Monday, January 27, 2014

हम गांव से निकले बच्चे....

हम गांव से निकले बच्चे....

हम गांव के मध्यमवर्गीय परिवारों के बच्चे थे जो गांव से शहर में अपने सपनो को सच करने और दुनिया को बदलने आये थे हम अपनी शर्तो पर जीना चाहते थे हम सच्चे दोस्त थे यारों के यार...! हमारे बाप गांव के छोटे-बडे किसान थे या फिर मेहनतकश मजदूर हममे से कुछ के पिता सरकारी मुलाजिम भी थे कोई मास्टर था कोई पुलिस मे कांस्टेबल तो कोई बाबू था। हमारी मां अपने साथ वियोग का दहेज़ लेकर आयी थी वो हमारे पिताओं के लिए हमेशा दूर की ही बनी रही अपनी मां को उनको साथ बतियाते/गपियाते शायद ही हमने कभी देखा हो  वो गांव मे चूल्हा फूंकती पशुओं को चारा डालती और हमारे पिता खेत,शहर,कस्बों में हमारे उज्ज्वल भविष्य के लिए जद्दोजहद करते थे। हम मे से जिनके पिता किसान थे उन चेहरे पर खेती बचपन से ही उग आई थी उनके हाथों में फावडे की रगड से उपजे कठोर त्वचा  के स्थाई निशान थे लेकिन फिर भी वो शहर आये  अपनी खुली आंखो में वो सपनों की बंदरवार लेकर आये  उनकी कमर पर अपने  घर परिवार की जिम्मेदारी की बेल हमेशा चढती रही लेकिन वे उसके बोझ मे नही दबें बल्कि उसको जलती धूप से भरी दुनिया में एक छांव की तरह माना जहाँ सुस्ताने के लिए जगह मिल सकती थी।
हम वो बच्चे थे जिन्होने कक्षा 6 में पहली बार एबीसीडी पढी थी कक्षा 5 तक अक्षर ज्ञान आज की लडाई में हमारे लिए हमेशा निष्प्रयोज्य ही रहा और हमें लगा कि हम कक्षा 6 में भी कक्षा 1 की पढाई पढ रहे थे। हम गांव से निकले वो बच्चे थे जो शहरों में किराये पर कमरा लेकर पढते थे हमारे पास एक गैस का चूल्हा हुआ करता था जहाँ हम दूध को भुला कर चाय पीने की आदत विकसित कर रहे थे और शायद हम यह मानते थे कि चाय पीने से हमारे आंखे देर तक खुली रहेंगी यह पढने और बढने की होड थी जहाँ हम सोना नही चाहते थे बस अपने ख्वाबों की दुनिया को पाना चाहते थे।
हमारी मां ने कभी हमे अपने आंचल मे पनाह नही दी वो हमारे आने पर खुश और जाने पर गमज़दा जरुर रही लेकिन कभी जाहिर नही किया हमारी माओं नें घर पर पिता से छुपकर घी बेचकर हमारे लिए पैसे जोडे और हमें तब-तब दिए जब हमारी जरुरतें पिता की आमदनी से बडी हो गई थी हमारे लिए हमारी मां किसी रिर्जव बैंक से कम नही थी।
हम गांव के बच्चे कभी अपने भाई या बहन को दिल खोलकर यह नही बता सके कि हमे उन्हे कितना प्यार करते है खून के रिश्तें में बंधे होने के बाद भी हम अजनबियों की तरह ही रहे।
