Friday, April 21, 2017

डायरी अंश

रात की तीसरे पहर में आँख खुल जाती है इनदिनों.
क्यों खुल जाती है नही मालूम है. दूर जंगल से आती एक बासुरी की धुन शायद मुझे बुलाती है. मैं जगने के बाद अपने आसपास विस्मय से देखता हूँ क्योंकि मैं इस वक्त कंक्रीट के जंगल में हूँ.
ये बासुरी कौन बजा रहा है मुझे नही पता है मगर इसकी धुन अनहद नाद के नजदीक जाकर खत्म होती है. थोड़ी देर मैं ईश्वर को खारिज करता हूँ और करवट बदल लेता हूँ. ईश्वर को खारिज करना मेरी उस असमर्थता का उपक्रम है जिसमें मैं इस समय किसी के निवेदन पर जा नही पा रहा हूँ.
मैं दोबारा सोने की कोशिश करता हूँ मगर फिर मैं अपनी असमर्थताओं की एक सूची बनाने लगता हूँ . अपनी असमर्थताओं की सूची का वरीयता क्रम मैं ठीक से निर्धारित नही कर पा रहा हूँ और इसकी बेचैनी मुझे नींद से कोसो दूर पटक देती है.
फिर मैं उस बासुरी की धुन पर अपनी असमर्थताओं को बुनने लगता हूँ और एक नया गीत बन जाता है जिसे गुनगुनाया नही जा सकता है मगर बहुत गहरे तक महसूस जरुर किया जा सकता है.
ख़ुशी के ऐच्छिक चुनाव में मैं द्वंद में हूँ
दुखों के तिरस्कार में मैं निपुण नही हूँ
फिर एक सपने की कल्पना में नींद को बुलाता हूँ सपना तो नही आता है मगर कल्पना नींद जरुर ले आती है और मैं अपनी गीत को भूल कर मन के गर्भ गृह में कुछ बिखरे हुए स्त्रोतों का पाठ करते हुए पुनः सो जाता हूँ.
सुबह उठकर मुझे कुछ भी याद नही रहता है. यह एक अच्छी बात है.
वरना मैं इसके विज्ञापन में दिन भर लगा रहता है और लोग समझते मैं एक अच्छा कलाकार हूँ जो नींद के उचटने पर गीत बना सकता हूँ.
दरअसल, मैं रात के तीसरे पहर में खुलने वाली नींद की स्मृतियों को बेहद निजी बनाकर रखना चाहता हूँ इतना निजी कि मेरे बिस्तर को भी इसकी खबर न हो.
‘डायरी अंश’

