Friday, December 26, 2014

विदा होता साल

जब सारी दुनिया नए साल के आने की तैयारी में लगी हुई थी। जश्न का माहौल अपने पूरे शबाब पर था तब मै उलटे पाँव इसी साल के जनवरी तक लौट रहा था। यह तय करना थोड़ा मुश्किल था कि मै वक्त से पीछे रह गया हूँ या वक्त से परे हो गया हूँ। नए साल का सबको शिद्दत से इसलिए भी इन्तजार रहता है क्योंकि वो बीते साल की कड़वी स्मृतियों से एक नूतन वर्ष की नवीनता के बहाने मुक्ति चाहते है। ये खुद की कैसी जिद थी कि मै ये साल छोड़ना नही चाहता था। इस साल के कुछ प्रसंग मुझे स्मृतियों के हवाले भी करना नागवार लगा इसलिए नए साल को लेकर मेरे मन में खुशी की बजाए आशंकाएं ज्यादा उपजी थी। मै बीते महीनों में बड़े उत्साह से लौटा था। जनवरी में कतई ये उम्मीद न थी कि ये साल जिंदगी के मायनें बदलने वाला साल रहेगा क्योंकि इसमें उतरते वक्त मेरे पास कोई स्थाई आकर्षण या योजनाएं नही थी।
लम्बे समय से वक्त को बीतता देखने का अभ्यस्त रहा हूँ इसलिए हादसों से गुजरते हुए भी अहसासों में एक स्थिरमन बना रहा परंतु तुम्हारी दस्तक के बाद दिन हफ्ते और महीनों का फ्लेवर और कलेवर कुछ इस तरह से बदला कि मेरी समय को लेकर बनी समझ ध्वस्त हो गई। अब रात और दिन महज चौबीस घंटे का एक नियत काल चक्र नही था मेरे लिए।उन चौबीस घंटों में मैने खुद के अस्तित्व को बटते हुए देखा। घड़ी की सुईयों पर लटक मैंने मन का योगाभ्यास किया और यह योग चित्त की वृत्तियों का निरोध नही था बल्कि चित्त की वृत्तियों को होशपूर्वक देखना था। महज तुम्हारी उपस्थिति ने मेरे चैतन्यता को कुछ नए मायने दिए सबसे बड़ी बात में रसातल पर काई की तरह जमें कुछ फिसलन भरे अपेक्षा के लम्हों को खुरच कर साफ कर दिया।
साल के पूर्वाद्ध तक तुम्हारी उपस्थिति महज एक संख्या थी। मगर उत्तार्द्ध आते आते उस संख्या में सिद्ध सात्विक संकल्पों ने प्राण फूंक दिए थे।अब तुम्हारा अस्तित्व मेरे अस्तित्व से ठीक गर्भनाल की तरह जुड़ गया था। तुम्हें तो यह ज्ञात भी नही होगा चिंतन के अनन्तिम पलों में मैंने बहुत सी ऊर्जा तुमसे उधार ली है।
तुम्हें याद करते करते कब साँसे अनुलोम विलोम के सुर पकड़ लेती थी मुझे खुद भी पता नही चलता जबकि सत्यता तो यह भी है मै किसी भी कोटि का साधक कभी नही रहा हूँ। यह साल तुम्हारी अनुभूत अनुभूतियों का सबसे प्रमाणिक दस्तावेज़ है।इसमें वक्त की वो वसीयत भी शामिल है जो मुझे बारम्बार डराती भी है क्योंकि उसमें लिखा है एक अवधि के बाद तुम्हारा खो जाना तय है। तमाम सिद्ध अभ्यासों और अनासक्ति के दावों के बीच भी तुम्हें खोने के शाश्वस्त सच को असत्य सिद्ध करना मेरी एक मात्र ज्ञात महत्वकांक्षा शेष बची है।इस साल में यायावर मन यूं ही उलटे पाँव दौड़ रहा था शायद किसी महीने के दर पर टंगा वो कीलक बीजमन्त्र मिल जाए जो तुम्हारे अस्तित्व को स्थाई रूप से जोड़ने की एक युक्ति बनने का एकमात्र उपाय है। कभी कभी तुम्हारी बातों मुस्कुराहटों शिकायतों और आरोपों को रिवाइंड करके सुनता हूँ ताकि उनमें कुछ ऐसे नुक्ते तलाश सकूं जिनके जरिए हर खत्म होते हुए साल में मेरे पास यह आश्वस्ति हो कि हर जनवरी से दिसम्बर तक तुम्हारी खुशबू मेरे आसपास बनी रहेगी। शर्ते लगाकर मै इस रिश्तें को कमजोर नही करना चाहता हूँ इसलिए तुम्हारे अहसासों की खुशबू को सहजने के सूत्र विकसित कर रहा हूँ।इससे पहले ये साल विदा हो जाए तुम्हें अपने मन के वातायन में स्थाई रूप से संरक्षित करना मेरा एकमात्र ज्ञात रूचि का उपक्रम है। मेरी यात्रा शेष है जिसका बड़ा हिस्सा तुम हो इसलिए नए साल में मेरी उतनी दिलचस्पी नही है जितनी इस बीते हुए साल में है। यह इस साल का सबसे बड़ा विचित्र सच है जो तुम्हारे सहारे जी रहा हूँ मै।

'जाता साल-आता साल'

कतरा कतरा

मध्यांतर तक दोनो के हिस्से में कुछ मुलाकाते ही थी। सुखद स्मृति को सहेजना थोडा मुश्किल काम होता है क्योंकि धीरे धीरे रोजमर्रा का अवसाद उनको घुण की तरह चाटना शुरु कर देता है और हम अक्सर उन बातों को ज्यादा याद रखने लगते है जो हमें तकलीफ देती है। उसके साथ बिताई कुछ छोटी छोटी से किस्त सदियों का अफसाना बन गई थी। वो चंद मुलाकाते ही नही थी बल्कि उनकी यादों में साक्षात सम्बंधो का एक ब्रहमांड सांस लेता था। उनमें सुख की घडियां थी मन्दिर की तरह उलटे पांव लौटते प्रार्थनों मे बंधे हाथ थे। अलग अलग किस्म के विस्मय थे जिनके कोई लौकिक जवाब उन दोनो के पास नही थे कतरा-कतरा रिसते कुछ दुख के पतनाले भी थे जो अन्दर बाहर हो रही बरसात के सच्चे गवाह थे।