एक वक्त ऐसा भी आया कि हमारे कुछ दोस्त शहर की रंगीनीयत और अवारागर्दी में खोकर रह गए और बर्बाद हो गए लेकिन हम में से जिनकी पीठ पर जिम्मेदारियों की बेल उगी थी उन्होने हमेशा खुद को दृढता से खडा रखा और कभी बहके भी तो उसके बाद का अपराधबोध इतना भारी था कि हमे दोबारा भटकने की हिम्मत ही न हुई।
आज भी हम गांव से निकले बच्चे अपने वजूद की जद्दोजहद में रोज पीसते है हम जीते है समानांतर कई जिन्दगियाँ जिसमे से किसी के हम नायक है तो किसी के खलनायक।
हमारे कंधो पर अपेक्षाओं का इतना बोझ था कि हम नए रिश्तें का वजन नही उठा सकते थे इसलिए आदतन अंतर्मुखी बने रहें हम दुनिया से अंजान नही थे लेकिन दुनिया जरुर हमसे अंजान थी। हम गांव से निकले बच्चें अपने रिश्तेदारों को एक कठोर सन्देश देना चाहते थे कि वो हमारी काबलियत पर बेवजह सवाल न खडा करें और वह कठोर सन्देश देने का जरिया एक अदद सफलता ही थी।
हम गांव से निकले बच्चे अपने धुन के दुस्साहसी लोग थे हमारा वर्ग बहिष्कार हो चुका था और नया वर्ग हमें अपना नही रहा था क्योंकि उनके लिए हम कौतुहल का विषय थे मैत्री का नही।
दुनियादारी सीखते गिरते-सभंलते और ठोकर खाकर फिर शून्य से शुरु करते ऐसी थी हम गांव से निकले बच्चों की दुनिया। प्रेम के मामलें में हम अभागे ही रहे क्योंकि रोजाना अपेक्षाओ के जंगल में अकेली भागती हांफती जिन्दगी मे उसके लिए जगह ही नही बची थी क्या तो हम सफल होने की कोशिस कर सकते थे या फिर प्रेम इसलिए हमने प्रेम को कभी तरजीह नही दी हमें बडा आदमी बनना था क्योंकि हमारे लिए स्वाभिमान से जीना सबसे बडा लक्ष्य था अपने मां-बाप का सीना गर्व से चौडा कर देने का सपना लेकर हम शहर मे आये थे। हम गांव के बच्चें वो बेहूदे लोग थे जिन्होने समाज़ और दुनिया का सच जान लेने के बाद भी अपना सपना नही बदला और ना अपनी जिद बदली हम रोजाना खुद को झोंक कर पका रहे थी सपनो की रोटी इस दुनिया को कुछ कर दिखाने की कीमत पर...।
हम गांव के बच्चों की असफलता ने सबसे अधिक हमारे पिता को तोडा क्योंकि उनके लिए हमारी जीत उनकी मेहनत का फल था लेकिन हमारी मेहनत का फल बहुत से मोर्चो पर लडता हुआ हम तक पहूंचा कभी अंग्रेजी भाषा तो कभी देहात की बोली तो कभी जाति ने हमारी सफलता को हमसे उतनी ही दूर किया जितनी शिद्दत से हम उसे पाना चाहते थे लेकिन हमारी जिद आज भी उतनी बडी है जितनी कभी थी इसलिए हम गांव से निकले बच्चे जब जब शहर में आत्मविश्वास की सीमाएं तोडते है तब-तब लगता है कि हमारी मंजिले सुविधा से नही असुविधा से ही हमारे करीब आती है यह हर गांव से निकले बच्चें की नियति है और शायद प्रारब्ध भी।


