Tuesday, January 14, 2014

फेसबुक: एक सच यह भी

फेसबुकिया रिश्तें बेहद नाजुक एवं संवेदनशील होते है आभासी दुनिया से निकलकर हकीकत में किसी की जिन्दगी मे बतौर मित्र शामिल होने मे काफी वक्त लग जाता है अलबत्ता तो यह लगभग असम्भव सा ही काम है क्योंकि मुझे लगता है दोस्त/मित्र/यार बस एक खास ही उम्र में बन सकते है बाद में परिचितों का संसार ही खडा हो सकता है ऐसे दोस्त जिन्हे आप आपकी मानवीय कमजोरियों के साथ पसन्द हो जिनका प्रेम शर्त रहित हो वो आपके उम्र की पहले दौर में ही बन सकते है यहाँ पर लोग आपके लिख-कहे से प्रभावित हो सकते है और शायद इसी वजह से मित्रता का प्रस्ताव रखें लेकिन साथ वो एक आक्षेपित आदर्शवाद की भी लोक रंजना के शिकार रहते है और यह स्वाभाविक भी होता है और जैसे आप अपने इस हद-कद-पद से एक भी पायदना नीचे उतरकर कुछ अवांछित किस्म की बातें या व्यवहार करते है तो फिर फेसबुकिया मित्रों की प्रतिमाएं खंडित होने लगती है ऐसे में उन्हे खुद के चयन पर कभी अपराधबोध होता है तो कभी कोफ्त भी होती है और स्थिति साप-छूंछन्दर वाली हो जाती है।
मेरे कई गैर फेसबुकिया दोस्त जिनके साथ मेरे सम्बंध ज्वार भाटे की तरह उपर-नीचे होते रहे लेकिन उनकी संवेदना की लोच में कभी मैने फर्क महसूस नही किया ऐसा कई बार हुआ कि मेरी बददिमागियों और बदतमीजियों के चलते उनसे लगभग संवाद समाप्त सा ही हो गया हो लेकिन फिर भी हम एक दूसरे के जीवन का स्थाई हिस्सा रही हमारी मित्रता स्थगित हुई लेकिन मृत कभी नही हुई और वक्त तथा हालात के हिसाब से जब मैने उन्हे पुकारा या उन्होनें मुझे पुकारा तो हम ठीक वैसे ही मिले जैसे हम कभी पहले मिला करते थे...यह रिश्तों की खूबसूरती का प्रमाण है जबकि इसके उलट फेसबुकिया रिश्तों को सहजने में मै अभी तक असफल ही रहा हूँ इसलिए नए लोगो से जुडने से पहले बहुत सी बाधाएं रख देता हूँ मेरे अपने मानसिक संकोच होते है जिसके चलते है अपनी निजता का हिस्सा बनने की इजाजत नही देता हूँ लेकिन फिर कुछ लोग साधिकार जीवन मे जरुर शामिल हो जाते है लेकिन अंतिम रुप से वो भी निराश ही होते है..:) 
फेसबुक के जरिए भी निसन्देह अपने दौर के कुछ बेहतरीन लोगो से मिलना हुआ और यह मेरी खुशनसीबी रही कि मुझे प्राय: सभी ने बिना शर्त स्वीकार भी और यथायोग्य मान सम्मान भी दिया लेकिन फिर भी दिल मे यह सवाल आज भी अटका रहता है कि फेसबुकिया रिश्तों की यात्रा हमेशा संदिग्ध ही रहेगी क्योंकि यहाँ आप बाद में आते आपकी इमेज़ आपसे पहले किसी की जिन्दगी मे दखल देती है और इमेज़ का टूटना हमेशा तय होता है यह डायनमिक ट्रुथ है जैसे ही एक इमेज़ टूटती है ठीक तभी उस रिश्तें में एक शिकन आ जाती है हालांकि हम खुद को मनाते-समझाते बदलते हर प्रकार से यह कोशिस करते है कि बात बनी रहे फिर भी मानवीय स्वभाव की गत्यात्मकता कब ऐसे आभासी रिश्ते की बलि ले लेगी यह कहा भी नही जा सकता है। निजि तौर पर जो लोग मेरे फेसबुकिया लेखन के जरिए मुझे जानते समझते है मै कोशिस करता रहता हूँ मै जैसा भी हूँ उसी को अपने स्टेट्स के रुप मे प्रस्तुत करुँ मै साक्षी भाव और सम्पादन रहित जीवन जीने का आदी हूँ जहाँ मन को एक ईकाई के रुप मे ग्रहण न करते हुए एक समग्र संस्थान के रुप मे देखने की आदत रही है इसलिए अपनी मानवीय कमजोरियों को मैने प्राय: नही छिपाया है...