उसको याद करने के लिए जब से वजह की जरुरत खत्म हुई तब से लगा कि अब रिश्तों का न केवल भूगोल बदला है बल्कि मनोविज्ञान भी अब करवट लेने लगा है। बहुत दिनों तक खुद को कभी सही तो कभी गलत कभी रिक्त तो कभी तृप्त महसूस किया। दरअसल उन दोनों के रिश्तें न लौकिक थे और न अलौकिक ही उनमें राग जरुर था मगर वो राग किसी किस्म का बंधन नही बांधता था बल्कि वो आजाद उडान भरने का हौसला देता था।

उनकी लडाईयां कभी दोतरफा हो जाती तो कभी एकतरफा खुद ही से चलती थी। मगर आश्चर्यजनक रुप से दोनो के मन मे कोई द्वन्द भी नही था। कभी उनके अहसास सर्दी की एक कोहरे की सुबह ही तरह धुंधले हो जाते तो कभी तेज धूप की तरह रोशनी और ताप से दोनों को चमकाते भी थे। पहली दफा ऐसा महसूस हुआ था कि दिल और दिमाग के विद्रोह मे दिल की धडकनों ने आपस मे गहरी दोस्ती कर ली थी आते जाते सांस एक दूसरे को किसी गुप्त मंत्र की तरह संकेत मे बताकर जाते थे कि मन की गिरह कैसे बंध-खुल रही है।

अक्सर दोनो खुद से बेखबर रहते है मगर एक दूसरे की खबर चुपचाप दोनो तक पहूंच जाती थी सारा अस्तित्व दोनों के लिए कुछ औपचारिक षडयंत्र करता था ताकि उनकी कनफुसिया सुनकर वो दोनो के जीवन मे कुछ राहत के पल बो सके। दोनो के मन की खुशबू से हवा मे नमी का एक खास स्तर बना रहता वो हवा धूप् बारिश सूरज चांद सितारों के जरिए एक दूसर के जीवन मे संकेतों के रुप मे टांक दिए गए थे इसलिए बेखबरी के दौर में दोनो को एक दूसरे की ठीक ठीक खबर रहती थी।

इस सर्दी में दोनो के लिहाफ देह की सात्विक अनुभूतियों के यज्ञ से ताप पा रहे थे बिस्तर पर मन की समिधाओं के षटकोण सम्वेदनाओं की अग्नि में अपनत्व के घी से एक स्वयं सिद्ध जाप करते थे जिसमें दोनों का अह्म भी धुआं बन उड रहा था इन सब की वजह से दोनो की नींद मे भी दिव्य चैतन्यता थी इसलिए उनकी होश असंदिग्ध थी।

दरअसल उन दोनो का मिलना सदी का बडा विचित्र संयोग था और इस संयोग में किसका हाथ था ये जानने के लिए दोनो अपने अपने मन का पंचांग लगभग एक बार जरुर बांचते थे। मगर ग्रह नक्षत्रों की युक्तियों से इसका कोई पता न चलता था अंत मे दोनों हार अपने अपने हिस्से का अनिय्ंत्रित जीवन छोड देते बहने के लिए ताकि अपनी लय और गति मे एक एक कतरा नदी बनें और अंत मे समन्दर मे विलीन हो जाए। दोनो का मिलना दो पदार्थो का मिलना नही था बल्कि उनका मिलना दो चेतनाओं का सत्संग था जो एक अज्ञात की खोज में किसी निर्जन टीले पर बैठ एक दूसरे की उपस्थिति की जी रही थी बस। इस मुलाकातों के कारणों की तरह इनकी समय सीमा और आवृत्तियां भी अज्ञात थी। सम्बंधो के रहस्यवाद में यह एक नए अध्याय या नए युग का सुत्रपात था जिसका माध्यम वो दोनो बने थे।


‘कतरा-कतरा जीवन’

Tuesday, December 23, 2014

उम्मीद

जाता हुआ साल। कुछ टूटते कुछ जुड़ते हुए से अहसास। दिल में ज़ब्त अनकहें ज़ज्बात कुछ उदास लम्हों की जमानत उन्ही के सहारे कभी खुद से खफा तो कभी खुद मुआफ़ करने की नाकाम सी कोशिशें।
हिज्र का सर्द मौसम और तुम्हारी यादें जो ठंडी बर्फ से सच है उन्हें छूकर कभी खुद को तकलीफ देना तो कभी उन्ही के सहारे दिल से रिसते लहू को रोकना।
कुछ बिखरे हुए अहसासों पर शिकवों के पैबन्द लगाने की जुगत दिल को बहलाने का इल्म समझना जाते हुए साल की सबसे शातिर चाल है।
आह ठंडी न हो जाए वो बर्फ से ज़ज्बातों के नीचे सुलगती है तुम्हें धुंआ उठता नजर नही आएगा मगर जो तपिश रूह को मद्धम आंच पर सेंक रही है उसमें मेरा वजूद कतरा कतरा पिंघलता है।
धड़कनों को गिनते हुए और खुद की बेचैनियों को सूद की तरह  सम्भालते तुम्हारी यादों की जमापूंजी मुझे अमीर बनाती जाती है। तुम्हारी नजरों में इन लम्हों की भलें ही कोई कीमत न हो मगर तुम्हारे होठों के तबस्सुम और पलकों की नमी में बाकायदा मेरा हिस्सा है।
फिलहाल आँखें मूंदे तुम्हें कुछ बहानों से याद करता हूँ एक बहाना यह गीत भी है जो मेरे दिल से गिरह की तरह बंध गया है। जितना इसको खोलता हूँ ये उतनी ही कसती जाती है। तुम्हारे वजूद में भले ही अब मेरा कोई हिस्सा नही है मगर कुछ यादों के हवालें से तुम्हें न भूल पाता हूँ और न याद रख पाता हूँ।
मेरी पलकों पर आंसूओं की ओस जमी है सर्दी के इस मौसम में इनका वजूद बेमानी है क्योंकि न मै समझा पा रहा हूँ न तुम समझ पा रही हो।
गलतफ़हमियों के इस दौर में खुद को इस हाल में देखना एक सदमा भी है और कुफ़्र भी। अपनी तमाम बुराइयों के बावजूद तुम्हारी अच्छाईयां याद करता हूँ उन्ही के सहारे मेरी तबीयत ठीक होने लगती है यादों के मनीआर्डर भेजता हूँ तुम्हारे पते पर इस उम्मीद पर कि बैरंग खतों की तरह ये मुझ तक वापिस नही आएँगे। नए साल पर इतनी उम्मीद मेरे दिल में बची हुई है।

