लिए शापित है ।


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कविता की सम्वेदना पर तब्सरा करने से पहले खुद का व्यवहार देखिए कि आप रिक्शेवाले,फल-सब्जी की रेहडी लगाने वाले,बूट पोलिश करने वाले,दिहाड़ी मजदूर,समाज के फिफ्थ क्लास लोगो के साथ किस तरह से पेश आतें है आपकी बातचीत की टोन कैसी होती है।

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हर शख्स के अंदर एक साहित्यिक किरदार बसता है जिस पर कविता लिखी जा सकती है जो किसी भी उपन्यास का नायक हो सकता है।

Tuesday, November 12, 2013

मन

मन से मन का अतिक्रमण करने को सोचने मात्र से पूरा अस्तित्व विद्रोही हो जाने की धमकी देने लगता है. मन चंचल है यह तो शास्वत है लेकिन मन आदेश पालना के मामले में भी प्राय: एकाधिकारी होने की चेस्टा करता है.मन कॊई  इकाई नही है लेकिन मन के बिना कोई इकाई दहाई नही बन पाती है. मन की एक उड़ान है अपनी गति भी है लेकिन मन की  लय लोक से अभिप्रेरित प्रतीत होती है दिशाबोध के मामले में भी मन के कुछ अपने पूर्वानुमान हैं  जिनको वह अर्द्धचेतन में सुरक्षित रखता है और जब जब शाम गहराती है या धुंध के बादल छा जाते है तब मन उनसे पड़ताल करवाता है कि उसको किस दिशा में उड़ना है. एक अस्तित्व के अंदर कितने अस्तित्व और उन सभी अस्तित्व के भी  कितने स्तर गूथे हुए है इसको सुलझाने में वर्षो बीत सकते हैं. मन बावरा है मन  व्याकुल भी है मन निरुपाय भी है लेकिन ये मन ही तो है जो अचानक से हमे अंदर तक आनंद में तर कर देता है और अचानक से उदासी में लिपटी मुस्कान छोड़ जाता है. मन को समझाना व्यर्थ है हम मन को समझा नही सके है जब हम मन को समझा रहे होते है तब मन तो बंकिम हंसी से हमारी छटपटाहट पर मुस्कुरा होता है दरअसल हम मन के चक्कर में अपने इगो को समझा रहे होते है.मन इगो से परे है उसकी अपनी एक दुनिया है,इगो लोक का दास है तो मन अपने मन का मुरीद.यह दासता में जी ही  नही सकता है न यह किसी को अपना दास बनाना चाहता है हाँ ! ये उन्मुक्त खुला गगन चाहता है जहां लोक के अभिसारी बंधन न हो जहाँ अपेक्षाओ का बोझिल संसार न हो...मन को समझना दरअसल खुद को समझने जैसा है यह जितना प्रकट है उससे कंही अधिक गुह्य भी.मन को स्तरों पर न बांधो मन का विश्लेषण भी मत करो बस अपने मन कि सूक्ष्म उपस्थिति को अनुभूत करो इसके बाद मन के प्रश्न खुद जवाब में रूपांतरित हो जायेंगे फिर शायद आपको मन को जीतने की जरूरत भी न पढ़े क्योंकि तब तक आपका मन के साथ जीने का अभ्यास विकसित हो चूका होगा फिर गीता के उपदेश सुनने में आनंद ले सकोगे क्योंकि फिर ये उपदेश आपको अपराधबोध में नही ले जा सकेंगे बल्कि आप खुद योगिराज कृष्ण के वाक् चातुर्य और अर्जुन के अवसाद पुनर्वास का सच्चा आनंद ले सकेंगे जिससे आप अभी तक वंचित है. 

Sunday, November 10, 2013

हरजाई

मेरे जैसे गैर पेशेवर शख्स के जीवन में  यंत्रो की  भूमिका पर कई बार गहराई से सोचता हूँ यहाँ गैर पेशेवर से आशय कंप्यूटर की तकनीकी दुनिया से ताल्लुक न रखने से है.पिछले दो महीने से घर पर लैपटॉप पर नेट का कनेक्शन नही चल रहा है वजह दो है एक तो हर महीने हजार रुपये का टाटा फोटोन प्लस का रिचार्ज जेब पर भारी लग रहा था दूसरा यूनिवर्सिटी में डिपार्टमेंट में ब्रॉडबैंड सुविधायुक्त एक पीसी मेरे कब्जे में आ गया है जहाँ से मैं देश दुनिया से जुड़ा रहता हूँ बस इसी सुविधा के चलते घर पर फोटोन प्लस की कुप्पी गोदरेज के अलमारी पर पड़ी धूल फांक रही है. मेरी इस मनमानी और बेरुखी का सबसे बड़ा भुक्तभोगी मेरा 4 साल पुराना लैपटॉप बना हुआ है आज मैंने उसको देखा तो मुझे अपने मतलबी होने का बड़ा अफ़सोस हुआ क्योंकि बिना इंटरनेट के उसको खुले भी कई कई दिन हो जाते है वो भी उसी गोदरेज के अलमारी कि छत पर धुल की खुराक ले रहा है. फोटोन प्लस की कुप्पी और लैपटॉप फिलहाल मेरे जीवन की सबसे उपेक्षित वस्तु बनी हुई है  . कभी कभी सोचता हूँ कि जो लैपटॉप मेरे  सुख दुःख का इतना बड़ा भागीदार रहा है जिसके कीपैड ने मेरे हताशा और नाराज़गी के पलों में अपनी छाती पिटने के लिए  मेरे निर्मम हाथो के हवाले कर दी हो और हमेशा मेरे मन के द्वन्द को शब्दो का आकार दिया हो वो इनदिनों कितना तन्हा महसूस करता होगा उसे तो ये भी नही पता होगा कि मैंने एक नया यार यूनिवर्सिटी में बना लिया है  अगर उस यंत्र का अपना कोई सोचने का तंत्र होता तो मनुष्य के रूप में उसके लिए सबसे घ्रणा का पात्र मै ही होता.लैपटॉप की मेमोरी  में बेतरतीब पड़ी फाइल्स भी मुझे लानत भेजती होगी जिनको खोले भी मुझे एक पखवाड़ा  हो गया है. कुल मिलकर मेरा लैपटॉप तभी तक गुलज़ार था जब तक उसमे इंटरनेट की प्राणऊर्जा बह रही थी जैसी ही इंटरनेट बंद हुआ लैपटॉप कि ड्राइव में पड़ी फाइल्स भी अपने अपने फोल्डर में कैद हो गयी है वो मुझ हरजाई की एक क्लिक के इन्तजार में बावरी हो रही होगी ये सोच कर मेरा जी भर आता है. लैपटॉप के यूएसबी हलक में लैला मजनूँ सी फंसी रहने वाली टाटा फोटोन प्लस की कुप्पी भी कितनी बेबस हो गयी है क्योंकि उसके पास नेटवर्क का सिग्नल तो है लेकिन मुद्रा की खुराक नहीं जिसके चलते टाटा कंपनी ने उसका दाना पानी बंद कर दिया है अब घर के एकांत में मेरा लैपटॉप और फोटोन प्लस की कुप्पी अपने अपने दुःख के संगी साथी बन थोडा मुझे कोस रहे होंगे और थोडा उसका कथित भगवान् को जो हर महीने मेरा हाथ तंग ही करता जा रहा है. फोटोन प्लस की कुप्पी की चिंता और भी बड़ी होगी क्योंकि अगर एक महीने मै अगर ऐसे ही सरकारी पीसी के इश्क़ में पड़ा रहा तो फिर टाटा कंपनी उसको हमेशा के लिए खामोश कर देगी.मनुष्य के तौर पर मैं केवल साक्षी भाव से अपने बुरे दिनों के अच्छे साथी रहे इन दोनो  साथी की पीड़ा देखकर बैचैन जरुर हूँ लेकिन फिलहाल अपनी जेब को देख कर चुप हो जाता हूँ बस आज सांत्वना के लिए मैंने इतना किया कि उन पर वक्त की मार ने जो गर्द चढ़ा थी उसको मैंने साफ़ किया और मै कर भी क्या सकता हूँ....:( 

Saturday, November 9, 2013

अथ फोन कथा

बहुत दिनों से स्पाईस का 2700 रुपये का खरीदा हुआ फोन प्रयोग कर रहा था अभी एक हफ्ते पहले फ्लिपकार्ट पर किताब तलाश रहा था तभी मेरी नजर इस फोन पर पडी और मेरी जी ललचा गया जब जेब टटोली तो वो फटेहाल थी फिर देखा कि इस फोन को खरीदने के लिए ईएमआई की सुविधा उपलब्ध है यह देखकर थोडा जी राजी हुआ लेकिन जब हमने आप्शन देखे तो वहाँ एचडीएफसी,आईसीआईसीआई जैसे बडे बैंकों के क्रेडिट कार्ड होल्डरस के लिए उक्त सुविधा थी फिर मन मसोस कर रह गया तभी छोटा भाई ऑनलाईन था उसको सारा मसला बताया वो नोएडा की एक साफ्टेवेअर कम्पनी मे कार्यरत है हालांकि तनख्वाह उसकी भी कमोबेश मेरे जितनी ही है लेकिन उसके पास एचडीएफसी का ऑफर देकर दिए जाने वाला क्रेडिट कार्ड है उससे बडे भाई की मन मसोस कर रह जाने हालत देखी नही गई और उसने तभी अपने क्रेडिट कार्ड से यह फोन जिसकी कीमत 17400/- (ईएमआई मोड पर) तुरंत आर्डर कर दिया अब मै हर महीने इसकी किस्त जमा कर दिया करुंगा 6 महीने की ईएमआई के बाद यह फोन पूर्णॅकालिक अपना हो जायेगा...सौभाग्य से अपना स्पाईस वाला फोन भी ठीक ठाक कीमत पर बिक गया है और उसमे कुछ पैसे डालकर इस फोन की पहली ईएमआई मैने जमा भी कर दी है...अगले महीने की तब की तब देखेंगे...फिलहाल तो 2-3 घंटे से इसके फंक्शन देख रहा था एंड्रायड फोन है सो नेट अच्छा चलता है...बस यही छोटी सी कहानी है अपनी भाई भाई के काम आ गया इससे यह खुशी फोन लेने की खुशी से कई गुना बडी है....
(हम ठहरे थे पीएनबी के बचत खाते वाले करमठोक इंसान जिनकी पे स्लिप देखकर खुद का बैंक भी मदद करने साफ मना कर देता है और हर महीने सेलरी आते है सबसे उत्साह से एक ही काम होता है वह होता है खाते को जीरो बैलेंस कर देना...ऐसे में पूर्णकालिक वेतनभोगी भाईयों का ही सहारा शेष बचता है..)

