Thursday, April 30, 2015

सफर और नोट्स

मुझे हासिल क्या किया तुमनें, तुम्हारें खुद के बनाए सारे पैमाने ही ध्वस्त हो गए। मेरा बिखरा हुआ वजूद दूर से जो कौतुहल पैदा करता था नजदीक से देखने पर तुम्हें फिक्रमंद करनें लगा है।तुम्हारी बैचेनियों की गिरह रोज खुलतें-बंधते हुए देखता हूं। तुम मुझसे जुडी स्मृतियों को एक सुखद ख्वाब समझ कर भूलना चाहती हो क्योंकि अब मेरा अज्ञात तुम्हें बुलाता नही है। एक लम्बें समय तक तुम अपने जीवन में मेरी भूमिका को लेकर उधेडबुन में रही अंत में खुद से लडते हुए तुमनें अपना तयशुदा बडप्पन ही चुना। दरअसल तुम्हारा जीवन बाहर से जितना बहुफलकीय और घटनाओं से भरा दिखता है अन्दर से वहां एकालाप का उतना ही एक गहरा सन्नाटा है यह बात तुम भी जानती है और संयोग से मै भी मगर तुम कभी इसे स्वीकार नही करोगी यह बात भी जानता हूं।
तुम्हारें व्यक्तित्व में जिज्ञासा का थोडा सतही रुपांतरण हुआ है शायद यही वजह है कि जिस प्रयोगधर्मिता को तुम अपना कौशल समझती है वह दरअसल तुम्हारें मन के अस्थिर आवेंगो का खुरदरा प्रतिबिम्ब भर है। यह बात कहनें में बडा ही विचित्र किस्म का दार्शनिक सुख देती है कि कोई भी चीज़ मुझे स्थाई आकर्षण में नही बांध पाती ! इसके पीछे का मनोवैज्ञानिक सच पता है क्या है? तुम्हारे अंदर खुद के कमजोर पड जानें का डर इतना गहरा व्याप्त है कि तुम अनुराग को अपनी चौखट की बाहर से ही बुद्धि की युक्ति से विदा करती आई हो मेरे हिसाब यह तुम्हारी सबसे बडी ज्ञात निर्धनता है।
जितना तुम्हें समझने की कोशिश करता हूं उतना ही सुलझता जाता हूं क्योंकि तुम्हारी उलझन को मै देख सकता हूं यह बात मै तुमसे कभी कहना नही चाहता था मगर कभी कभी जब तुम जीवन को अनुभव के चश्में से देखती तो तुम्हें खुद की होशियारी पर बडा फख्र होता है कि कैसे तुमनें अपनी यात्रा की विविधता को बिना कहीं अटके जारी रखा है मै उस वक्त तुम्हारे चश्में के पीछे की आंखों को पढ रहा होता हूं जो तुम्हारें मन के मानचित्र के निर्जन टापू का मानचित्र लिए उदास बैठी होती है।
मन के खेल बडे विचित्र किस्म के होते है यह बुद्धि को भी सांत्वना के सूत्र बांट सकता है उसे आत्ममुग्धता के खेल में अभिभूत कर सकता है मगर मन की एक कमजोरी होती है ये बिना बताए एक जिद पाल लेता है और जहां भी उस जिद से मिलता जुलता सामान दिखता है यह हमारें कदम रोक देता है। मेरा अस्तित्व तुम्हारी किसी खोई हुई जिद के आसपास का कोई बिखरा हुआ टुकडा रहा होगा तभी तुमनें उसको उठाया और अपने फ्रेम की कोई एक तस्वीर पूरी कर ली। मै कोई अकेला या अनूठा किस्म का व्यक्ति नही रहा हूं जो मै इस गर्व से भरा रहूं कि तुमनें मुझे चुनकर मेरा मूल्य पहचाना है दरअसल मै तो एक बडी फोटो एल्बम का एक छोटा सा टुकडा भर हूं जिसकी भूमिका एक पेज़ तक ही सीमित है जिस दिन कोई नई स्मृति कैद होगी मेरा पेज़ वक्त स्वत: ही पलट देगा फिर कभी गाहे-बगाहे नई पुरानी स्मृतियों के मेलें में कुछ लम्हें के लिए जरुर तुम्हारी आंखों के सामनें से गुजर जाया करुंगा। इस पर तुम हंसोगी या उदास हो जाओगी यह अभी नही बता सकता हूं।
खैर...! जिन्दगी की खूबसूरती कुछ लोग इससे गुजर कर महसूस करतें है कुछ लोग ठहर कर इसलिए किसी के तरीके पर सवाल खडा करने का कोई मतलब नही बचता है। अपनें बारें इतना जरुर बता सकता हूं मै लम्बें समय से वक्त के किसी एक पहर में अटक गया हूं और उसी के लिहाज़ से कभी जिन्दगी के खूबसूरत होने की बात करता रहता तो कभी उदासी के मज़में लगा लेता हूं। तुम्हारा चयन यात्रा के नाम पर अनुभवों का चयन है इसलिए अनुभूति अक्सर निर्वासित हो जाती है जब तक तुम अनुभव के तल से मुक्त नही हो जाओगी तब तक शायद तुम्हें रास्तें के मील के पत्थरों से दोस्ती करनें की फुरसत नसीब नही होगी। फिलहाल तुम मार्ग और साधनों के विमर्श में व्यस्त इसलिए मेरा तुम्हें कितनी भी आत्मीयता से आवाज़ लगाना शायद अप्रिय लग सकता है या तुम मेरे बचपनें पर भी खीझ सकती हो इसलिए मैं मौन होकर केवल देख सकता हूं और उम्मीद कर सकता हूं जिन्दगी के किसी मोड पर तुम जरुर मिलोगी और पुरानी दोस्ती के हक की बिनाह पर यह कहोगी यार तुम ठीक कहते थे तब ! क्योंकि हर वक्त मै और मेरी बातें सही ही रहेंगी इसकी भी कोई तयशुदा गारंटी नही है।
फिलहाल देने के लिए शुष्क शुभकामनाएं ही है जानता हूं कम से कम तुम्हें इस वक्त इनकी बिलकुल भी जरुरत नही है। फिर भी दे रहा हूं ताकि वक्त बेवक्त पर तुम्हारे काम आ सके।

