Monday, April 17, 2017

जंगल मंगल

दृश्य एक:
ऋषि पुत्री अभ्यारण्य में अकेली गुनगुना रही है बसंत तुम छलिया हो, पतझड़ को भी छलते हो बहार को भी छलते हो, न जाने कौन दिशा में तुम मिलते होउसका मन आज अकारण उत्साहित है वो फूल तोड़ना चाहती है मगर अचानक से केवल पंखुड़ियों को छूकर छोड़ देती है. उसकी आँखों में आज असीम प्यार है. वो आज बिरहन है जानबूझकर रास्ता भटक रही है कभी विस्मय से जंगली बेलों को देखती है तो कभी सबसे अकेल खड़े बूढ़े पेड़ के तने से जाकर लिपट जाती है.
वो प्रकृति के सौन्दर्य पर कोई टीका नही करना चाहती है उसकी चाल में आज थोड़ा आयुजन्य अल्हडपन है. इस जंगल में आज वो अकेली है मगर उसे कोई भय नही है. वो एक जंगली फूल से पूछती है क्यों रे ! तुझे ले चलूँ अपनी कुटिया में? हवा फूल का तना हिलाती है तो फूल हिलने लगता है ऋषि पुत्री इसे फूल का इनकार समझती है. इसके बाद वो कोई सवाल नही करती है.
जंगली नदी के किनार कुछ छोटे पत्थर कतार में पड़े है वो उन्हें देख एक बार सूरज की तरफ देखती है फिर जमीन पर एक कुंडली बनाती है और कुछ गणना करती हुई कुछ बुदबुदाती है फिर एक ठंडी सांस लेकर कहते है मेरे दोस्तों ! अभी तुम्हारा निर्वासन शेष है तल से अलग होने की पीड़ा मैं समझ रही हूँ मगर मैं हस्तक्षेप करने की स्थिति में नही हूँआगे बढ़ती है फिर अचानक से लौटकर एक पत्थर उठाकर नदी के बीचोबीच फेंक देती है और हंसते हुए कहती है तुम मेरे पिछले जन्म के प्रेमी थे इसलिए तुम्हारे लिए इतना दोष मैं इस जन्म में भी ले सकती हूँ.
तभी रास्ते में एक जंगली लता उसके कान से टकराती है वो उसको थोड़ी देर अपने कान की अलगनी पर टांग कर खड़ी रही फिर उसको उतार कर उदास मन से कहती है सखी तेरी बिपदा सुनूंगी किसी दिन और..जंगली लता को कोई शिकायत नही है क्योंकि आज का दिन बिपदा सुनाने का नही है आज का दिन ऋषि पुत्री ने प्रकृति की समस्त विपदाओं को स्थगित करने के लिए चुना है और वो ऐसा कर भी रही है.

© डॉ. अजित

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