Wednesday, September 25, 2019

अकेलापन-अकेलामन

अकेलापन के कितने ही पाठ हो सकते हैं. कोई भीड़ में भी अकेला होता है तो किसी के अकेलेपन पर रश्क हो सकता है. अपने अन्तस् में अकेलेपन के अलग-अलग टापू होते हैं. जो हमें हाथ पकड़कर अपने साथ ले जाते है. दुनिया भर के मनोवैज्ञानिक अकेलेपन को अपने ढंग से परिभाषित करते हैं. दार्शनिक एकांत और अकेलेपन को आत्म जागरण के टूल के तौर पर देखतें है और रचनात्मक लोग अकेलेपन को खुद से मुलाकात के लिए जरूरी समझते हैं.

बुनियादी तौर पर यह सवाल थोड़ा टेढ़ा मगर रोचक है कि मनुष्य को अकेलेपन से डर क्यों लगता है? ऐसा क्या है उसके पास जिसे वो शेयर चाहता है? और क्यों करना चाहता है.

मन के विराट आंगन में एक कोना ऐसा होता है, जहां हम किसी का हाथ पकड़कर घूमना चाहते हैं उसके जरिए अपने अंदर कि वो दुनिया देखना चाहते है जिसे देख पाने की शायद अकेले हमारी हिम्मत नही होती है.
कहना क्यों जरूरी होता है? और उस कहने के लिए एक साथ क्यों अपरिहार्य लगने लगता है? क्यों के जवाब अकेलेपन के सन्दर्भ में जानने की कोशिश करना एक जोखिम भरा काम हो सकता है क्योंकि यहाँ बात खिसक कर मानवीय कमजोरी की तरफ जा सकती है.

खुद के अंदर पसरे एकांत से बिना अभ्यास और तैयारी के मिलनें से गहरा अवसाद जैसा कुछ प्रतीत हो सकता है और बोध के साथ अन्तस् में उतरने में यही अकेलापन उत्सव में भी परिवर्तित हो सकता है. मनुष्य के मन और जीवन को समझने के लिए विश्लेषण प्राय: किसी काम नही आता है. विश्लेषण भ्रम को बढ़ाता है हमें पूर्वाग्रहों से भरता है. जबकि जीवन को देखने के लिए उसे केवल जीना पड़ता है. यहाँ मैं केवल इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि यह केवल हर दौर में एक दुर्लभ घटना के तौर पर उपस्थित रहा है.
सोल मेट एक उत्तर आधुनिक और रोमांटिसिज्म से उपजी अवधारणा है. क्या सोल मेट और मनुष्य के अकेलेपन में कोई सकारात्मक सह-सम्बन्ध हो सकता है? मूलत: मैं इस अवधारणा को अप्राप्यता का मानवीयकरण के तौर पर देखता हूँ शायद खुद की बेचैनियों के जब सही जवाब न मिलें होंगे तो मनुष्य ने उनके जवाब एक अज्ञात सोल मेट के भरोसे हमेशा के लिए स्थगित कर दिए होंगे.

‘अकेलापन एक राग है
एक आधा-अधूरा राग
जिसके आरोह-अवरोह
में जीवन सांस लेता है
और जिसकी बंदिशों पर
सोल मेट रहता है
हमारा मन वो उन छोटी-छोटी
मुरकियों से बना होता है
जो आह और वाह के मद्धम स्वर के साथ
गाई जाती है मन ही मन में.’


‘अकेलापन-अकेलामन’


© डॉ. अजित

Thursday, September 12, 2019

‘तुम्हारे जन्मदिन पर’


