Friday, December 19, 2014

साथ की बात

अकेला मुझे कहीं नही पहूँचना था। अन्तस् पर भले ही नितांत अकेला था मगर वो एकांत की शक्ल में सुख का अकेलापन था। सफलता और असफलता दोनों की तरफ बढ़ते गए एक एक कदम मुझे अकेला करने की कवायद थी। मेरे हाथ हवा में अकेले झूलते थे मेरी हथेलियों का तापमान शून्य से कुछ दशमलव नीचे था। मेरी ऊँगलियां कड़ाके की सर्दी में भी आपस में एक दुसरे को गर्माहट देने से साफ़ इनकार रखती थी। वो अपनें बीच में इतनी जगह की गुंजाइश हमेशा बनाकर चलती कि एक दुसरे हाथ की जुम्बिश बन सके। वक्त की तमाम चालाकियों के बावजूद मन से हाथ थामनें की हिम्मत नही गई थी। मनुष्य नितांत ही अकेला है यह दार्शिनक सत्य जानने के बाद भी मेरी साथ की अभिलाषा बनी रही। यह साथ मेरी आशा की अवैध सन्तान थी जिसमें स्वार्थ नही था मगर साथ बना रहने की एक शाश्वत चाह अवश्य थी।
ये एक किस्म का पागलपन था। भीड़ से घिर जाने के बाद और तथाकथित रूप से सफलता के जश्न के बीच भी मेरा आवारा मन वहां से चुपचाप खिसक लेता और वो मेरी जड़ो की तरफ लौट आता। फिर वहां के मामूली चेहरे तलाशता और उनकी तरफ हाथ बढ़ाता। जिसमें कुछ दूर मेरे साथ चलने के आग्रह शामिल होते थे।
विचित्र पागलपन के साथ मै ये ख़्वाब देखता कि अपने सामर्थ्य के चरम शिखर पर भी अपने बचपन के दोस्त जो बेहद मामूली जिंदगी जीता है उसको अपने साथ ले कर चलूँ उसे पंचसितारा होटल के बीयर बार में बैठाकर खुद ड्रिंक सर्व करूँ उसे दुनिया के बड़े नगरों की सैर कराऊँ। अपने बचपन के उस दोस्त के किस्से सुनता रहा हूँ भूल जाऊं कि मेरे ज्ञान का विस्तार कितना है।
ये हाथ थामनें की चाह प्रायः एकतरफा ही थी क्योंकि आप अपने सम्पूर्णता में होने का दावा कर सकते है मगर सामनें वाले का हाथ यदि उसके कन्धे से कटकर दिमाग से जुड़ा हो तो फिर वो हाथ मिलाने के नाम पर आप कष्ट भी पहूँचा सकता है। कष्ट में जीना मेरे जीवन के अभ्यास में शामिल हो गया था इसलिए कई बार अपनें नर्म हाथ में मैंने अंगारे बोने वाले हाथ भी पाएं मगर मेरे मन की नमी से मेरी हथेलियाँ सुरक्षित रहती थी। हाँ ! मेरी कुछ हस्तरेखाएं जरूर अनावश्यक दबाव में अस्त व्यस्त हो जाती थी मगर खुद की किस्मत खुद ही लिखने के जूनून में मुझे उनकी कभी कोई परवाह भी नही रही।
असफलता का चरम भोगने के बावजूद भी मैंने अपने हाथ खुले रखे क्योंकि मुझे अकेला कहीं नही पहूँचना था। बार-बार आहत होते टूटते बिखरते वजूद ने कई दफा इस आदत के चलते मुझे लानत भेजी मगर मै खुद की भावुक मूर्खता पर अब खुश रहना सीख गया था।
खुद को जानबूझकर तकलीफ़ देना सही नही था मगर सही गलत से ज्यादा जरूरी मेरे लिए मेरा ऐसा होना था। जो कम से कम इतना मतलबी और केलकुलेटिव कभी नही हो पाया कि केवल और केवल खुद के ही बारें में ही सोच सकें। यही एक वजह थी कि मै दुनिया का सबसे अकेला इंसान था मगर इसके बावजूद भी मेरे हाथ बेफिक्री से खुले हुए थे कभी जिन्हें मै आगे बढ़ाता था तो कभी अपनी आँखें मलनें लगता था।

'हाथ-साथ-बात'

No comments:

Post a Comment