‘सफर के नोट्स

Monday, April 20, 2015

टेलर मास्टर

टेलर की दुकान पर पड़ी कत्तरें कितनी ही रंगीन क्यों न हो कतर ब्योंत उनके रंग को भी खा जाती है। अलग अलग आकार में कटी पड़ी कत्तरें अपने रंग को भूल सफेद रंग से थोड़ी शान्ति उधार मांगती है इस सफेद कत्तर अपना एक कोना चुपचाप हिला देती है। इन्चिंग टेप से मास्टर जी लोगो के कद औ हद नाप रहे है लोग सीना फुलाने के चक्कर में पेट अंदर नही करते है क्योंकि यहाँ का झूठ साल भर भारी पड़ सकता है उनके आग्रह बेस्ट फिटिंग की है और टेलर मास्टर किसी व्यस्त डॉ की तरह उनका आधा मर्ज़ ही सुनकर अपनी बिल बुक में संकेताक्षरों में उनकी पैमाइश दर्ज करता जाता है। मास्टर जी की दुकान के डिस्प्ले बोर्ड कुछ बूढ़े कोट लाइन से टंगे है उन्हें हैंगर पर टांग दिया गया है वो गर्व से भरे पुरुषों के कंधें को ढकनें की आस खो चुके है वो कोसते है मन ही मन कि क्यों उन्हें थान की विराट से निकाल कर यहां सजा दिया गया है उनकी जेब में हवा तक नही जाती वें उन पुरुषों को श्राप देतें है जिन्होंने उनको टेलर के यहां से ले जानें में महीनों या बरस भी लगा दिए है। वे एक दुसरे को सांत्वना देते है और खुद पर लगे कागज के टैग (जिस पर उस रसीद का नम्बर लिखा है जब उनके लिए नाप ली गई थी) के पीलेपन को देखकर मायूस हो जातें है। उनके सामनें गले का बटन बंद किए कुछ शर्ट भी टंगी है वो इस तरह पैबंद है जैसे अभी किसी बेहद जिम्मेदार शख्स के अभिमान को बचाने के लिए उन्हें ही आगे रहना होगा हालांकि देर से घर जानें पर उनमें भी खुसर फुसर होती रहती है। पेंट टेलर की दुकान में आश्वस्ति से टंगी है उन्हें लगता है कि अपनी नंगई छिपानें के लिए उनको मनुष्य जरूर सादर लेकर जाएगा। टेलर के गलें में पड़ा इन्चिंग टेप साक्षात् शिव के गले में पड़े नाग के समान है वो टेलर की निपुणता का प्रतीक है टेलर की कैंची अपने वजन के हिसाब से कपड़े की कई तहों को बड़ी सफाई से काटती उसकी स्वामी भक्ति असंदिग्ध है। टेबल पर पड़ा चाक टूटता है मगर निशान गहरें बनाता जाता है ताकि कारीगर उसके जरिए कटाई छंटाई करीने से कर सकें और मास्टर जी की लिहाज़ बची रहें।
मशीनों का पैडल की मदद से सुर में बचता संगीत मास्टर जी यह आश्वस्ति देता है कि काम ठीक चल रहा है। धागा और खाली रील के डब्बे उपेक्षित पड़े अपनें यौवन को याद कर सिसकतें है मगर उनकी आह कोई नही सुनता वो अपने सिएं हुए धागे को देखकर मजबूत बनें की दुआ फूंकते हुए दम तोड़ देते है।
टेलर की दुकान पर सभ्यता की दुनिया के फैशनेबल तरीकें सांस लेते है कपड़े आते है और परिधान बनकर जातें है किसी ग्राहक का कद कितना घटा या बढ़ा है इसके बारें में एक टेलर से बेहतर भला कौन बता सकता है।

