Friday, December 26, 2014

विदा होता साल

जब सारी दुनिया नए साल के आने की तैयारी में लगी हुई थी। जश्न का माहौल अपने पूरे शबाब पर था तब मै उलटे पाँव इसी साल के जनवरी तक लौट रहा था। यह तय करना थोड़ा मुश्किल था कि मै वक्त से पीछे रह गया हूँ या वक्त से परे हो गया हूँ। नए साल का सबको शिद्दत से इसलिए भी इन्तजार रहता है क्योंकि वो बीते साल की कड़वी स्मृतियों से एक नूतन वर्ष की नवीनता के बहाने मुक्ति चाहते है। ये खुद की कैसी जिद थी कि मै ये साल छोड़ना नही चाहता था। इस साल के कुछ प्रसंग मुझे स्मृतियों के हवाले भी करना नागवार लगा इसलिए नए साल को लेकर मेरे मन में खुशी की बजाए आशंकाएं ज्यादा उपजी थी। मै बीते महीनों में बड़े उत्साह से लौटा था। जनवरी में कतई ये उम्मीद न थी कि ये साल जिंदगी के मायनें बदलने वाला साल रहेगा क्योंकि इसमें उतरते वक्त मेरे पास कोई स्थाई आकर्षण या योजनाएं नही थी।
लम्बे समय से वक्त को बीतता देखने का अभ्यस्त रहा हूँ इसलिए हादसों से गुजरते हुए भी अहसासों में एक स्थिरमन बना रहा परंतु तुम्हारी दस्तक के बाद दिन हफ्ते और महीनों का फ्लेवर और कलेवर कुछ इस तरह से बदला कि मेरी समय को लेकर बनी समझ ध्वस्त हो गई। अब रात और दिन महज चौबीस घंटे का एक नियत काल चक्र नही था मेरे लिए।उन चौबीस घंटों में मैने खुद के अस्तित्व को बटते हुए देखा। घड़ी की सुईयों पर लटक मैंने मन का योगाभ्यास किया और यह योग चित्त की वृत्तियों का निरोध नही था बल्कि चित्त की वृत्तियों को होशपूर्वक देखना था। महज तुम्हारी उपस्थिति ने मेरे चैतन्यता को कुछ नए मायने दिए सबसे बड़ी बात में रसातल पर काई की तरह जमें कुछ फिसलन भरे अपेक्षा के लम्हों को खुरच कर साफ कर दिया।
साल के पूर्वाद्ध तक तुम्हारी उपस्थिति महज एक संख्या थी। मगर उत्तार्द्ध आते आते उस संख्या में सिद्ध सात्विक संकल्पों ने प्राण फूंक दिए थे।अब तुम्हारा अस्तित्व मेरे अस्तित्व से ठीक गर्भनाल की तरह जुड़ गया था। तुम्हें तो यह ज्ञात भी नही होगा चिंतन के अनन्तिम पलों में मैंने बहुत सी ऊर्जा तुमसे उधार ली है।
तुम्हें याद करते करते कब साँसे अनुलोम विलोम के सुर पकड़ लेती थी मुझे खुद भी पता नही चलता जबकि सत्यता तो यह भी है मै किसी भी कोटि का साधक कभी नही रहा हूँ। यह साल तुम्हारी अनुभूत अनुभूतियों का सबसे प्रमाणिक दस्तावेज़ है।इसमें वक्त की वो वसीयत भी शामिल है जो मुझे बारम्बार डराती भी है क्योंकि उसमें लिखा है एक अवधि के बाद तुम्हारा खो जाना तय है। तमाम सिद्ध अभ्यासों और अनासक्ति के दावों के बीच भी तुम्हें खोने के शाश्वस्त सच को असत्य सिद्ध करना मेरी एक मात्र ज्ञात महत्वकांक्षा शेष बची है।इस साल में यायावर मन यूं ही उलटे पाँव दौड़ रहा था शायद किसी महीने के दर पर टंगा वो कीलक बीजमन्त्र मिल जाए जो तुम्हारे अस्तित्व को स्थाई रूप से जोड़ने की एक युक्ति बनने का एकमात्र उपाय है। कभी कभी तुम्हारी बातों मुस्कुराहटों शिकायतों और आरोपों को रिवाइंड करके सुनता हूँ ताकि उनमें कुछ ऐसे नुक्ते तलाश सकूं जिनके जरिए हर खत्म होते हुए साल में मेरे पास यह आश्वस्ति हो कि हर जनवरी से दिसम्बर तक तुम्हारी खुशबू मेरे आसपास बनी रहेगी। शर्ते लगाकर मै इस रिश्तें को कमजोर नही करना चाहता हूँ इसलिए तुम्हारे अहसासों की खुशबू को सहजने के सूत्र विकसित कर रहा हूँ।इससे पहले ये साल विदा हो जाए तुम्हें अपने मन के वातायन में स्थाई रूप से संरक्षित करना मेरा एकमात्र ज्ञात रूचि का उपक्रम है। मेरी यात्रा शेष है जिसका बड़ा हिस्सा तुम हो इसलिए नए साल में मेरी उतनी दिलचस्पी नही है जितनी इस बीते हुए साल में है। यह इस साल का सबसे बड़ा विचित्र सच है जो तुम्हारे सहारे जी रहा हूँ मै।