Monday, April 17, 2017

ख़त

संबोधन के अपने उलझाव है इसलिए एक खत बिना संबोधन का
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बात यहाँ से शुरू करता हूँ कि मेरे पास अब कोई बात नही बची है. मेरे पास कुछ अधूरे सपनों की कतरन है जिनको जोड़कर एक बंदनवार बनाई जा सकती है उनकी अधिकतम खूबसूरती इतनी भर बची है. कई दिनों से दिल खिंचा-खिंचा सा रहता है शायद कोई मौसमी अवसाद है. हम अपने अपने हिस्से के सफर पर निकले लोग है  जो अनायास ही एक सवारी पर सवार हो गए है. सफ़र और मंजिल के बीच में रास्ता होता है और यही रास्ता जिन्दगी में स्मृतियों को एकत्रित करने का साधन भी बनता है.
तमाम असंगत बातों के बीच में अगर मैं यह कहूं कि मेरे पास मुद्दत से कोई उत्साहित करने वाली खबर नही है तो तुम्हें ये बात एक पुनरावृत्ति जैसी लगी है मगर ये मेरे जीवन का तात्कालिक यथार्थ है. शब्दों को दुखो के अधीन कर देने से दुःख अनादर महसूस करते है वो हमारे अंदर अमूर्त पड़े रहकर हमें परखने में यकीन रखते है. तुम्हें देखकर न जाने क्यों मुझे अपने दुखों की बातें याद आ जाती है और इस प्रकार से मैं एक उलझा हुआ आदमी साबित होता हूँ.
यह सच है दुःख बेहद निजी होते है और एक समय के बाद दुखों पर चर्चा करना मानसिक शगल भर रह जाता है क्योंकि अपने अपने हिस्से की विषमताएं हर कोई जी रहा होता है. परसों मेरी आँख लग गयी तो मैंने सपनें में देखा कि तुम मेरे सामने एक लम्बा सा आईना लेकर खड़ी हो मैं आईने को एक दीवार से टिका देता हूँ और  तुमसे मेरे पास खड़े होने के लिए कहता हूँ तुम मेरे पास खड़ी हो गई हो मगर उस आईने में केवल मेरी शक्ल मेरे दिख रही है. तुम्हारा प्रतिबिम्ब उस आईने में नही बनता है. मुझे इस बात पर जब थोड़ी हैरानी होती है तुम विषय बदल देती हो और तभी मेरी आँख खुल जाती है. तब से लेकर अब तक मैं कई बार यह बात सोच चुका हूँ क्या ऐसा संभव है कि हम साथ-साथ खड़े हो और हमारे प्रतिबिम्ब में केवल मैं अकेला खड़ा नजर आऊँ? मेरे दिल और दिमाग के पास इसके दो जवाब है मगर मैं दोनों से ही संतुष्ट नही हूँ.
पिछले दिनों से  मैं अकेला चाय पी रहा हूँ  आजकल शराब पीने का मन नही होता है न अकेले ही और न किसी सभा संगत में. चाय की अच्छी बात यह है कि ये अकेली पी जा सकती है. मैंने देखा मेरी खिड़की पर एक चिड़िया बैठी है और बाहर की तरफ देख रही है मैंने चिड़िया को पहली बार इतना उदास या शांत देखा. उदास लिखते हुए लगा कि शायद उदासी मेरे अन्दर की हो जबकि चिड़िया शांत हो, इसलिए अब मैं उसे शांत कहूंगा.
मैं चाय पीते हुए सोच रहा था ये खिड़की अगर बंद होती तो ये चिड़िया शायद किसी और खिड़की पर बैठी होती है चिड़िया के पास विकल्प होने  की बात सोचकर मैंने तुरंत खिड़की बंद करनी चाही और इसके लिए अपनी चाय कप भी बीच में ही छोड़ दिया मैंने जैसे ही खिड़की के नजदीक पहुंचा वो चिड़िया उड़ गया. मेरी चाय थोड़ी ठंडी हो गयी थी मगर मैं मन ही मन अपनी आंतरिक क्रूरता पर शर्मिंदा था इसलिए दोबार चाय गर्म की और अपना निचला होंठ जला बैठा, मगर मुझे दुःख नही हुआ. शायद ग्लानी में दुःख अपनी तीव्रता खो देते है.
दिखने में यह एक ख़त के जैसा है मगर ये खत नही है क्योंकि खत में वृत्तांत होते है इसमें कोई वृत्तांत नही है मैं इसे डायरी की शक्ल में दर्ज कर रहा हूँ ये दरअसल मेरी उस बेख्याली का एक पुरजा है जिसमें जगह-जगह तुम बैठी हो. जीवन को समझने की कोशिश अब दिल नही करना चाहता है ये दरअसल अपने किस्म की ज्यादती को पसंद करने लगा है. लोक की भाषा में इसे खुद को खुद की नजर लग जाना कहते है. ऐसा नही है मेरे पास तमाम उदास करने वाली ही बातें मगर हां ! ये सच है कि  मेरी बातों में रोचकता का अभाव है.
कल क्या हुआ मैं शाम को रास्ते से लौट रहा था मुझसे एक स्त्री ने पूछा ये ये रास्ता चौराहे पर मिल जाएगा? मैंने कहा शायद ! उसने दोबारा फिर वही प्रश्न दोहराया मैंने कहा रास्ते तो सारे एक दिन चौराहे पर मिल ही जाते है आपको किस रास्ते पर जाना है? उसने कहा मुझे चौराहे से लेफ्ट लेना है मैंने आप पहुँच जाएगी बशर्ते मुझ पर यकीन करें! यदि आपने किसी और से रास्ता पूछा तो फिर मैं गलत सिद्ध हो सकता हूँ उसने कहा अजनबी पर यकीन करना मुझे अच्छा लगता है मगर आज तक कोई रास्ता नही भटकी हूँ. मैंने फिर कुछ नही कहा बस हाथ से उसको दिशा बताई. विदा पर वो मुस्कुराई नही ये एक खराब बात लगी मुझे फिर मैंने सोचा शायद वो कहीं पहुँचने की जल्दी में थी.
अच्छा अब ये आत्म प्रवंचना बंद करता हूँ क्योंकि इनमें कोई सार नही है ये कई असंगत बातों का एक जुटान है. सार तलाशना न तुम्हारा उद्यम है और न मैं किसी सार का दावा कर सकता हूँ.  कुछ दिन ऐसे खत तुम्हें मिलेंगे मुझे पता है पहले तो वाक्य ही तुम्हारी पत्र पढने की रूचि की हत्या कर देंगे मगर मुझे केवल लिखना आता है.
पढ़ना तो तुम्हें ही सीखना पड़ेगा. सीखने में कोई आग्रह या निवेदन नही है ये तुम्हारी इच्छा पर निर्भर करता है. वैसे भी तुम्हारी इच्छा पर ही तो सबकुछ निर्भर करता है.
ख्याल रखना अपना.