टेलर मास्टर: एक संसार 

Tuesday, April 14, 2015

संवाद

शिव:

हे शिवप्रिया! तुम नित्य और अनित्य के मध्य सुरभित चैतन्य रागिनी हो। तुम्हारी शिराओं के स्पंदन से नाद प्रस्फुटित होता है। तुम्हारी चेतना के स्रोतों से बहनें वाली ऊर्जा देह और मन का शंकुल बनाती है। तुम विपर्य को भी जीवंत सिद्ध करने मे समर्थ हो। अनंत के विस्तार का केन्द्र तुम हो और सृजन के समस्त शिखर तुम्हारे गुरुत्वाकर्षण सें संतुलन साधे हुए है। तुम्हारी व्याप्ति प्रति प्रश्नों के संभावित उत्तर को गुह्य अवश्य रखती है परंतु अखिल ब्रहामांड की बिखरी चेतनाएं इसी गुह्यता से अभिप्रेरित हो प्रकृति के विषयों से आरम्भ में चमत्कृत होती है फिर तत्व का अंवेषण करती हुई आत्म के सच का साक्षात्कार करती है। तुम दृष्ट भाव में रहकर चेतनाओं की यात्राओं का मात्र अवलोकन ही नही करती हो बल्कि उनके अंदर एक सिद्ध सम्भावना का बीज भी कीलित करती हो। प्राय: लोकचेतनाओं में तुम्हारी अंशधारित उपस्थिति तटस्थ नजर आती हैं मगर तुम तभी तक तटस्थ रहती है जब तक कोई विस्मय और चमत्कार के ऐन्द्रजालिक अनुभवों से मुक्त नही हो जाता है। चेतनाओं के इस मुक्ति के बाद तुम उन्हें वह मार्ग दिखाती हो जो देवत्व से परें ब्रहमांड को अनुभूत करने का अनिवार्य मार्ग है। कोई भी यात्री तुम्हारी सहायता के बिना स्व से आत्म की यात्रा को नही कर सकता है इसलिए तुम सदैव अनिवार्य और अपरिहार्य हो।

शक्ति:

