Monday, April 17, 2017

ख़त

संबोधन के अपने उलझाव है इसलिए एक खत बिना संबोधन का
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बात यहाँ से शुरू करता हूँ कि मेरे पास अब कोई बात नही बची है. मेरे पास कुछ अधूरे सपनों की कतरन है जिनको जोड़कर एक बंदनवार बनाई जा सकती है उनकी अधिकतम खूबसूरती इतनी भर बची है. कई दिनों से दिल खिंचा-खिंचा सा रहता है शायद कोई मौसमी अवसाद है. हम अपने अपने हिस्से के सफर पर निकले लोग है  जो अनायास ही एक सवारी पर सवार हो गए है. सफ़र और मंजिल के बीच में रास्ता होता है और यही रास्ता जिन्दगी में स्मृतियों को एकत्रित करने का साधन भी बनता है.
तमाम असंगत बातों के बीच में अगर मैं यह कहूं कि मेरे पास मुद्दत से कोई उत्साहित करने वाली खबर नही है तो तुम्हें ये बात एक पुनरावृत्ति जैसी लगी है मगर ये मेरे जीवन का तात्कालिक यथार्थ है. शब्दों को दुखो के अधीन कर देने से दुःख अनादर महसूस करते है वो हमारे अंदर अमूर्त पड़े रहकर हमें परखने में यकीन रखते है. तुम्हें देखकर न जाने क्यों मुझे अपने दुखों की बातें याद आ जाती है और इस प्रकार से मैं एक उलझा हुआ आदमी साबित होता हूँ.
यह सच है दुःख बेहद निजी होते है और एक समय के बाद दुखों पर चर्चा करना मानसिक शगल भर रह जाता है क्योंकि अपने अपने हिस्से की विषमताएं हर कोई जी रहा होता है. परसों मेरी आँख लग गयी तो मैंने सपनें में देखा कि तुम मेरे सामने एक लम्बा सा आईना लेकर खड़ी हो मैं आईने को एक दीवार से टिका देता हूँ और  तुमसे मेरे पास खड़े होने के लिए कहता हूँ तुम मेरे पास खड़ी हो गई हो मगर उस आईने में केवल मेरी शक्ल मेरे दिख रही है. तुम्हारा प्रतिबिम्ब उस आईने में नही बनता है. मुझे इस बात पर जब थोड़ी हैरानी होती है तुम विषय बदल देती हो और तभी मेरी आँख खुल जाती है. तब से लेकर अब तक मैं कई बार यह बात सोच चुका हूँ क्या ऐसा संभव है कि हम साथ-साथ खड़े हो और हमारे प्रतिबिम्ब में केवल मैं अकेला खड़ा नजर आऊँ? मेरे दिल और दिमाग के पास इसके दो जवाब है मगर मैं दोनों से ही संतुष्ट नही हूँ.
पिछले दिनों से  मैं अकेला चाय पी रहा हूँ  आजकल शराब पीने का मन नही होता है न अकेले ही और न किसी सभा संगत में. चाय की अच्छी बात यह है कि ये अकेली पी जा सकती है. मैंने देखा मेरी खिड़की पर एक चिड़िया बैठी है और बाहर की तरफ देख रही है मैंने चिड़िया को पहली बार इतना उदास या शांत देखा. उदास लिखते हुए लगा कि शायद उदासी मेरे अन्दर की हो जबकि चिड़िया शांत हो, इसलिए अब मैं उसे शांत कहूंगा.
मैं चाय पीते हुए सोच रहा था ये खिड़की अगर बंद होती तो ये चिड़िया शायद किसी और खिड़की पर बैठी होती है चिड़िया के पास विकल्प होने  की बात सोचकर मैंने तुरंत खिड़की बंद करनी चाही और इसके लिए अपनी चाय कप भी बीच में ही छोड़ दिया मैंने जैसे ही खिड़की के नजदीक पहुंचा वो चिड़िया उड़ गया. मेरी चाय थोड़ी ठंडी हो गयी थी मगर मैं मन ही मन अपनी आंतरिक क्रूरता पर शर्मिंदा था इसलिए दोबार चाय गर्म की और अपना निचला होंठ जला बैठा, मगर मुझे दुःख नही हुआ. शायद ग्लानी में दुःख अपनी तीव्रता खो देते है.
दिखने में यह एक ख़त के जैसा है मगर ये खत नही है क्योंकि खत में वृत्तांत होते है इसमें कोई वृत्तांत नही है मैं इसे डायरी की शक्ल में दर्ज कर रहा हूँ ये दरअसल मेरी उस बेख्याली का एक पुरजा है जिसमें जगह-जगह तुम बैठी हो. जीवन को समझने की कोशिश अब दिल नही करना चाहता है ये दरअसल अपने किस्म की ज्यादती को पसंद करने लगा है. लोक की भाषा में इसे खुद को खुद की नजर लग जाना कहते है. ऐसा नही है मेरे पास तमाम उदास करने वाली ही बातें मगर हां ! ये सच है कि  मेरी बातों में रोचकता का अभाव है.
कल क्या हुआ मैं शाम को रास्ते से लौट रहा था मुझसे एक स्त्री ने पूछा ये ये रास्ता चौराहे पर मिल जाएगा? मैंने कहा शायद ! उसने दोबारा फिर वही प्रश्न दोहराया मैंने कहा रास्ते तो सारे एक दिन चौराहे पर मिल ही जाते है आपको किस रास्ते पर जाना है? उसने कहा मुझे चौराहे से लेफ्ट लेना है मैंने आप पहुँच जाएगी बशर्ते मुझ पर यकीन करें! यदि आपने किसी और से रास्ता पूछा तो फिर मैं गलत सिद्ध हो सकता हूँ उसने कहा अजनबी पर यकीन करना मुझे अच्छा लगता है मगर आज तक कोई रास्ता नही भटकी हूँ. मैंने फिर कुछ नही कहा बस हाथ से उसको दिशा बताई. विदा पर वो मुस्कुराई नही ये एक खराब बात लगी मुझे फिर मैंने सोचा शायद वो कहीं पहुँचने की जल्दी में थी.
अच्छा अब ये आत्म प्रवंचना बंद करता हूँ क्योंकि इनमें कोई सार नही है ये कई असंगत बातों का एक जुटान है. सार तलाशना न तुम्हारा उद्यम है और न मैं किसी सार का दावा कर सकता हूँ.  कुछ दिन ऐसे खत तुम्हें मिलेंगे मुझे पता है पहले तो वाक्य ही तुम्हारी पत्र पढने की रूचि की हत्या कर देंगे मगर मुझे केवल लिखना आता है.
पढ़ना तो तुम्हें ही सीखना पड़ेगा. सीखने में कोई आग्रह या निवेदन नही है ये तुम्हारी इच्छा पर निर्भर करता है. वैसे भी तुम्हारी इच्छा पर ही तो सबकुछ निर्भर करता है.
ख्याल रखना अपना.

तुम्हारा कोई नही,

अजित  

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