Friday, December 19, 2014

साथ की बात

अकेला मुझे कहीं नही पहूँचना था। अन्तस् पर भले ही नितांत अकेला था मगर वो एकांत की शक्ल में सुख का अकेलापन था। सफलता और असफलता दोनों की तरफ बढ़ते गए एक एक कदम मुझे अकेला करने की कवायद थी। मेरे हाथ हवा में अकेले झूलते थे मेरी हथेलियों का तापमान शून्य से कुछ दशमलव नीचे था। मेरी ऊँगलियां कड़ाके की सर्दी में भी आपस में एक दुसरे को गर्माहट देने से साफ़ इनकार रखती थी। वो अपनें बीच में इतनी जगह की गुंजाइश हमेशा बनाकर चलती कि एक दुसरे हाथ की जुम्बिश बन सके। वक्त की तमाम चालाकियों के बावजूद मन से हाथ थामनें की हिम्मत नही गई थी। मनुष्य नितांत ही अकेला है यह दार्शिनक सत्य जानने के बाद भी मेरी साथ की अभिलाषा बनी रही। यह साथ मेरी आशा की अवैध सन्तान थी जिसमें स्वार्थ नही था मगर साथ बना रहने की एक शाश्वत चाह अवश्य थी।
ये एक किस्म का पागलपन था। भीड़ से घिर जाने के बाद और तथाकथित रूप से सफलता के जश्न के बीच भी मेरा आवारा मन वहां से चुपचाप खिसक लेता और वो मेरी जड़ो की तरफ लौट आता। फिर वहां के मामूली चेहरे तलाशता और उनकी तरफ हाथ बढ़ाता। जिसमें कुछ दूर मेरे साथ चलने के आग्रह शामिल होते थे।
विचित्र पागलपन के साथ मै ये ख़्वाब देखता कि अपने सामर्थ्य के चरम शिखर पर भी अपने बचपन के दोस्त जो बेहद मामूली जिंदगी जीता है उसको अपने साथ ले कर चलूँ उसे पंचसितारा होटल के बीयर बार में बैठाकर खुद ड्रिंक सर्व करूँ उसे दुनिया के बड़े नगरों की सैर कराऊँ। अपने बचपन के उस दोस्त के किस्से सुनता रहा हूँ भूल जाऊं कि मेरे ज्ञान का विस्तार कितना है।
ये हाथ थामनें की चाह प्रायः एकतरफा ही थी क्योंकि आप अपने सम्पूर्णता में होने का दावा कर सकते है मगर सामनें वाले का हाथ यदि उसके कन्धे से कटकर दिमाग से जुड़ा हो तो फिर वो हाथ मिलाने के नाम पर आप कष्ट भी पहूँचा सकता है। कष्ट में जीना मेरे जीवन के अभ्यास में शामिल हो गया था इसलिए कई बार अपनें नर्म हाथ में मैंने अंगारे बोने वाले हाथ भी पाएं मगर मेरे मन की नमी से मेरी हथेलियाँ सुरक्षित रहती थी। हाँ ! मेरी कुछ हस्तरेखाएं जरूर अनावश्यक दबाव में अस्त व्यस्त हो जाती थी मगर खुद की किस्मत खुद ही लिखने के जूनून में मुझे उनकी कभी कोई परवाह भी नही रही।
असफलता का चरम भोगने के बावजूद भी मैंने अपने हाथ खुले रखे क्योंकि मुझे अकेला कहीं नही पहूँचना था। बार-बार आहत होते टूटते बिखरते वजूद ने कई दफा इस आदत के चलते मुझे लानत भेजी मगर मै खुद की भावुक मूर्खता पर अब खुश रहना सीख गया था।
खुद को जानबूझकर तकलीफ़ देना सही नही था मगर सही गलत से ज्यादा जरूरी मेरे लिए मेरा ऐसा होना था। जो कम से कम इतना मतलबी और केलकुलेटिव कभी नही हो पाया कि केवल और केवल खुद के ही बारें में ही सोच सकें। यही एक वजह थी कि मै दुनिया का सबसे अकेला इंसान था मगर इसके बावजूद भी मेरे हाथ बेफिक्री से खुले हुए थे कभी जिन्हें मै आगे बढ़ाता था तो कभी अपनी आँखें मलनें लगता था।

'हाथ-साथ-बात'

Wednesday, December 17, 2014

यकीं का मर जाना

तुम्हारा जाना तय था मगर इस तरह तुम जाओगी ये कल्पनातीत था मेरे लिए। तुमसें मिलनें के बाद एक ही अभिलाषा थी कि ये रिश्ता सबक का नही सफर का सबब बनें।मगर अफ़सोस मै गलत था। तुमने ऐसा सबक दिया कि मन की निष्पापता खुरच खुरच कर दिल से निकल गई है। अच्छा दिखने से कई गुना बुरा है अच्छा होना। मुझे लगा तुमने उस बची खुची अच्छाई को देख मुझ पर अधिकार समझा था मगर अंतोतगत्वा तुम्हारे मन की उधेड़बुन ने तुम्हें इस कदर कटघरे में खड़ा किया कि तुमनें खुद मुंसिफ बन मुझे मुजरिम करार दे दिया। एक बार बिखरकर इकट्ठा होने में मुद्दतें गुजर जाती है तुमसें मिलनें से पहले शायद मेरी दुनिया अलग थी मगर जिस सबक के साथ तुमनें मुझे छोड़ा है वो ठीक वैसा जैसे कोई मुसाफिर आधी रात बस से गलत ठिकाने पर उतर जाएं और राह में खड़ा सोचे उसे आगे चलने चाहिए की पीछे।
मौटे तौर अलहदा सोचना और अलग जीना ये दो अलग बातें है गैर पारम्परिक सोच को जीने के अपने खतरें हमेशा से रहें है मगर दुःख इस बात का है कि इस सोच को जीने के एककदम पर तुम इतनी आशंकाओं उचित अनुचित,पाप-पुण्य के मुकदमें में घिर गई हो कि तुम्हें मेरी दलीलें महज एक उकसावा भर लगने लगी। मैंने कभी तुम्हें न उकसाया है और न शब्दों के व्यूह में निस्तेज किया है।मेरी भूमिका एक सचेतक भर की थी क्योंकि तुम्हारे अंदर खुद की शर्तों पर जीने की सम्भावना दिखी थी। तुम्हारे जीवन में मैं दोस्त या प्रेमी की हैसियत से नही शामिल था बल्कि मै तुम्हारा एक सच्चा और अच्छा श्रोता भर था हाँ तुम्हारा साथ निसन्देह मुझे अच्छा लगता था।
अब जब तुमनें फरमान सुना ही दिया है कि मेरा दिखना भर भी तुम्हारी मानसिक अशांति का सबब है मेरे चेहरें पर तुम्हें मासूमियत की जगह नियोजित चालाक षडयन्त्र की बू आती है तो ऐसे में मेरा यहाँ ठहरना पहाड़ सा भारी हो गया है।
और अंत में यही कहूँगा हो सके तो आत्मदोष से बचना यदि मेरे मत्थे सब कुछ मढ़कर भी तुम्हें राहत मिलती हो तो भी मै इसके लिए प्रस्तुत हूँ एक खूबसूरत रिश्तें की हत्या का इल्जाम मेरे सिर और सही क्योंकि मै तो प्रकारन्तर से ही अन्यथा लिए जाने के लिए शापित हूँ।
मेरे कदम भले ही इस बोझ से धँसते चले जाएं मै तुम्हें ऊपर उठते हुए देखना चाहता हूँ। साथ बिताए चन्द लम्हों की जमानत लेकर जा रहा हूँ सफर में दवा की माफिक काम आएँगे तुम इन्ही लम्हों को जला इस सर्दी में राख के हवाले कर दो और आगे बढ़ो मेरे जैसे कुत्सित लोगो से तुम्हारी सुरक्षित दूरी ही भली है।क्योंकि मेरी वजह से तुम्हारे उसूल खतरें में पड़ गए इसलिए फिलहाल तो दफा करो मुझे और खुद के मजबूत होने का प्रमाण पत्र अपनी मन की दीवार पर चिपका लो। मेरे पास अंतिम सलाह यही है जिस पर तुम्हें यकीन हो जाएगा इसका मुझे यकीन है।