Sunday, January 26, 2014

गणतंत्र विशेष



गांव में 26 जनवरी और 15 अगस्त को स्कूल की प्रभार फेरी के बाद सबसे बडा आकर्षण  दूरदर्शन पर आने वाली देशभक्ति की फिल्म का होता था। जिसे देखने के लिए पोर्टेबल टीवी और उसकी बेट्री का इंतजाम पहले से ही करके रखते थे और फिल्म देखते-देखते रोम रोम देशभक्ति की चासनी में डूबकर पुलकित हो उठता था।  पढकर लिखकर बडा होने और डिग्रीयां बटोरने के साथ मन की विशुद्ध देशभक्ति पर विचारधाराओं के ऐसे बादल छाए कि अब  देशभक्ति का अर्थ  देशभक्ति की  वो कोमल भावना नही रही अब देश की व्यवस्था से खिन्न होकर  शायद कमियां देखने का तंत्र अधिक विकसित एवं सक्रिय हो गया है।
हमने बचपन में जैसा भारत देखा था शायद यह हमारे सपनों का भारत नही था यहाँ जाति धर्म के भेद थे यहाँ रसूखदार और कमजोर की खाई थी यहाँ भ्रष्टाचार में डूबी राजनीति थी। अमीर और अमीर होता जा रहा था और गरीब और गरीब हम 21 वीं सदी सूचना प्रौद्योगिकी में जहाँ एक तरफ विश्व के ध्वजवाहक बन रहे थें वहीं हिन्दू-मुसलमान मंदिर-मस्जिद के लिए लड रहे थें गोधरा से लेकर मुजफ्फरनगर तक इंसानियत के जनाज़े निकल रहे थे।
बचपन में जो हसीन तस्वीर हमने अपने देश भारत की देखी थी वो अब इतनी बदरंग हो गई थी हम अपनी उपलब्धियों का जश्न मनाने का साहस भी खो बैठे अब अपने देश के नागरिक होने के नाते मुझे फिक्र रहती है कि जिस मिट्टी पर मैने जन्म लिया है वह कभी विकास के नाम पर तो कभी राजनीति के नाम पर ऐसी इबारत लिख रही है जिसे देखकर साल दर साल मेरी फिक्र बढती गई और फख्र घटता गया।
अब मै तिरंगे के सामने गर्दन झुकाए खडा हूं अब मेरे पेट की लडाई, सही और गलत की लडाई देशभक्ति के उस ज़ज्बे से बडी हो गई है जो कभी बचपन में महसूस किया करता था सेना में भर्ती होने के सपने की चाह अब सेना के उस अमानवीय चेहरे को देखकर जिसमे वह (मानवाधिकार का हनन में वह अव्वल हो, सिवेलियन को जंतु समझने वाली हो, रेल के डिब्बे में बूट से ठोकर मारने वाली हो) उस सेना के शहीदों को सलाम जरुर करती है लेकिन अब मुझे डर लगता है खुद की सेना से ऐसा लगता है वह देश के दुश्मनों के साथ मेरे भी खिलाफ है।
कम से कम यह मेरे सपनों का भारत नही था। मै देश के संविधान में पूर्ण आस्था रखता हूँ इसकी सम्प्रभुता को अक्षुण्ण बनाये रखने का हिमायती हूँ  दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र का निवासी होने पर मुझे अभिमान है लेकिन मेरी कुछ पीडाएं भी है जो मेरी समझ ने पैदा की है और यह समझ मेरे बचपन की देशभक्ति को रोज घुन की तरह चाट रही है जो मै नही चाहता है।

