Wednesday, December 30, 2015

आँखें -2

एक वर्जन यह भी:

छल और प्रेम में विश्वास और सन्देह में तुम्हारी आँखों के फेरे बंधे थे। सप्तपदी की तरह इन आँखों के अपने कुछ वचन थे जिन्हें दोहराना नही पड़ता था। तुम पलकें झपकती तो कुछ वादे आईस पाईस खेलनें लगतें। इन खंजन नयनों में आग्रह आमन्त्रण या सपनों का बासीपन नही था बल्कि इनमे खुली आँखों से देखे कुछ अलहदा ख़्वाबो के जोखिम की बन्दनवार टँगी थी।
इन दो आँखों की कैफियत समन्दर किनारे अधलेटे दो आवारा परिंदों के माफिक थी जो साँझ ढलनें के बाद कहीं लौटना नही चाहते थी वो बाहों के घेरों में कुछ कुछ अंतराल में चारों युगों को पहरेदार बना इश्क में अय्यारी करने का हुनर सीखना चाहते थे।
अपनी अनामिका से तुमनें काजल एक टीका मेरी मुस्कान पर लगा दिया मुझे अचानक देख जो एक बूँद आँख से छलक आई थी उससे तुमनें मेरी पीठ पर एक वृत्त बनाया और उसके ठीक मध्य कामनाओं का एक अमूर्त चित्र खींच दिया।
दरअसल ये महज दो आँखें नही थी बल्कि ये दो खिड़कियां थी जिन पर कांधा टिकाए हम दोनों एक दुसरे के मन की गिरह खोलनें के लिए अपने अपने उदास गीत गुनगुना रहे थे। तुमनें एक अंगड़ाई ली और कुछ देर के लिए तुम्हारी पलकें सुस्तानें नीचे उतर आई उसी दौरान में मैंने एक गुजारिश का छींटा तुम्हारी आँखों पर मार दिया तुमनें आँखे खोली मेरे हिस्से में कुछ गुमशुदा शाम आई।
इन्ही आँखों के सहारे मैंने ख्वाहिशो की कतरनें तुम्हारे मन के पते पर पोस्ट की और तुमनें उनकी सिलवट को सीधा करते हुए अपने लबो पर ज़बां फेरी यकीं करना इन लम्हों में मेरा वजूद इस कदर बह गया कि आज तलक मैं गुजिश्ता लम्हों से गुजारिश करता हूँ कि तुम्हारी आँखों के जरिए मुझे मेरा गुमशुदा पता चल जाए ताकि मेरी गुमराही खत्म हो और इन्तजार की शक्ल मुझे तुम हासिल हो फिलहाल तुम मुस्कुरा सकती  हो मगर हंसना मत क्योंकि तुम्हारी पलकों के छज्जे पर कुछ मेरी ख्वाहिशें बैठ डूबता सूरज देख रही है।

Tuesday, December 29, 2015

उसकी आँखें

' उन आँखों में एक कातरता थी। करुणा और अवसाद का सम्मिश्रण बन आँखों सी तलहटी से बह रहा था। आँखों के कोण  उन अक्षांशों पर स्थापित हो गए थे जहां निकटता और दूरी को एक साथ देखा जा सकता था।
आँखों के जरिए एक जीना ठीक उसके दिल में उतरता था मगर दिल के दरवाजे पर सांकल चढ़ी थी। वो जब देखती तो कोई प्रश्न शेष न बचते उसकी आँखों का भूगोल निर्जनता के कई खोए मानचित्र लिए थे जिनकी शिनाख्त करने की हिम्मत बड़ी मुश्किल से जुटा पाता था।
वो नदी की तरह विकल थी मगर उसने अपने किनारों को तन्हा नही छोड़ा था उसके पास कुछ वजीफे थे जो उसनें स्पर्श की शक्ल में किनारों को दिए थे। उसकी आँखों में नदी के जलस्तर को नापने का पैमाना था वहां वेग की उथल पुथल उतनी साफ़ नही पढ़ी जा सकती थी मगर उसकी आँखों के जरिए कुछ अनुमान और गणनाएं अवश्य की जा सकती थी मसलन आंसूओं की आद्रता का स्तर क्या है वो सूखकर ग्लेशियर बनेंगे या फिर बहकर समाप्त हो जाएंगे हमेशा के लिए।
वो प्रकृति का अनहद नाद थी जिसकी ध्वनि आँखों के रास्ते सुनी जाती थी उसका काजल आवारा बदरी की टुकड़ियों का एक समूह था जो वक्त बेवक्त बरस जाया करता था इसी के जरिए आँखों की नमी चमक में तब्दील होती थी।
वो जब देखती तो शब्द दुबक जाते वाणी और स्वर अर्थ खो देते और आँखें भाषा का अधिकार पा लेती उसकी आँखों के महाकाव्य पढ़ने के लिए गर्दन नीची नही करनी पड़ती। उसे पढ़ते हुए जाना जाता शब्द का ब्रह्म हो जाना उसकी आँखों का अपना एक स्वतन्त्र शब्दकोश था जिसके पन्ने स्वतः पलक झपकनें के अंतराल पर पलटते जाते।
वो एक नदी थी वो एक महाकाव्य थी वो एक जीवन्त आख्यान थी और उसकी आँखें इल्म और अदब की दरगाह थी जहां कलन्दरो को पनाह मिलती थी उसकी निगाह में आतें ही खाकसार मुरीद और मुर्शिद एक साथ हो जाते थे।