‘तुम्हारे जन्मदिन पर’
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जन्मदिन पर कुछ उपहार देना जमाने की रवायत रही है. मगर मैं जब भी तुम्हें कुछ देने की सोचता हूँ तो सिवाय प्यार के मुझे अन्य कोई भौतिक वस्तु दिखायी ही नही देती है. सुनने में यह एक छायावादी बात है मगर महसूसने पर यह उससे अधिक कुछ है. अब दूसरा सवाल यह मेरे मन में अक्सर उठता है कि किसी को प्यार कैसे दिया जा सकता है. प्यार इतना भारहीन शब्द है कि शायद यह मेरे शब्दों से तुम्हारे कान तक पहुँचने की यात्रा तक में इस दुनिया में कहीं न कहीं खो जाएगा. इसी डर से मैंने आज तक इस प्यार को तुम तक पहुंचाने की कोशिश नही की यह अलग बात है कि मेरे अंदर इस प्यार का पर्याप्त भार मौजूद है शायद इसी कारण आजतक मेरे पैर ज़मीन पर टिके हुए है.
जन्मदिन पर लोग किस्म-किस्म की बातें करते हैं सबके अपने तौर-तरीके है बधाई देने और लेने के मगर मैं आजतक वो एक तरीका नही तलाश पाया जिसके माध्यम से मेरे मन की एक छोटी सी शुभकामना ठीक वैसे स्वरूप में सम्प्रेषित हो.वो मेरे मन में जन्म लेती है मगर शुभकामनाएं जग में इस कद्र अकेली है कि उन्हें भीड़ में अकेला साफ तौर परे  देखा जा सकता है इसलिए मैं फिलहाल तुम्हें कोई एकांत से भरी चीज देने की हिम्मत खुद के अंदर नही पाता हूँ.
जानता हूँ. उम्र का क्या है? तो पल-प्रतिपल बढ़ती ही जाती है. जन्मदिन के दिन मेरा वह हिसाब मांगने का मन होता है जो तुम्हारे अंदर दिन प्रतिदिन के हिसाब से घट रहा है. शायद प्यार भी उसी भीड़ में कहीं दुबका खड़ा है मगर मैं उसे घटने वाली भीड़ से निकाल लूंगा इसका मुझे पूरा भरोसा है. तुम भी सोचोगी कि आज के दिन मैं क्या हिसाब-किताब लेकर बैठ गया? और मुझे यह अधिकार किसने दिया है कि मैं तुम्हारे अन्तस् की मांग और आपूर्ति की आर्थिकी तय करने लग जाऊं? इसलिए यह विचार भी मुझे बहुत आकर्षक नही लगता है. अधिकार से मुझे याद आया कि एक बार तुमनें हँसते हुए कहा था अधिकार का आरक्षण पुरुष बिना सहमति के तय कर देता है और मैं तब गम्भीर होकर जवाब दिया था अधिकार का आरक्षण नही होता है बल्कि अधिकार मन के हर किस्म के आरक्षण को समाप्त करके अपनी एक जगह बनाता है और वो जगह कभी एक दो आँखों से नही देखी जा सकती है उसके लिए चार आँखे जरूरी होती है. उसके बाद तुमनें अपने हाथों से मेरी आँखे बंद कर दी थी.
आज के दिन मैं कोई मायूस बातें नही करना चाहता हूँ क्योंकि तुम्हीं ने एक बार कहा था कि निराश पुरुष धरती को असहनीय लगता है और निराश स्त्री के लिए आसमान धरती पर एक रास्ता बनाता है. आज खुशी का दिन है. खुशी के दिन अच्छी बातें करनी चाहिए और अच्छी बातों में एक सबसे अच्छी बात मेरे पास यह है कि जिन दिनों मैं तुमसे कुछ प्रकाशवर्ष की दूरी पर था उन दिनों मैंने काल गणना की एक नई विधि सीखी है जिसके माध्यम से मैं देह और जन्म से परे तुम्हारे साथ भूत और भविष्य की यात्रा कर सकता हूँ. इस विधि के माध्यम से मैं यह जान पाया कि अधिकाँश जन्मों में तुम मुझे अप्राप्य ही रही. यह बात मुझे खुशी देती है क्योंकि मुझे यह बात इस यात्रा के दौरान पता चली कि किसी को पा लेना ठीक उसी दिन उसको खो देना भी होता है और मैं तुम्हें कभी खोना नही चाहता.
थोड़ी सी बातें तुम्हारी हँसी पर करना चाहता हूँ मगर उससे पहले तुम्हारा गुस्सा मेरे सामने खड़ा हो जाता है. तुम्हारा गुस्सा इतना अपरिमेय किस्म का होता है कि उस पर यह उक्ति बिल्कुल लागू नही होती है कि क्रोध में विवेक का क्षय हो जाता है. तुम्हारे क्रोध में मैंने तुम्हें प्राय: सत्य के निकट पाया है. हाँ रुखी बातें सुनने में किसे अच्छी लगती है? मगर अगर उन बातों के निहितार्थ विकसित किए जाएं तो उन सब बातों में तुम्हारी मेरे लिए एक दीर्घकालिक चिंता साफ़ तौर पर पढ़ी जा सकती है. तुम्हारे गुस्से के बाद मेरा आत्मलोचन अह्म से मुक्त रहा है इस बात के लिए मेरा मन सदैव कृतज्ञ रहता है.
तुम्हारी हँसी के बारें में बातें करना तुम्हें पसंद नही है कि क्योंकि तुम्हें लगता है कि बातें बनाना मेरा अधेय्वसाय है. और ऐसी बातें मैं अलग-अलग लोगों से अलग-अलग समय पर एकसाथ करता रहता हूँ. मेरी बातों में छल नही होता है इस पर तुम्हें भरोसा है इसलिए मैंने कभी तुम्हारी मान्यताओं का खंडन नही किया. मगर तुम्हारी हँसी ठीक वैसी है जैसे कवियों में शशि. जिसकी कलाओं पर भिन्न पर टीकाएँ की जा सकती है और तुम्हारी हँसी के इतने पाठ हो सकते है कि मैं उनमें से व्यंग्य,प्रेम,मनुहार और प्यार को छानकर निकालना किसी भी मनुष्य के लिए लगभग असंभव है. मगर तुम्हारी यह गुह्यता तुम्हारी सबसे बड़ी पूँजी है.
खैर ! मेरी आदत है कम बोलता हूँ मगर जब बोलने लगता हूँ तो फिर बातों में से बातें निकालता चला जाता हूँ ऐसा करना मेरी किसी योजना का हिस्सा नही है मगर आज तुम्हारे जन्मदिन पर जब मेरे पास देने के लिए कोरी शुभकामनाएँ नही थी तो सोचा कम से कम से ये फुटकर बातें ही तुम तक पहुंचा दूं जिन्हें जल्दबाज़ी पढ़कर तुम कहो कि फुरसत मिलते ही पढ़ती हूँ और वो फुरसत फिर एक साल के लिए टल जाए.
इस तरह से एक साल बीते और अगले साल फिर से मैं ऐसा कहूँ जिस पर तुम्हारा दिल यकीं करें और दिमाग उसे खारिज करें. तुम्हारी ये कशमकश ताउम्र चलती रहे और मेरी आधी-अधूरी कलम फ़िलहाल यही शुभकामना मेरे पास बची है जो न भीड़ में अकेली है और न नितान्त ही औपचारिक.
शेष सब सुख हो.
अजित