Wednesday, January 22, 2014

कायदे का सबक

...और अंतोत्गत्वा तुम भी एक कमजोर इंसान निकले दोस्त ! ठीक मेरी तरह..
मेरी तरह तुम्हारी सीमाएं तुम्हारी सम्वेदनाओं पर भारी पड गई है और तुम्हारी निजता के खतरे इतने बडे हो गए कि तुम डूबने के डर से साहिल को छोड दूर दिख रहे टापू की तरफ भाग निकलें वो भी बिना नाव/पतवार के । मै देख पा रहा हूँ तुम्हारी छटपटाहट बढती जा रही है लेकिन मुझे खुशी है तुमने हाथ चलाना नही छोडा है भले ही थके हुए तुम मंजिल तक पहूंचो लेकिन पहूंच जाओगे ऐसा यकीन किया जा सकता है। वक्त मनुष्य और रिश्तें कभी उस रुप मे लौट कर नही आते जिस रुप मे बिछडते है यह बात अपने तजरबे से कह रहा हूँ तुम्हे नही तुम्हारी स्मृतियों के उन प्रतिबिम्बों को जो अभी भी मेरे इर्द-गिर्द मंडरा रही है मैने उन्हे अभी इशारा किया है कि देखो ! तुम्हारी मंजिल वो निर्जन टापू है जहाँ अभिलाषाओं के जंगल में तुम्हारा मालिक् जिन्दगी जीने के लिए जद्दोजहद करता हुआ भोजन बनाने के लिए लकडियां बीन रहा है अकेला...वो अक्स  मुझ तक कम से कम दो बार लौट कर आएं लेकिन तब तक मैने अपने यादों के दरवाजे पर टीस की सांकल हमेशा के लिए चढा दी थी।
तुम्हारा छिटकना अपने आप में एक सबक है और शायद प्रेक्टिकल होने का कायदा भी। रिश्तों के मदरसें में आलिम बनने का हुनर बेहद जोखिम भरा काम है यह अब समझ पा रहा हूँ उस्ताद और शागिर्द के रिश्तें की गर्द दोस्ती की फूंक से नही उड सकती है इतना भरोसा है तभी तो ठहाका मारकर अभी हंसते-हंसते मेरी आंखे भर आयी और चौकनें के इस दौर में मै बिना चौंके ही अपनी ज्यादती पर हंसता रहा बहुत देर तक तब तक जब तक मुझे अफसोस न होने लगा रिश्तों की ज्यादती पर। चलो फर्ज़ कर लेते है हम मिलेंगे और हम जियेंगे जरुर वो एक टुकडा जिन्दगी फिर से जो फिलहाल किश्तों में रिस-रिस कर खत्म हो रही है अभी-अभी तुम्हारी मुश्किलों के लिए तुम्हारे साथ गुजरे हंसीन लम्हों के लोबान को जला कर मैने दुआ फूंक दी है तुम्हारे लिए बिना तुम्हारी जरुरत जाने क्योंकि लाख कोशिस करने पर भी मै फिक्र करने की आदत नही छोड पाता हूँ चाहे वो दोस्त कि दुश्मन।

Friday, January 17, 2014

इन दिनों

इन दिनों असहमतियों और नापसंदगियों के बीच जीने का अभ्यास विकसित कर रहा हूँ यह पहले से अधिक परिपक्व बनने जैसा नही है लेकिन पहले मै शीघ्र आवेगपूर्ण हो जाता था और तुरंत निर्णय ले बैठता था जिसके चलते जल्दी ही कुछ लोगो को विदा कह देता था अब खुद की प्रज्ञा चेतना और सम्वेदना पर सवालिया निशान लगा कर खुद को ही परख रहा हूँ हर परिस्थिति में मै ही ठीक हूँ ऐसा कोई अनिवार्य या घोषित नियम भी नही है मै भी गलत,बेतुका या बेहूदा हो सकता हूँ। मुझे लगा कि खुद को ईमानदारी से देखने के लिए आसपास नाराज़ लोगो का रहना भी जरुरी है यदि सभी आपसे सहमत या सुखी है तो फिर आप खुद को नही देख पाते है सभी का स्नेह आपको एक ऐसी छवि में बांधे रखता है जिसमे सही-गलत का भेद थोडा अपरिहार्य हो जाता है। मेरे से नाराज़ या शिकायतजदा लोगो को सुनना उनको समझना या उनका मुझे खारिज़ करते हुए देखना भी एक स्प्रिचुअल प्लीज़र दे रहा है। मै कोई साधक या दिव्य चेतना नही हूँ लेकिन मानवीय स्वभाव का अध्येता होने के नाते मुझे यह जानना रुचिकर लगता है कि कोई व्यक्ति किन परिस्थितियों में बागी,असहज़ या नाराज़ हो सकता है उसमे मेरी क्या भूमिका है और मै किस प्रकार से इस नाराज़गी को ग्रहण करता हूँ तथा उसके बाद अपनी प्रतिक्रिया किस रुप मे सुरक्षित रख लेता हूँ।