मै एक आम मनुष्य हूँ मेरी अपेक्षाएं, सुख-दुख, ताकत और कमजोरी सब जगजाहिर है इसलिए मै अपने ऐसे होने के साथ सुविधाजनक भी महसूस करता हूँ मेरे लिए यह सुख बडा है कि मै झूठ के सहारे अपनी कोई इमेज़ क्रिएट नही करता हूँ ना ही अपने किसी बौद्धिक प्रपंच से किसी को इम्प्रेस या आंतकित करने की मेरी कोई जुगत होती है बस जो है जैसा है उसी भाव से लिखता-पढता और जीता आया हूँ।
सम्बंधो की थाती के सन्दर्भ में मेरे लिए इंसान का इंसान होना ही महत्वपूर्ण है पद और कद से ना कभी विद्यार्थी जीवन मे प्रभावित हुआ हूँ और ना आज ही होता हूँ सहअस्तित्व के साथ मै मित्रों को समान ह्र्दय के आंगन का सहवासी मानता हूँ आप सभी के बीच मे मै बेहद अदना, अपरिपक्व और नासमझ हूँ और अभी सीखने समझने की प्रक्रिया में ही हूँ मुझे अपने लिखे-पढे-कहे डिग्री पदवी ओहदे न कोई अहंकार है और न ही मै इसे किसी के लिए जरुरी भी समझता हूँ बस जहाँ दिल मिल जाता है वहाँ थोडा भावुकता से जरुर जुड जाता हूँ शायद यही सबसे बडी कमजोरी भी है। 
वर्तमान समय में सम्बंधो की दीर्घायू होने के लिए दो बडी चीजे चाहिए जो मुझमे नही है या यूँ समझिए मै ऐसा नही कर सकता हूँ एक तो सम्बंधो मे इंटेलेक्चुअल स्पेस और दूसरी खुद को एक सीमा तक हमेशा रहस्यावादी बनाए रखना जैसे आप किसी के समक्ष अपनी गुह्यता तोडते हुए समग्र रुप से प्रकट होते है वैसे ही फेसबुकिया दुनिया के रिश्तों में आप ओजविहीन और अप्रासंगिक होने लगते है इसलिए यहाँ स्थाई बने रहने के लिए बौद्धिक रुप से एक स्पेस बनाकर चलना और एक रहस्यवादी इमेज़ बनाए रखना आपके लिए अनिवार्य शर्त होती है जैसे ही आपका अंतकरण समस्त रुप से प्रकट होता है यहाँ मित्रों को लगने लगता है नही रे ! ये बंदा उस टाईप का नही है जिसकी हमे तलाश थी....:) यहाँ हर कोई अपना अक्स अपने से बेहतर तलाश रहा है ऐसे मे कुछ दोस्तों का मिलना कभी खुशी देता है तो कभी खुद के चयन पर मानसिक निराशा भी भर देता है कि मैने अमुक व्यक्ति को क्या समझा था और अमुक व्यक्ति क्या निकला....:)
खैर !.....कुल मिलाकर मानवीय सम्बंधो की नियति यही होती है कभी मिलना तो कभी बिछडना...फिर भी फेसबुक के रिश्तों के संसार नें मानव व्यवहार की प्रयोगशाला में कई किस्म की पौध तैयार कर दी है जिसे आप कभी स्नेह,अपेक्षाओं के जल से सिचिंत करते है तो कभी उसके बागी निकलनें पर उसे खरपतवार समझकर उखाड फाडकर फैकने में भी विलम्ब नही करते है...।

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