तुम्हारा कोई नही,

अजित  

जंगल मंगल

दृश्य एक:
ऋषि पुत्री अभ्यारण्य में अकेली गुनगुना रही है बसंत तुम छलिया हो, पतझड़ को भी छलते हो बहार को भी छलते हो, न जाने कौन दिशा में तुम मिलते होउसका मन आज अकारण उत्साहित है वो फूल तोड़ना चाहती है मगर अचानक से केवल पंखुड़ियों को छूकर छोड़ देती है. उसकी आँखों में आज असीम प्यार है. वो आज बिरहन है जानबूझकर रास्ता भटक रही है कभी विस्मय से जंगली बेलों को देखती है तो कभी सबसे अकेल खड़े बूढ़े पेड़ के तने से जाकर लिपट जाती है.
वो प्रकृति के सौन्दर्य पर कोई टीका नही करना चाहती है उसकी चाल में आज थोड़ा आयुजन्य अल्हडपन है. इस जंगल में आज वो अकेली है मगर उसे कोई भय नही है. वो एक जंगली फूल से पूछती है क्यों रे ! तुझे ले चलूँ अपनी कुटिया में? हवा फूल का तना हिलाती है तो फूल हिलने लगता है ऋषि पुत्री इसे फूल का इनकार समझती है. इसके बाद वो कोई सवाल नही करती है.
जंगली नदी के किनार कुछ छोटे पत्थर कतार में पड़े है वो उन्हें देख एक बार सूरज की तरफ देखती है फिर जमीन पर एक कुंडली बनाती है और कुछ गणना करती हुई कुछ बुदबुदाती है फिर एक ठंडी सांस लेकर कहते है मेरे दोस्तों ! अभी तुम्हारा निर्वासन शेष है तल से अलग होने की पीड़ा मैं समझ रही हूँ मगर मैं हस्तक्षेप करने की स्थिति में नही हूँआगे बढ़ती है फिर अचानक से लौटकर एक पत्थर उठाकर नदी के बीचोबीच फेंक देती है और हंसते हुए कहती है तुम मेरे पिछले जन्म के प्रेमी थे इसलिए तुम्हारे लिए इतना दोष मैं इस जन्म में भी ले सकती हूँ.
तभी रास्ते में एक जंगली लता उसके कान से टकराती है वो उसको थोड़ी देर अपने कान की अलगनी पर टांग कर खड़ी रही फिर उसको उतार कर उदास मन से कहती है सखी तेरी बिपदा सुनूंगी किसी दिन और..जंगली लता को कोई शिकायत नही है क्योंकि आज का दिन बिपदा सुनाने का नही है आज का दिन ऋषि पुत्री ने प्रकृति की समस्त विपदाओं को स्थगित करने के लिए चुना है और वो ऐसा कर भी रही है.

© डॉ. अजित

Tuesday, April 11, 2017

ईश्वर

दृश्य एक:

विल्सन आज थोड़ा उदास है. कल उससे कैथरीन ने कहा अब शायद हमारे अलग होने का वक्त आ गया है. ‘शायद’ एक शब्द ऐसा है जिससे विल्सन को बड़ी उम्मीद है वो मन ही मन कैथरीन को धन्यवाद देता है कि उसने यह नही कहा कि ‘ हमारे अलग होने का वक्त आ गया है’ मगर ये धन्यवाद ज्ञापन उसको हौसला नही दे पार रहा है उसे लगता है शायद का प्रयोग एक विनम्रता भर है वरना असल बात यही है अब कैथरीन अलग होना चाहती है.
विल्सन फिलहाल यह सोच रहा है आदमी इस मिलने और अलग होने की प्रक्रिया का हिस्सा आखिर क्यों बनता है? वो समय के षड्यंत्र को देखता है और यह तय नही कर पा रहा है कि वो कैथरीन से मिलने से पहले कितना खुश था? उसे साथ के दौरान की ख़ुशी किस किस्म की थी? और अब जब कैथरीन नही रहेगी क्या वो कभी खुश रह सकेगा?
तभी उसके पास एक भिखारी आता है वो शायद भूखा है विल्सन से खाना खिलाने के लिए बोल रहा है विल्सन के पास पैसा है मगर आज मन नही है किसी को कुछ भी देने का वो खुद में सिमटा हुआ बैठा है और यह सोच रहा है कि इस अलग होने को कैसे स्थगित किया जा सके इसलिए वो भिखारी को अनसुना कर देता है, भिखारी को यह बात ठीक नही लगी मगर फिर भी उसने फिर विल्सन को टोकना उचित न समझा मगर जाते वक्त वो मुडा और दूर से ही चिल्लाकर उसने विल्सन से कहा ‘जरूरत मनुष्य दयनीय बना देती है दया और प्रेम एक साथ खड़े नजर आ सकते है मगर वो दोनों साथ बैठ नही सकते है’.
विल्सन को भिखारी की बात फिलासफी के कोट के जैसी लगी मगर उसने उसका कोई जवाब नही दिया और मन ही मन उसकी बात में अपनी इतनी बात जोड़ी-
‘जरूरत मनुष्य दयनीय बना देती है दया और प्रेम एक साथ खड़े नजर आ सकते है मगर वो दोनों साथ बैठ नही सकते है बावजूद इसके जरूरत को आदत में तब्दील होने से बचना चाहिए यदि कोई बच सके तो’

