Monday, December 2, 2013

बातें गांव की---- एक किरदार ऐसा भी-04



यह ऐसा किस्सा है जिसका केन्द्रिय पात्र केवल शरीर से मेरे गांव से ताल्लुक रखता है बाकि उसके जैसी चारित्रिक विशेषताएं लगभग आपको हर गांव में देखने को मिल जायेगी इस तरह के किरदार लगभग हर गांव में ही पाये जाते है। ऐसे लोग अपनी पीढी के अकेले बचे हुए लोग है और इनके निर्वाण के बाद इन किरदारों के व्यक्तित्व मे रची-बसी एक परम्परा भी इनके साथ  समाप्त हो जाएगी।
गांव के रिश्ते के लिहाज़ से वह मेरा  भाई लगता है लेकिन उम्र मे मेरे पिताजी से भी बडा है गांव के बहुसंख्यक लोगो के लिए वह कोई चर्चा योग्य पात्र नही है ऐसा नही है वह कोई अपमानित होने वाला शख्स है लेकिन संयोग से वह अपनी पीढी और परम्परा का अकेला शख्स बन कर रह गया है गांव में मूल नाम के अपभ्रंश करने की बडी समृद्ध परम्परा भी रही है और नाम का सम्मानजनक सम्बोधन किसी की भी आर्थिक सबलता से तय होता है गांव भी इससे अछूते नही है। हमारे गांव के बडे परिवार मुखिया खानदान का एक छोटा और सीमांत श्रेणी का किसान है ‘पटम्बर आंधा’ आधिकारिक रुप से उसका नाम पीताम्बर है लेकिन गांव में वाचिक परम्परा की सुविधा और आर्थिक सम्पन्नता के वर्गीकरण के लिहाज़ से उसका नाम सदैव से ही ‘पटम्बर’ ही रहा है ( मै यह नही कहूंगा कि कालांतर मे पीताम्बर से अपभ्रंश होकर पटम्बर हो गया था) अब आंधा लिखने की वजह भी बताता हूँ पटम्बर को एक आंख से बेहद कम दिखाई देता है शायद बचपन मे ही ‘मायपोयिया’ हो गया होगा और सूर्यास्त के बाद उस आंख से लगभग दिखना बंद ही हो जाता है इसलिए पटम्बर को आंधा भी कहने लगे है गांव में शारिरिक अयोग्यता भी व्यक्तित्व के साथ ढोने वाली चीज़ बन जाती है इसलिए उसे गांव में सयुक्त रुप से पटम्बर आंधा कहा जाने लगा हालांकि उनको आन्धा कहने की एक और वजह यह भी है वो जिस मुखिया खानदान से सम्बंधित है वह भी गांव के बौंग ( लोकप्रचलित उपनाम) के लिहाज़ से आन्धे ही कहे जाते है इसलिए पटम्बर के साथ आन्धा शब्द दोहरे रुप मे चस्पा हो गया।
पटम्बर आंधा के पिताजी कभी हमारे जनपद के चोटी के पहलवान हुआ करते थे उनका नाम कुंदन था दंगल में उनसे हाथ मिलाने की जुर्रत बडे बडे शूरमा भी नही कर पाते थे उनके विषय में गांव में काफी किम्वदंतिया प्रचलित है मसलन उन्होने एक दंगल में सामने के पहलवान से हाथ मिलाकर उसके अंगुलियों के पोरो से खून की धारा चला दी थी, वो लडते हुए झोटे (भैंसा) को सींग पकडकर अलग कर देते थे, वो बैल के अगले दो पैरो को पकडकर उसे सीधा उपर उठा देते थे, वो वजन उठाने में भी बेहद बलशाली थे आदि आदि....ऐसे बलशाली पहलवान के पुत्र के रुप पटम्बर आंधा का जन्म हुआ लेकिन पिता की मृत्यु के बाद वो उनकी समृद्ध पहलवानी की विरासत को उस रुप मे आगे नही बढा सके हालांकि पटम्बर भी अपने जवानी के दिनों में अत्याधिक बलशाली रहे है लेकिन उनके किस्से दंगल में कुश्ती लडने के नही रहे बल्कि खेत से भारी वजन की घास की गठडी उठाकर गांव तक लाने तक ही सिमट कर रह गये।