हे महादेव ! आप साक्षात पुरुष प्रकृति के समंवय के सूत्रधार हो। आपकी भूमिका पर इसलिए भी टीका असम्भव है क्योंकि आप कोई एकल चेतना नही हो। आप मुक्त और सिद्ध चेतनाओं का एक समूह हो जो शून्य और अनंत के मध्य बिखरें अस्तित्व के गूढ रहस्य को जानते है। प्राय: आपको मौन या तटस्थ इसलिए देखा जा सकता है क्योंकि आप हस्तक्षेप से मुक्त हो। आपके विस्मय मे भी एक छिपा हुआ विस्मय होता है इसलिए प्राय: मै कोई प्रश्न नही करती क्योंकि प्रश्न स्वयं मे उत्तर लिए होता है। मेरी भूमिका आपका विस्तार नही है और ना ही मै समानांतर ही हूं। दरअसल जहां आप आरम्भ होते है वहां मै संतृप्त होती हो और जहां से मै दृश्य मे सम्मिलित होती हूं वहां मुझे खुद मेरी भी छाया नही दिखाई देती है इसलिए मेरी एक स्वतंत्र यात्रा है परंतु इस स्वतंत्रता में भी आपके अंशों की रेखाएं मुझसे मेरा क्षेम पूछती है और यही बोध मुझे योगमाया से मुक्त भी करता है। आप दिगम्बर और चैतन्य है इसलिए काल गणना और देह तत्व से मुक्त है आपके स्पर्शों में तत्व और मीमांसा के सूत्र है जिनका पाठ आभासी मुक्ति से वास्तविक मुक्ति की यात्रा में लोकचेतनाओं के अत्यंत आवश्यक है। ब्रहम के अंश और भ्रम के दंश को समझनें के लिए आपका उदबोधन अनिवार्य है। मै आपके आत्मिक सम्बोधन की ऋचाओं में अव्यक्त सूक्त तलाशती हूं ताकि समंवय के समय चेतनाओं को और अधिक परिष्कृत कर सकूं। आप अपनें सरलतम रुप में इसलिए उपलब्ध है ताकि चेतनाओं के वर्गीकरण में मुझे कोई असुविधा न हो इसलिए आप मेरे लिए भी अनिवार्य अपरिहार्य ही है।

‘शिव-शक्ति संवाद: माध्यम शायद मैं’

Saturday, April 4, 2015

नाई

नाई की दुकान धैर्य की परीक्षणशाला है अपनी बारी का इन्तजार करना सामाजिक समरसता का सबसे बड़ा उदाहरण है। भले नाई से डेढ़ दशक पुराना रिश्ता हो मगर वहां नम्बर आने पर ही उसकी कुर्सी पर बैठने की इजाजत मिलती है। जल्दी होने की बात पर और दुकान में घुसने से पहलें यह पूछना कितना टाइम लगेगा भैय्या? नाई को चिढ़ा देता है वो चाहता है आप चुपचाप आए और अपनी क्यू में बैठ पंजाब केसरी अखबार पढ़ना शुरू कर दें।नाई से ज्यादा सिद्धांतवादी कोई नजर नही आता है उसके लिए व्यवस्था सर्वोपरी है सम्बन्ध द्वितीय।
कंची की तुनकती आवाजें और टी वी पर चलता चित्रहार नाई की ऊर्जा के स्थाई स्रोत हैं। जिस गति से कंची चलती है वो नाई की निपुणता को भी बताती है बीच में वो कंघे की पीठ ठोकती है और कहती है थोडा रास्ता आसान करों कतर ब्योंत का।कंघा दो तरफा घिरा है मगर वो सहज है।
जमीन पर बूढ़े बच्चें अधेड़ युवाओं के बिखरे बाल आपस में एक दुसरे की उम्र पूछते है और उदास हो जाते है।
नाई का सबसे निर्मम हथियार उस्तरा है इतने अत्याचार तो पुरुषो की गाल पर उनकी पत्नि,प्रेमिका और माता-पिता ने भी नही किए होंगे जितनें जख्म ये उस्तरा दे जाता है गाल के निचले हिस्सें पर नाईयों द्वारा उस्तरे को उलटा खींचना भले ही एकबारगी गाल को रोमविहीन प्रतीत करवा देता हो मगर आफ्टर सेव लोशन की जलन साफ़ तौर पर त्वचा के साथ हुए जुल्म का इश्तेहार सुना कर उड़ जाती हैं। कटिंग सेविंग कलर मालिश यह पैकेज़ ग्राहक एक साथ लें यह नाई की आदि अभिलाषा होती है। जिस नाई ने हमारें बाल काटे होते है वो हमारे बच्चों के बाल काटते समय एक बेहद नैसर्गिक खुशी से भरे होतें है बच्चों को बेटा कहते समय उन्हें लगता है कि उनकी यात्रा बाप से बेटे तक आ पहूंची है। वो हमारे बच्चों में हमसे ज्यादा दिलचस्पी लेते है नाईयों का यह एक बेहद संवेदनशील पक्ष है।
मनुष्य के आदिम से सभ्य बननें की प्रक्रिया में मनुष्य एक नस्ल को नाई बनना पड़ा है अमूमन नाई हाजिरजवाब होतें है उनकी बतकही ग्राहकों को भले ही रूचिपूर्ण न लगें मगर सामाजिक चटखारें के तमाम विषय नाई के पास होतें हैं।
जब आप एक अंतराल के बाद नाई की दुकान पर पहूंचते तो वो ठीक दोस्तों की तरह पूछता है कहां थे इतने दिन बहुत दिन बाद चक्कर लगा कई दिन से सोच रहा था आप आए नही ये सवाल एक सांस में नाई पूछता है फिर इसके बाद दुसरा काम नाई का यह होता है कटिंग और सेविंग देखकर पूछना कि कहां कटवाए थे बाल फेस पर दानें हो रखें है कलम छोटी बड़ी छोड़ रखी है तब आप उसकी प्रशंसा में दो शब्द कहें और दुसरे नाई को कोसे बस नाई इतना ही सुनकर आपके उसके पक्के ग्राहक होने की पुष्टि कर लेता है।
सामाजिक जीवन में नाई हमारे जीवन से कुछ इस तरह से जुड़ा है कि आप हफ्ते दस में उससे मिलकर अपना कुछ बोझ हलका कर लेतें है और एक बार आपको लत लग जाए तो आप चाहकर भी अपना नाई और टेलर बदल नही पातें हैं और मेरे ख्याल से बदलना भी नही चाहिए।

