Sunday, December 29, 2013

प्रपंच

कल रात बेहद मानसिक खीझ के पलों में यह फैसला किया था कि यह फेसबुक डिलीट (डिएक्टिवेट नही) करना है रात कई दफा प्रयास किया लेकिन जुकरबर्ग साहब के कारिन्दें बार-बार टेक्निकल एरर दिखा रहे थक कर रात 11 बजे सो गया सुबह उठा इसी संकल्प के साथ कि उठते ही डिलीट कर दूंगा लेकिन सुबह भी वही दिक्कत आयी फेसबुक डिएक्टिवेट करने का ऑप्शन दे रहा है डिलीट के नाम पर ना नुकर कर रहा.... फिर सोचा जब अस्तित्व नही चाह रहा है तो बलात अपनी मानसिक कमजोरी को तकनीकी पर थोपना उचित नही है इसलिए न डिएक्टिवेट किया ( और अकाउंट डिलीट तो हो ही नही रहा था )
फेसबुक पर रहना और ठीक ठाक लोकप्रियता के साथ रहना लेकिन अचानक ही यहाँ से उच्चाटन हो जाना मेरे लिए नई बात नही है ऐसा कई बार हुआ है लेकिन बात अकाउंट डिएक्टिवेट पर जाकर थम जाती थी कल मै अकाउंट डिलीट करने का फैसला कर चुका था...यह प्रथम दृष्टया मानसिक अस्थिरता का प्रमाण लगता है लेकिन आध्यात्मिक अर्थो में यह उस शाश्वत भटकन का प्रभाव है जो एक स्थान,मनुष्य या तकनीकि अधिक समय तक आसक्ति या रस नही बने रहने देना चाहती है यह सपनों की उस मृगमरीचिका के जैसी है जिसका पीछा करना बाध्यता लगती है लेकिन वो है भी या नही इस पर भी सवाल हमेशा बना ही रहता है।
जीवन में स्थाई कुछ भी नही है यह शाश्वत बात है लेकिन कई बार यात्रा पर चलते-चलते लगता है शिखर से शून्य और शून्य से शिखर तक निरंतर यात्रा ही अपने अस्तित्व के सवालों का खुद जवाब दे सकती है यह निजि चयन का मामला है जहाँ आप लोक मे रहकर भी लोक से मुक्त रहना चाहते है और जब आपको लगता है कि आप किसी खास स्थान वस्तु या मनुष्य पर अटक गए है तभी इनरकॉल कहती है निकल लो यहाँ सें....लेकिन निकलने के क्रम और प्रयास में वृत्त की भांति गोल-गोल घूम कर वही आ जाते है जहाँ से कभी चले थे..।
बहरहाल, जिन-जिन फेसबुकिया मित्रों को मैने अकाउंट डिलीट करने जा रहा हूँ कि सूचना देकर उनका मानसिक दोहन किया उन सभी से क्षमा प्रार्थी हूँ अपनी पूरी काहिली और जाहिली के साथ मै यही पर हूँ....लेकिन कब तक यह मुझे भी नही पता है।