Monday, October 28, 2013

होली

होली हुडदंग है न कि शास्त्रीय मस्ती का उत्सव। गांव के बच्चें फिर् भी शालीन रहते है लेकिन शहर मे अभी से देख रहा हूँ बसों में तथा दो पहिया चालकों की कनपटिया गुब्बारों से पिट रही है शहरी हुडदंगी बच्चे इतने निरकुंश हो कर गुब्बारे मार रहे है कि वह किसी को किस स्तर का नुकसान पहूंचा सकता है इसकी कोई न उन्हे कोई फिक्र है और न तमीज़..। माफ कीजिए बच्चों को शरारत और मस्ती के नाम पर मै ऐसी छूट देने के पक्ष में कतई नही हूँ जिससे बस के यात्री शहर में आने से पहले ही बेचारे आतंकित हो जाएं कि कब कहाँ कैसे गुब्बारा उनकी कनपटी लाल कर देगा।
अब गांव का किस्सा, गांव में मजाक का सात्विक स्वरुप लगभग दो पीढी पहले ही बात है जब लोग दिल के सच्चे और जबान के पक्के हुआ करते थे वर्तमान में होली गांव के ऐसे निठल्ले अधेड युवाओं के लिए दारुबाजी और फिर अपनी स्त्री देह को स्पृश करने आदिम इच्छा तथा यौन कुंठाओं को आरोपित का त्यौहार है जिसमें वें इस मस्ती के नाम पर मुहल्ले भर की भाभीयों को न केवल तंग करते है बल्कि बलात रंग से गाल लाल करके अपने पुरुषवादी चेहरे को पुरस्कृत करते हैं।
मथुरा,वंदावन की फूलो की होली या लठ्ठमार होली से भी कोई उदाहरण तय नही किया जा सकता है क्योंकि वह केवल वही तक सीमित है। सच तो यह है कि पुरुषों के निरंकुश और अराजक होने आदिम प्रवृत्ति को अप्रत्यक्ष रुप से पोषित करता है यह होली का त्यौहार जिसको जब भी ,जैसे भी, अवसर मिलें वह अपने प्रभुत्व और कुंठाओं को आप पर आरोपित करके मानसिक सुख लेना चाहता है और नाम दे देता है त्यौहारी मस्ती का।
रहा होगा कभी सौम्य,सात्विक स्वरुप जिसमें हास-परिहास हुआ करता होगा एक गरिमा हुआ करती होगी लेकिन इस दौर की होली देखकर तो यही जी करता है अब बुरा ही मानकर काम चलेगा वो जुमला अब अप्रासंगिक हो गया है बुरा न मानो होली है !
(होली के दिन गांवों में पार्टीबाजी के चलते कितनी ह्त्याएं होती है पुलिस कैसे अतिसम्वेदनशील गांव को लेकर चौकन्नी रहती है उसका जिक्र नही कर रहा हूँ वरना आपकी होली का मजा खराब हो जायेगा लेकिन वो भी एक बडा कडवा सच है)

रेडिकल चेंज

विश्वविद्यालय की तदर्थ मास्टरी छोडने की सोच रहा हूँ बहुत हो गया रोजाना कि वही रुटीन लाईफ क्लॉस रुम लेक्चर,शोध पत्र,सेमीनार,एपीआई और विभागीय तिकडमबजियाँ..। मनुष्य का जीवन एक ही बार ही मिलता है और ऐसे बंधे-बंधायें जीने में क्या खाक मजा है। उच्च शिक्षा में आयें तो 01 पी.-एच.डी. 3 पीजी और 2 विषयों में यूजीसी नेट कर डाला पिछले 6 साल से विश्वविद्यालय में अस्थाई ही सही लेकिन यू.जी./पीजी. का अध्यापन किया एक निजि विश्वविद्यालय में 3 लोगों के एम.फिल.डिजर्टेशन में गाईड बना। कुल मिला कर जो भी किया उसका संतोष है लेकिन अब इनर कॉल कुछ इस तरह की आ रही है कि अब एक रेडिकल चेंज की जरुरत हैं।
आप सभी मुझे काफी दिनों से समझ और जान रहें है मेरी तमाम बदतमीजियों और उदासियों के किस्सों के चश्मदीद गवाह है इसलिए आप ही से पूछ रहा हूँ अध्यापन के अलावा मै क्या कर सकता हूँ ? मुझे क्या करना चाहिए यह बहस का मुद्दा नही है सो प्लीज़ मेरा भला-बुरा किसमें है ,मनोविश्लेषण आदि करनें से बचिएगा। यहाँ मै आपकी सलाह नही ले रहा हूँ केवल मेरी जीवनशैली और व्यक्तित्व के अनुसार मेरा पेशा और क्या हो सकता है? उस पर आपका मत चाह रहा हूँ।
आभार एवं नमन..

आना-जाना

फेसबुकिया दूनिया में मेरा आना जाना लगा रहता है यह ठीक उस नामुकम्मल कोशिस की तरह है जो अपने होने की जद्दोजहद मे रोज़ नए मिराज़ पैदा करती है और रोज़ उन्हे अपनी हकीकत की किस्सागोई के साथ दफन भी कर आती है। इतने परेशान मत हो मेरे दोस्तों ! आपकी मुहब्बतों का तलबगार हूँ अभी तो खाकसार कहने के भी काबिल नही बना हूँ उधार के अल्फाज़ और अपने कुछ तल्ख कुछ मासूम अहसासों कों कभी शायरी के बहानें तो कभी यूँ ही बेवजह की किस्सागोई के बहानें ब्याँ करने की कोशिस करता रहता हूँ। अपने कुछ खास किस्म के कद्रदानों,मेहरबानों की उम्मीदों पर खरा उतरनें का दबाव बना रहता है जो मै महसूस करता हूँ इसलिए अलबत्ता तो मेरी कोशिस यही रहती है कि पाक अहसासों और उम्मीद की रोशनी से मेरी तरफ देखने वालें दोस्त मेरी हाथ की सफाई और नजरबंदी के खेल की हकीकत हो पहले ठीक से समझ लें,जान लें बावजूद इसके भी कुछ लोगो की इज्जतअफजाई और मुहब्बतों की तकरीरे मेरे नाजिरखाने में किसी बैनामे के दाखिलखारिज़ की माफिक दर्ज़ हो जाती है क्योंकि उन्हे लगता है कि मै काम का आदमी हूँ फिर भी मुझे यही लगता है कि किसी का दिल न टूट जाएं इसलिए सभी को बार बार यही कहता हूँ " मेरे बारें में कोई राय कायम मत करना,वक्त बदलेगा और तुम्हारी राय बदल जायेगी.."
जिन्दगी को देखने-समझने के लिए सबके पास अपना-अपना तजरबे का चश्मा होता है मेरे पास भी है और अपने उस चश्में से जिन्दगी को देखने की कोशिस नें मुझे कभी आदत से जज्बाती बनाया तो कभी अदब से कमजोर इसलिए थोडा सलाहियतों पर ईमान लानें के मामलें कमअक्ला किस्म का इंसान हूँ अभी तलक तो जिन्दगी को अपनी शर्तो पर जीने की कोशिस की है कल का भरोसा नही इसलिए जब तक यहाँ इस मंच पर हूँ जैसा हूँ स्वस्थ हूँ,बीमार हूँ,छद्म हूँ,पारदर्शी हूँ,मौलिक हूँ या आयतित हूँ,बौद्धिक हूँ,दोगला हूँ ,हैरान हूँ,परेशान हूँ मुझे इसी रुप मे स्वीकार कीजिए बडी विनम्रता के साथ यही कहना चाहूंगा कि मै अपना वजूद खुद गढ रहा हूँ इसलिए किसी के भी सम्पादन की गुंजाईश नही है अच्छा,बुरा जैसा भी है सब मेरा ही है आपके पास चयन का विकल्प है इसलिए एक अस्तित्व को समग्रता के साथ स्वीकार करनें वाले साथी अपने साथ दूर तलक जायेंगे वरना न जानें कितने लोग रोज़ फेसबुक पर एड होते है और लिस्ट में क्या तो बेजान पडे रहते हैं या किसी दिन डिलिट की क्लिक के शिकार होतें है।
इस उम्मीद के साथ यह लिख रहा हूँ कि उपरोक्त कथन को मेरा अहंकार न समझा जाएं शेष आपकी इच्छा।
(मेरे फेसबुक पर आने और अचानक वितंडा फैला कर भागने के उपक्रम से आजिज़ आ चुके फेसबुकिया मित्रों के लिए मेरा फेसबुकिया हलफनामा ताकि जिरह से बचा जा सकें)

ब्रांडिंग

मुझे अपनी ब्रांडिंग करनी आज तक नही आई मैं इसको इसको किसी कमी या खूबी के संदर्भ में नही कह रहा हूँ लेकिन फेसबुक पर देखता हूँ की लोग बाग़ येन केन प्रकारेण अपनी ब्रांडिंग में लगे रहते है अपनी फितरत तो यही रही की जो अपनी जेब में है उसको भी खोटा ही बताया जाएँ क्योंकि अभी बहुत कुछ सीखना और जानना बाकी है पिछले ६ साल से दो ब्लॉग लगभग नियमित रूप से लिख रहा हूँ जिसमे एक कविताओं का हैं और एक ऑनलाइन डायरी टाइप का है लेकिन मुश्किल से ही कभी कभार अपने ब्लॉग के लिंक यहाँ फेसबुक पर शेयर किये होंगे जो लोग मेरा लिखा नियमित पढ़ते हैं उनकी भी यही शिकायत हैं की मै अपने लिखे हुए का ठीक से प्रचार नहीं कर पा रहा हूँ एकाध मित्रों की सलाह थी की मुझे पत्रिकाओं में भी छपना चाहिए तभी दायरा बढेगा और पहचान भी बढ़ेगी लेकिन मेरे दिल में कभी किसी पत्रिका में कवितायेँ भेजने का ख्याल ही नहीं आता है कभी. फेसबुक की मायावी दुनिया कभी कभी उकसाती भी है लेकिन फिर सोचता हूँ अभी ऐसा लिखा ही क्या है जो उसकी डुग डुगी बजायी जाये फिर खुद को उस कहावत के जरिये बहला लेता हूँ की सूरज जब निकलता है तब सबको दिखाई देता है उसको बताना थोड़े ही पड़ता है की मैं उग आया हूँ...

आडवाणी

सभी लोग आडवाणी की नारजगी को प्रधानमंत्री पद के लिए उनका नाम न घोषित करने से जोड़ कर देख रहे है हो सकता है की यह भी एक वजह हो लेकिन मुझे लगता है आडवाणी जी जैसा वरिष्ट नेता महज़ ऐसे भावावेश में ऐसा कोई बड़ा निर्णय नही ले सकता है. आडवाणी भाजपा के उन नेताओं में शुमार हैं जिन्होंने इस पार्टी को खड़ा किया था ऐसे में पार्टी से इस्तीफ़ा देना कोई आसान काम नहीं रहा होगा. मुझे लगता है की उनकी मोदी से सैद्धांतिक दूरी और धीरे धीरे हाशिये पर खिसकते उनके वजूद भी एक वजह रही है यह वर्तमान राजनीति की बदलती दिशा का एक प्रभाव कहिये या वक्त के मजबूरी कि मोदी अब भाजपा की मजबूरी बन गए है और ऐसे में उन्हें अपने किसी बड़े नेता को खोने का गम भी ज्यादा दिन नही रहने वाला है यह भी तय है, दरअसल वर्तमान में सैद्धांतिंक रूप से राजनीति करने वालो का समय अब ज्यादा रहा भी नहीं है क्योंकि अब जनता किसी चमत्कारिक व्यक्तित्व की आस में हैं जो कांग्रेस के राज़ से मुक्ति दिला सके अब विचारो और सिद्धांतो की राजनीति गौण हो गयी है एक भारतीय नागरिक होने के नाते मैं इसको कोई शुभ संकेत के रुप में नहीं देख रहा हूँ...आप भले ही उत्सव मनाएं..मैं किसी को रोक भी नहीं रहा हूँ.