Thursday, January 16, 2014

राग

जीवन कभी ऐसा मोड भी आ सकता है जब आगे जाने के लिए रास्ता न दिखे आप खुद को क्षितिज़ पर खडे पाये और पीछे हटना भी मुनासिब न हो क्योंकि पीछे हटना हार जाने से बदतर हो सकता है वहाँ अपेक्षाओं के शुष्क जंगल में सम्बंधो के आदिवासी अपने तीर कमानो सहित आपसे उस वक्त का बदला लेने तैयार खडे हो जब आपने कहाँ था देख लेना एकदिन सबको जवाब मिल जाएगा वो जवाब कतई नही लेना चाहते थे वो आपके पीछे हटते कदमों पर निशान साध कर व्यंग्य के तीर मारने के लिए लम्बे अरसे से युद्ध अभ्यास करते रहे हो। यह निराशा से उपजा युद्ध ज्ञान भी नही हो आप अपने पुरुषार्थ से निष्काम और सकाम कर्म करते रहे हो लेकिन यथास्थितिवाद की जकडन ने आपको ऐसे जकड लिया जहाँ आप भेद-अभेद से परे विस्मय से भरे हो जहाँ रास्ते मंजिलों से बडे होकर खत्म हो गए हो। जहाँ उत्साह और रोमांच का कोई अभाव न हो लेकिन अनिर्णय की धूप इतनी सघन हो कि आप यह न तय कर पाये कि आपको जल चाहिए कि छांव या दोनो ही एकसाथ। सकार-नकार से परे आगे और पीछे देखते हुए यह ख्याल कभी चेता दे तो कभी गुदगुदा दे कि ये तमाशा क्या है...ऐसी मनस्थिति के व्यापक आध्यात्मिक अर्थ हो सकते है या सांत्वनाभिलाषियों के एक आदर्श स्थिति भी कह सकते है किंकर्तव्यविमूढ होकर यह सब देखना कतिपय कारणों से कायरता सम प्रतीत हो सकती है लेकिन प्रज्ञा,चेतना और सम्वेदना की जुगलबंदी में जीवन के इस राग के आलाप को सुनने के लिए पहाड से कान उधार मांगने पडते है।