Wednesday, December 25, 2013

कोरस

एक तरफ हर पांच-सात मिनट फेसबुकिया पिंग (कमेंट्स और चैटिंग की) की गुडक-गुडक की आवाजें वही दूसरी तरफ दूसरे कमरे से कलर्स/स्टारप्लस की सास-बहुओं के सीरियल के कोरस की आं...आं...आं की नैपथ्य ध्वनि जो पत्नि के नेत्रों को सजल करने वाली आवाजें है इधर मै कभी चुप्पी में जीता हूँ तो कभी कभी किसी बात पर मुस्कुरा भी पडता हूँ हमारे इन दो कमरों के ध्वनिलोक में समानांतर दो दुनिया लम्बे समय से बसी हुई है। पत्नि जब कभी रसोई में होती है तो स्त्री दारुण कथा के धारावाहिकों की आवाज कार्टून में तब्दील हो जाती है फर्क बस इतना होता है कि मेरे कमरे की कमोबेश वही आवाजें होती है और पास के कमरे सें ओगी,डोरेमोन,भीम आदि की आवाजें आने लगती है इस तरह से घर के अन्दर चारदीवारी और सामानों के बीच तीन अलग अलग दुनियाओं का अस्तित्व है उनका अपना-अपना कोरस है और यह सब इतना सहज है कि कभी एक दूसरे को प्रभावित भी नही करता है इसमे बच्चों के लिए मनोरंजन प्रधान है पत्नि के लिए अपने अस्तित्व को तलाशना प्रमुख है और मेरे लिए लोक पर खुद बलात आरोपित करने की सारी कवायद चलती है जहाँ कभी मै कभी पसर्नल स्टेट्स लिखता हूँ तो कभी 'कवि' बन अपनी रचित कविताओं के जरिए अपने आसपास के संवेदनशील लोगो को यह बताना और जताना चाहता हूँ कि मै अन्दर से कितना द्रवित महसूस करता हूँ। कुल मिलाकर शब्दो के भ्रम और शब्दों के ब्रहम होने के मध्य हमारी ध्वनियां सूक्ष्म रुप से बसी हुई है जिससे हमे अपने अपने अर्थो में ऊर्जा मिलती है।
सांसारिक वजह जब आपको बांधने मे असमर्थ होती है तब हम अपनी एक समानांतर दुनिया रचते है जिसमें हम खुद को लगभग नायक सिद्ध करते हुए अपने संघर्ष को और तरल बनाने की कवायद भी करते है ऐसा ही नही है कि हर बार बात संघर्ष से शुरु होकर संघर्ष पर ही समाप्त होती हो कई बार हम खुद को एक युक्तियुक्त सांत्वना देने के लिए भी यह सब प्रपंच करते है फिर ध्वनियों के सन्दर्भ सें चाहे मेरे फेसबुक की पिंग की आवाज हो या फिर पत्नि के सीरियलस के कोरस का दुखद प्रलाप दोनो एक दूसरे को एक समकोण काटते हुए साथ चलते नजर आते है। बात बेहद आम है और कोई महत्व या मूल्य की नही लेकिन दो कमरों में जीती-मरती दो जिन्दगीयाँ कैसा अपने आप को बाह्य दुनिया से जोड लेती है यह निसन्देह रोचक है।

Thursday, December 19, 2013

सदी की सलाह



मदिरासेवनोपरांत सोशल मीडिया,फोन या अन्य संचार तंत्र पर बने रहना किसी भी प्रकार से विवेकपूर्ण और मित्रोहितकारी नही है। उक्त मनोदशा में मन पर पडी संकोच की चादर हट जाती है और मनुष्य भावनातिरेक अवस्था में भावुक किस्म की बातें करने लगता है ये बातें दिन भर दृढता से बंधे  मनुष्य के उस कमजोर पक्ष की तरफ भी ले जा सकती है जो सर्वथा अपवंचना का शिकार रहा होता है या फिर ऐसी अवस्था में वो हर एक बात आहत कर सकती है जिसको अमूमन रोजाना आप नोटिस न करते हुए लगभग नजरअन्दाज़ कर देते है। कुल मिला कर इस पेय के सेवन के बाद आपको खुद के करीब रहना चाहिए न कि लोक में अपने दमित अभिलाषाओं या शिकायतों को अभिव्यक्त या आरोपित करने में लग जाओं इससे आपकी बातों को गंभीरता से सुनने की प्रवृत्ति तो घटती ही है साथ ही सुबह जब आप अपने कहे लिखे ब्रहम वाक्यों के प्रमाण ( यथा एसएमएस, चैट बॉक्स) देखते है तो एक खास किस्म की ग्लानि और अपराधबोध का हैंगओवर जरुर होता है कि ये मैने क्या कह दिया और क्यों कह दिया....बातें  भी कम से कम एक दिन तो पीछा जरुर करती है फिर आप  दिन भर मूंह छिपाते रहे या फिर अपना माफीनामा तामील करायें नही...नही मेरा कहने का ऐसा मतलब नही था  हो सकता है उन्माद की अवस्था में कुछ ज्यादा लिख-बोल दिया हो आदि-आदि। ऐसी मनोदशा में मै किसी भी प्रकार का स्टेट्स/कमेंट/चैट/एसएमएस/कॉल से मुक्त रहकर अपने अस्तित्व को महसूस करने  और उसके उत्सव में खो जाने को सबसे अधिक उपयोगी समझता हूँ इसलिए जब कभी भी ऐसा अवसर फोन/इंटरनेट/टीवी आदि सब बंद करके मद्धम रोशनी में सूफी संगीत या गजल का लुत्फ लें,नाचें,गाएं,रोएं  तो सबसे बेहतर है ये सब भी न हो तो अपने साकी और रहबरों से गुफ्तगू भी की जा सकती है कुछ अपनी कहना कुछ उनकी सुनना इन संचार-सूचना के तंत्रों पर अटके रहने से कई गुना बेहतर अनुभव होगा कम से कम रात गई बात गई जैसा हाल तो रहेना न कि अगले दिन आप खुद के दिव्य रुप के प्रमाण देखकर कभी असहज तो कभी अचरज़ महसूस करते रहें। इति सिद्धम।

