Thursday, January 31, 2019

‘आधे-अधूरे ख़त’


इनदिनों जी उदास रहने लगा है. शायद ये बदलते मौसम का असर है. सर्दियों के जाने की बाट मन अब जोहने लगा है. पिछली सर्दियों में तुमसे मिलना हुआ था इस बार की सर्दियां तुम्हारी यादों के अलाव सेंकते हुए कटी मगर आखिर होने तक यादें भी जलकर भस्म बन गई हैं. मौसम के हिसाब से तुमसे कभी मिलना नही रहा मगर तुमसे मिलने का जरुर एक मौसम हमेशा रहा है. मन का क्या है. मन तो रोज ही करता है तुम्हें सामने देखूं मैं मन की नही सुनता हूँ मैं दिमाग की सुनता हूँ जो मुझसे रोज यह कहता है कि दुनिया में हर हासिल चीज की एक कीमत होती है और तुमसे मिलने की भी एक कीमत है. उस कीमत को जानने के बाद मैं अपनी जेब टटोलता हूँ तो वहां कभी न चलनें वाले कुछ सिक्के पड़े हैं मैंने उनका उपयोग यदा-कदा अकेले में टॉस करने के लिए करता हूँ. मैं टॉस में अक्सर तुम्हें हार जाता हूँ और एकदिन मेरी जीत होगी इसलिए मैं कुछ सिक्के इसलिए हमेशा अपनी जेब में रखता हूँ.
इनदिनों मुझे एक खराब आदत यह भी हो गई है कि मैं रात को अकेला गलियों में भटकता हूँ मुझे पता है कि ये रास्तें आपस में भाई है और ये मनुष्य को कहीं नही पहुंचाते हैं फिर भी मैं रास्तों को चकमा देने की एक निष्फल कोशिश करता हूँ इसके लिए मैं जिस रास्तें से जाता हूँ उस रास्तें से लौटता नही हूँ मेरे ऐसी पकड़ में आने वाली चालाकी देखकर आसमान भी हँस देता है. मैं रात को तारें देखकर उनसे मन ही मन एक सवाल पूछता हूँ मगर उन तक मेरी बात चाँद नही पहुँचने देता है. चाँद आसमान का अकेला ऐसा मसखरा है जो सबकी बातें जानता है मगर उन बातों का कहीं जिक्र तलक नही करता इसलिए मेरी कोई बात, मेरा कोई सन्देश कभी तुम्हें नही मिलेगा.
आज भोर में मैंने एक सपना देखा. सपनें में मैंने देखा कि मेरे दोनों कानों में दो झूले पड़ गए है और उन झूलों पर कोई झूल नही रहा है मगर वो जोर-जोर से अपनी पींग भर रहें हैं.उन्हें अकेला पींग भरता देखा मुझे थोडा डर लगा मगर फिर सपनें में ही मुझे किसी ने बताया कि अकेले पींग भरना एक शुभ संकेत है. उसके बाद मैं आँखें बंद करके तुम्हारी हँसी के बारें में सोचकर मुस्कुराने लगा. उसके बाद एक नीरव शान्ति छा गई. मैंने मुस्कुराते हुए आँखें खोली तो सपना टूट गया. आँख खुलने पर मैं देर तक यही सोचता रहा कि वो सपनें कैसे होते होंगे जिनकी टूटने की कोई वजह नही होती होगी मगर फिर भी टूट जाते होंगे? यह सोच कर फिर से मेरा जी उदास हो गया.
अच्छा सुनो ! मैं कई दिनों से यह बात सोचा रहा हूँ कि मैं  कुछ दिनों के लिए खुद को नेपथ्य में रख लूं मुख्यधारा के प्रकाश से मुझे असुविधा होती है. मैं मंचो के सत्कार से ऊब गया हूँ. मेरी अंदर कोई थकन नही है फिर भी मैं विश्राम की कामना में लगभग प्रार्थनारत हूँ.  यह विश्राम हो सकता है अलगाव या पलायन की ध्वनि दे रहा हो मगर वास्तव यह दोनों ही बातें नही है. दरअसल मैं तुम्हें याद करते-करते अब  पुनरुक्ति दोष का शिकार हो गया हूँ मुझे नही पता तुम मुझे कितना,कब और कैसे याद करती हो मगर इतना जरुर पता है कि तुम्हें  जब भी मैं याद आता हूँगा तो कम से कम तुम मेरी तरह खुद से बातें जरुर करनें लगती होंगी.
मेरे पास अब केवल कुछ अनुमान बचें है और अनुमानों के भरोसे तो ज्योतिष में भी कोई भविष्यवाणी नही की जा सकती जबकि उसे अनुमानों का विज्ञान कहा गया है इसलिए मैं अपने अनुमानों को अब विराम देना चाहता हूँ मैं चाहता हूँ कुछ दिन तुमसे तुम्हारे अनुमानों के बारें में बातें सुनूं वो भी इतनी स्पष्ट की अनुमानों को सच करनें के लिए सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड अपनी समस्त ऊर्जा लगा दें. कलियुग में जिसे संभवाना का षड्यंत्र कहा गया है मैं उसे घटित होते हुए देखना चाहता हूँ क्योंकि फिलहाल विकल्पों के रोजगार से मैं ऊब चुका हूँ.