मोटिवेशन

ज़िन्दगी की रुमानियत पर तब्सरा करने वालो को मेरा सलाम सच! जिन्दगी जिन्दादिली और जिन्दगी को हौसले के साथ जीने का ही नाम है। ज़िन्दगी कभी इतनी हसीन होती है कि कायनात की भी शरमा जाए और कभी इतनी बोझिल की एक पल जीना भी दुश्वारी लगे कभी यह खुले आसमान में जीने की चाहत पाल बैठती है तो कभी बंद कमरा भी सिमटने के लिए कम पड जाए...इसके इतने रंग है इतने कोलाज़ है और इतने कैनवस है कि कहना,लिखना,सुनना और यहाँ तक जीना भी कम पड जाए।
निजि तौर पर खुश रहना या खुश रहने की कोशिस करना या फिर खुशी तलाशना सबका हक है और हमे इसके लिए कोशिसे भी करनी चाहिए मरते दम तक। अपने निराशा या उदासी के पलों या किस्सागोई को अपने एकांत तक ही सिमट कर रखने की फनकारी भी आनी चाहिए वरना आपकी उदासी के किस्से किसी के दिल की गहराई मे छिपे गम को खुराक देने लगते है आपकी निराशा दूसरे शख्स की निराश बढा देती है जब हम किसी को खुशी नही दे सकते है तो फिर गम की फसल के लिए खाद बांटना भी ठीक नही है। भगवान बुद्ध ने दुख को सबसे बडा यथार्थ कहा है और यह सच भी है दुख की कोई भाषा नही होती है लेकिन इसमे सम्प्रेषणशीलता गजब की होती है अपने जैसे लोगो को ये झट से तलाश लेता है और फिर उम्मीदों का बेरहम कारोबार भी करने लगता है इसलिए कोशिस कीजिए कि खुश और सकारात्मक ऊर्जा वाले लोगों से संवाद स्थापित हो जिनके पास हौसला हो और न केवल हौसला हो बल्कि उसको जीने का सलीका भी हो। दिन भर अपनी असफलताओं से ऊपजे एकालापी ज्ञान और बोरडम और निराशा के पर्चे बांटने वालो से बच कर रहना ही मानसिक स्वास्थ्य के लिए ठीक जान पडता है। जिन्दगी सितम ढाती है और आगे भी ढाती रहेगी लेकिन अपनी उदासियों,नाकामियों की किस्सागोई से दूसरों को असहज़ करने का व्यापार मैने भी खुब किया है और शायद आगे भी करता रहूंगा क्योंकि मै तो कह कर मुक्त होने जुगत मे लग जाता हूँ लेकिन फिर भी मेरी ईमानदार सलाह यही है कि बचो ! ऐसे लोगो से जो शब्दों की तथाकथित जादूगरी से अपना दर्द को भी दवा बना कर बेच रहें है।
ऊर्जावान,सकारात्कम,मोटिवेटेड और जिन्दगी में हौसलों की इबारत लिखने वालों की सोहबत न आपको केवल जीने का हौसला देती है बल्कि आप खुद पर भरोसा करना भी सीख जाते है। उदासियों,नाकामियों के किस्से सुनने के लिए ये जिन्दगी भी कम पड जाती है इसलिए दोस्तो ! जी भर जियो ! ताकि कल कुछ न मलाल न रहें।

दुविधा

जिस विश्वविद्यालय में मैं पिछले छह सालों से बतौर एडहोक़ मास्टर पढ़ा रहा हूँ वहां इन दिनों एडमिशन चल रहे होते हैं साइंस फैकल्टी में एडमिशन की ज्यादा मारामारी रहती है इसलिए मेरे गाँव और रिश्तेदारी निकाल कर आए लोगो के लिए मै बड़ा सहारा नजर आता हूँ वो चाहते हैं कि मै कुलपति की माफिक उनकी मदद करु भले ही उनका बच्चा मेरिट में भी ना आया हो लेकिन एडमिशन करवा दूं मै उनकी दिल से मदद करना भी चाहता हूँ लेकिन उनको यह समझाना बेहद मुश्किल काम है कि अलबत्ता तो मेरे जैसे कृपापात्री अस्थाई मास्टर की विश्वविद्यालय में कोई निजि हैसियत नही होती है फिर मामला साइंस फैकल्टी से जुड़ा होता है वहां के तो बाबू भी इतने रूखे किस्म के होते है कि पूछिए मत जब आप अपने परिचित का फोर्म हाथ में लेकर उनके कान में बुदबुदाते हैं कि मै फलाँ विभाग में एड्होक हूँ तो वो ऐसी हिकारत से देखते है कि साथ खड़े परिचित के सामने ही इज्जत का फालूदा बन जाता है बड़ी असहज स्थिति होती हैं साहब उसके बाद जो सिफारिश के लिए हमें तलाश कर आया होता है उसके असहज होने का नम्बर आता है वो खिसिया कर अजीब अजीब बातें बोलता हैं फिर उसकी गलतफहमी दूर होती हैं कि सहाब प्रोफेसर नही है एक टम्प्रेरी मास्टर हैं जो अपना टाईम पास कर रहा है बेचारा जबकि गाँव में घरवाले बड़े फख्र से बताते है कि हमारा लडका यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर है। इस परीक्षा काल में विवि के कुछेक चपराशि जरुर काम आते हैं जो अपने संपर्को का प्रयोग एडमिशन में मदद के लिए करते हैं उनका भाईचारा हमेशा काम आता है।

एकांतवास

कल पत्रकार मित्र का एसएमएस मिला "जिन्दगी का मैने बस ये हिसाब देखा कि चलती नही कभी मेरे हिसाब से..." मुझे लगा कि पवन भाई ने क्या मौजूँ शे'र भेजा है...अभी 3 जुलाई को मै यहाँ घोषणा करके गया था कि मित्र धीरेश सैनी से उधार मांग कर लाई किताबों का स्वाध्याय करुंगा और खुद भी यह सोचा था कि 10 दिन एकांतवास मे रहूंगा ना फोन ना इंटरनेट केवल अल्पाहार और अध्ययन करुंगा और लगभग दो दिन वो क्रम चला बेहद व्यवस्थित ढंग से....लेकिन अपने संकल्प इतनी आसानी से थोडे ही पूर्ण हो पाते है कोई न कोई बाधा तो आनी अवश्यंभावी थी इस बार भी आई और ऐसी आई कि पिछले 6 दिनो से प्राणहंता पीडा से गुजर रहा हूँ आज थोडा आराम मिला है पहले पेट मे इंफेक्शन हुआ फिर वो इंफेक्शन एनल इंफेक्सन मे बदल गया उसके बाद क्या क्या नही हुआ आप खुद समझ सकते है कि क्या स्थिति रही होगी..न शौच से पूर्व आराम और न निवृत्ति के बाद हालात इतनी तेजी से बिगडी कि देखते ही देखते ऐसी स्थिति मे आ गया कि केवल लेट सकता था न बैठ सकता था और न चल सकता था (दोनो ही स्थिति मे असहनीय पीडा) साथ मे पिछले तीन दिन से बुखार.....इस व्याधि के जांचने के डाक्टरी परीक्षण बडे अमानवीय किस्म के सो उसके बारे मे सोचकर भयाक्रांत होता रहा बडे भाई एम.एस.(सर्जन) है उनसे सारी स्थिति बताई उनके हिसाब से गंभीर दिक्कत होने की सम्भावना थी यहाँ तक कि शायद आपरेशन करवाना पडे....चिट्ठी की भाषा मे कहूँ कि थोडे लिखे को ज्यादा समझना वाली बात रही है मतबल बहुत दिक्कत मे रहा।
भला हो महात्मा हैनीमेन का जो उन्होने होम्योपैथी जैसी चिकित्साविधि विकसित की अपने एक मित्र होम्योपैथ की शरण मे गया था परसो उनको सारी हालत बताई उन्होने मीठी गोली थी कल रात तक उनकी औषधी से कोई आराम नही था लेकिन आज सुबह दस बजे ऐसा लगा कि दवा काम कर रही है और मुझे राहत महसूस हुई हालांकि पूरी तरह से आराम नही है लेकिन ऐसा लग रहा है कि रिकवर हो रहा हूँ।
अभी एक सप्ताह का बैड रेस्ट बताया है डॉ ने और साथ मे उबला हुआ भोजना खाना है जीवन एक मुश्किल दौर से गुजरते हुए प्रार्थना के पलो को जीता हुआ आरोग्य की तरफ आशा भरी निगाह से देख रहा हूँ ताकि मै जल्दी स्वस्थ होकर अपनी बेवजह की मगज़मारी के जरिये आप सभी से जुडा रहूँ।
(जिन मित्रों के पास मोबाईल नम्बर है वो हाल जानने के लिए चिंतातुर होकर फोन करने से बचे क्योंकि मै फिलहाल इस व्याधि से लडता हुआ ऐसी स्थिति मे नही हूँ कि फोन पर आपसे बात कर सकूँ या मिल सकूँ उम्मीद करता हूम कि मेरे इस आग्रह को एक बीमार मित्र की प्रार्थना समझा जाएगा न कि हमेशा की तरह अहंकार)

राजनीति

कांग्रेस की लचर सरकार से उपजी राजनीतिक नेतृत्व की हताशा से परेशान अपने देश का आम आदमी कभी बाबा रामदेव तो कभी अन्ना,कभी केजरीवाल की तरफ एक आशा भरी निगाह से देखता है समर्थन देता है फिर अंत में उसी शून्य का हिस्सा बन जाता है जिसका अभी कोई विकल्प नजर नही आता है। आम आदमी का मखौल उडाने या उसकी बेचारगी पर तबसरा करने की न तो मेरी निजि हैसियत है और न ही ऐसी कोई इच्छा....इसी क्रम में अब विकास पुरुष मोदी को इसे देश की समस्त समस्याओं का एक चुटकी भर में खत्म करने वाले चमत्कारिक युग पुरुष के रुप में एक बडी भीड देख रही है जिसकी बानगी फेसबुक पर भी देखने को मिलती रहती है हालांकि मुझे न सियासत की समझ है और न मेरे तरकश मे तर्को के बाण है लेकिन फिर भी जनता को जैसे भाजपा के रामजन्म भूमि मुद्दे से मुकरने,बाबा रामदेव के भाजपाकरण और अन्ना केजरीवाल के मतभेद से बिखरे एक व्यापक जनान्दोलन से निराशा हुई थी ठीक ऐसे ही यदि बहुत अतिश्योक्तिवादी होकर यह सोच भी लिया जाए कि मोदी पीएम बन जाएंगे तो फिर से उसी निराशा के दौर से गुजरना पडेगा ऐसी मेरी मोटी अक्ल कहती है कोई जरुरी नही है कि मेरी बात सही साबित हो लेकिन मेरे देश की भोली जनता जब तक तक खुद चोट नही खा लेती है वो किसी की तकरीरे कहाँ सुनती है इसलिए मेरी दिली इच्छा है कि एक बार मोदी जरुर पीएम बनें ताकि लोग इस मृगमरीचिका से खुद ही निकल सके फिलहाल तो वक्त ऐसा चल रहा है कि आपने मोदी से असहमति जाहिर की और मोदी के चेलों ने आपके पिछवाडे पर राष्ट्रद्रोही होनी मोहर जडी...।

जुगलबंदी

जीवन को निश्चितंता और नियोजन की परिधि से निकाल कर अस्तित्व के भरोसे छोड देना बहुत बडी कलाकारी है। सलाह,नसीहतें समय के सापेक्ष काम करती है ऐसा लगता है कि आप कुछ चाहते है और दूसरी शक्तियां आपके चाहतो के विरुद्ध षडयंत्र मे लगी रहती है यह खेल जीत-हार का भी नही है यह खेल है अचानक से आए बदलावों की आहट को समझ पाने का,खुद को टटोलने का और चुनौतियों के खेल में खुद की शर्तों को क्षणिक रुप से भूलनें का ताकि सन्देश यह चला जाए आप स्वीकार भाव में है। स्वीकार भाव सकार और नकार दोनो से परे होता है जहाँ जीवन की उस लय मे खुद को बहने के लिए छोडना पडता है जहाँ बहुत सी चीजें आपकी पसंद और प्रकृति के ठीक विपरीत होती है ध्यान और आध्यात्म की भाषा मे यह अपने आप में साधना है जहाँ साधनों की जुगलबंदी में आपको वह राग आलापना पडता है जिसका रियाज़ आपने कभी नही किया होता है। है न ! जिन्दगी का अजीब खेल तमाशा.....