Thursday, December 17, 2015

छायायुग

वहां हर स्त्री पर एक पुरुष की छाया थी और हर पुरुष पर एक स्त्री की छाया की तलाश में गुम था।
एक बात जो तय थी वहां शायद हमेशा धूप रहती थी दिन निकलनें और साँझ होने जैसे सुंदर कल्पनाएं वहां मिथ्या थी।
आकृतियों के मध्य जीवन था और जीवन के ठीक बीच में कुछ रिश्तें आड़े तिरछे फंसे हुए थे वहां बाहर की दुनिया में एक व्यवस्थित कोलाहल था मगर अंदर की दुनिया में एक ख़ास किस्म की नीरवता पसरी हुई थी।
अधिकार वहां सबसे अधिक करुणा का पात्र था क्योंकि ये दिन में इतनी दफा जगह बदलता था कि ये समझना मुश्किल था कि सुबह का निकला रात तक कहाँ पहुँचेगा।
वहां की दुनिया थोड़ी तिलिस्मी थी वो दावों की दुनिया था जिसमें दिन भर कोई न कोई किसी का खण्डन करके अपने जगह सुरक्षित करने की जुगत में था।
छायाओं के मध्य वास्तविक आकार थोड़े धूमिल हो गए थे इसलिए वहां पुरुष और स्त्री के लिंग पर प्रायः सन्देह किया जाता वो अनुमानों और सम्भावनाओं की उजड़ी हुई मगर हरी भरी दुनिया थी।
उस दुनिया को देखनें के लिए रोशनी नही सघन अंधेरा चाहिए था तभी दीवारों पर हाथ लगाते हुए अनुमान के भरोसे मंजिल की तरफ रोज़ कुछ लोग निकल पड़ते थे।
वो दुनिया था या एक छाया थी इसका भेद अज्ञात रहा मगर उस दुनिया का आंतरिक सच रहस्यमयी ढंग से बिखरा हुआ था जिसे देखनें के लिए कभी कभी ऊकडू बैठना पड़ता या फिर किसी से महज बस इतना पूछ लेना होता है कोई है क्या वहां?

'छायायुग'

Wednesday, December 16, 2015

सम्बोधि

तुम मेरे जीवन का एक मात्र असंपादित अंश थी
अंश इसलिए कहा क्योंकि तुम्हें सम्पूर्णता में पाने की मेरी पात्रता थोड़ी कमजोर थी।
तुमनें एकदिन महर्षि रमण का एक किस्सा सुनाया उनके एक जिज्ञासु शिष्य ने कहा गुरुदेव क्या आप मुझे शक्तिपात से सम्बोधि की अवस्था में पहूंचा सकते हो? महर्षि रमण बोलें हाँ ! मगर क्या तुम इस अवस्था में हो कि तुम शक्तिपात को ग्रहण कर सको?
इस किस्से के जरिए तुम मुझे मेरी अपात्रता नही बता रही थी बल्कि तुम कहना चाह रही थी कि देने वाला कई बार देने की इच्छा होने के बावजूद भी नही दे पाता है। तुमनें एक प्रसंग का सहारा लिया और प्रेम की दुनिया में मेरी उपस्थिति का भौतिक आंकलन कर लिया।
फिर मैंने विषय बदलते हुए कहा क्या तुम मुझे सम्पादित करना चाहती है तुमनें तुरन्त इनकार किया नही मैं इसके लिए पात्र नही हूँ।
दरअसल पात्रता और अपात्रता के मानकों की दुनिया के जरिए तुम प्रेम की इस सम्बोधि में मुझे देखना चाहती थी जहां मैं केवल रहूँ और अनुराग की दासता में कोई ऐसा हस्तक्षेप न करूं जिससे हमारी अपनी स्थापित दुनिया थोड़ी भी अस्त व्यस्त हो।
अचानक तुमनें एकदिन पूछा समय क्या हुआ है मैंने घड़ी देखनी चाहिए तो तुमनें मेरी कलाई को अपनी हथेली से बन्द कर दिया और कहा अनुमान से बताओं
मैंने कहा मेरे अनुमान अक्सर सही नही निकलतें है मैं अंदाजन चूक जाता हूँ फिर भी मैंने कहा एक बजा है शायद।
तुमनें उसके बाद घड़ी नही देखी और न मेरे अनुमान की सत्यता की जांच की तुम्हारी इस बेफिक्री ने सच कहूँ मुझे समय से बहुत दूर कर दिया।
इस घटना के बाद हमारा दोनों का अपना एक मौलिक समय तय हुआ जो अधिक प्रमाणिक लगा मुझे।
बोध जब गहराता गया तब ये तय करना मुश्किल हो गया कि तुम निकट हो या दूर जब मैंने इसके बारें में तुमसे सवाल किया तब तुमनें सिर्फ इतना कहा निकटता और दूरी मेरी दिलचस्पी का विषय नही है तब शायद तुम यह कहना चाह रही थी कि हमें नदी पुल के जरिए नही झूला डालकर पार करनी चाहिए।

'बोध-सम्बोधि'