'मौत एक यक़ीन की'

Monday, December 15, 2014

सलाह

रफ़्ता रफ़्ता तुम जिंदगी का हिस्सा बन गए। जैसे कभी तुमसे मिलना नही चाहा था ठीक वैसे ही अब तुमसे कभी बिछड़ना नही चाहता हूँ। जानता हूँ रिश्तों को ताउम्र सम्भालनें का कौशल नही है मेरे पास। हर छटे छमाही भाग जाना चाहता हूँ खुद से भी बहुत दूर और रिश्तें एक दुसरे को देखकर सांस लेते है। तुम्हें खोना नही चाहता इसलिए एक पकी उम्र के बाद भी मै सोचता हूँ क्या कुछ सीखा जाना चाहिए जिससे तुम्हें अनंत तक सहेज सकूँ।
तुमसे वैसे तो कोई औपचारिक रिश्ता नही है मगर जो भी है वो एकतरफा नही है।हम बारी बारी से अपना अक्ष बदल देते है कभी तुम तत्पर दिखती तो कभी तटस्थ कभी मै तटस्थ तो कभी तत्पर। शायद यही वजह है दोनों साथ प्रायः बहुत कम दिखते है।
साथ दिखना वैसे भी एक लौकिक दिखावा भर होता है साथ दिखने से ज्यादा साथ होना महत्वपूर्ण होता है। तुम्हारे साथ होने के लिए तन एक गौण माध्यम है इसलिए उस तरह नही सोच पाता हूँ कि कब कहाँ कैसे मिलना है बल्कि मेरी फ़िक्र में यह बात शामिल रहती है कि तुमसे कैसे अज्ञात रहा जाए ताकि मेरी अनुपस्थिति में तुम कुछ बिखरे अहसासों को गुनगुनाती हुई एक नेह के धागें में पिरो सकों। जब तक मैं तुम्हारे सामने होता हूँ तुम खुद तक नही पहूंच पाती हो।मन की उलझनों की गिरह को गिन नही पाती हो। तब तुम्हारे लिए मेरे होना एक बाधा बन जाता है क्योंकि तब किसी की नही सुनती हो।
मैं चाहता हूँ कि तुम कभी अकेले में खुद से बात करो मन की संकरी गली के मुहाने पर पालथी मार के बैठ जाओं और हर आते जाते ख्याल की खबर लो।शायद उन्हीं ख्यालों में से एक ख्याल मेरा भी मिलेगा तुम्हें तुम उसकी गहराई की खुद पड़ताल करों।यह कोई परीक्षा नही है बस एक तरीका है जिसके जरिए सही गलत पाप पुण्य के मुकदमें में फंसा तुम्हारा मन बाइज्जत बरी हो सकता है।
तुम कुछ ऐसे पवित्र अहसासों की गवाही ले सकती हो जो मेरे मन के निर्वासन से निकल कर तुम्हारे दिल में आश्रय लिए  बैठे है।जरूरत पड़ने उन लम्हों से भी हलफनामा लिया जा सकता है जिन पर पारस्परिक स्पर्शों की एक महीन परत चढ़ी हुई है।
फिलहाल इस यात्रा के लिए इतना ही काफी है यदि तुम ऐसा कर पाई तो फिर खुद को ये तसल्ली दी जा सकती है कि हम मिलें या बिछड़े दोनों ही सम्मानजनक रहेगा हमेशा के लिए और यादगार भी।

'मिलना-बिछड़ना'