एक इंच मुस्कान

संघर्ष को मैने सदैव से निजता से जोडकर देखने कोशिस की है कुछ साथी संघर्षो की तुलना भी करते है लेकिन दो व्यक्तियों के संघर्ष कभी तुलनीय नही हो सकते है सबके अपने अपने मार्ग,तरीके,यात्रा और मंजिल हो सकती है। संघर्ष शाश्वत प्रक्रिया है यह अस्तित्व के साथ जुडी है प्रकृति प्रदत्त चुनौति है जहाँ आपको अपनी योग्यता सिद्ध करनी होती तभी आप मुख्यधारा में बने रह सकते है। मै कोई नई बात नही कह रहा हूँ सभी इस सिद्धांत से परिचित है लेकिन कुछ लोगो के जीवन संघर्ष देखकर कभी-कभी लगता है जैसे किसी ने इनके लिए चुनौतियों की एक फेहरिस्त तैयार रखी हो एक खतम तो दूसरी शुरु दम भरने तक की फुरसत नही मिल पाती है...इनके चेहरे पर शिकन जब भी आती है तो पसीने की बूंद खुद शरमा कर फना हो जाती है इनके चेहरे की एक मुस्कान देखने का पुण्य साल भर शिवालय जाने से कम नही होता है ऐसे संघर्षरत लोगो को देखकर लगता है कि जीवन दुरुह जरुर है लेकिन असम्भव नही..।

कबूलतनामा


अपने समकालीन कवि मित्रों की कविताएँ पढने के बाद अपनी कविताओं के ब्लॉग को देखता हूँ तो लगता है कि कवि होना बहुत बड़ी बात अपनी श्रेष्ट कविता भी एक भावुक नोट लगने लगती है सूक्ष्म संवेदनाओं के पारखी कवियों को पढकर अपनी तथाकथित कविताओं का शिल्प और सम्वेदना दोनों ही कमजोर लगने लगती है मै कतई हीनभावना का शिकार नही हूँ लेकिन कविता के मामले में अभी खुद प्रशिक्षु कहने की हालत में नही हूँ जबकि ब्लॉग पर छोटा ही सही मेरा भी एक पाठकवर्ग है। नीरज की एक उक्ति याद आती है मनुष्य होना भाग्य है और कवि होना सौभाग्य। ये ब्लॉग का लिंक हैं
www.shesh-fir.blogspot.in
आप यहाँ मेरी कथित कविताई का के दस्तावेज देख सकते हैं।
नोट:यह एक ईमानदार सी स्वीकारोक्ति है इसमें मेरी निराशा और अवसाद के दर्शन न तलाशें बड़ी मेहरबानी होगी।

यात्रा

चलो बहुत हुआ मेल-मिलाप,शेर औ' शायरी,राजनीति,आपबीती,जगबीती,गालबजाई अब उठाते है झोला और निकलते है किसी और दर पर अलख जगाने.... !
अलख निरंजन...!!!
माया मोह ठगनी बडी रे....यहाँ कौन अपना है और पराया भी कौन है सब अपने अधूरेपन को पूरा करने की तलाश में है लेकिन जिसको किसी शायर ने कहा है अधूरेपन का मसला जिन्दगी भर हल नही होता,कहीं आंखे नही होती कहीं काजल नही होता...!
दिल का ऊब जाना बेवक्त शाम को घर से निकल जाना और हंसते-हंसते आंखो से पानी छलक जाने का कारण शायद ही कभी बताया जा सकता हो...। निशब्द...यात्रा जारी है..।

संघर्ष

आप माने या ना माने मै अपवादों की बात नही कर रहा हूँ लेकिन सांसारिकता में एक पीढी हमेशा संघर्ष के बुरे दौर से गुजरती है मसलन यदि आपके पिताजी ने संघर्ष किया है तो आपके लिए जीवन की राह थोडी आसान जरुरी रहेगी लेकिन यदि आपके पिताजी ने मौज-मस्ती (अन्यथा अर्थ न लें) की है तो आपको हाड तोड संघर्ष करना पडेगा आपके बच्चे भले ही मौज करें मेरे हिसाब से यही दूनियादारी का नियम है।

इंटरनेट

देश मे इंटरनेट सेवाओं के नाम पर छोटे और मझोले श्रेणी के शहर के मेरे जैसे नेटाश्रित परजीवीयों को कितने बडे शोषण का सामना करना पडता है उसको ब्याँ करना मुश्किल है घरेलू बजट की तमाम चुनौतियों के बावजूद मै पिछले एक साल से टाटा फोटान प्लस यूज़ कर रहा हूँ इसके हलक में हर महीने एक हजार का रिचार्ज़ रुपी चारा डालना पडता है तब यह मुझे आप सब से जोडे रखता है। टाटा कम्पनी का दावा है कि 1000 रुपये में वो 6 जीबी डाटा एक्सेस देती है वो भी 3जी ब्राडबैंड स्पीड के साथ और ये दावा कितना हवाई है इसका चश्मदीद गवाह मै हूँ जिस दिन मै अपनी इंटरनेट की कुप्पी (यूएसबी मॉडम) रिचार्ज़ करवाता हूँ उस दिन और लगभग एक हफ्ते तो नेट फर्राटा स्पीड से चलता है लेकिन जैसे-जैसे वक्त बीतता जाता है स्पीड कम होती जाती है हालत यह होती है कि 15 दिन बीतने पर यह डिवाईस 2जी (टाटा फोटोन विज़) के सिग्नल दिखाने लगती है और स्पीड एकदम से रुलाने वाली....मै कई बार कस्टमरकेयर पर कॉल कर चुका हूँ उनका एक ही रटा-रटाया जवाब होता है सर आपका 6 जीबी डाटा समाप्त हो चुका है जबकि हकीकत यह है कि इस 6 जीबी डाटा खत्म होने की चिंता में मै यूटयूब पर वीडियों चलाने से पहले हजार दफा सोचता हूँ एक महीने में मुश्किल 2-3 तीन वीडियों देखता हूँ बाकि फेसबुक या ईमेल/नेट सर्फिंग ही करता हूँ। इन जालिम मोबाईल नेटवर्क कम्पनियों को छोटे शहर की नब्ज पता है और यहाँ इंटरनेट के अन्य विकल्प भी ज्यादा मौजूद नही है ऐसे मे मनमाफिक तरीके से उपभोक्ताओं का शोषण करती है। कई दफा बीएसएनएल का लैंडलाईन ब्राडबैंड के विकल्प पर भी सोचा लेकिन उनकी प्रक्रिया लम्बी और सेवा घटिया किस्म की है फिर इस शहर मे अपना ठिकाना भी अस्थाई किस्म का है इसलिए अंत में टाटा जैसी कम्पनियों पर ही आश्रित रहना पडता है....बडी जलन होती है जब मेट्रो शहर मे बैठे मित्र अनलिमिटेड इंटरनेट सेवा का मजा लेते है और वो भी इससे आधे दामों पर....तकनीकी भी कई बार हमे जीवन की परिस्थितियों की तरह समझौतावादी बनने के लिए बाध्य करती है....! हे ! रत्नलाल टाटा जी ऐसा जुल्म न करो कुछ तो रहम करों हमने किताबों में आपके बारे में पढा है कि भारत के नवनिमार्ण में आपकी महती भूमिका रही है फिर इंटरनेट की सेवाओं के नाम पर यह शोषण क्यों....?

दिनचर्या

सुबह नौ बजे सो कर उठना दैनिक कर्म में केवल निवृत्ति को चुनना क्योंकि उसका कोई और समाधान नही है फिर दस बजे दीवार से दो तकिए महंतो की माफिक सटाकर अधलेटी मुद्रा में पेट पर लेपटॉप का आसन जमा देना दिन भर ऐसे ही बेरतरीब पडे रहना चाय,नाश्ता और लंच ऐसे ही बैड पर करना हाथ धोने और कुल्ला करने तक के लिए वाश बेसिन तक न जाना...बीच-बीच में लेपटॉप को उकताकर बंद कर देना पास पडी कुछ किताबों के पन्ने उलटना कभी ऊबना कभी ऊंघना बीच में मौका निकालकर एक नींद की झपकी ले लेना...दिन मे कई बार पत्नि से बहस करना कभी उसकी सलाह लेना कभी उसको सलाह देना शाम को जैसे ही सूर्य अस्त होने की तरफ बढे उस वक्त चैतन्य होना और मंजन-स्नान करना उसके बाद चाय पीकर अपनी दुपहिया पर नगर भ्रमण के लिए निकल जाना जेब मे खत्म होते पैसो की फिक्र मे थोडी देर चिंतित होकर गंगा किनारे बैठना फिर नहर किनारे वॉकिंग मैडिटेशन करना दूनिया को गरियाना दोस्तों को फोन पर लम्बी-लम्बी बातें करना यह जानते हुए कि अब कुछ लोग आपको 'एवाईड' भी करने लगे है....फिर शहर की रंगीनयत के बीच को खुद को सम्भालते रास्ते की परचून की दुकान से कुछ रसोई का सामान और मेडिकल स्टोर से बिना वजह की थोडी दवाई खरीदते हुए धीरे से अपनी काहिली के साथ घर मे घुस जाना...थोडी देर बच्चों से बतियाना और एक बार फिर लेपटॉप का आसन लगा लेना...इसी बीच डीनर को निबटा देना...बेशर्मी की हद तक कमरे मे लेपटॉप ऑन करे रहना यहाँ तक बच्चे लाईट ऑफ भी कर दें...फिर धीरे से उठना और इस्सबगोल की भूसी और दूध का कटोरा डकार कर चुपचाप लेट जाना...सोने से पहले उधडे ख्वाबों को फिर से बुनना और उसी उधेडबुन में पैर पीटते नींद के आगोश मे चले जाना...नींद में अतृप्त कामनाओं और असंगत किस्म के सपनों मे खुद से लडते रहना....और नींद में जागते रहना..।
(पिछले 3 महीने से इस किस्म की अवधूत जिन्दगी जी रहा हूँ)

हास्य का चले जाना

जीवन से हास्य बडे चुपके से गायब हो जाता है दिन भर गंभीरता और बौद्धिकता का लबादा ओढे आप क्या तो वैचारिक प्रखरता या फिर दार्शनिकता के शिकार हो जाते है। हास्य की विदाई का पता नही चलता है जब आपके आसपास कोई ठहाके मारकर हंसता है तब अन्दर महसूस होता है कि आप ये फन कब से भूल गए है....याद कीजिए आखिरी बार कब इस कदर हंसे थे कि पेट मे बल पड गये हो और आंख से पानी निकलने लगा हो...मै तो याद नही कर पा रहा हूँ आप शायद कर पाएं...।

किसान व्यथा

अभी गांव में बात हुई किसान परिवार से ताल्लुक रखता हूँ इसलिए पहली बार फेसबुक पर किसान जीवन की व्यथा लिख रहा हूँ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिस क्षेत्र से मेरा ताल्लुक है गन्ना वहाँ की प्रमुख नकदी फसल है अमूमन नवम्बर में चीनी मिल शुरु हो जाते है और किसान तभी से गन्ने की सप्लाई करना शुरु कर देता है मेरे पिताजी भी गांव के प्रमुख गन्ना उत्पादको मे से एक है गन्ने की छिलाई के लिए किसानों को मजदूर करने पडते है फिर ट्रेक्टर ट्राली से भरे जाडे में पिटता हुआ डीजल फूंकता हुआ वह मिल मे गन्ना सप्लाई करता है मिल मालिकों की सरकार से गजब की सेंटिंग होती है इसलिए वे गन्ने के भुगतान में पूर्ण रुपेण तानाशाही चलाते है जिस महीने आपने अपने पैसे खर्च करके (यथा मजदूरी,डीजल) गन्ना मिल मे सप्लाई किया होता है उसके तीन महीने बाद एक-एक हफ्ते का पैमेंट बैंको के माध्यम से होता है जिसमे उसका आधा पैसा खाद के लोन और बैक के क्रेडिट कार्ड मे कट जाता है लेकिन किसान को मै दूनिया का महान आशावादी और सब्र संतोषी जीव समझता हूँ इसलिए वो बेचारा प्रतिरोध नही करता है बल्कि मरता खफता लगा रहता है सरकार और कारपोरेट की जुगलबंदी किसान का इस कदर शोषण करती है कि आप अन्दाज़ा भी नही लगा सकते है प्राईवेट चीनी मिल अपनी मर्जी से गन्ने का भुगतान करती है किसान अपना गन्ना उधार मिल को देता है और उसे उसका भुगतान किस्तों मे मिलता है वह भी बेहद मुश्किलों के बाद अभी आधा अगस्त बीत चुका है लेकिन हमने जो मार्च मे गन्ना सप्लाई किया था उसके पैमेंट का कुछ अता-पता नही है जबकि आय के लिहाज़ यह चौमासा किसान के लिए बेहद भारी होता है। हद है इस कृषि प्रधान देश की यहाँ किसान की सुनने वाला कोई नही है किसान मजदूरों की तरह संगठित भी नही है उत्तर प्रदेश के किसान हितेषी होने का दावा करने वाली समाजवादी पार्टी की सरकार है लेकिन शुगर मिल की तानाशाही पर कोई लगाम नही है चीनी मिल का मालिक चीनी नकद मे बेचता है और मुनाफा कमाता है और किसान अपने हाड तोड मेहनत की फसल उधार मे मिल मालिक को देता है लेकिन उसको बदले मे मिलती है तो जिल्लत की जिन्दगी इस मसले पर मेरा भोगा हुआ यथार्थ इतना अधिक है कि मै पूरा लेख लिख सकता हूँ। बैंक मैनेजर की गन्ना भुगतान को लेकर हेकडी,संग्रह अमीन का मानसिक शोषण,सहकारी बैंक मे लोन के नाम पर दलालो की लूट एक बेचारा किसान कहाँ कहाँ नही पिसता है लेकिन उसके सब्र का बांध नही टूटता है वो स्वाभिमान के साथ लम्बा और अंतहीन इंतजार करता है बस इसके अलावा और वह कर भी क्या सकता है।
शेष फिर