Monday, December 9, 2013

दोस्तों का सर्वे

दोस्तों से मुद्रा उधार मांगने के लिए कितनी लम्बी चौडी उधेडबुन और मानसिक भूमिका से गुजरना पडता है अब आप कहेंगे कि नही दोस्तो से कैसा संकोच नही भाई मै इससे सहमत नही हूँ दोस्त चाहे लंगोटिया किस्म का हो या फिर दूनियादारी दोनो से ही पैसा उधार मांगने के लिए उधार का साहस जुटाना पडता है और जब आप किसी से अपनी जरुरत कहे और सामने वाला जिज्ञासावश पूछ ही बैठे कि कहाँ जरुरत पड गई भाई ऐसे में अपनी जरुरत की उपयोगिता सिद्ध करने के लिए तमाम शब्द सामर्थ्य का प्रयोग करना पडता है ये तो अच्छी बात है कि ऐन वक्त पर दोस्त मदद भी कर देते है वरना आप अपनी कहानी कहे और सामने वाला हाथ खडा कर दे ऐसे मे फोन काटना कितना भारी हो जाता है ब्याँ नही किया जा सकता है। आदर्श स्थिति वही है कि आपका अपनी ही आमदनी से काम चलता रहा है कभी मांगने का कारोबार नही करना पडे लेकिन दूनियादारी में बिना लेन-देन के काम नही चलता है शायद आदम के इगो को घटाने और बढाने के लिए इससे बढिया रीति विकसित ही नही हो पायी है पैसा स्वामित्व भाव तो पैदा कर ही देता है सो याचको की टोली का मेरे जैसा नायक अक्सर यही सोचता रहता है कि मुद्रा की अवधारणा सहअस्तित्व और इंसानी जरुरतों के इर्द-गिर्द क्यों नही रह पाती है।
बहरहाल इस पोस्ट के बहाने के बेशर्म किस्म का सर्वे भी करने जा रहा हूँ फेसबुक पर जुडे मेरे सभी मित्र यह बताएं कि वें जरुरत पडने पर मेरी कितनी (धनराशि) की मदद कर सकते है वह भी बिना यह पूछे कि मुझे क्या जरुरत आन पडी है इस पोस्ट पर आयें कमेंट मेरी फेसबुकिया दोस्तों के बीच मेरी क्रेडिट लिमिट का भी निर्धारण करेंगी...हालांकि जो लोग मेरी गांव की पृष्टभूमि जानते है ( मसलन जमींदार का पुत्र वगैरह-वगैरह) उनके लिए यह पोस्ट एक सदमे से कम नही होगी लेकिन अपनी फितरत ही ऐसी है हमेशा जैसा फील करते है वैसा ही लिखते है और इमेज़ कॉनशिएस मै कभी रहा भी नही हूँ। सो आपका समय शुरु होता है अब......जरा बताएं कि आप अपनी गाढी मेहनत की कमाई में से अधिकतम कितनी सहयोग राशि मुझे बतौर उधार देने की हिम्मत रखते है जबकि आपको यह भी पता हो कि हाल फिलहाल कम से कम से दो साल पैसा वापिस आने की कोई सम्भावना नही है।
यह एक अपने किस्म का पहला और गंभीर फेसबुकिया प्रयोग है इसे न तो व्यंग्य समझा जाए और न ही एक चलताऊ किस्म की पोस्ट ना ही मेरी अभिलाषा छ्द्म लोकप्रियता हासिल करने की है सो एक हाथ अपने दिल पर रखे और एक अपनी जेब पर और फिर उसके बाद अंको में वह राशि बताएं जितने की मदद करने की हिम्मत आप 24X7 रखते हैं... और हाँ किंचित भी यह सोचकर घबराये नही कि मै आपके कमेंट के बाद आपके इनबॉक्स में आकर अपनी तुरंत डिमांड रख दूंगा क्योंकि फिलहाल मुझे ऐसी कोई जरुरत नही आन पडी है। मेरी जिज्ञासा खुद की फेसबुकिया हैसियत (क्रेडिट लिमिट के सन्दर्भ में) जानने की है सो अभी तक मेरी गालबजाई पर हौसला बढाने वाले दोस्तों अब आपकी बारी है कि एक रोचक,अजीब और बेशर्म किस्म के सर्वे पर भी अपनी वैसी ही बेबाक राय रखें जैसी अभी तक आप मेरी फेसबुकिया पोस्ट पर रखते आयें है....

