Friday, August 22, 2014

एक्स रे

दस आत्मकथ्यात्मक ईमानदार स्वीकारोक्तियां...

खुद के बारें में अक्सर यह लगता है...

1. विलम्बित मानसिकता में जीता हूँ काफी हद तक यथास्थितिवादी हूँ।
2. विश्वास बहुत जल्दी कर लेता हूँ यह नही समझ पाता कि दुनिया और यहाँ के लोग टेढ़े मेढ़े है सबके अपने अपने एजेंडे है।
3. लम्बे समय से महत्वकांक्षाहीन हूँ मतलब जीवन कुछ ऐसा बड़ा नही करना चाहता जिसकी बिनाह पर लोग मुझे रेखांकित करें। बिन भौतिक उपलब्धियों के जो लोग स्नेह सम्मान रखते है उनके प्रति सदैव कृतज्ञ हूँ।
4. सामाजिक रूप से मिलनसार नही हूँ अजनबियों से मिलकर नेटवर्किंग नही बना पाता हूँ या यूं समझिए मेरे ही सिग्नल आउट रहते है।
5. भीड़ और बड़े शहरों में आवाजाही से अक्सर बचना चाहता हूँ दोनों के बीच सहज नही महसूस करता हूँ।
6. कहने की बजाए लिखने में थोड़ा माहिर हूँ खुद को मैंने एक बोझिल किस्सागो पाया है जिसकी बातों में न चुस्ती होती और न रस इसलिए विषयांतर का शिकार भी हो जाता हूँ लब्बोलुआब यह कि एक बेकार वक्ता हूँ।
7. आत्मकेन्द्रित और अंतरमुखी साथ काफी स्लो सेल्फ एस्टीम भी हूँ।
8. नियोजन में शायद इसलिए भी यकीन नही करता हूँ क्योंकि मेरे पास भविष्य का कोई ब्लू प्रिंट नही है मुझे नही ज्ञात है कि मृत्यु उपरान्त मुझे लोग किस रूप में जानेंगे।
9. वर्चुअल माध्यम में जितना तत्पर,त्वरित और सक्रिय दिखता हूँ यथार्थ में उतना ही प्रमादी और निष्क्रिय रहता हूँ यहाँ की वाग्मिता का बोझ यथार्थ में उठाने में खुद असमर्थ पाता हूँ इसलिए प्राय: वर्चुअल मित्र से प्रत्यक्ष मिलने को टालता रहता हूँ।
10. भावुक हूँ इसलिए जल्दी आहत हो जाता हूँ परिपक्व सम्वेदनशील बनने की दिशा में प्रयास करता रहता हूँ।

नोट: यह न आत्म विज्ञापन है और न आत्म प्रवंचना इन्हें साफगोई से मन का एक्स रे के रूप में ग्रहण करना ही उचित एवं अपेक्षित है। सलाह और जीवनशैली के सम्पादन के सुझाव से बचें क्योंकि ये करमठोक खुद मनोविज्ञान में पीएचडी है और परामर्श की पुडिया में व्यक्तित्व विकास और पुनर्वास चूरण सात सालों तक बेच चुका है। :)

Sunday, August 17, 2014

फ़िक्र

तुम साथ होती हो तो मन की कुमुदिनी खिली खिली सी रहती है तुम्हारा बिखरा काजल अनामिका से ठीक करना चाहता हूँ मगर न जाने क्यों रुक जाता हूँ तुम्हे ऐतराज़ हो ऐसा भी नही है तुम्हारी बेख्याल चुप्पी भी सतत मुझ पर फ़िक्र की मद्धम मद्धम बारिश करती रहती है तुम अक्सर मुझसे असहमत रही हो इसलिए भी तुम्हारे अंदर सम्भावना सदैव संरक्षित और पल्लवित होती रही है।
बहुत दिनों से तुम्हें अजीब कशमकश में देखता हूँ तुम्हारे बाल बिखरे लब शुष्क है दोनों हाथों की अंगूठियाँ आपस में बदली हुई है तुम्हारे बाएँ हाथ का कंगन खुरदरा हो गया है पहली दफा तुम्हे थोडा परेशान देखा है वजह की पड़ताल मै कर लूँगा मगर तुम मुझसे बेहतर समाधान जानती हो इसलिए सलाह का कारोबार नही करूंगा।
चलो एक काम करते है कुछ दिन अपनी अपनी फ़िक्र सिराहने रख सो जाते है शायद ख्वाबों के रास्ते हम तुम उन इश्तेहारो को जी सके जो हमारी पीठ पर छपें है बरसों से,तुम्हारा इसमें भी इंकार होगा जानता हूँ इसलिए इन दिनों बस तुम्हें देखता रहता हूँ  कहता कुछ नही। खुश रहा करो तुम्हारी नसीहत तुम्हे सौंप रहा हूँ मै तो यह कलंदरी सीख गया हूँ अब तुम्हारी बारी है।