फक्कड

बड़े नामों चेहरों की साध संगत का अलग ही नशा होता है खुद लोकप्रिय और बौद्धिकजन भी इससे मुक्त नही होते है दिन में फेसबुक पर ऐसे कई फोटो आँखों के सामने से गुजरते है जिसमे लोगबाग़ खुद के रसूखदार लोगो के साथ खिंचवाए फोटो शेयर करते है हमारी नजरो में जो बड़े है और जिनके साथ हम फोटो खिचवाने को लालायित रहते है वो किसी दुसरे बड़े चेहरे के साथ खड़े होकर खुश होते नजर आते है ये आदमी की सम्पर्क सम्पन्नता का मनोविज्ञान है जो हर आदमी की मानवीय कमजोरी भी है और जो इन सबसे मुक्त है वो सच्चे अर्थो में फक्कड है उसे फेसबुक से क्या मतलब।

फेसबुक

फेसबुक की खुबसूरती इसकी विविधता है यहाँ किस्म किस्म के लोग किस्म किस्म की विचारधारा देखने पढने को मिलती है सच्चे अर्थो में यही पर सच्चा लोकतंत्र है. यहाँ खांटी वामपंथी भी मिलेगा और कट्टर संघी भी... कवि भी मिलेगा और कविता के नाम पर अत्याचार करने वाला भी...ब्राहमण को ही आप ब्राहमणवाद के खिलाफ लिखते हुए केवल यही पर देख सकते है ये आपके अन्दर की वास्तविक विचारधारा को सामने ले आता है जिससे लोगो का भरम भी दूर होता है ये वास्तव सबसे बड़ी बौद्धिक ईमानदारी का प्रतीक है.यहाँ मशहूर और गुमनाम दोनों एक साथ साध संगत करते मिल सकते है यहाँ आस्तिको का टोला है तो नास्तिको के तर्क भी है. यहाँ मोदी के भक्त है तो कांग्रेस के भी झंडाबरदार हैं...दलित विमर्श से लेकर आदिवासी विमर्श फेसबुक पर पढने को मिल जाता है..स्त्री विमर्श और स्त्री सशक्तिकरण के मंच के रूप फेसबुक की अपनी उपयोगिता है..यह सम्बन्धो का सेतू है यह जज्बातों का अभियन्ता...दो अनजान लोग अलग अलग विचारधारा के लोग इतनी उदारता के साथ और कही आपको साथ नही मिलेंगे...
बहस में एक दुसरे से उलझते हुए लोग आपको एक दुसरे के चित्रों को लाइक करते यही मिलेंगे यहाँ अनजान लोगो को भी जन्मदिन की शुभकामनायें भेजी जाती है जिससे उसका कम से कम एक दिन तो स्पेशल हो ही जाता है मै फेसबुक की उदारता का कायल हो गया हूँ.आपदकाल में फेसबुकिया भाईचारा भी किसी से छिपा नही है उत्तराखंड आपदा में इसकी उपयोगिता सिद्ध हो चुकी है.
यहाँ लोग अपनी छोटी छोटी खुशी बाँट कर सबको उसमे शामिल होने का अवसर देते है यहाँ उदासी के किस्से भी अपनेपन से सुने जाते है दिल को तस्सली दी जाती है हम बिना मिले एक दुसरे की बच्चो की शक्ल और नाम से वाकिफ हो जाते है.
और सबसे बड़ी बात फेसबुक आपको यह एहसास नहीं होने देता है की आप अपनी लड़ाई में अकेले है हमेशा कोई न कोई आपको ऑनलाइन मिल ही जाता है जब भी आपको लगे की बोरडम ने घेरा तो चैट बॉक्स की जलती हुई हरी बत्ती आपको हौसला देती नजर आती है.
फेसबुक को फेकबुक बताना इसकी तौहीन है कुछ लोग हैं खुराफाती हैं लेकिन वो तो समाज में भी है उनका ना कोई ईलाज समाज के पास है और ना ही फेसबुक के पास इसलिए उनको इग्नोर करो और आगे बढ़ो हाँ अंत में एक सलाह जरुर दूंगा कि फेसबुक को एक साधन समझना चाहिए न की साध्य.
जियो ! मार्क जुकरबर्ग कमाल की चीज़ ईजाद की है भाई....जियो ! मेरे दोस्त! मेरे दुश्मन! मेरे भाई !

मुसलमान

जो लोग मुसलमानों का वजूद केवल जिहाद और आंतक से जोडकर देखते है उनकी सोच पर तब्सरा नही किया जा सकता है बल्कि वो दया के पात्र है क्योंकि समग्रता से देखने की दृष्टि से देखने के लिए जाति,धर्म,सम्प्रदाय और यहाँ तक कई देशभक्ति के चश्में से भी उपर उठकर सोचना पडता है। सियासत की रंग इतना गहरा होता है कि यह सोचने ही नही देता है हमें और हम हर पल असुरक्षा से घिरे यही सोचते रहते है कि अच्छा होता सारे मुसलमान विभाजन के समय पाकिस्तान चले गए होते फिर हम यहाँ मजे से जी रहे होते खुराफाती दिमाग वाले दोनों तरफ है ऐसा नही है खालिस मुसलमान ही हिसंक या आंतक के पर्याय है कभी हिन्दूओं (कट्टर हिन्दूओं ) की बैठकों में मुसलमानों का जिक्र छेडकर देखिए फिर कैसे लोग अपने खंजर की धार तेज करते है बात बेहद कडवी है लेकिन यहाँ तक बातें होती है कि अगर मारकाट हुई मै कितने मुसलमानों को ठिकाने लगाऊंगा मुझे यह हिप्पोक्रेसी कभी पसंद नही आयी कि हम केवल एक ही पक्ष पर देखे,लिखे और पढे...अमन पसंद लोग दोनो तरफ है और खुराफाती भी दोनो ही तरफ है अब यह तर्क नही करना चाहूंगा कि किसने शुरुवात की या किसने ऐसा करने के लिए उकसाया...यह एक अतिसम्वेदनशील मसला है इसलिए मै इस पर कोई विवाद खडा नही करना चाहता हूँ लेकिन खुद के प्रति ईमानदारी जरुरी है।
यदि मान भी लूँ कि मुसलमान इस देश के लिए खतरा है तो भाई ये कैसे मान लूँ कि इस देश की कला,साहित्य,संस्कृति,संगीत के उन्नयन में मुसलमानों का कितना बडा योगदान है। मीर,गालिब से लेकर समकालीन शायरों फनकारों को पढकर सुनकर जो रुह को खुराक मिलती है वो इन तमाम घृणा फैलाने वाले तर्को से कही बडी है। आज के मुश्किल दौर मे जब धर्म के नाम पर सियासत जोरो पर है ऐसे में इन मुस्लिम फनकारों को कितनी मुश्किलों का सामना करना पडता होगा उसे सोच कर ही फिक्र होती है अपने खुद के वतन मे खुद की ईमानदारी और निष्ठा का प्रमाण पत्र बार बार देना पडता है लेकिन फिर भी वो अपनी बेहतरीन खाकसारानें कोशिसे हम तक पहूंचा रहे है मै तो दिल से उनका आभारी हूँ क्योंकि इंसानियत के लिए हमे ऐसे लोगो की सख्त जरुरत है।

फिल्म और समाज़

नाम के पीछे छिपा सामाजिक सम्मान भी अभिजात्य वर्ग की बपौती रहा है मुम्बईयाँ हिन्दी फिल्मो कें आईट्म सांग में अक्सर ऐसे नाम प्रयोग किए जाते है जो मध्यम या निम्न मध्यम वर्ग मे प्रचलित रहे हो यानि तफरीह,ठगी और नेत्रभोजन के लिए गरीब या औसत आय वर्ग के नाम को ठेलने की परम्परा रही है। मुन्नी,बबली,बबलू,शीला,पिंकी ये सब नाम हमारे आस-पडौस मे रोजाना सुनने को मिलते है जिसको वॉलीवुड कभी बदनाम कर देता है तो कभी जवान कर देता है।शहर का एक तबका ऐसा भी जो ऐसे नामों को मस्ती का पर्याय समझता है और बेचारे हमारे आसपास के ये किरदार कितनी असुविधा महसूस करते होंगे जब ये गीत बजते है इसका अहसास मनोरंजन के नाम पर बेचने जाने वाली चूरण की पुडिया हजम कर देती है जिसे हम फिल्म की जरुरत कहकर स्वीकृति भी देने लगे है।

मिथ्या

स्वप्नलोक के मिथ्या संसार में भी प्रताडना मिलती हो जिसे उसके निरभाग होने का प्रमाण पत्र जन्म के साथ ही बेमाता चस्पा कर जाती है। वो कभी खुद को ठगता है कभी दूनिया उसको ठगती है उसको दूनिया से शिकायत रहती है और दूनिया को उससे।सम्बंधो के कारोबार और उपलब्धियों के आतंक के बीच वह कभी रेंगता है कभी सिमट कर रुक जाता फिर चलता है लेकिन अपने इस समानांतर लोक में वो खुशी नही तलाश पाता है फिर आत्ममुग्धता को समय चक्र पूरे करने का सहारा बनाता है खुद महामानव समझता हुआ जीता है जबकि वो क्या है यह सच-सच तो न वह ही जानता है और न ही उसके आसपास का परिवेश।
दरअसल उसको समझना खुद को समझने जैसा है।

उत्सव

चित्त से उत्सधर्मिता का विलोपन किसी विज्ञान के सिद्धांत की तरह नही है जिसको परखनली और रासायनिक क्रिया में उत्प्रेरक की सहायता से मापा जा सकता हो। जब आसपास के लोग गहरे उल्लास में डूबे हो बधाईयों शुभकामनाओं का मयकशी से बढकर दौर चल रहा हो ऐसे मे चुपचाप मन के किसी कोने में अनासक्ति के भाव मन से खुराक पा रहे होते है छोटी-छोटी खुशियाँ तलाशने की नसीहतें भी काम नही आती है बल्कि हर उत्सव से पहले और और हर उत्सव के गुजर जाने के बाद का पसरा आंतरिक अवसाद किसी योग की सिद्धि ने कम नही होता है जहाँ आप स्थितप्रज्ञ की तरह व्यवहार करते है आसपास के लोगो के लिए यह आश्चर्य,घृणा,अहंकार,हीनता का विषय हो सकता है लेकिन एक यात्री के लिए यह उन पडावों को सुस्ताने के बहानें देखने का अवसर होता है जिसमे दूनियादारी के लोग उत्सव में लीन होने का प्रदर्शन कर अपने अन्दर से उपजी अपनी रिक्तता को उत्सव के बहाने आरोपित कर रहे होते है।

अपने बारे में...