Friday, December 12, 2014

चाय और तुम

एक तुम्हारे जाने के बाद चाय की प्याली ऐसी रूठ गई कि उसे मना कर हाथ में थामने की हिम्मत भी जाती रही। अब चाहे चाय हो या शराब मै कांच के गिलास में पीता हूँ।
चाय के कप की नजाकत और नाजुकता तुम्हारे स्पर्शों की देन थी। चीनी मिट्टी में खुशबू फूंकने का तुम्हारा इल्म काबिल ए तारीफ़ था कप को सूंघ कर तुम्हारी कोल्ड क्रीम का ब्रांड बता सकता था। चाय छानते वक्त तुम्हारा कंगन चाय के कप से टकराता तो लगता जैसे संतूर का तार बज उठा हो।
दरअसल चाय एक जरिया थी हमारे तुम्हारे बीच बिखरे अफसानों की किस्सागोई करने की।गर्म चाय में फूंक मारकर पीने की बचपन की आदत मै तुम्हारी सोहबत में ही छोड़ पाया। तुम्हारे लिए चाय बनाना पानी दूध चीनी पत्ती अदरख को पकाना भर नही था बल्कि सच कहूँ तो तुम्हें चाय कोई खास पसन्द भी नही थी मगर तुम पकती हुई चाय में जब फूंक मारकर उबाल हटाती तब मुझे तुम्हारी तन्मयता और मासूमियत में जादुई तिलिस्म नजर आता था। तुम चाय से उड़ती भांप के हवाले अपनी तमाम दुनियावी चिंताएं कर देती और फिर घूँट घूँट जिंदगी की तरह चाय पीती थी।
ऐसा कई दफे हुआ तुम्हारा न चाय बनाने का मन था और न पीने का मगर मेरे बोझिल मूड को देखकर तुम्हें शब्दों के सांत्वना भरे उपचार से बेहतर मेरे लिए एक कप चाय बनाना लगा। तुम्हारी रसाई में चाय के प्यालें हमारी बतकही के मुरीद थे और तुम्हारा कॉफी का मग इस बात पर तुमसे मुद्दत से नाराज़ रहा कि तुमनें उसको चाय का मग बना दिया था। जिस दिन तुम्हारे चाय पूछनें पर मै चाय पीने से मना कर देता तुम उस दिन गहरी फ़िक्र में डूब जाती थी कई दफा ऐसा भी हुआ मै आया और तुम बिन पूछे ही चाय बना लाई हम दोनों के बीच चाय एक तरल पेय ही नही थी बल्कि वो एक सेतु थी जिस पर हम एक दुसरे का बेफिक्री में हाथ थामें टहल सकते थे।
अक्सर शाम को तुम्हें चाय की प्यालियों के साथ तलाशता हूँ अब न वैसी चाय मिल पाती है और ना वो बातें जब तुम्हारे तानों से उपजी हंसी से चाय कप से बाहर छलक जाया करती थी। मेरे कुछ खादी के कुर्तों पर उनके निशान अब तलक बनें हुए है और मै चाहता हूँ वो ऐसे ही बने भी रहें वो हमारी मुलाकातों के सच्चे गवाह है।
ऐसा नही है कि अब चाय पीनी छोड़ दी है बस अब उसकी लत नही रही न उसमें मेरी वैसी दिलचस्पी रही जैसी तुम्हारे साथ पीते वक्त हुआ करती थी। तुम्हारे जाने के बाद मैंने कई दफे खुद चाय बनाई मगर अजीब इत्तेफाक है तुम्हें ये हुनर सीखा कर मैं खुद भूल गया हूँ अब डॉक्टरी सलाह मानकर ग्रीन टी पीता हूँ कहते है उसमें एंटी ऑक्सिडेंट होता है विज्ञान का यह कोरा झूठ है दरअसल एंटी ऑक्सिडेंट तो तुम्हारे हाथ से बनी चाय में ही होता था जिसे पी कर मेरा मन बूढ़ा होने से इनकार कर देता था।
अब न घर पर बॉन चाइना के कप है और न केतली अब कांच के गिलास का एक बचा हुआ सेट है जिसमें से हर छटे छमाही एक गिलास टूट जाता है फिलहाल दो बचें हुए है। कांच के गिलास इसे अपनी तौहीन समझते है कि सुबह जिस गिलास में मै चाय पीता हूँ शाम को उसी में शराब भी पी लेता हूँ वो मेरी फितरत नही समझ पा रहें है कि मै एक शराबी हूँ या चायप्रेमी। वो ही क्या तुम्हारे जाने के बाद मै खुद इस बात को लेकर कन्फ्यूज्ड रहता हूँ कि चाय सुबह पी जाएं कि शाम और शराब शाम पी जाएं कि सुबह।

'चाय और तुम्हारी चुस्कियां'

Monday, December 8, 2014

ब्याज

तुमसे मिलनें के बाद मै थोड़ी देर के लिए मतलबी हो गया था। तुम्हारें अंदर खुद को तलाशने लगा था शायद तुम्हारे साथ के अहसास ने मुझे थोड़ी देर के लिए बदल दिया था मै अन्तस् की ख़ुशी को खींचकर लम्बी कर देना चाहता था तुम्हारी वजह से न जाने क्यों ऐसे लगा कि मै खुशी को महसूस कर सकता हूँ खुश दिख सकता हूँ।
कई दिनों तक उसी अहसास में फंसा रहा सच्चाई से कहूँ तो दोस्त मैं तुम पर अटक गया था मुझे तुम्हारे माथे पर खुशी का लिफाफा नजर आने लगा था।
बहरहाल खुशी कब देर तलक किसी के हिस्सें में रहती है। मैं अब खुद के मूल वजूद की तरफ लौट आया हूँ अब मेरी पलकों पर ज़मी यादों की धुंध छट गई है थोड़ी देर वो गीली रहीं और फिर सूख गई।
अब मुझे कोई दुविधा नही है अब फिर से वही वैचारिकी और सम्वेदना की चासनी में डूबा अस्तित्व मेरा सच है।
इसी सच के सहारे खुद को साधना अब मेरी विवशता और प्राथमिकता दोनों है। तुम्हारी परछाई को नापते हुए मुझे तुम्हारे न होने का पक्का यकीन हो गया है।
तुम्हारी सुखद स्मृतियाँ मेरे लिए एक स्थाई पूंजी है जिनका ब्याज मै सावधि जमा की तरह ताउम्र खाता रहूंगा।

'मिसिंग कैपिटल'