बस के सफर में भी क्या अजीब बतकही शुरू हो जाती है बेवजह...! 

Tuesday, August 12, 2014

थैंक्स

सदियों भटका
जिसकी राह में
नदियों से पता पूछता फिरा
समंदरों से गुमशुदगी की वजह पूछी
दरख्तों की गवाही ली
हवाओं से चुगली की
झरनों से पड़ताल की
रेगिस्तान से लेकर ग्लेशियर तक
जिसके निशां ढूंडे
उसकी एक झलक
फेसबुक पर मिली
वो लाइक कमेंट शेयर टैग में व्यस्त रही
मै प्रोफाइल पेज़ और लिंक में
वेब मोबाइल ब्राउजर इन्टरनेट का मोहताज़ था
उसका मिलना
इस माध्यम में मिलना
उतना ही दुर्लभ था जितना
रेत में पानी
नदी में नाव
समन्दर में टापू
जंगल में आश्रय
वो दिखी मगर मिली नही
जब तक इनबॉक्स में संदेश भेजा
वो डिएक्टिवेट हो कर ओझल हो गई
कई बार जिन्दगी भी
फेसबुक की छद्म प्रेमिका जैसी लगती है
दिखती है होती नही
कहती है बोलती नही
इसलिए जिन्दगी और फेसबुक पर
कम भरोसा करना
सीख जाते है लोग
दुनिया उतनी ही बुरी है
जितनी समझी जाती है
फेसबुक और ज़िन्दगी के तजरबें
हमें मिलकर समझदार बना रहे है
थैंक्स जुकरबर्ग  !

© अजीत

Saturday, August 2, 2014

प्रवचन

जीवन का अर्ध सत्य जान लेने का दावा किया जा सकता है. सत्य,असत्य पाप पुण्य की सबकी अपनी अपनी परिभाषाएं है अपने अपने संस्करण हैं. धारणाओं में जीवन जीना एक ख़ास समय के बाद अप्रासंगिक लगने लगता है ऐसा लगता है हर आने वाला दिन पिछले दिन के अनुभवों को ख़ारिज करके हमने एक नयी दुनिया से मिलवाना चाहता है. अपने अस्तित्व को जानने के प्रक्रिया है आप काम से कम इतना तो जान ही पाते है कि कुछ भी तय नही है सब कुछ इतना अनियोजित होता है कि हम नाहक की मान्यताओं के जंगल में निपट अकेले घूमकर अपने अभ्यारण्य की सीमा नापते फिरते है.मन को संवारने के लिए मन की गुलामी करनी पड़ती है द्वन्द को बचा कर रखना पड़ता है. ध्यान और आध्यात्म के कुछ ख़ास अवस्थाओ को छोड़कर सामान्य जीवन में मन को रोज़ टटोलने के लिए एक खास किस्म के साहस की जरुरत पड़ती और वो साहस खुद को दांव पर लगाकर ही मिल पता है. रोज़ नया सूरज नयी दुनिया का पता दे सकता है बशर्ते आप अपेक्षाओं के ताप में खुद को गलने से बचा सकें.जीवन का अपने एक प्लेवर होता है और हम अपनी अधिकांश ऊर्जा उसके संपादन में व्यय करते है ताकि इसको खुद के मुताबिक़ कस्टमाईज्ड कर सके. जीवन के साथ बहना सीखने के लिए होश का तरणताल चाहिए होता है फिर आप गुरुत्वाकर्षण शून्य होकर बह सकते है तैर सकते है और मन के वेग से उड़ भी सकते है मगर यह सब जानते जानते उम्र बीत जाती है और जब इसका पता चलता है तब न हिम्मत बचती है और न ऊर्जा.

मन कर्म और  भरम के फेर...निजी प्रवचन पार्ट-१