मै आत्म-आलोचना का शिकार हूँ इसका यह अर्थ कदापि नही मेरे दोस्त ! कि मुझे खुद की कीमत नही पता है।
बोलता कम हूँ इसका यह अर्थ कदापि नही मेरे दोस्त ! कि तुम्हारें चोंचलों का नही पता है।
लिखता बेबाक हूँ इसका यह अर्थ कदापि नही मेरे दोस्त ! कि मुझे सही-गलत की समझ नही है।
खुद की ब्रांडिंग नही आती है इसका यह अर्थ कदापि नही मेरे दोस्त ! कि मुझे बेचने और बिकने की जगह का नही पता है।
मै खुद का भाष्याकार नही हूँ इसका यह अर्थ कदापि नही मेरे दोस्त ! कि सफलता-असफलता की परिभाषा नही पता है ।

मेरी बातें अहंकार की चासनी मे लिपटी न लगे इसलिए बार-बार दोस्त लिख रहा हूँ वरना दोस्ती के नाम पर तुम्हारे जैसे बजरबट्टु अपने जेब मे लिए घूमता हूँ।

(निठल्ला चिंतन- पार्ट-1)

परीक्षा

इन दिनों से बडे बेटे राहुल के मासिक टेस्ट चल रहे है वो कक्षा 2 मे पढता है। उसके टेस्ट की तैयारी को लेकर पत्नि खासे तनाव और दबाव मे रहती है मै देखता हूँ उसको पढाने-रटाने के लिए रात-दिन एक किए है कई बार मुझे भी ताने देती है कि एम.ए. बी.ए. के बच्चों को तो पढाते हो कभी खुद के बच्चे को भी पढा लिया करो जिस-जिस सबजेक्ट में उसको कमजोर नम्बर मिलते है उस-उस सबजेक्ट की पाठ्य पुस्तक कई बार मेरे सामने लाकर पटक देती है मै साक्षी भाव से देखता रहता हूँ बच्चा जब स्कूल से आता है आते ही उसके कपडे बदलने के उपक्रम के साथ-साथ आज टेस्ट में क्या पूछा? तुमने क्या लिखा? कैसे लिखा? आदि सवालों का भी सिलसिला चलता रहता है कई बार उसको क्रोधित हो बालक को चपत लगाते भी देखता हूँ।
यह सब हर महीने का क्रम है मुझे अपने स्कूल के दिन याद आ जाते है जहाँ हम नितांत ही खुद पर निर्भर थे न गांव में हमे ट्यूशन मिलता था और न ही हमारी मम्मी हमे पढाती थी मेरे मम्मी को तो चूल्हें में फूंकनी से फूंक मारने से ही फुरसत कब मिलती थी उसे कुनबे का पेट पालना होता था आज तक मेरी मम्मी को यह नही पता कि मैने किसी विषय में पढाई की है, मैने कौन-कौन सी डिग्रियां हासिल की और मै विश्वविद्यालय मे कौन सा विषय पढाता हूँ...यही हालत पिताजी की है उन्होने कभी नही देखा मेरा रिपोर्ट कार्ड न कोई सलाह-मशविरा की क्या पढना है,कहाँ पढना है बस वो अपनी जमीदारी में मस्त रहें है। आज का वक्त कितना बदल गया है अब मम्मी को भी बच्चे के साथ साथ एक एक क्लास पास करते हुए आगे बढना होता है जितनी चुनौति बच्चे के समक्ष होती है ठीक उतना ही तनाव घर पर उसकी मम्मी भी झेल रही होती है। आधुनिक शिक्षा दर्शन पता नही कैसा है जहाँ इंसान को बचपन ही एक मारकाट वाली प्रतिस्पर्धा में धकेल दिया जाता है जहाँ उसे हमेशा कुछ न कुछ एचीव करना है भले ही इस चक्कर में बहुत सी उम्र की बुनियादी चीजे पीछे छूट जाएं जैसे बचपन को स्कूल को खा रहा है और पेरेंटस बच्चे की जान लेने पर उतारु है। एक प्रकार से देखा जाए तो हम सौभाग्यशाली थे भले ही हम प्राईमरी पाठशाल में पढे हो लेकिन हमारी मम्मी हमारी पढाई की वजह से कभी टैंशन में नही आई और हम भी गिरते-पडते-संभलतें एम.ए.पीएचडी तक की पढाई भी कर गए परफारमेंस का दबाव झेलती नई नस्ल का तो भगवान ही मालिक है।

दोस्ती

मित्र Ratanjeet Singh ने दोस्ती पर अभी एक स्टेट्स लिखा तो अपने भी जख्म हरे हो गए दोस्ती के नाम पर मरने मिटने बनने और बिगडने के अपने बहुत से किस्से है। एक वक्त था जब दोस्तों के पैरो पर पैर रखकर चलने की आदत थी अकेले मूतने तक नही जाते थे फिर ठंडी नंगी बर्फ सी सच्चाई का भी सामना हुआ दोस्त भी गर्दिश के तारे हो गए वो खुद हैरान और परेशान थे ऐसे मे मेरी मदद क्या करते। जीवन मे एक वक्त ऐसा भी आया जब जिगरी समझे जाने वाले दोस्तों से बोलचाल बंद हो गई कई बार पास से अजनबी की तरह गुजर गए। कुछ दोस्तों को वक्त ने समझदार बना दिया और कुछ दोस्त अपने गणित मे उलझे रहे कुछ दोस्त ऐसे भी थे जिनसे अपने मन की बातें किए एक अरसा हो गया मै अपनी भूमिका बनाता रहा और वें अपनी उपलब्धियों के किस्से सुनाते रहे दोस्तों की उपलब्धियों से खुशी मिलती है लेकिन खुशी कभी एकालापी अच्छी नही लगती है। कई बार ऐसा भी हुआ कि करीबी दोस्त बहुत आगे निकल गए मै काफी पीछे छूट गया लेकिन मेरे एक मित्र यह कहकर सात्वनां देते रहे कि दूनिया गोल है लोग लौट कर फिर आएंगे और सच बात तो ये है कि उनमे से कुछ आएं भी ऐसे में खुद को बडप्पन की चासनी में डूबोया और उनको नादानी के खेल का खिलाडी समझ दिल को समझाया बहलाया और फिर से गले मिल साथ हो लिए...। दोस्ती का रिश्ता दूनिया का सबसे विचित्र रिश्ता है इसको समझा नही जाता बस इसको जिया जाता है जो लोग नफे-नुकसान,कमतर-बेहतर मे उलझ गए वो दोस्त कब परिचित मे तब्दील हो गए मुझे भी न पता चला।
सच्चा दोस्त वही है जिसके सामने अपने दिल के हालात कहने में लेशमात्र भी संकोच न हो जो आपकी बात को आत्मीयता से सुनने की दिलचस्पी रखता हो जो मुश्किल वक्त में आपको संभाल सके वो भी बिना किसी शर्त के साथ यह सच है कि दिन ब दिन औपचारिक और मतलबपरस्त होती दूनिया मे ऐसे दोस्त बेहद कम बचे है लेकिन जिनके पास ऐसे दोस्त है या वो खुद ऐसे किसी के दोस्त है तो इससे बडी उपलब्धि और कोई नही हो सकती। ऐसे यारों के यार सबको नसीब हो यही दुआ करता हूँ।

सरकारी नौकरी

सरकारी नौकरी की लालसा व्यक्ति की उद्यमशीलता को चाटती है और उसके अन्दर सामाजिक सरोकारों के प्रति उदासीनता उत्पन्न करती अंत: व्यक्ति अपनी जडो से कटता हुआ एक ऐसी दूनिया का हिस्सा बन जाता है जहाँ उसके लिए होने से बेहतर दिखना होता है। सरकारी नौकरी के पीछे छिपे सामाजिक स्वीकार्यता एवं आर्थिक सुरक्षा के भाव की भेंट न जाने कितने युवा सपने रोज चढ जाते है जो समाज के लिए कुछ नवीन एवं सकारात्मक आत्मनिर्भर मॉडल स्थापित करने मे न केवल समर्थ होते है बल्कि चमत्कार की हद कुछ भी कर सकते है बस वो हिम्मत नही जुटा पाते है जो सरकारी नौकरी की लालसा के चलते दबती-दबती आखिर में मृतप्राय: हो जाती है।

(एक सरकारी मुलाजिम बनने की दौड में हांफते शख्स का हलफमाना)

मै...

मै क्या था उसमें तुम्हे अहंकार दिखता हैं मैं क्या हो सकता हूँ उसके परिणाम तुम्हे संदिग्ध दिखते हैं मै जो हूँ उससे तुम सहमत नही हो मेरी योजनाएं तुम्हें क्षणिक षड्यंत्र का हिस्सा लगती है। तुम मेरे दोस्त हो बस यह एक शाश्वत सत्य है इसके लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नही है।

दूनियादारी

पढ़े हुए सिद्धांतो और निजी मान्यताओं के दर्शन के बीच भी कडवे यथार्थ की एक ऐसी समानांतर दूनिया बसती है जहां वक्त और हालात से उलझते इंसान को समझौतावादी बनना पड़ता है और दूनिया से अवसरवादी होने का तंज भी गाहे बगाहे सुनना पड़ता है। ऐसे लोगो को मै निजी तौर पर करप्ट नही मानता हूँ जिन्होंने विचार और थ्योरी के बीच कुछ मध्य मार्ग चुना क्योंकि कई बार वो खुद दांव पर लगे थे और बार उनके अपने।

सेकुलर

बात मुद्दों से फिसल कर धर्म पर आ जाती है इसलिए देश मे सेकुलर होना गोया गाली बन गई है खुद मुझ पर भी छ्द्म धर्मनिरपेक्ष होने का आरोप है आप कट्टर रहें चाहे जिस भी विचारधारा से ताल्लुक रखे यही आज के दौर मे आपकी वैचारिक प्रतिबद्धता और प्रखरता के पैमाने बन गए है। यदि आप शांति सद्भाव और आपसी सोहार्द के साथ जीना चाहते है क्या तो आप छ्द्म है या फिर डरपोक। ऐसे मुश्किल दौर में कई बार बडी बैचेनी होती है कई बार न चाहते हुए भी अपने 'आर-पार' की लडाई का मूड बनाए मित्रों की हाँ मे हाँ मिलानी पडती है क्योंकि उनके लिए मेरे हिन्दू होने का सबसे बडा प्रमाण यही है कि मुस्लमानों से कितना आतंकित हूँ और फिर इसी डर से मुझे उस युद्ध के लिए तैयार रहना है जहाँ घृणा और वैमंष्य को जीने की बुनियादी जरुरत के रुप मे विकसित किया जा रहा है।
महावीर,बुद्ध और नानक के इस देश में शांति प्रिय लोगो के पीठ पर भगौडा लिखने के मुहर तैयार की जा रही है जिसे जब भी मौका मिलेगा वो आपके पीठ पर दाग देगा। अजीब आश्चर्य होता है जब हम विश्व गुरु होने का दम्भ भरते हुए पश्चिम को गर्व के साथ गरियाते है लेकिन 21 वी सदीं के भारत में आज भी धर्म के नाम पर जो खून खराबा होता है वो किसी एंगल से मुझे अपने देश पर गर्व करने की इजाजत देता है मुझे समझ नही आता है।
सियासत ने जो रवैया अख्तियार किया है वह भी कम डराने वाला नही है क्या सियासत का अंतिम लक्ष्य येनकेनप्रकारेण कुर्सी ही हासिल करना होता है विशुद्ध मानवीय सरोकारों की सियासत क्यों नही की जा सकती है चाहे सत्ता हो विपक्ष दोनों ही अपने स्वार्थो की राजनीति मे लिप्त है ऐसे में विकासशील देश का एक आम नागरिक जो रोजमर्रा की बीमारी,कर्जे और मुकदमों से जुझता हुआ खुद इतना थका हुआ है कि उसे राहत कहीं नजर नही आती है ऐसे में अपने देश में साम्प्रदायिक दंगे,अर्थव्यवस्था की चुनौतियाँ,बाबाओं की लंपटई उसे और हताशा मे ही भर रही है।