Tuesday, January 14, 2014

फेसबुक: एक सच यह भी

फेसबुकिया रिश्तें बेहद नाजुक एवं संवेदनशील होते है आभासी दुनिया से निकलकर हकीकत में किसी की जिन्दगी मे बतौर मित्र शामिल होने मे काफी वक्त लग जाता है अलबत्ता तो यह लगभग असम्भव सा ही काम है क्योंकि मुझे लगता है दोस्त/मित्र/यार बस एक खास ही उम्र में बन सकते है बाद में परिचितों का संसार ही खडा हो सकता है ऐसे दोस्त जिन्हे आप आपकी मानवीय कमजोरियों के साथ पसन्द हो जिनका प्रेम शर्त रहित हो वो आपके उम्र की पहले दौर में ही बन सकते है यहाँ पर लोग आपके लिख-कहे से प्रभावित हो सकते है और शायद इसी वजह से मित्रता का प्रस्ताव रखें लेकिन साथ वो एक आक्षेपित आदर्शवाद की भी लोक रंजना के शिकार रहते है और यह स्वाभाविक भी होता है और जैसे आप अपने इस हद-कद-पद से एक भी पायदना नीचे उतरकर कुछ अवांछित किस्म की बातें या व्यवहार करते है तो फिर फेसबुकिया मित्रों की प्रतिमाएं खंडित होने लगती है ऐसे में उन्हे खुद के चयन पर कभी अपराधबोध होता है तो कभी कोफ्त भी होती है और स्थिति साप-छूंछन्दर वाली हो जाती है।
मेरे कई गैर फेसबुकिया दोस्त जिनके साथ मेरे सम्बंध ज्वार भाटे की तरह उपर-नीचे होते रहे लेकिन उनकी संवेदना की लोच में कभी मैने फर्क महसूस नही किया ऐसा कई बार हुआ कि मेरी बददिमागियों और बदतमीजियों के चलते उनसे लगभग संवाद समाप्त सा ही हो गया हो लेकिन फिर भी हम एक दूसरे के जीवन का स्थाई हिस्सा रही हमारी मित्रता स्थगित हुई लेकिन मृत कभी नही हुई और वक्त तथा हालात के हिसाब से जब मैने उन्हे पुकारा या उन्होनें मुझे पुकारा तो हम ठीक वैसे ही मिले जैसे हम कभी पहले मिला करते थे...यह रिश्तों की खूबसूरती का प्रमाण है जबकि इसके उलट फेसबुकिया रिश्तों को सहजने में मै अभी तक असफल ही रहा हूँ इसलिए नए लोगो से जुडने से पहले बहुत सी बाधाएं रख देता हूँ मेरे अपने मानसिक संकोच होते है जिसके चलते है अपनी निजता का हिस्सा बनने की इजाजत नही देता हूँ लेकिन फिर कुछ लोग साधिकार जीवन मे जरुर शामिल हो जाते है लेकिन अंतिम रुप से वो भी निराश ही होते है..:) 
फेसबुक के जरिए भी निसन्देह अपने दौर के कुछ बेहतरीन लोगो से मिलना हुआ और यह मेरी खुशनसीबी रही कि मुझे प्राय: सभी ने बिना शर्त स्वीकार भी और यथायोग्य मान सम्मान भी दिया लेकिन फिर भी दिल मे यह सवाल आज भी अटका रहता है कि फेसबुकिया रिश्तों की यात्रा हमेशा संदिग्ध ही रहेगी क्योंकि यहाँ आप बाद में आते आपकी इमेज़ आपसे पहले किसी की जिन्दगी मे दखल देती है और इमेज़ का टूटना हमेशा तय होता है यह डायनमिक ट्रुथ है जैसे ही एक इमेज़ टूटती है ठीक तभी उस रिश्तें में एक शिकन आ जाती है हालांकि हम खुद को मनाते-समझाते बदलते हर प्रकार से यह कोशिस करते है कि बात बनी रहे फिर भी मानवीय स्वभाव की गत्यात्मकता कब ऐसे आभासी रिश्ते की बलि ले लेगी यह कहा भी नही