Thursday, March 13, 2014

उपक्रम

मेरी कला के सारे उपक्रम तुम्हे पाने के साधन बनने ही वाले थे कि अस्तित्व ने अपना खेल रच दिया उसकी हितकामना मेरे सृजन के उचित प्रयोग के लिए थी यह एक स्तुति और उपमा करने वाले भाट बनने से रोकने का एक समयोचित हस्तक्षेप भी कहा या समझा जा सकता है। कला और काव्य की मेधा जनपीड़ा की अभिव्यक्ति का जरिया बनें यही प्रकृति भी चाहती है लेकिन तुमने उसको अपना मानवीय कमजोरियों की हितपूर्ति का साधन बनाया मुझे अफ़सोस इस बात का कि तुम्हारी कमजोरी स्नेह की अभिलाषा मात्र थी तुम यह भूल गए कि रिक्त तिक्त और साफ़ मन के उपजे निर्वात को भरने के लिए इस मायावी दुनिया में किसी के पास समय नही होता और सबसे बड़ी बात पल पल ठगी हुई दुनिया में विश्वास नही होता है। यही विश्वास की कमी तुम्हे हर बार छलती रहेगी तुम शापित हो छले जाने के लिए। दुनिया में जीने का सीधा मतलब होता है इतना धूर्त होना कि तुम्हारी सच्चाई कोई न सूंघ सके तुम्हारी अभिव्यक्ति में इतना शातिरपना होना चाहिए कि उसमे कोई अपनी उपयोगिता या अपने मतलब की चीजें सतत ढूंढ सके।
तुमने सच कहा और पकड़े गए संदेह की कसौटी पर न जाने कितनी बार कसने के बाद भी तुम कृपांक से उत्तीर्ण हो पाए मेरी नजरों में तुम सीधे तौर पर फेल हुए हो इंसानों को समझने की कक्षा में।
हे ! पराजित और ढपोरशंखी इंसान यदि जरा व्यवहारिकता और अपने फन का सम्मान तुम्हारे अंदर जिन्दा है तो उठाओ अपना झोला इस स्कूल से और अपने हिस्से की जुगुप्सा और वितृष्णा को भोगकर बुद्ध बन जाओ तभी इस मतलबी दुनिया में कुछ दिन जिन्दा रह सकोगे अन्यथा दूसरो के अनुभव की परिणिति बन भोगते रहो न समझे जाने जाने का दंश दोनों ही हालात में चयन तुम्हारा होगा सोच लो अगर दुनियादारी के हादसों के बाद तुम्हारे अंदर सोचने की हिम्मत बची है।