केबीसी

केबीसी का हर नया सीजन मेरे जैसे प्रतीतवादियों पर बडा भारी गुजरता है पत्नि से लेकर बच्चों तक सब का मानसिक दबाव रहता है मुझे भी हॉट सीट पर जाकर अपने ज्ञान की परीक्षा देनी चाहिए खास तौर को पत्नि को यह लगता है मै दिन भर लेपटॉप पर चबड-चबड करता रहता हूँ और फोन पर लोगो को ज्ञान बांटने के मामलें मे भी कम नही हूँ फिर ऐसे में यदि वास्तव मे मै 'ज्ञानी' किस्म का हूँ तो फिर उस ज्ञान को करोडों मे बदल कर मुझे अपने ज्ञानी होने प्रमाण सार्वजनिक रुप से देना चाहिए पहले कभी कभार मै भी बच्चो के साथ केबीसी देख लिया करता था और संयोग कुछ सवालों के जवाब भी पहले दे देता था तभी से पत्नि समेत बच्चों को यह भ्रम हो गया है कि मै कम से कम कुछेक लाख तो जीत कर आ ही सकता हूँ इसलिए हर बार केबीसी का सीजन शुरु होने से पहले मुझ पर दबाव होता है कि मै उसके भाग लेने के लिए एसएमएस भेजना शुरु कर दूँ और मै बडी मुश्किल से अपनी जान बचाए हूँ क्योंकि दिन ब दिन के संघर्षो से रुबरु होते परिवार को भी एक आस बंधने लगती है कि शायद ज्ञान मुझे मेरा हक दिला दें और वो हक लखपति से शुरु होकर करोडपति बनने पर पूरामिलता नजर आता है।
सोनी टीवी के क्रिएटिव हेड हो अन्दाजा नही है कि केबीसी के चक्कर मे मेरे जैसे कितने छ्द्म ज्ञानी लोगो को धर्मसकंट का सामना करना पडता है उनके गले में करोडपति बनने का ऐसा फंदा पडा रहता है जिसे पत्नि बच्चों की आशाओं और अपेक्षाओं से कसते ही चले जाते है अब मेरी कोशिस रहती है कि केबीसी के प्रसारण के समय मे घर पर ही न रहूँ वरना मुझे लेपटॉप पर फेसबुक के लिए प्लास्टिक पीटते देखकर और उधर टीवी पर् लोगो को लखपति और करोडपति बनता देखकर पत्नि का खून फूंकता रहें यह भी वाजिब बात नही है।

निवेदन: केबीसी के अतिरिक्त लखपति और करोडपति बनने के सुझाव आमंत्रित है

सामाजिकता

सामजिक होना अपने आप मे एक बहुत बडा कौशल है। कुछ अपने दोस्तों को देखता हूँ वे इतने मिलनसार और सामाजिक किस्म के जीव है कि उन्हें सामाजिक रुप से मेल मिलाप मे रत्ती भर भी संकोच नही होता है वें गजब के मेजबान है। दोस्तों के यहाँ चाय से लेकर खाने तक की तारीफ करने में उनकी हाजिर जवाबी का जवाब नही होता है इधर मूंह में निवाला गया नही और उधर तारीफ की चासनी में लिपटे शब्द निकले शुरु हुए ऐसे हंसमुख और हाजिर जवाब् दोस्तों की वजह से हमारे जैसे मूकभावी लोगो की पत्नियों को भी आत्मगौरव को महसूस करने का अवसर मिलता है। एक हम है निपट एकांतप्रिय और दोस्तों की बच्चों और पत्नियों से गप्पे मारने के मामलें में नितांत संकोची मेरे सामने कई बार धर्म संकट तब होता है जब अच्छे खाने की तारीफ करने का अवसर आता है ऐसा नही है कि मेरे पास शब्दाभाव होता है लेकिन स्वाभाविक रुप से मूंह से वो बोल नही फूटते है जिससे सामने वाले को खुशी मिले....बच्चे तो मेरी चुप्पी और काया को देखकर ही मेरे करीब आने से डरते है। अब तो हालत यह है कि दोस्तों के सामने भी चुस्त जुमलेबाजी से परहेज करने लगा हूँ क्योंकि मेरी बातों से व्यंग्य का जायका आता है लम्बे समय तक ऐसी बहुत से दोस्तों को शिकायत रहने लगी थी।
खैर..सारांश यही है कि आदमी को सामाजिक,व्यवहार कुशल,हंसमुख और मिलनसार होना चाहिए न कि मेरे जैसा जो संकोची जीव जो मन की बात मन मे ही लिए बोझ तले दबा फिरता रहे दर ब दर...और सोचता रहे कि.... I am a good guest but bad host..

मदिरा महात्म

प्राय: मदिरा विवेक हर लेती है इसमे कोई सन्देह नही है लेकिन सच तो यह भी उतना ही है कि मदिरा आदमी के चैतन्यता की परीक्षा भी लेती है सामान्य चेतना का व्यक्ति मदिरा की आसक्ति में अपना घर परिवार बीवी बच्चे और सम्पत्ति का क्षरण कर देता है जबकि चेतना सम्पन्न व्यक्ति के लिए यह पेय एक मूल चरित्र की तरफ लौटने और भावनात्मक विरेचन के रुप मे उपयोगी हो सकता है उसके लिए मदिरा कोई साध्य नही होती है अपितु एक साधन होती है जिसके प्रभाव में वो आवरण के बोझ से निकल कर उनमुक्त और अपने दिगम्बर मौलिक स्वरुप की यात्रा की अनुभूति करता है हालांकि नितांत ही रासायनिक प्रक्रिया होने की वजह से यह प्रभाव स्थाई नही होता है परंतु लोक साधना मे रत एक संघर्षरत इंसान के पास इतना सामाजिक साहस नही बचता है कि वह क्न्द्राओं मे एकांत सिद्ध हो सके। मदिरा वास्तव मे न प्रशंसा की चीज़ है और न ही आलोचना की इसकी आलोचना करने वाले भी अन्दर से डरे हुए लोग होते है जिन्हे भय होता है कि वे किसी भी पल कमजोर पड सकते है और मदिरा उनके लिए व्यसन बन सकते है युक्तिकरण करके वो भले ही इसे खारिज करते रहते हो परंतु उनके अन्दर भी चखने की एक आदिम चाह जिन्दा रहती है भले ही वो इसे सार्वजनिक रुप से स्वीकार न करें ऐसे भीरु लोगो के लिए मदिरा से परहेज करना ही श्रेष्ट है यह पेय उनके लिए नही बना है इसकी दिव्यता के बोध के लिए आत्मानुशासन की जरुरत पडती है अन्यथा यह आपको किस हद तक बरबाद कर सकती है उसकी कोई सीमा नही है।
इंसान की निजी कमजोरियों ने मदिरा का सार्वजनिक चरित्र इतना घृणास्पद बना दिया है हम प्राय: इसको खारिज़ करके ही सामाजिक रुप से 'भले' होने की स्वघोषणा करते है मेरे संज्ञान मे ऐसा भी नही है कि सभी मदिरा सेवी घोर किस्म के अराजक प्राणी हो बल्कि मुझे तो वो दिल के ज्यादा सच्चे लगे जो दोस्ती के नाम पर अपना मर्दाना अभिमान त्यागकर दो घूंट अन्दर जाते ही रोने लगते है दूनिया कहती है कि मदिरा रो रही है यह आदमी नही जबकि सच तो यह होता है वो आदमी रो रहा होता है बस हम पहचान नही पाते है और उपेक्षा भाव से उसकी खिल्ली भी उडाते है।
यह मनुष्य के सामान्य मनोविज्ञान पर काम करती है जब उसकी पीडाएं इतनी घनीभूत हो उठती है कि वह अन्दर से भर जाता है ऐसे में मदिरा उसको रिक्त करने का साधन है इसलिए मजदूर भी मदिरा का प्रेमी होता है और धनिक भी दो विरोधाभासों के बीच विवादों और धर्मग्रंथों/आध्यात्मवाद सबकी आलोचना झेलती हुई मदिरा का अस्तित्व समाज़ मे बरसों से बना हुआ है और शायद आगे भी बना रहेगा।

यथास्थितिवाद

जीवन मे यथास्थितिवाद का आ जाना सबसे बडी चुनौति होती है कई बार जीवन जड और गतिशीलता के मध्य रेंगता नजर आता है मनुष्य जीवन की उपयोगिता इसके गतिशील रहने में ही है स्थाई अनुराग भी जडता का ही प्रतीक है इसलिए यात्रा अनवरत जारी रखते हुए जीवन को प्रयोगधर्मी बनाए रखने की जरुरत सबसे महत्वपूर्ण है इन सब कवायद के बीच यदि कुछ समाज़ के लिए रचनात्मक योगदान हो जाए तो वह भी किसी बडी उपलब्धि से कम नही होता है।
मार्ग और साधन का सवाल बडा है लेकिन सबसे बडा सवाल है निजात्म की कमजोरियों का अतिक्रमण करते हुए अपनी दिशा को निर्धारित करना अक्सर मन की सूक्ष्म कमजोरियां हमारे निर्णयों पर हावी रहती है लेकिन प्रज्ञाशील मनुष्य को चाहिए कि परिस्थितियों की चुनौतियों के बीच वह यह तय करे कि उसका सच क्या है? तथा वो जीवन की जिस कक्षा मे प्रेक्षेपित हुआ बैठा है वहाँ रचनात्मक और सृजनशीलता के कितनी संभावनाएं शेष है अन्यथा यथास्थिति का कम्फर्ट जोन इतना बडा होता चला जाता है कि मन हर नए परिवर्तन का विरोध करना आरम्भ कर देता है।

पाश कहता है----

पाश कहता है----
सबसे बुरा है सपनों का मर जाना
लेकिन
मै कहता हूँ
सबसे बुरा है दोस्ती के बीच समझदारी उग आना
उससे भी बुरा है
दोस्ती के बीच संकोच की काई जम जाना
जिस पर फिसलने के डर से हम
रिश्तों की गहराई मे उतरने से डरने लगते है
और किनारे-किनारे चलते दो दोस्त
कभी शिद्दत से नही मिला करते
ये बात मै नही सभी जानते है।