जा सकता है। निजि तौर पर जो लोग मेरे फेसबुकिया लेखन के जरिए मुझे जानते समझते है मै कोशिस करता रहता हूँ मै जैसा भी हूँ उसी को अपने स्टेट्स के रुप मे प्रस्तुत करुँ मै साक्षी भाव और सम्पादन रहित जीवन जीने का आदी हूँ जहाँ मन को एक ईकाई के रुप मे ग्रहण न करते हुए एक समग्र संस्थान के रुप मे देखने की आदत रही है इसलिए अपनी मानवीय कमजोरियों को मैने प्राय: नही छिपाया है...मै एक आम मनुष्य हूँ मेरी अपेक्षाएं, सुख-दुख, ताकत और कमजोरी सब जगजाहिर है इसलिए मै अपने ऐसे होने के साथ सुविधाजनक भी महसूस करता हूँ मेरे लिए यह सुख बडा है कि मै झूठ के सहारे अपनी कोई इमेज़ क्रिएट नही करता हूँ ना ही अपने किसी बौद्धिक प्रपंच से किसी को इम्प्रेस या आंतकित करने की मेरी कोई जुगत होती है बस जो है जैसा है उसी भाव से लिखता-पढता और जीता आया हूँ।
सम्बंधो की थाती के सन्दर्भ में मेरे लिए इंसान का इंसान होना ही महत्वपूर्ण है पद और कद से ना कभी विद्यार्थी जीवन मे प्रभावित हुआ हूँ और ना आज ही होता हूँ सहअस्तित्व के साथ मै मित्रों को समान ह्र्दय के आंगन का सहवासी मानता हूँ आप सभी के बीच मे मै बेहद अदना, अपरिपक्व और नासमझ हूँ और अभी सीखने समझने की प्रक्रिया में ही हूँ मुझे अपने लिखे-पढे-कहे डिग्री पदवी ओहदे न कोई अहंकार है और न ही मै इसे किसी के लिए जरुरी भी समझता हूँ बस जहाँ दिल मिल जाता है वहाँ थोडा भावुकता से जरुर जुड जाता हूँ शायद यही सबसे बडी कमजोरी भी है। 
वर्तमान समय में सम्बंधो की दीर्घायू होने के लिए दो बडी चीजे चाहिए जो मुझमे नही है या यूँ समझिए मै ऐसा नही कर सकता हूँ एक तो सम्बंधो मे इंटेलेक्चुअल स्पेस और दूसरी खुद को एक सीमा तक हमेशा रहस्यावादी बनाए रखना जैसे आप किसी के समक्ष अपनी गुह्यता तोडते हुए समग्र रुप से प्रकट होते है वैसे ही फेसबुकिया दुनिया के रिश्तों में आप ओजविहीन और अप्रासंगिक होने लगते है इसलिए यहाँ स्थाई बने रहने के लिए बौद्धिक रुप से एक स्पेस बनाकर चलना और एक रहस्यवादी इमेज़ बनाए रखना आपके लिए अनिवार्य शर्त होती है जैसे ही आपका अंतकरण समस्त रुप से प्रकट होता है यहाँ मित्रों को लगने लगता है नही रे ! ये बंदा उस टाईप का नही है जिसकी हमे तलाश थी....:) यहाँ हर कोई अपना अक्स अपने से बेहतर तलाश रहा है ऐसे मे कुछ दोस्तों का मिलना कभी खुशी देता है तो कभी खुद के चयन पर मानसिक निराशा भी भर देता है कि मैने अमुक व्यक्ति को क्या समझा था और अमुक व्यक्ति क्या निकला....:)
खैर !.....कुल मिलाकर मानवीय सम्बंधो की नियति यही होती है कभी मिलना तो कभी बिछडना...फिर भी फेसबुक के रिश्तों के संसार नें मानव व्यवहार की प्रयोगशाला में कई किस्म की पौध तैयार कर दी है जिसे आप कभी स्नेह,अपेक्षाओं के जल से सिचिंत करते है तो कभी उसके बागी निकलनें पर उसे खरपतवार समझकर उखाड फाडकर फैकने में भी विलम्ब नही करते है...।