डिसक्लेमर: इस पोस्ट का उद्देश्य किसी मित्र की आत्मीयता धन के सन्दर्भ में आंकना कदापि नही है और न ही मै दोस्तों को परखने में यकीन रखता हूँ आप सभी मेरे लिए जीवन की स्थाई पूंजी से भी बढकर है। यह केवल एक खाली दिमाग की उपज मात्र है।

Tuesday, December 3, 2013

एक किरदार ऐसा भी-05


सुसी-गांव के बच्चों की बुआ 


गांव के विभिन्न किरदार ब्याँ करते-करते खुद ब खुद लोग सामने आकर खडे हो रहे है मैने कभी पूर्व योजना से नही सोचा था कि कैसे लोगो पर लिखना है और न ही यह तय किया था कि इन-इन लोगो पर लिखना है जैसे ही एक शख्सियत पर लिख कर समाप्त किया उसके तुरंत बाद ही मुझे दूसरा किरदार नजर आने लगा कि अब इसकी बारी है गांव के जीवन में सहअस्तित्व की अवधारणा में जीते ये किरदार हमारे गांव के लिए किसी पूंजी से कम नही है इनका मूल्य भले ही गांव के लोगो ने उस रुप मे नही पहचाना हो लेकिन मेरे दृष्टिकोण से अभी तक प्रकाशित किया जा चुका हर शख्स अपने आप में अनूठा है उसके व्यक्तित्व का अपना एक प्रकृतिजन्य वैशिष्टय है और इसी वजह से वो शख्सियत हमारे दिल औ दिमाग मे लम्बे समय तक बने रहेंगे।