Saturday, October 26, 2013

देहाती मन के संकोच----

देहाती मन के संकोच----

मेरे हिसाब ये कहानी हर उस शख्स की है जो मेरी तरह से गांव-देहात से ताल्लुक रखता है और पढने या नौकरी के सिलसिले में कई साल पहले शहर आया था फिर वक्त और हालात ने ऐसी करवट ली कि शहर का ही होकर रह गया लेकिन उसके चित्त में गांव-देहात के संस्कार अभी तक शहरीकरण की प्रक्रिया में पूरी तरह से मृत नही हुए है उन्हे खुराक भी हम खुद ही देते है क्योंकि भले ही शहरीकरण की प्रक्रिया में हमारे रुपांतरण की भरसक कोशिसे जारी रहती है लेकिन फिर भी मन की प्रवृत्तियों का कुछ ऐसा हिस्सा जरुर है जो अभी तक बदल नही पाया है।
इससे कोई सन्देह नही है शहर की रंगीनयत हर देहात के आदमी के दिल में कौतुहल और आकर्षण पैदा करती रही है लेकिन पहले यह अस्थाई किस्म की होती थी मसलन गांव का आदमी शहर में आकर एकाध दिन बाद ही अपनी जडो की तरफ लौटने के लिए बैचेन हो उठता था आज भी बहुत से लोग ऐसे है जो शहरों में रहते है लेकिन जब भी गांव से उनके माता-पिता उनके पास कुछ दिन रहने के लिए आतें है तब कुछ दिन तो वो पोत्र-पोत्री मोह में शहर के दबडों में पडे रहते है लेकिन कुछ ही दिन बाद उनके मन में उच्चाटन पैदा हो जाता है क्योंकि उन्हे शहर में अपने वय का सामाजिक तंत्र नही मिल पाता है इसलिए वें कुछ दिन रहने के बाद जल्दी ही गांव लौट जाते है।
मेरे जैसे बहुत से देहाती लोगो को शहर के प्रति अजीब किस्म के मानसिक संकोच रहते है या यूँ समझ लीजिए अप्राप्य चीजें जब आपकी पहूंच में आ जाती है तो आप उन्हे स्वीकार करनें में काफी समय लेते और बहुत सी चीजें बाद तक भी स्वीकार नही कर पातें है। शहर के जीवन में एक गति है और यह गति यहाँ सभी के लिए अनिवार्य है यदि आप इस गति से कदमताल नही मिला पा रहे है तो फिर आप पिछडते ही जाएंगे और यह गति आपको बहुत सी चालाकियाँ सीखने के लिए भी बाध्य करती है यदि आपके मूल व्यवहार में हद दर्जे के व्यवहारिकता नही है या ये चालाकियाँ आपके अभ्यास का विषय नही है ऐसे में आप बहुत सी परिस्थितियों में असहज़ महसूस करते है। मै खुद अभी तक ये सारी बेशर्मी नही सीख पाया हूँ बेशर्मी इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि यह कुछ खास किस्म के पैतरें है जो आपके आधुनिक और समझदार होने के पैमाने समझे जाते है हालांकि परिस्थितियां भी आपको बहुत कुछ सिखा देती है।
गांव-देहात के मन का संकोच इस कदर हम पर हावी रहता है कि हम बेवजह की नैतिकता बोध के बोझ के तले दबे फिरते रहते है मै खुद का ही उदाहरण दे रहा हूँ पहले अक्सर ऐसा होता था कि यदि किसी ब्रांडेड कम्पनी के शो रुम में यदि मै अपने लिए कपडे या जूते खरीदने गया और सेल्समैन नें मुझे कपडे/जूते दिखाने शुरु किए अलबत्ता तो मै ज्यादा च्वाईस से देख ही नही पाता था क्योंकि मन ही मन यह ख्याल आता था कि ये क्या सोचेगा कि मैने इतना बडा ढेर लगवा लिया है लेकिन अगर ज्यादा आईटम निकलवा भी लिए तो मन ही मन इनमे से एक जरुर खरीदना है यह नैतिक दबाव मन पर इस कदर हावी होने लगता था कि ब्याँ नही किया जा सकता है मै शहरी कल्चर के हिसाब से आधा-एक घंटे शो रुम की एक-एक चीज़ देखने के बाद साफगोई से यह मना कर बाहर निकलने की मनस्थिति में नही होता था कि मुझे इनमें से एक भी पसन्द नही है मेरे लिए ज्यादा आईटम देखना खुद ब खुद एक नैतिक दबाव बनाता चला जाता कि मुझे यहाँ से कुछ न कुछ खरीदकर ही लौटना है वरना इन सेल्समैन या शो रुम के मालिक को बुरा लगेगा कि हमारा कितना समय भी बरबाद किया और लिया कुछ भी नही। मेरे जीवन में ऐसे दर्जनों उदाहरण है कि मैने बिना अपनी पसंद के कपडे-जूते महज़ इसी बिनाह पर खरीदें क्योंकि मुझे बेशर्मी से एक भी चीज़ पसन्द नही आयी यह कहना नही आता था मेरे लिए फिर सेल्समैन ही मेरी च्वाईस का निर्धारक बन जाता था मै अपनी ग्लानि दूर करने के लिए उससे ही पूछने लगता भाईसाहब आप ही बताओं कौन सा अच्छा लग रहा है और फिर जिसको वह रिकमंड कर देता है मै बैमन से उसको खरीद लाता क्योंकि क्योंकि किसी का समय खराब करकें मना करना मेरी फितरत मे नही था यह संकोच देहात के संस्कारों की ही उपज था जहाँ यह सब जन्म घूट्टी के साथ ही घोल कर पिलाया जाता था, हालांकि अब मैने मना करना सीख लिया है लेकिन फिर भी पूरी तरह से आज भी नही सीख पाया हूँ मेरे जैसे ग्राहक ऐसे भव्य शो रुम मालिकों के लिए बडे सोफ्ट टारगेट होते है जो समय भी कम लेते है और माल भी हर हाल मे खरीदकर ले जातें है अन्यथ शहरी लोग काउंटर पर सामान का ढेर लगवाने के बाद भी साफ मना करके विजयी भाव से निकल जाते है ऐसा मैने अक्सर देखा है।
गांव देहात का आदमी जब शहर मे आता है एक तरफ तो उसमे मन में शहर की चकाचौंध के प्रति आकर्षण होता है वही मन में ढेर सारे संकोच होते है जब मै शुरु में दिल्ली जाता था तब मन मे बडा ही भय लगता था ऐसा लगता था कि रोड पार करते समय सामने से आने वाली ब्लू लाईन/डीटीसी मुझे ही रोंदने के लिए आ रही है मै पता पूछने के मामलें भी बडा संकोची था एक बार किसी से पता पूछने के बाद उसे ही ब्रहम वाक्य मान लेता था फिर उसको किसी दूसरे से टैली करने का आत्मविश्वास नही जुटा पाता था अलबत्ता तो मेरी कोशिस यही रहती थी कि मुझे भले ही आटो से कई गुना पैसा देना पडे  लेकिन मै बस से न जाऊँ लेकिन अगर फिर भी मजबूरी मे जाना भी पडता तो बस मे सवार होते ही मेरी कोशिस होती कि कंडक्टर के पास वाली सीट मिल जाए ताकि उसका कहा जा सके कि भाई मुझे फलां जगह उतार देना ऐसा कई बार हुआ है कि बस में पीछे सीट खाली पडी है लेकिन मै नही बैठा अपने मानसिक भय की वजह से कंडक्टर के पास ही खडा रहा और कंडक्टर से आग्रह करने के लिए बडी मानसिक भूमिका बनानी पडती थी क्योंकि ऐसी बसों के कंडक्टर पहले से ही चिढचिडे किस्म के होते है। मेरे इस मानसिक संकोच का बहुत बार लाभ दिल्ली के ऑटो वालों ने उठाया है वो समझ जाते थे कि बंदा अंजान है इसलिए मांग लो अंट-शंट दाम.....ये बाद मे धक्के खाकर मौल-भाव करना आया वरना पहले तो यही मानता था कि ऑटो वालो के रेट एकदम वाजिब और फिक्स किस्म के होते है। आज भी कोशिस करता हूँ कि दिल्ली कम ही जाना पडे बस एक सुकून है दिल्ली में मेट्रो चलने के बाद मेरे जैसे देहाती जीव की राह थोडी आसान जरुर हो गई है।
एक और संकोच का जिक्र कर रहा हूँ अभिजात्य किस्म के कैफे या रेस्ट्रारेंट अक्सर लोगो के लिए मीटिंग पाईंट भी होते है। बारिस्ता,कोस्ता,कैफे कॉफी डे आधुनिक शहरी अड्डे है जहाँ लोग गप्पबाजी करते है शुरुवाती दिनों यहाँ जाने के लिए मुझे अपना काफी आत्मविश्वास इकट्टा करना पडता था क्योंकि वहाँ के अंगरेजीपरस्त माहौल में जाने के लिए एक खास किस्म का आत्मविश्वास चाहिए होता है अपने कुछ दोस्तों के आग्रह पर कई बार गया हूँ अलबत्ता तो मुझे कॉपी पसन्द नही है लेकिन फिर भी आधुनिक होने की यह भी एक अनिवार्य शर्त है कि आप चाय की बजाए कॉपी पसन्द करते हो जबकि देहाती जीव गांव मे केतली भर चाय पीने-पिलाने के आदी रहें है। बहरहाल ऐसी जगहों पर भी एक अजीब सा संकोच घेर लेता है पहले तो वेटर ही हमारी बॉडी लैंग्वेज़ से यह पहचान लेता है कि ये कोई दूसरे ग्रह का जीव है इसलिए वह नोटिस ही नही करता फिर उसको बुलाना पडता है  वो भी सुसरा ऐसी अंग्रेजी पेलता कि हम उससे नजरे चुराने लगते और मेन्यू कार्ड पर नजरे गडा देते और फिर हडबडी में प्राय: महंगी और कडवी स्वादहीन कॉफी आर्डर देते फिर तो वेटर के शक की पुष्टि ही हो जाती थी मै कई बार सोचता हूँ कि ये वेटर जब अकेले में आपस मे बातें करते होंगे तो ग्राहकों की वैरायटी के हिसाब से हम जैसे लोगो पर कैसा तब्सरा करते होंगे। इसके अलावा मै देखता हूँ शहरी लोग कम से कम खर्चे पर ऐसे अभिजात्य किस्म के कॉफी हाऊस में कई-कई घंटे गप्पबाजी में बिता देते है और हमारे जैसे देहाती जीव मुश्किल से एक घंटे बैठने के बाद सोचने लगते कि कुछ और आर्डर दिया जाए ताकि हमारा यहा ऐसे खाली बैठना कैफे हाऊस के मालिको/वेटरों को नागवार न गुजरें और हर घंटे के बाद कुछ न कुछ आर्डर देते ही रहते ऐसे में सबसे कम समय बिताने के बाद भी सबसे ज्यादा बिल पे करके हम बाहर निकलते है।
इसके अलावा शहर के मांगलिक आयोजनों में शगुन का लिफाफा देने की अनिवार्यता भी प्राय: पहले संकोच का विषय बनती थी क्योंकि हमने गांव में केवल लडकी के विवाह में कन्यादान देना सीखा था लेकिन शहर में ऐसा कोई आयोजन नही है जिसमे लिफाफा न चलता हो चाहे लडके की शादी हो,महूर्त हो,ग्रहप्रवेश हो,विवाह की वर्षगांठ हो, जन्मदिन हो कुछ भी हो आप खाली हाथ दावत उडाने नही पहूंच सकते है यहाँ धन प्रेम का प्रतीक है और लिफाफा लेने देने में भी एक अजीब सा दिखावी अभिनय देखने को मिलता है मसलन लेने वाला ऊपरी मन से मना करेगा न लेने के लिए हाथ पैर फैंकेगा लेकिन मन ही मन लेना भी चाहेगा फिर मित्रगण उसकी जेब में जबरदस्ती लिफाफा ठूंस देंगे इस प्रपंच में  ऐसा सीन क्रिएट होता है कि पूछिए मत....यह भी उतना ही सच है कि शहर मे लोग कोई आयोजन करने से पहले एक मोटे तौर पर यह अनुमान लगा लेते है कि इतना तो शगुन के लिफाफे से ही कैश बैक हो जाएगा....:) खैर ! मै परम्परा पर सवाल नही खडे कर रहा हूँ लेकिन लडकी के कन्यादान के अलावा हर जगह लिफाफा देने में मेरे जैसे जीव को आज भी संकोच होता है।
....तो साहब ये कुछ देहाती जीव के मानसिक संकोच है जो शहर मे एक दशक बिता देने के बाद भी पूरी तरह से खत्म नही हुए है हालांकि अब मैने भी चालाकियाँ सीख ली है क्योंकि यहाँ प्रासंगिक बने रहने के लिए ये सब जरुरी है लेकिन दिल अपना आज भी मुहल्ले के नुक्कड पर खडे चाट वाले की टिक्की-चाट पर आता है न कि मैकडॉनाल्ड के मैक वैज़ी पर.....।
शेष फिर....

डिस्कलेमर: यह लेखक की निजी व्यक्तित्व की कमजोरी भी हो सकती है देहात से आए सभी लोग ऐसा सोचते-समझते-जीते हो यह आवश्यक नही है।