Sunday, December 7, 2014

अज्ञात

सारे आकर्षण अप्राप्यता के थे। अज्ञात के बन्धन ज्ञात की गिरह से ज्यादा मजबूत थे। अदृश्यता में गहरा रोमांच था। साक्षात का ओज कपूर की डली बन गया था। प्राप्य की कामना मन का एक अस्थाई आवेग था शायद उसमें कौतुहल या जिज्ञासा के बन्ध लगे थे। परन्तु  महज एक मुलाक़ात ने मेरा ऐसा साधारणीकरण किया कि तुम तय नही कर पाई कि तुम्हारे मानकों की सीढ़ी पर किस पायदान में मेरा पैर फंसाओं  ताकि मुझे तेजी से नीचा गिरते हुए से रोक सको। अनायास और अनियोजित ढंग से निर्मित हुई छवि से मेरे कंधे झुक गए थे पुरूष होने के नाते यह एक नकारात्मक बात थी क्योंकि तुम्हें केवल मेरी वक्त और हालात से लड़ती चट्टान सी छाती देखने का अभ्यास था।
तुम्हारी आँखों में काजल लगा था जिससे उनकी ख़ूबसूरती में इजाफा हो रहा था और इधर मेरे आँखों में आंसूओं के तालाब में काई ज़मी थी जिसकी हरियाली से तुम हैरान तो हो सकती थी पर खुश नही। मेरी हथेलियों की रेखाओं का भूगोल इस कदर बिगड़ा हुआ था कि उनकी करवटों की वजह से तुम्हें हाथ मिलाते वक्त एक अजीब सा खुरदुरापन महसूस हुआ जबकि तुम्हारे स्पर्शों में नमी का औसत स्तर कायम था उससे त्वचा की शुष्कता थोड़ी कम तो हुई परन्तु फिर भी स्पर्शों की पकड़ में एक न्यूनतम बाधा मेरी वजह से आड़े आती ही रही।
तुम्हारे आग्रह इतने आत्मीयता से भरे हुए थे मै चाहकर भी इंकार नही कर पाया। जबकि मेरे अवचेतन में यह बात सदियों से टहल रही थी कि अज्ञात दर्शन का आकर्षण बड़ा होता है न्यूनतम रहस्य बचाकर रखना मेरे लिए जरूरी है यह बात समझ नही पाया।बेफिक्री में जिंदगी जीते हुए मैं वो कौशल अर्जित न कर सका।अभिव्यक्ति और पारदर्शिता में इतना लिप्त रहा हूँ कि खुद को कैसे सरंक्षित रखना है यह भूल गया था।
यद्यपि तुम्हें मुझमे सबकुछ निराशाजनक ही लगा हो ऐसा भी नही है परन्तु तुम्हारी पलकों के झपकनें के अंतराल में मैंने वो भाव पढ़ लिया था जो तुम्हारी आँखों की खोई चमक में आवारा टहल रहा था और बुदबुदा रहा था कि नही! ये शख्स ऐसा नही है जिससे दोबारा मिला जा सके। पहली मुलाक़ात में तुम्हारी न्यूनतम अपेक्षाओं की गर्मी से मेरे अस्तित्व का ग्लेशियर इतनी तेजी से पिंघला कि मेरे मन में एक बाढ़ आ गई और तुम युक्ति से अपनी एकल नांव लेकर चुपचाप दूर निकल गई और मै अपलक तुम्हें देखता ही रह गया।
तुम्हारी तत्परता और सदाशयता ने मुझे अस्वीकृत नही किया ना ही तुम मुझसे निराश थी बस तुम्हारे मन के आँगन में मै तेज बारिश की तरह बरस कर बह गया था जबकि तुम मुझे चाय का कप थामें मद्धम झड़ी वाली बारिश में गुनगुनाना चाहती थी। मुझमें में सतत आकर्षण बनाए रखने के लिए तुम्हें किसी एक ऐसे यूनिक तत्व की तलाश थी जो तुम्हें लोक में नजर न आया हो। सम्भव है मुझमें वो तत्व रहा भी हो मगर मेरी प्रस्तुति में चुस्ती का अभाव था इसलिए वो तत्व ने मै व्यक्त कर पाया और न तुम तलाश पाई और अंतोतगत्वा तुम मुझमें आकर्षण खो बैठी।
फिलहाल तुम्हें चुप/विरक्त/तटस्थ देखकर तुम्हारी मनस्थिति का पता चलता है तुम अब मुझे देख/सुन/पढ़ कर अब विस्मय से नही भरती धीरे धीरे तुम्हारे अन्तस् में पसरा मेरा अनंत विस्तार सिमट रहा है इस पर मै खुश हूँ या दुखी यह बता पाना मुश्किल है मेरे लिए।
ज्ञात या प्रकट का दोष,अपेक्षाओं के भंजन का अपराधबोध फिलहाल स्वयं के ऊपर लेता हुआ मै तुम्हारे सहित अन्य तमाम चेतनाओं से साक्षात मिलना स्थगित और अस्वीकृत करता हूँ।खुद को बचाये रखने का एकमात्र यही उपाय फिलहाल मुझे नजर आ रहा है। एक भूल को बार बार दोहराना मेरे लिए अब यातना न बनें और किसी के मन पर मेरे चयन को लेकर अपराधबोध/खीझ के बादल छाएं ये इस जन्म में अब और नही चाहता। उम्मीद है तुम इस आत्मस्वीकृति को मेरा अंतिम आकर्षण समझोगी।

'अज्ञात से ज्ञात'


Saturday, December 6, 2014

उनकी बातें

उन दोनों की उम्र में तकरीबन एक दशक का फांसला था। सृष्टि क्रम में दोनों आगे पीछे आएं मगर मिलने के बाद दोनों ऐसे साथ-साथ चलनें लगे थे कि उम्र धीरे धीरे गल कर बह गई थी। वक्त गुजरनें और साल बीतनें से उम्र का कोई सम्बन्ध नही होता है ये बात उन दोनों को देखकर साफ़ पता चलती थी। वे दोनों ही अपने समय से आगे की जिन्दगियां जी रहें थे। शुरुवाती दिनों में आयु के पूर्वाग्रह दोनों का पीछा करते थे। धीरे धीरे उम्र की जगह सम्वेदना और चेतना ने ली और प्रज्ञा एक दुसरे के जीवन में होनें का उत्सव मनानें लगी थी। उनका मिलना अस्तित्व के विचित्र संयोगों की जुगलबंदी का परिणाम था बुनियादी तौर पर बहुत से मुद्दों पर असहमत होते हुए भी वें प्रायः एक दुसरे से सहमत पाये जाते थे।
रोजमर्रा की भागदौड़ के बीच वें चुरा लेते थे कुछ पल और निकल पड़ते थे अज्ञात की यात्रा पर उनके विषय भले ही बेहद भटकें हुए होते मगर एक दुसरे का हाथ थामें उनकी यात्रा एक ही दिशा में आगे बढ़ती थी। चेतन की बजाए एक दुसरे के अर्द्धचेतन और अवचेतन की अमूर्त अभिलाषाओं के बड़े स्रोत बन गए थे वें दोनों।शायद यही वजह है कि यदा कदा दोनों की मुलाक़ात ख़्वाबों में भी होने लगी थी।
दरअसल उनके गुरुत्वाकर्षण का एक ही केंद्र बन गया था वो आँखों में आँखे डाल घंटो बातें कर सकते थे। उनकी पारस्परिक पारदर्शिता इतनी साफ़ किस्म की थी कि उनमें मन की तृप्त कामनाओं के स्पष्ट छायाचित्र देखे जा सकते थे।
उन्हें देखकर कभी ऐसा नही लगा कि वो अपने मन की आंतरिक रिक्तताओं का निर्वासन झेल रहें है उनके सांसारिक पक्ष बेहद संतुष्ट और व्यवस्थित किस्म थें परंतु वो किस अज्ञात वजह से एक दूसरे के नजदीक आएं ये बता पाना मुश्किल था। उन दोनों की भौतिक उम्र में भले ही एक दशकीय अंतर था परंतु दोनों के मन चेतना और सम्वेदना की आयु लगभग समान थी दोनों ही एक दुसरे के प्रश्नचिन्हों को पूर्ण विराम में बदलनें की क्षमता रखते थें।
उन दोनों ने रच ली थी अपनी एक समानांतर दुनिया जहां हवा बारिश आकाश सब कुछ उनका अपना था वो पढ़ सकते थे एक दुसरे की पीठ पर छपें सांसारिक विवशताओं के इश्तेहार इसलिए धीरे धीरे उनकी आरम्भिक शिकायतों की जगह एक मौन समझ ने ले ली थी। अब उन दोनों के लिए सम्वाद से ज्यादा अंतरनाद के एक दुसरे को महसूस करना अधिक महत्वपूर्ण हो गया था।
देखा जाए तो वो दोनों न प्रेमी थे और न मित्र ही।उनके रिश्तें को समझने के लिए एक नई परिभाषा का निर्माण करना अनिवार्य था मगर उन दोनों की भावनात्मक लोच को आत्मसात करने के लिए दृष्टि की व्यापकता का होना एक अनिवार्य शर्त थी।
साल में एक बार उदासियों और विदाई के टीले पर दोनों मिलते थे तब वो अपने अन्तस् में छिपे उस अज्ञात को महसूस कर सकते थे खुलकर दोनों की रूह जब आपस में जुड़ जाती तो फिर देह विलोपित हो जाता था। उनके स्पर्शों में पवित्र भावनाओं की पवित्रता होती धड़कनो का मद्धम स्पंदन मिलकर ऐसा सुरो को साधता कि मौन में साँसों के आलाप उस दिव्य संगीत की मदद से रियाज़ करने लगते थे।
उनकी एक ही योजना थी कि उनकी कोई योजना न हो वो बिना शर्त कुछ लम्हों को जीना चाहते उनकी चाहतों का आकाश थोडा अजीब था वहां धुंध में भी उड़ान भरनें की हिम्मत थी और बारिशों में साथ भीगने की शरारत भी। वो दोनों गढ़ रहे थे देह से इतर सम्बन्धों के नए आख्यान जिन पर सुनकर यकीन करना थोड़ा मुश्किल था। पंचमहाभूत को जानते हुए देह को फूंक से उड़ा उन दोनों ने मन के हाथ मिला लिए थे आपस में।उनको देख दिल से कभी दुआ निकलती तो कभी रश्क भी होता था। उनकी बातें फिलहाल भले ही काल्पनिक या गल्प लगे मगर उन दोनों का सच रोमांचित और विस्मय से भरा हुआ था जिसे सोचते हुए कोई भी नींद में मुस्कुरा सकता था।