चलिए मेरा नंबर आ गया है...शेष फिर !

'नाई की दुकान और मैं'

Wednesday, April 1, 2015

सज़ा

दुनिया में हर चीज़ के होने की एक पुख़्ता वजह होती है। बेवजह जो भी होता क्या तो वो जुनून होता है या फिर पागलपन। आसपास और नजदीक होने के महीन भरम होते हैं। मुक्ति दरअसल बड़ी विचित्र चीज़ है ये जब हमें मिलती है तो इसकी जेब में अतीत का एक अधूरा पता भी होता है। कभी उदास शामों में तो कभी लम्बी होती रातों में उसको पढ़ना चाहतें है तो अक्सर रोशनी साथ नही देती है।
खुद के लिए सबसे बेहतर विकल्प क्या है यह सोचने का सर्वथा मौलिक अधिकार शायद हमारे ही पास होना चाहिए कैसा अजीब महसूस होता है एक तो आप अपने एकांत से ऊबे है बैठे हो ऊपर से आपकी दृष्टि और विकल्पों पर टीकाएं की जाएं। दो चेतनाओं के मध्य सुरक्षित दूरी विकसित होने में समय के सारे समीकरण निष्प्रोज्य होते है क्योंकि इसके सूत्र न सबंधो के बीजगणित में मिलतें है और न अनुमानों के खगोल विज्ञान में।
समय का सहारा लेकर खुद को छलना मनुष्य की आदि परम्परा है। समय भले ही खोया-पाया के भाव से मुक्ति दे सकता है मगर कुछ अनुत्तरित प्रश्नों के जवाब समय के पास भी नही होतें है। जैसे दो जमा दो का जोड़ हमेशा चार ही नही होता है।
खुद की अप्रासंगिकता के चालानों के बीच एक अर्जी वादामाफ़ गवाह बननें की लगाई जाती है जिस पर खुशियों की कीमत मय सूद जमा करनी पड़ती है। अचानक से जब वक्त हाकिम बनता है तब रिहाई जिसे मुक्ति भी कहा जाता है उसके लिए सर झुकाएं चुपचाप खुद के घुटनों के बीच फंसे यादों के भँवर को देख यही कह सकते है गलती हुई साहब !
आसपास की रंगीनियत तब ना खुशी देती है और ना बैचेन करती है एक अजीब सी नीरवता को अपने चित्त में लिए हम दोनों हाथ जोड़ते है मुस्कुरातें है और हाकिम से कहतें है जलावतनी क़ुबूल है जनाब।
ख्वाबों के इश्तेहारों की दुनिया ऐसी ही होती है यहां कब आँख खुलती है और कब बंद होती है किसी को पता नही लगता है। नींद में हंसते हुए कुछ लोग सुंदर लगते है और आँख खुलनें पर उनकी जेब से वो अधूरा पता झांकता है जो उनके मुक्त चेतना होने का एकमात्र ज्ञात दस्तावेज़ भी कहा जा सकता है।
इस पारपत्र के सहारे वो लांघ जाते है ख़्वाबों और पागलपन की एक गुमनाम दुनिया चुपचाप बिना किसी को बताएं अजनबी होना उनकी जमानत की एक शर्त होती है जो आधी उनकी पीठ पर छपी होती है आधी माथें पर।

'आख़िरी इश्तेहार'