सुसी (मूल नाम सुरेशो)मेरे गांव की लडकी है लडकी इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि वह गांव की बेटी है गांव के निर्धन ब्राहमण परिवार में उसका जन्म हुआ था अब उसकी उम्र अब पचास के पार हो चुकी है। सुसी को पैदाईशी रुप से वाकविकार (स्पीच डिसआर्डर) था संभवत: जन्म के समय मस्तिष्क में कोई क्षति हो गई होगी और इसी बीमारी का असर उसके संज्ञानात्मक विकास ( Cogitative Development) पर भी पडा वह मानसिक रुप से विकलांग नही थी लेकिन इसके अलावा उसके व्यक्तित्व और व्यवहार में असामान्यता जरुर थी वह ठीक से बोल न पाती थी उसका उच्चारण अस्पष्ट था वह बेहद तेज़ बोलती और चंचल भी थी एक जगह वह बैठी नही रह सकती है गांव की गलियों में उसके चक्कर लगते ही रहते थे कभी इस घर तो कभी इस घर गांव के लिहाज़ से वह ‘डारो’ (घूमंतू) थी। सुसी के सभी लक्षण मै उसके व्यस्क रुप के बता रहा हूँ उसकी अपने निजि जीवन की कहानी भी कम दुख और त्रासदी से भरी नही है।
मानसिक रुप से चुनौतिपूर्ण जीवन जीने वाले लोगो के लिए समाज़ में दया तो होती है लेकिन वो दया बेचारगी से उपजा आवेशभर होता है बाकि ऐसे लोगो के समुचित पुनर्वास की व्यवस्था अभी तक तो शहर में भी उपलब्ध नही है गांव में पुनर्वास जैसी कोई चीज़ होती है यह कोई जानता भी नही है।
सुसी का जितना किस्सा मुझे ज्ञात है उसके हिसाब से सुसी के घर वालों ने उसकी मानसिक अक्षमता के बावजूद उसका बाल विवाह कर दिया था उसके पति और ससुराल पक्ष को जैसे ही इस बात का पता चला कि सुसी एक सामान्य बहु नही है तो उन्होने उसके साथ बेहद अमानवीय किस्म का व्यवहार किया उसकी ससुराल पक्ष वालों ने उसका शोषण करना आरम्भ कर दिया उससे रात-दिन घर का काम करवाना और उसके साथ मारपीट करना भी शुरु कर दिया था। सुसी की शादी के कुछ दिन बाद हमारे गांव से उसके परिवार का कोई व्यक्ति जब सुसी से मिलने उसकी ससुराल गया तो सुसी उसके सामने फफक कर रो पडी और अपनी सारी व्यथा संकेतो के माध्यम से कह दी और उसने वहाँ अपना निर्णय भी सुना दिया कि अब उसे एक दिन भी यहाँ नही रहना है बस उसके बाद वह स्थाई रुप से अपने मायके यानि हमारे गांव आ गई। सुसी उसके बाद कभी वापिस अपनी ससुराल नही गई उसके गांव आने के बाद उसके सुसराल पक्ष ने भी शायद कभी उसकी सुध नही है उसके पति के बारे में कभी गांव में नही सुना गया हालांकि जो बाते सुसी के बारे में मुझे पता है वह नितांत ही स्मृति और जनश्रुति आधारित है।
सुसी ने इसके बाद अपने मायके को ही अपना सब कुछ मान लिया है सुसी अपने मनमर्जी से गांव में घूमती रहती थी गांव मे जब भी कोई शादी होती तो गांव की महिलाएं उसको कपडे भी देती थी सुसी के व्यक्तित्व की खास बात यह भी थी कि वह अपनी चाल-ढाल से बच्चों के मन में विशेष कौतुहल पैदा करती है वह जब गली मे चलती तो बच्चों की टोली उसके पीछे-पीछे चल पडते कई बार बच्चे उसको परेशान भी करते थे यानि उसको चिढाते भी थे अमूमन सुसी बच्चों पर गुस्सा नही करती थी लेकिन जब बच्चों की गुस्ताखियाँ बढ जाती तो वह बच्चो को अजीब तरह से डरा भी देती थी वो उसकी एक खास किस्म की भय पैदा करने की मुद्रा और आवाज़ होती थी उसका बच्चों को डराना केवल उनसे खुद को बचाना होता था क्योंकि कई बार बच्चे उसको बहुत परेशान करते थे। आज भी गांव की महिलाएं बच्चों को रोने से चुप कराने के लिए कह देती है कि चुप हो जा वरना सुसी आ जायेगी और जिस बच्चे ने सुसी का भय देख लिया वह तुरंत ही सुसी के नाम से चुप भी हो जाता थ। ऐसा भी नही था कि वह बच्चो मे भय का ही प्रतीक रही है वह स्वभाव से दयालु भी थी जब भी बच्चा बुआ जी कह कर माफी मांग लेता वह उसको प्यार भी करती थी।
सुसी के लिए आज भी गांव के हर घर का दर खुला है उसके लिए कोई भी भेद नही है उसे हर घर में आदर मिलता है महिलाएं उसको चाय भी पिला देती है और खाना भी खिला देती है और वो खुद भी मांग कर चाय पी लेती है सुसी के व्यक्तित्व में एक खासियत यह भी है कि सुसी अपने मन की मर्जी की मालिक है जहाँ उसका मन नही खाने का होता है वहाँ उससे कितना ही आंग्रह कर लो वह कुछ नही खायेगी...। सुबह-शाम उसको गांव के गलियों में घूमते देखा जा सकता था गांव के बच्चे जब उससे डर जाते तो बुआ जी-बुआ जी करने लगते थे और वैसे भी वह गांव के बच्चो की घोषित रुप से बुआ ही रही है।
सुसी से जब उसके पति की चर्चा करने की कोशिस करता था तो वह प्राय: कुछ चुप हो जाती या फिर अपनी ही अर्द्ध विकसित भाषा में अजीब-अजीब बडबडाने लगती है वह अपने पति को ‘बाबू’ कहती थी उसके सारे प्रलाप में केवल बाबू ही समझ मे आता था कई बार उसको चिढाने के लिए भी लोग कह देते कि बाबू आया हुआ है तुझे उसके साथ भेजेंगे बस फिर वो फट पडती उसकी भाषा तो समझ मे नही आती लेकिन उसकी अव्यक्त भाषा मे छिपा रोष जरुर प्रकट हो जाता हालांकि कुछ लोगो की यह भी मान्यता रही है कि सुसी अपने पति को भला-बुरा नही कहती है बल्कि अपने ससुराल पक्ष के दूसरे लोगो से वह ज्यादा खफा है।
सुसी ने सारा जीवन ऐसे ही ही संताप में बिता दिया उसका दुख किसी त्रासद कथा जैसा है जहाँ उसकी अक्षमता से उपजे उसके दुर्भाग्य ने उसको ऐसी जिन्दगी जीने के लिए बाध्य किया। यह तो गांव के जीवन की खुबसूरती कह लीजिए या गांव की सदाश्यता की सुसी ने अपना सारा जीवन गांव मे सहज और निष्कलंक बिता दिया है गांव में वह अपनी विधवा मां और भाई के साथ रहती थी अब उसकी मां का भी देहांत हो गया है सुसी का एक भाई शहर मे रहता है लेकिन भाईयों ने सुसी की कभी उस रुप मे देखभाल नही की सुसी के लिए सारा गांव ही भाई और पिता समान बनकर रहा है।
अब सुसी भी वृद्धावस्था की तरफ बढ रही है अब उसकी सक्रियता भी कम हो गई है उसको पेंशन मिलती है गांव से ही मुझे अपुष्ट जानकारी मिली उसके हिसाब से पता चला है कि उसका भाई उसको अपने साथ ले गया है शायद उसको मिलने वाली एक पेंशन भी एक वजह हो सकती है लेकिन यह खबर बेहद विचलित करने वाली है जो सुसी दिन भर गांव में घूमती थी उसके लिए शहर के दस बाई दस के दबडों मे रहना कितना दुष्कर हो रहा होगा इसकी कल्पना की जा सकती है।
बहरहाल सुसी के डर और प्यार को देखकर बडी हुई पीढी के लिए सुसी को भूल पाना जरुर मुश्किल है क्योंकि सुसी गांव के रिश्तों मे रची-बसी एक ऐसी शख्सियत है जिसको देखकर कभी डर लगता था तो कभी खुशी भी मिलती थी उसकी अट्टाहस भरी हंसी मुझे आज भी याद आती है आने वाली शादी ब्याहों और अन्य मांगलिक आयोजनो में सुसी की कमी जरुर खलने वाली है यह सारा गांव जानता और समझता है।