दृश्य दो:

सिटी कैफे में कैथरीन आज अकेली बैठी है उसका अपना एक कोना है प्राय: वह वही पर बैठती है. कैफे में आज भीड़ नही है उसकी बगल की सीट पर एक दम्पत्ति बैठी है. कैथरीन के पास एक किताब है जो ईश्वर के अस्तित्व से जुड़ी बहस पर आधारित है. कैथरीन ने बुकमार्क उस पेज पर लगा दिया जहां पर यह लिखा हुआ था ‘ईश्वर मनुष्य की एक सुंदर उपकल्पना है जिसके भरोसे वो विश्वास को दुनिया में सुन्दरतम रूप में बचा पाने में समर्थ हुआ है’
ईश्वर के अस्तित्व की बहस से अब उसे ऊब हो रही है उसने अपना चश्मा उतार कर किताब पर रख दिया और कॉफ़ी ऑर्डर की.
बगल में बैठी दम्पत्ति घर के बाहर मिलने वाले एकांत पर बात कर रहे है वो अपने अतीत में खो जाते है और पुराने दिनों को याद करने लगते है जब वो दोनों पति पत्नी नही थे. उनकी बातों में कोई नूतनता नही है मगर कैथरीन को उनकी बातें किताब से ज्यादा चमत्कारिक लग रही है न चाहते हुए भी उनकी बातें सुनने में उसकी दिलचस्पी बढ़ गई है.
वो दोनों पति पत्नी कोई बहस नही कर रहे है बस अपने अपने अतीत को याद करके खुश हो रहे है उनके पास भविष्य की चिंताए फिलहाल नही है. स्त्री कहती है कभी कभी लगता है कि विवाह अपने साथ अकेला नही आता है वो साथ में बच्चे भी लाता है एक उपद्रव की शक्ल में...इस बात से पुरुष उतना सहमत नही है मगर फिर भी वो प्रतिवाद नही करता है. पुरुष पूछता है अच्छा यह बताओं क्या अब हमारा प्यार अब वैसा ही है जैसा कभी हम पहले दिन मिले थे? स्त्री कहती है नही वैसा बिलकुल नही है अब मुझे तुम्हें एक सीमा तक जान गयी हूँ इसलिए अब प्यार वैसा रहना संभव नही है और मेरे ख्याल प्यार को एक जैसा रहना भी नही चाहिए. एक जैसा प्यार ठहरे हुए पानी की तरह सड़ जाता है.प्यार बदलता नही है हां रूपांतरित हो जाता है अब मैं तुम्हें नापसंद और पसंद एक साथ करती हूँ.
स्त्री पूछती है क्या प्यार कोई दैवीय चीज़ है? पुरुष इस पर थोड़ा सोचता है और फिर कहता है मेरे ख्याल से नही ! मनुष्य के जीवन में कुछ भी दैवीय नही है सब कुछ मानवोचित ही है. दिव्य या ईश्वरीय बता कर हम उसे संरक्षित करने की कोशिश जरुर करते है क्योंकि ईश्वर से जुडी हर चीज प्रश्नों से परे हो जाती है. हम प्यार को प्रश्नों से बचाना चाहते हैं इसलिए शायद उसे दैवीय कहते है.
शायद शब्द सुनन के बाद स्त्री थोड़ी मुस्कुरा देती है.
कैथरीन ने यह बातचीत सुनी और जल्दी से अपनी कॉफ़ी खत्म की और घड़ी देखते-देखते विल्सन को कॉल लगाया मगर विल्सन का फोन बंद है शायद उसने किताब के शीर्षक को दोबारा पढ़ा और वहां से चली गई.


© डॉ.अजित