'जाता साल-आता साल'

कतरा कतरा

मध्यांतर तक दोनो के हिस्से में कुछ मुलाकाते ही थी। सुखद स्मृति को सहेजना थोडा मुश्किल काम होता है क्योंकि धीरे धीरे रोजमर्रा का अवसाद उनको घुण की तरह चाटना शुरु कर देता है और हम अक्सर उन बातों को ज्यादा याद रखने लगते है जो हमें तकलीफ देती है। उसके साथ बिताई कुछ छोटी छोटी से किस्त सदियों का अफसाना बन गई थी। वो चंद मुलाकाते ही नही थी बल्कि उनकी यादों में साक्षात सम्बंधो का एक ब्रहमांड सांस लेता था। उनमें सुख की घडियां थी मन्दिर की तरह उलटे पांव लौटते प्रार्थनों मे बंधे हाथ थे। अलग अलग किस्म के विस्मय थे जिनके कोई लौकिक जवाब उन दोनो के पास नही थे कतरा-कतरा रिसते कुछ दुख के पतनाले भी थे जो अन्दर बाहर हो रही बरसात के सच्चे गवाह थे।

उसको याद करने के लिए जब से वजह की जरुरत खत्म हुई तब से लगा कि अब रिश्तों का न केवल भूगोल बदला है बल्कि मनोविज्ञान भी अब करवट लेने लगा है। बहुत दिनों तक खुद को कभी सही तो कभी गलत कभी रिक्त तो कभी तृप्त महसूस किया। दरअसल उन दोनों के रिश्तें न लौकिक थे और न अलौकिक ही उनमें राग जरुर था मगर वो राग किसी किस्म का बंधन नही बांधता था बल्कि वो आजाद उडान भरने का हौसला देता था।

उनकी लडाईयां कभी दोतरफा हो जाती तो कभी एकतरफा खुद ही से चलती थी। मगर आश्चर्यजनक रुप से दोनो के मन मे कोई द्वन्द भी नही था। कभी उनके अहसास सर्दी की एक कोहरे की सुबह ही तरह धुंधले हो जाते तो कभी तेज धूप की तरह रोशनी और ताप से दोनों को चमकाते भी थे। पहली दफा ऐसा महसूस हुआ था कि दिल और दिमाग के विद्रोह मे दिल की धडकनों ने आपस मे गहरी दोस्ती कर ली थी आते जाते सांस एक दूसरे को किसी गुप्त मंत्र की तरह संकेत मे बताकर जाते थे कि मन की गिरह कैसे बंध-खुल रही है।

अक्सर दोनो खुद से बेखबर रहते है मगर एक दूसरे की खबर चुपचाप दोनो तक पहूंच जाती थी सारा अस्तित्व दोनों के लिए कुछ औपचारिक षडयंत्र करता था ताकि उनकी कनफुसिया सुनकर वो दोनो के जीवन मे कुछ राहत के पल बो सके। दोनो के मन की खुशबू से हवा मे नमी का एक खास स्तर बना रहता वो हवा धूप् बारिश सूरज चांद सितारों के जरिए एक दूसर के जीवन मे संकेतों के रुप मे टांक दिए गए थे इसलिए बेखबरी के दौर में दोनो को एक दूसरे की ठीक ठीक खबर रहती थी।

इस सर्दी में दोनो के लिहाफ देह की सात्विक अनुभूतियों के यज्ञ से ताप पा रहे थे बिस्तर पर मन की समिधाओं के षटकोण सम्वेदनाओं की अग्नि में अपनत्व के घी से एक स्वयं सिद्ध जाप करते थे जिसमें दोनों का अह्म भी धुआं बन उड रहा था इन सब की वजह से दोनो की नींद मे भी दिव्य चैतन्यता थी इसलिए उनकी होश असंदिग्ध थी।

दरअसल उन दोनो का मिलना सदी का बडा विचित्र संयोग था और इस संयोग में किसका हाथ था ये जानने के लिए दोनो अपने अपने मन का पंचांग लगभग एक बार जरुर बांचते थे। मगर ग्रह नक्षत्रों की युक्तियों से इसका कोई पता न चलता था अंत मे दोनों हार अपने अपने हिस्से का अनिय्ंत्रित जीवन छोड देते बहने के लिए ताकि अपनी लय और गति मे एक एक कतरा नदी बनें और अंत मे समन्दर मे विलीन हो जाए। दोनो का मिलना दो पदार्थो का मिलना नही था बल्कि उनका मिलना दो चेतनाओं का सत्संग था जो एक अज्ञात की खोज में किसी निर्जन टीले पर बैठ एक दूसरे की उपस्थिति की जी रही थी बस। इस मुलाकातों के कारणों की तरह इनकी समय सीमा और आवृत्तियां भी अज्ञात थी। सम्बंधो के रहस्यवाद में यह एक नए अध्याय या नए युग का सुत्रपात था जिसका माध्यम वो दोनो बने थे।