गांव के लोगो के लिए पटम्बर आंधा एक कमअक्ला किस्म का इंसान हो सकता है लेकिन मै मनोवैज्ञानिक रुप से जब उसके व्यक्तित्व को जब देखता हूँ तो मुझे वह पिता की परम्परा की अपेक्षा और अपनी आंखो की कमजोरी तथा आर्थिक बदहाली से उपजे दबाव की उपज दिखने लगता है कदकाठी के लिहाज़ वह आज भी 6 फीट से अधिक लम्बा है और उम्र भी 70 के पार हो चुकी है। गांव में पटम्बर आन्धा का जिक्र जिस बात के लिए किया जाता है वह है उसकी खुराक। घोषित रुप से वह हमारे गांव का सबसे बडा खाऊ आदमी रहा है घर,शादी ब्याह या अन्य किसी भी कार्यक्रम में उसकी चर्चा उसकी गजब की डाईट को लेकर ही होती रही है गांव मे कभी दबे स्वर तो कभी मुखर रुप से उसका अत्याधिक खाना खाने की क्षमता और आदत होना एक प्रहसन का विषय रहा है लेकिन मै इसे उसके व्यक्तित्व की विशेषता के रुप में देखता हूँ।
लौकिक रुप से पटम्बर आंधा सम्मान/अपमान दोनो से ही मुक्त चेतना है वह लोगो की खुशियों में शामिल होना अपना अधिकार समझता है ईगो जैसी भी कोई चीज़ होती है वह कभी जान ही नही पाया है उसके व्यक्तित्व में जटिलताएं नही है भले ही उसके जीवन में प्रमुख अभिप्रेरणा भोजन है लेकिन इसके बदले मुझे उसके अन्दर एक सदाशयता ही नजर आती है।
पटम्बर आंधा एक अच्छा गल्प सुत्रधार भी वह किस्सागो भी है उसकी चुस्त जुमलेबाजी और अपने जवानी के दिनों के अनुभव खासकर यात्रा संस्मरण गजब के है जिसमे देहात के एक सरल और अनपढ इंसान के भदेशपन की महक आती है। पटम्बर आंधा भले ही सामाजिक रुप अधिक स्वीकृत या सम्मानित अवस्था में नही है लेकिन वह निर्द्वन्द है उसके जीवन में संकोच जैसी चीजों के लिए कोई  स्थान नही है गांव के मांगलिक कार्यक्रमों में वह आमंत्रण जैसी औपचारिकता का भी अभिलाषी नही है जिसे प्राय: उसकी कमजोरी के रुप मे देखा जाता है लेकिन मेरे हिसाब से ऐसा जीवन जीने का अभ्यास विकसित करना अपने आप में बडी बात है जहाँ आप लोक अपेक्षाओं से परे अपने जीवन के एक मात्र अनुराग ( भले ही भोजन हो) के सहारे जीवन जी पा रहे हो।
पटम्बर आंधे के खाना खाने के किस्से आज भी गांव मे इतने मशहूर है कि लगभग गांव के सभी लोग उनके बारे मे जानते है वह दो डोंगे भर के रसगुल्ले एक बारात मे खा गया था एक किलो बूरा चावल के साथ खाना उसके लिए कोई बडी बात नही रही है गांव में लडको की शादी मे दिए जाने वाले प्रीतिभोज ( मंढा) में उसके द्वारा 50-60 लड्डु खाया जाना भी कभी आम बात हुआ करती थी। अब बुढापे में उसकी भी डाईट घट गई है लेकिन मीठा खाने के मामले में आज भी उसको कोई सानी नही है। मैने एक दफा खुलकर उससे उसकी खाने की प्रवृत्तियों पर बात भी की थी तभी मुझे पता चला कि उसके लिए उसका इतनी बडी डाईट खाना कोई विषय ही नही है यह उसकी जीवन का हिस्सा भर है हालांकि वह अब यह भी कहता है कि गांव में उसके खाने को लेकर दुष्प्रचार अधिक हुआ है वह अब उतना बडा खाऊ नही रहा है लेकिन अपनी जवानी दिनों के दिनों को याद करते हुए वह खुद अपने खाने के किस्से ब्याँ करने लगता है।
अपनी उम्र के इस आखिरी पडाव पर पटम्बर आंधा अब भले ही अपने पुत्रों द्वारा बिना आमंत्रण के भोज पर जाने से रोका जाना लगा हो लेकिन इसके बावजूद भी उसके अन्दर कोई अपराधबोध नही है यह उसके व्यक्तित्व की सरलता ही है कि मैने शायद ही उसे कभी क्रोध मे देखा हो दरअसल वह अपनी ही धुन मे रहने वाला और सीधे रास्ते पर चलने वाला एक आम सच्चा देहाती मानुष है जो दूनियादारी के लंद-फंद नही जानता है अपनी क्षमताओं का ग्लैमराईजेशन भी उसको नही आता है वह साक्षी भाव से जीवन जीने का आदी है और अपने आसपास के लोगो को देखकर उनकी गति और बदलाव को देखकर यह जरुर लगता है पटम्बर आंधा जैसे लोगो अपनी पीढी के अंतिम लोग है ऐसे में उनके व्यक्तित्व का दस्तावेजीकरण हमारे लिए एक परम्परा के दस्तावेजीकरण का काम करेगा ताकि आने वाली पीढियों को ऐसे लोग सनद रहे। 

No comments:

Post a Comment