Sunday, January 12, 2014

डेढ इश्किया

शुरुवात में डेढ इश्किया देखने का तजरबा किसी मुशायरे में शिरकत करने से जैसा है यह विशाल भारद्वाज की ही कलंदरी है कि विशुद्ध व्यवसायिक फिल्म में भी वें ऊर्दू अदब की खुशबू इतने से करीने से रखते है कि दिल बाग-बाग हो जाता है मल्टी प्लेक्स में फिल्म शुरु होने के थोडी ही देर बाद शेर औ शायरी का ऐसा शमां बंधता है कि दर्शको की वाह-वाह से ऐसा लगने लगता है कि हम सिनेमा हॉल मे न होकर किसी मुशायरे में शिरकत फरमा है। फिल्म के कई सीन्स में हमारे दौर के हकीकत के शायर जैसे अनवर जलालपुरी साहब,डॉ नवाज़ देवबन्दी साहब को देखना मेरे जैसे ऊर्दू अदब के मुरीद के लिए बेहद सुकून भरा रहा है...डॉ.नवाज़ देवबन्दी साहब का शेर हो या डॉ बशीर बद्र के शेर से अनवर जलालपुरी साहब का महफिल का आगाज हो एकदम से फिल्म में ऊर्दू अदब का अहसास दिल को राहत देता है हाँ हो सकता है फिल्म का ऐसा कलेवर कुछ कम ही लोगो को पसन्द आये लेकिन मुझे बेहद पसन्द आया है जिस तरह से विशाल भारद्वाज़ ने असल के शायर को फिल्म मे शामिल किया है वह काबिल-ए-तारीफ है और अभी तक मैने और किसी फिल्म में अभी तक देखा भी नही है। फिल्म से मेरे जुडने की एक वजह यह भी हो सकती है कि फिल्म के डायलॉग पर पश्चिमी यूपी की बोली का प्रभाव है अरशद वारसी का खालिस बिजनौरी लहज़े में डायलॉग बोलना खुद ब खुद फिल्म से जोड देता है फिल्म में लखनवी अदब और ऊर्दू जबान का वकार भी है साथ दो ठग/चोर के रुप में अरशद वारसी और नसीरुद्दीन साहब का बिजनौरी स्टाईल भी...। विशाल भारद्वाज़ के चुस्त डायलॉग निसन्देह मुझे बेहद पसन्द आये मै उनके इस फन का मुरीद हो गया हूँ। फिल्म में दो हसीन अभिनेत्रियां दोनो ही मुझे बेहद पसंद है और बेगम पारा के रोल में तो माधुरी दीक्षित का हुस्न गजब का रुहानी अहसास लिए है उनकी अदा,हरकते,भाव भंगिमाएं और अभिनय सबके सब कमाल के है वो बेगम पारा के रोल को जिस उरुज तक ले गई यह उन्ही के बस की बात थी कोई और अभिनेत्री शायद ऐसा न कर पाती। हुमा कुरेशी मुझे निजि तौर पर दो वजह से पसन्द है एक तो उनकी लम्बाई और दूसरी उनकी बेइंतेहा खुबसूरती उनके चेहरे मे कस्बाई लुक है वह अपने मुहल्ले की सबसे खुबसूरत लडकी जैसी लगती है इसलिए हुमा कुरेशी का फिल्म में मुनिया का रोल फिल्म की जरुरत बनता चला जाता है। नसीर साहब के अभिनय पर मै क्या तब्सरा करुँ इतनी मेरी हैसियत नही है वो लिविंग लीजेंड है लेकिन उनके अलावा अरशद वारसी की एक्टिंग की भी तारीफ बनती है और सबसे अधिक मुझे प्रभावित किया नकली नवाब की भूमिका में विजय राज साहब नें नसीरुद्दीन साहब के साथ कई सीन्स में उनका नैचुरल एक्टिंग और कम्फर्ट उनका भी मुरीद बना देता है।
फिल्म के दो बडी कमजोरी मुझे नजर आई एक तो फिल्म का अंत जरुरत से अधिक नाटकीयता लिए है और जल्दी से हजम होने वाला नही है दूसरा हमरी अटरिया पे आजा सांवरिया गीत फिल्म के अंत के बाद शुरु होता है जब तक दर्शक उठकर चलने लगते है मै इस गीत में माधुरी के डांस और नाट्यशास्त्र के लिहाज़ मुद्राएं देखने के लिए भी प्रेरित होकर फिल्म देखने गया था जो आधे-अधूरे मन से ही पूरा हो पाया हालांकि मै अंत तक सीट पर जमा रहा शायद एक दो और माधुरी के ऐसे मुरीद थे जो बैठे थे लेकिन दर्शको के जाने के क्रम मे गीत का मजा किरकिरा हो जाता है।
फिल्म समीक्षकों और सिनेमा के जानकार बुद्धिवादी दर्शको के लिहाज से डेढ इश्किया को भले ही डेढ स्टार भी न मिलें मै बिना इसकी परवाह इस फिल्म को विशाल भारद्वाव की एक उम्दा फिल्म करार देता हूँ और हाँ पिछली इश्किया से मुझे यह डेढ इश्किया ज्यादा पसन्द आयी...कोई आग्रह नही है ना ही मै कोई फिल्म समीक्षक हूँ सिनेमा का दर्शक होने के नाते फिल्म देखने के बाद जैसा मैने महसूस किया लिख दिया इसे फिल्म देखने की अनुशंसा जैसा भी न समझा जाए कहीं फिर आप बाद मे उलाहना दें क्योंकि डेढ इश्किया को महसूस करने के लिए दिल का डेढ होना बेहद जरुरी है।