Monday, December 2, 2013

बातें गांव की---- एक किरदार ऐसा भी-04



यह ऐसा किस्सा है जिसका केन्द्रिय पात्र केवल शरीर से मेरे गांव से ताल्लुक रखता है बाकि उसके जैसी चारित्रिक विशेषताएं लगभग आपको हर गांव में देखने को मिल जायेगी इस तरह के किरदार लगभग हर गांव में ही पाये जाते है। ऐसे लोग अपनी पीढी के अकेले बचे हुए लोग है और इनके निर्वाण के बाद इन किरदारों के व्यक्तित्व मे रची-बसी एक परम्परा भी इनके साथ  समाप्त हो जाएगी।
गांव के रिश्ते के लिहाज़ से वह मेरा  भाई लगता है लेकिन उम्र मे मेरे पिताजी से भी बडा है गांव के बहुसंख्यक लोगो के लिए वह कोई चर्चा योग्य पात्र नही है ऐसा नही है वह कोई अपमानित होने वाला शख्स है लेकिन संयोग से वह अपनी पीढी और परम्परा का अकेला शख्स बन कर रह गया है गांव में मूल नाम के अपभ्रंश करने की बडी समृद्ध परम्परा भी रही है और नाम का सम्मानजनक सम्बोधन किसी की भी आर्थिक सबलता से तय होता है गांव भी इससे अछूते नही है। हमारे गांव के बडे परिवार मुखिया खानदान का एक छोटा और सीमांत श्रेणी का किसान है ‘पटम्बर आंधा’ आधिकारिक रुप से उसका नाम पीताम्बर है लेकिन गांव में वाचिक परम्परा की सुविधा और आर्थिक सम्पन्नता के वर्गीकरण के लिहाज़ से उसका नाम सदैव से ही ‘पटम्बर’ ही रहा है ( मै यह नही कहूंगा कि कालांतर मे पीताम्बर से अपभ्रंश होकर पटम्बर हो गया था) अब आंधा लिखने की वजह भी बताता हूँ पटम्बर को एक आंख से बेहद कम दिखाई देता है शायद बचपन मे ही ‘मायपोयिया’ हो गया होगा और सूर्यास्त के बाद उस आंख से लगभग दिखना बंद ही हो जाता है इसलिए पटम्बर को आंधा भी कहने लगे है गांव में शारिरिक अयोग्यता भी व्यक्तित्व के साथ ढोने वाली चीज़ बन जाती है इसलिए उसे गांव में सयुक्त रुप से पटम्बर आंधा कहा जाने लगा हालांकि उनको आन्धा कहने की एक और वजह यह भी है वो जिस मुखिया खानदान से सम्बंधित है वह भी गांव के बौंग ( लोकप्रचलित उपनाम) के लिहाज़ से आन्धे ही कहे जाते है इसलिए पटम्बर के साथ आन्धा शब्द दोहरे रुप मे चस्पा हो गया।
पटम्बर आंधा के पिताजी कभी हमारे जनपद के चोटी के पहलवान हुआ करते थे उनका नाम कुंदन था दंगल में उनसे हाथ मिलाने की जुर्रत बडे बडे शूरमा भी नही कर पाते थे उनके विषय में गांव में काफी किम्वदंतिया प्रचलित है मसलन उन्होने एक दंगल में सामने के पहलवान से हाथ मिलाकर उसके अंगुलियों के पोरो से खून की धारा चला दी थी, वो लडते हुए झोटे (भैंसा) को सींग पकडकर अलग कर देते थे, वो बैल के अगले दो पैरो को पकडकर उसे सीधा उपर उठा देते थे, वो वजन उठाने में भी बेहद बलशाली थे आदि आदि....ऐसे बलशाली पहलवान के पुत्र के रुप पटम्बर आंधा का जन्म हुआ लेकिन पिता की मृत्यु के बाद वो उनकी समृद्ध पहलवानी की विरासत को उस रुप मे आगे नही बढा सके हालांकि पटम्बर भी अपने जवानी के दिनों में अत्याधिक बलशाली रहे है लेकिन उनके किस्से दंगल में कुश्ती लडने के नही रहे बल्कि खेत से भारी वजन की घास की गठडी उठाकर गांव तक लाने तक ही सिमट कर रह गये।