‘आधे-अधूरे ख़त’
© डॉ. अजित




Thursday, January 24, 2019

‘चाय और यादें’


आज सुबह चाय पीते वक्त तुम्हारी याद आयी. याद क्या आयी मैं चाय बनाते वक्त एक गीत गुनगुना रहा था उस गीत में नायिका अपने नायक को कहती है कि शायद अब इस जन्म में तुमसे मुलाक़ात हो न हो. तभी चाय पर उबाल आ गया मैंने उबाल को फूंक से नीचे धकेलना चाहता था मगर ठीक उस वक्त मुझे तुम्हारी इतनी गहरी याद आई कि मैंने पेन को बर्नर से उतार दिया. चाय का उफान उतर चुका था मगर मेरे मन में बरबस एक उफान उठ खड़ा हुआ. चाय छानते हुए मैंने सोचा चाय छानते समय तुम्हारी हड़बड़ी क्या अब भी पहले के जैसे होगी? या अब तुमने खुद की साँसों का अनुशासन साध लिया होगा.
सुबह की चाय की घर घूँट पर मैंने तुम्हारी न बदलनें वाली आदतों को बड़ी शिद्दत से याद किया. यादों की एक सबसे खराब बात यह होती है कि ये अपनी सुविधा आती है भले ही हम उसके लिए तैयार हो या न हो. यादें आकर हमें हद दर्जे तक अस्त-व्यस्त करने की जुर्रत रखतीं हैं. आज चाय में थोडा मीठा कम रह गया हालांकि मैं कम मीठी चाय ही पीता हूँ मगर आज उतनी मिठास नही थी जितनी मुझे चाहिए फिर मैंने किसी सिद्ध मान्त्रिक की तरह चाय में फूंक मारते हुए तुम्हारी चंद मीठी बातों को चाय के अंदर फूंक दिया ऐसा करने के लिए मुझे अपनी याददाश्त पर थोड़ा जोर जरुर देना पड़ा क्योंकि तल्खियों की स्मृतियाँ हमेशा अधिक जीवन्त रहती है मगर एक बार तुम्हारी मीठी बातें जब याद आई तो फिर चाय की मिठास खुद ब खुद बढ़ गई. मैंने अपने होंठो पर ज़बान फेरी तो याद आया कि कुछ अक्षर वहां अकेले ठहल रहें थे मैं उनके निर्वासन में हस्तक्षेप का अधिकार खो बैठा हूँ यह सोचकर मेरा जी थोड़ा उदास जरुर हो गया.
इनदिनों मैं चाय के बहाने किसी को भी याद नही करता हूँ मुझे लगता है याद के लिए किसी बहाने की जरूरत नही होती है . बीते कुछ दिनों से मैंने चाय मौन के इर्द-गिर्द और लगभग निर्विचार होकर पी है. अधिकतम मैं यह करता हूँ कि छत पर चला जाता हूँ फिर वहां से शहर को देखता हूँ. रोचक बात यह है कि शहर को देखते हुए मैं केवल शहर को देखता हूँ मुझे गलियाँ और मकान दिखने बंद हो जाते है. कभी लगता है शहर ऊंघ रहा है तो कभी मुझे शहर भागता दिखायी देता है. कुल जमा दो –चार-छह दृश्यों में चाय खत्म हो जाती है.
आज सुबह चाय पीने के बाद मैंने सोचा कि आज तुम्हें फोन करूंगा मगर दिन चढ़ते-चढ़ते यह विचार भी निस्तेज होकर मन के पतनाले से बह गया. मैं देर तक सोचता रहा कि याद आने और बात करने में कोई सह-सम्बन्ध हो है नही इसलिए किसी की याद आने पर उसे क्या फोन करना. हो सकता है मैं तुम्हें उस दिन फोन करूं जिस दिन मुझे तुम्हारी बिलकुल याद न आई हो. फोन शायद एक जरूरत से जुडी क्रिया और यादें किसी जरूरत की मोहताज़ नही हैं.
शाम को तुम्हारी याद मुझे खुद से बेदखल न कर दें इसलिए मैंने तय किया है कि आज शाम कॉफ़ी पियूंगा वो इसलिए क्योंकि कॉफ़ी तुम्हें पसंद थी और मुझे नापसंद. मगर इसका यह मतलब बिलकुल भी नही है कि तुम्हारी यादें मुझे अकेला छोड़ देंगी वो कॉफ़ी के बहाने से भी जरुर आएँगी इस बार फर्क बस इतना होगा वो मुझसे कोई सवाल नही करेंगी और सवालों से बचता-बचाता मैं जीवन के उस दौर में पहुंच गया हूँ जहां अब मुझे एकांत में शराब और भीड़ में चाय दोनों की ही जरूरत महसूस नही होती है. हालांकि यह एक खराब बात है. खराब क्यों हो तुम बेहतर जानती हूँ. हमारी आखिरी चाय इसी बात के कारण आज स्थगित पड़ी है.  

‘चाय और यादें’
© डॉ. अजित