'उनकी बातें वो ही जानें'

Thursday, December 4, 2014

सम्मोहन

आखिर तुम्हारा सम्मोहन टूट ही गया। शब्दों के रचे व्यूह की अपनी एक सीमाएं थी। उनमें स्पंदन जरूर था मगर उनमें कीलित मंत्रो के जैसे प्रभाव शामिल थे। इस सम्मोहन के जरिए मै तुम्हारे अर्द्धचेतन और अवचेतन में संचित दमित कामनाओं की पड़ताल में सलंग्न ही था कि तुमने चेतन हो आँखे खोल दी अपनी। तुम्हारा सम्मोहन टूटना है यह तो पहले दिन से ही तय था मगर इतनी जल्दी टूट जाएगा इसकी उम्मीद मुझे भी न थी।
मै कोई आदर्श पुरुष नही था तुम्हारे जीवन में।तुम्हें मेरे जरिए खुद की तलाश पूरी होने की एक धूमिल सी सम्भावना दिखी थी। इसी बहाने तुम चली आई बिरहन सी मगर मेरे वैविध्य ने तुम्हें हमेशा एक संशय में रखा। तुम्हारी धारणाएं तुम्हें अनासक्ति के लिए सतत प्रेरित करती रही परंतु कुछ अंश वास्तव में मेरे भी ऐसे अद्वितीय किस्म के थे जिसके चलते तुम अपनी विचारधारा से बेईमानी तक करने की सोचने लगती थी।
इस यात्रा में चयन के सारे सर्वाधिकार तुमनें अपने पास सुरक्षित रखें।मै केवल दृष्टा था।अच्छी बात यह थी कि मै स्वीकार भाव में था। ना मेरे ऐसे कोई लौकिक आग्रह ही थे जिसके चलते तुम्हें संपादित करने की मेरी कोई चाह रहती। मेरे हिस्से का केवल इतना सच है कि हां! मुझे तुम्हारा साथ अच्छा लगने लगा था। जब तुम साथ होती तो मेरे कन्धों और पलकों पर वक्त और हालात की जमी गर्द उड़ जाती थी तुम्हें लेकर मेरे मन में एक पवित्र आश्वस्ति थी इसलिए तुम्हारे समक्ष छवि निर्माण की ऊर्जा अपव्यय से बच जाता था। जब-जब तुमसें मिला बेपरवाह और बिना लाग लपेट के मिला।
तुम्हारे सम्मोहन का टूटना मेरे लिए आश्चर्यजनक कतई नही है क्योंकि मुझे लेकर तुम्हारे मन में प्राप्य और अप्राप्यता के द्वन्द थे और शायद कुछ नैतिक प्रश्न भी तुम्हें सतत परेशान कर रहें थे। इस अवस्था में समझाईश से बचता रहा हूँ मैं क्योंकि समझाना भी अन्य को एक किस्म की अपने अनुरूप करने की कंडीशिनिंग है।इसलिए मैंने तुम्हारे कुछ प्रश्नों पर कोई प्रत्युत्तर नही दिए। मै चाहता था इस यात्रा में यदि तुम्हारी वास्तविक दिलचस्पी है तो इसके लिए समस्त आवश्यक तैयारियां तुम्हारे नितांत की व्यक्तिगत अभ्यास से विकसित होनी चाहिए। मेरे स्पष्टीकरण तुम्हें कमजोर बना सकते थे तुम्हें शब्द विलास में खो कर निर्णय ले सकती थी और उसके बाद यदि संयोग से कभी तुम्हें अपराधबोध होने लगता तो इस यात्रा के लिए तुम्हें उत्प्रेरित करने का सीधे सीधे मै अपराधी बन जाता।
सम्मोहन से बाहर आते ही तुम थोड़ी असहज थी शायद तुम्हें यह अहसास तो था कि तुम क्या खोने जा रही हो। तुम्हारा दिमाग तुम्हें हौसला देता तो दिल लानत मलानत भेजता। कुछ अर्थों में देखा जाए तो यह सम्मोहन टूटना बेहतर रहा क्योंकि अब सब ज्ञात और चैतन्य है। इस सम्मोहन के उत्तर प्रभाव में तुम थोड़ी देर एक स्थान पर जड़ खड़ी रही और मै तुम्हें देखता रहा अपलक। बस मुझे दुःख इस बात का है कि मेरे इस शाब्दिक सम्मोहन के उत्तर प्रभाव लम्बें वक्त तक तुम्हारा पीछा करेंगे भले ही तुम अपनी बुद्धि से मेरी यादों के कमरें पर युक्ति की सांकल लगा दो हमेशा के लिए। यह सम्मोहन पेशेवर या उपचारिक सम्मोहन से इसलिए भी भिन्न रहेगा यह तुम्हारी स्मृतियों से मुझसे जुड़े अनुभव विस्मृत नही कर सकेगा बल्कि इस सम्मोहन का एक अपना विचित्र अनुभव तुम्हारे अनुभव का हिस्सा बन गया है। जिसे सोचकर तुम कभी हंसा करोगी और कभी रोया करोगी।
यह सम्मोहन न तिलिस्म से भरा था और न यह ऐन्द्रियजालिक था।यह सम्वेदना और चेतना के सहज आकर्षण की ऊपज था इसमें अर्जित व्यवहार एक बाधा बना और ये टूट गया।परन्तु निसन्देह इसके जरिए हम एक दूसरे के अज्ञात से परिचित भी हो पाएं यह देह से अधिक चेतना के आत्मिक संवाद का माध्यम भी बना। यह इस छोटी यात्रा की सबसे बड़ी उपलब्धि है।तुम्हें देखकर मै थोड़ा विस्मित जरूर हूँ परन्तु मै तुम्हारी अद्वितियता का एक अंश अपने हृदय में हमेशा के लिए सुरक्षित कर लिया है और उसके सम्मोहन में कम से कम मै सारी उम्र रह सकता हूँ। शेष जीवन के लिए मेरे पास तुम्हें देने को केवल कुछ शुष्क शुभकामनाएं ही है यदि उनमे कुछ भी असर हो तो यही कहूँगा जहां भी रहो खुश रहो।