गांव के लोगो के लिए पटम्बर आंधा एक कमअक्ला किस्म का इंसान हो सकता है लेकिन मै मनोवैज्ञानिक रुप से जब उसके व्यक्तित्व को जब देखता हूँ तो मुझे वह पिता की परम्परा की अपेक्षा और अपनी आंखो की कमजोरी तथा आर्थिक बदहाली से उपजे दबाव की उपज दिखने लगता है कदकाठी के लिहाज़ वह आज भी 6 फीट से अधिक लम्बा है और उम्र भी 70 के पार हो चुकी है। गांव में पटम्बर आन्धा का जिक्र जिस बात के लिए किया जाता है वह है उसकी खुराक। घोषित रुप से वह हमारे गांव का सबसे बडा खाऊ आदमी रहा है घर,शादी ब्याह या अन्य किसी भी कार्यक्रम में उसकी चर्चा उसकी गजब की डाईट को लेकर ही होती रही है गांव मे कभी दबे स्वर तो कभी मुखर रुप से उसका अत्याधिक खाना खाने की क्षमता और आदत होना एक प्रहसन का विषय रहा है लेकिन मै इसे उसके व्यक्तित्व की विशेषता के रुप में देखता हूँ।
लौकिक रुप से पटम्बर आंधा सम्मान/अपमान दोनो से ही मुक्त चेतना है वह लोगो की खुशियों में शामिल होना अपना अधिकार समझता है ईगो जैसी भी कोई चीज़ होती है वह कभी जान ही नही पाया है उसके व्यक्तित्व में जटिलताएं नही है भले ही उसके जीवन में प्रमुख अभिप्रेरणा भोजन है लेकिन इसके बदले मुझे उसके अन्दर एक सदाशयता ही नजर आती है।
पटम्बर आंधा एक अच्छा गल्प सुत्रधार भी वह किस्सागो भी है उसकी चुस्त जुमलेबाजी और अपने जवानी के दिनों के अनुभव खासकर यात्रा संस्मरण गजब के है जिसमे देहात के एक सरल और अनपढ इंसान के भदेशपन की महक आती है। पटम्बर आंधा भले ही सामाजिक रुप अधिक स्वीकृत या सम्मानित अवस्था में नही है लेकिन वह निर्द्वन्द है उसके जीवन में संकोच जैसी चीजों के लिए कोई  स्थान नही है गांव के मांगलिक कार्यक्रमों में वह आमंत्रण जैसी औपचारिकता का भी अभिलाषी नही है जिसे प्राय: उसकी कमजोरी के रुप मे देखा जाता है लेकिन मेरे हिसाब से ऐसा जीवन जीने का अभ्यास विकसित करना अपने आप में बडी बात है जहाँ आप लोक अपेक्षाओं से परे अपने जीवन के एक मात्र अनुराग ( भले ही भोजन हो) के सहारे जीवन जी पा रहे हो।
पटम्बर आंधे के खाना खाने के किस्से आज भी गांव मे इतने मशहूर है कि लगभग गांव के सभी लोग उनके बारे मे जानते है वह दो डोंगे भर के रसगुल्ले एक बारात मे खा गया था एक किलो बूरा चावल के साथ खाना उसके लिए कोई बडी बात नही रही है गांव में लडको की शादी मे दिए जाने वाले प्रीतिभोज ( मंढा) में उसके द्वारा 50-60 लड्डु खाया जाना भी कभी आम बात हुआ करती थी। अब बुढापे में उसकी भी डाईट घट गई है लेकिन मीठा खाने के मामले में आज भी उसको कोई सानी नही है। मैने एक दफा खुलकर उससे उसकी खाने की प्रवृत्तियों पर बात भी की थी तभी मुझे पता चला कि उसके लिए उसका इतनी बडी डाईट खाना कोई विषय ही नही है यह उसकी जीवन का हिस्सा भर है हालांकि वह अब यह भी कहता है कि गांव में उसके खाने को लेकर दुष्प्रचार अधिक हुआ है वह अब उतना बडा खाऊ नही रहा है लेकिन अपनी जवानी दिनों के दिनों को याद करते हुए वह खुद अपने खाने के किस्से ब्याँ करने लगता है।
अपनी उम्र के इस आखिरी पडाव पर पटम्बर आंधा अब भले ही अपने पुत्रों द्वारा बिना आमंत्रण के भोज पर जाने से रोका जाना लगा हो लेकिन इसके बावजूद भी उसके अन्दर कोई अपराधबोध नही है यह उसके व्यक्तित्व की सरलता ही है कि मैने शायद ही उसे कभी क्रोध मे देखा हो दरअसल वह अपनी ही धुन मे रहने वाला और सीधे रास्ते पर चलने वाला एक आम सच्चा देहाती मानुष है जो दूनियादारी के लंद-फंद नही जानता है अपनी क्षमताओं का ग्लैमराईजेशन भी उसको नही आता है वह साक्षी भाव से जीवन जीने का आदी है और अपने आसपास के लोगो को देखकर उनकी गति और बदलाव को देखकर यह जरुर लगता है पटम्बर आंधा जैसे लोगो अपनी पीढी के अंतिम लोग है ऐसे में उनके व्यक्तित्व का दस्तावेजीकरण हमारे लिए एक परम्परा के दस्तावेजीकरण का काम करेगा ताकि आने वाली पीढियों को ऐसे लोग सनद रहे। 