'जीवन का सम्मोहन'

Tuesday, December 2, 2014

दिसम्बर की सुबह

देखते ही देखते खत्म होता जा रहा एक और साल। जिस साल तुमसे मिलना हुआ था उस साल की शक्ल मुझे याद है।वो दिसम्बर नही जनवरी के बाद का कोई महीना था जब तुम्हारी आमद हुई थी। साल का बदलना एक स्वाभाविक घटना है मगर वक्त का थम जाना या फिर किसी ख़ास लम्हें में अटक जाना कई अर्थों में सामान्य नही है। एक अरसे से मै खुद से मानसिक ऊब का शिकार रहा हूँ।एक ख़ास वक्त के बाद सब चीजे छूटती चली जाती है इसलिए कभी लगा नही था कि तुम्हारे दस्तखत मन पर इतने गहरे हो जाएंगे कि रह रह कर तुमको पाने और खुद को खोने का अहसास होने लगेगा।
इस साल की सर्दी में एक बुनियादी फर्क यह भी महसूसता हूँ कि अब कुछ नर्म यादें मुझे सतत ऊष्मित रखती है मै उनके सहारे सुबह शाम अकेला छत पर टहलता हूँ। दिसम्बर का यह महीना इतनी तेजी से मेरी यादों से फिसल रहा है कि मै तुम्हें दोनों हाथों में भर समेटना चाहता हूँ तुम्हारा अस्तित्व इतना आणविक किस्म का हो गया है कि मेरे लिए तुम्हारी सूक्ष्मता को संग्रहित करना आसान नही है।
कभी कभी आँखें मूंदे अर्द्ध स्वप्न में तुम्हें सोचता हूँ और फिर सोचता ही चला जाता हूँ अमूर्त आकारों को संधि विच्छेद करता हूँ तुम्हारी एक साफ़ आकृति मेरे पास है मगर वो किसी एक फ्रेम में आने से इनकार कर देती है वो जीना चाहती है निर्बन्धन। उसके इस पवित्र आग्रह से मेरा मन की आबद्धता क्षण भर में दूर हो जाती है और फिर मै तुम्हें सम्बोधन उपमाओं के अदृश्य पिंजरे से मुक्त कर देता हूँ।
तुम्हारी उन्मुक्त उड़ान से मुझे भी हौसला मिलता है और खुद को भी मुक्त कर देता हूँ। यह मुक्ति व्यापक अर्थों में एक किस्म का बंधन या जुड़ाव है पिछले साल दिसम्बर में जो बातें तुम्हारे बारें में सोच रहा था लगभग इस दिसम्बर में भी वही विषय है परन्तु उनकी लोच बदल गई है। अब तुम्हें पाने का जुनून या खोनें का भय नही है हाँ बस तुम्हें आसपास देखना चाहता हूँ।
अब हमारे बीच सम्वाद में शब्द धीरे धीरे लोप होते जा रहें है अब हमारे सम्वाद के अक्ष बदल गए है अब साँसे आपस में बातें करना चाहती है स्पर्श गहरी पवित्र पारस्परिक दोस्ती की अभिलाषा लिए प्रार्थनारत है। मन की अभिवृत्तियां शब्द जाल को परखना चाहती है वो बुद्धि और अह्म के चमत्कारों से इतर अपनी मैत्री की सम्भावना तलाश रही है।
साल का क्या है? इसे तो बीतना ही होता है हर साल मगर इस साल दिसम्बर मुझे तुम्हारे उस अज्ञात का पता देकर जा रहा है जिस पर दिल के पाक जज्बातों के खत लिखे जा सकते है मै इस उम्मीद पर अपने कागज कलम और मन को तैयार कर रहा हूँ कि मेरे लिखे ये खत तुम कम से कम अगले दिसम्बर तक जरूर पढ़ पाओगी। ये बैरंग मुझ तक न लौटें इसकी फ़िक्र इस दिसम्बर में भी मेरी धड़कन तेज और कान लाल कर रही है साथ ही एक आश्वस्ति भी है कि इन नए पतों पर पुरानी बात जरूर दस्तक देगी।
यह जाता हुआ साल कुछ कुछ भोर के स्वप्न को जागकर याद करने जैसा है कितना सच है यह बात शायद अगले दिसम्बर तक ही पता चल सकेगी तब तक के लिए खुद को छोड़ देता हूँ एक नए साल के हवालें तुम अच्छा बुरा सब सम्भाल लोगी इस बात के सहारे पहली बार नए साल में जाने से पहले डर नही लग रहा है मै मुस्कुरा रहा हूँ दिसम्बर की सुबह की तरह।

'दिसम्बर जा रहा है'