अंतर्मुखी

अंतर्मुखी व्यक्ति भले ही समाज की मुख्य धारा में उतने काम के न नजर आते हो लेकिन उनकी आत्मकेन्द्रिता प्रतीक होती होती है उनके अन्दर छिपी रचनात्मकता की, साथ ही आध्यात्म की सूक्ष्म वृत्तियों को समझने और बरतने की सबसे अधिक सम्भावना अंतर्मुखी व्यक्तियों के अन्दर छिपी होती है उनके चिंतन की व्यापकता का बडा आधार इससे भी तय होता है कि उनकी ऊर्जा संसार की अभिव्यक्तियों या संलिप्तताओं मे व्यय नही होती है यदि अंतर्मुखी व्यक्ति थोडा भी चैतन्य है तो वह अपने इस शीलगुण का प्रयोग अपने अस्तित्व के अनंत विस्तार और आत्म को समझने के लिए बखुबी कर सकता है। ध्यान,लेखन,सृजन के लिए परमात्मा के उपयुक्त चित्त यदि दिया है तो वह अंतर्मुखी जीव के अन्दर ही दिया है ऐसा नही है बर्हिमुखी इंसान किसी काम का नही है उसकी अपनी उपयोगिता है लेकिन प्राय: अंतर्मुखी इंसान खुद को हीनता के बोझ तले दबा पाता है जिसके चलते वह उस सृजनशील चेतना को विकसित होने का अवसर नही दे पाता है और अंतोत्गत्वा हानि विशुद्ध मानवीयता की ही होती है। समाज के दबाव से मुक्त होकर जीने की कला सीखने मे बरसो बीत जाते जाते है और तब तक ऐसे बहुत सी अंतर्मुखी प्रतिभाएं समाज़ की उस अपेक्षाओं की बलि छड चुकी होती है जहाँ मिलनसारिता और हंसमुख होना जिन्दा होने की अनिवार्य शर्त समझी जाती है।