‘कतरा-कतरा जीवन’

Tuesday, December 23, 2014

उम्मीद

जाता हुआ साल। कुछ टूटते कुछ जुड़ते हुए से अहसास। दिल में ज़ब्त अनकहें ज़ज्बात कुछ उदास लम्हों की जमानत उन्ही के सहारे कभी खुद से खफा तो कभी खुद मुआफ़ करने की नाकाम सी कोशिशें।
हिज्र का सर्द मौसम और तुम्हारी यादें जो ठंडी बर्फ से सच है उन्हें छूकर कभी खुद को तकलीफ देना तो कभी उन्ही के सहारे दिल से रिसते लहू को रोकना।
कुछ बिखरे हुए अहसासों पर शिकवों के पैबन्द लगाने की जुगत दिल को बहलाने का इल्म समझना जाते हुए साल की सबसे शातिर चाल है।
आह ठंडी न हो जाए वो बर्फ से ज़ज्बातों के नीचे सुलगती है तुम्हें धुंआ उठता नजर नही आएगा मगर जो तपिश रूह को मद्धम आंच पर सेंक रही है उसमें मेरा वजूद कतरा कतरा पिंघलता है।
धड़कनों को गिनते हुए और खुद की बेचैनियों को सूद की तरह  सम्भालते तुम्हारी यादों की जमापूंजी मुझे अमीर बनाती जाती है। तुम्हारी नजरों में इन लम्हों की भलें ही कोई कीमत न हो मगर तुम्हारे होठों के तबस्सुम और पलकों की नमी में बाकायदा मेरा हिस्सा है।
फिलहाल आँखें मूंदे तुम्हें कुछ बहानों से याद करता हूँ एक बहाना यह गीत भी है जो मेरे दिल से गिरह की तरह बंध गया है। जितना इसको खोलता हूँ ये उतनी ही कसती जाती है। तुम्हारे वजूद में भले ही अब मेरा कोई हिस्सा नही है मगर कुछ यादों के हवालें से तुम्हें न भूल पाता हूँ और न याद रख पाता हूँ।
मेरी पलकों पर आंसूओं की ओस जमी है सर्दी के इस मौसम में इनका वजूद बेमानी है क्योंकि न मै समझा पा रहा हूँ न तुम समझ पा रही हो।
गलतफ़हमियों के इस दौर में खुद को इस हाल में देखना एक सदमा भी है और कुफ़्र भी। अपनी तमाम बुराइयों के बावजूद तुम्हारी अच्छाईयां याद करता हूँ उन्ही के सहारे मेरी तबीयत ठीक होने लगती है यादों के मनीआर्डर भेजता हूँ तुम्हारे पते पर इस उम्मीद पर कि बैरंग खतों की तरह ये मुझ तक वापिस नही आएँगे। नए साल पर इतनी उम्मीद मेरे दिल में बची हुई है।

Friday, December 19, 2014

साथ की बात

अकेला मुझे कहीं नही पहूँचना था। अन्तस् पर भले ही नितांत अकेला था मगर वो एकांत की शक्ल में सुख का अकेलापन था। सफलता और असफलता दोनों की तरफ बढ़ते गए एक एक कदम मुझे अकेला करने की कवायद थी। मेरे हाथ हवा में अकेले झूलते थे मेरी हथेलियों का तापमान शून्य से कुछ दशमलव नीचे था। मेरी ऊँगलियां कड़ाके की सर्दी में भी आपस में एक दुसरे को गर्माहट देने से साफ़ इनकार रखती थी। वो अपनें बीच में इतनी जगह की गुंजाइश हमेशा बनाकर चलती कि एक दुसरे हाथ की जुम्बिश बन सके। वक्त की तमाम चालाकियों के बावजूद मन से हाथ थामनें की हिम्मत नही गई थी। मनुष्य नितांत ही अकेला है यह दार्शिनक सत्य जानने के बाद भी मेरी साथ की अभिलाषा बनी रही। यह साथ मेरी आशा की अवैध सन्तान थी जिसमें स्वार्थ नही था मगर साथ बना रहने की एक शाश्वत चाह अवश्य थी।
ये एक किस्म का पागलपन था। भीड़ से घिर जाने के बाद और तथाकथित रूप से सफलता के जश्न के बीच भी मेरा आवारा मन वहां से चुपचाप खिसक लेता और वो मेरी जड़ो की तरफ लौट आता। फिर वहां के मामूली चेहरे तलाशता और उनकी तरफ हाथ बढ़ाता। जिसमें कुछ दूर मेरे साथ चलने के आग्रह शामिल होते थे।
विचित्र पागलपन के साथ मै ये ख़्वाब देखता कि अपने सामर्थ्य के चरम शिखर पर भी अपने बचपन के दोस्त जो बेहद मामूली जिंदगी जीता है उसको अपने साथ ले कर चलूँ उसे पंचसितारा होटल के बीयर बार में बैठाकर खुद ड्रिंक सर्व करूँ उसे दुनिया के बड़े नगरों की सैर कराऊँ। अपने बचपन के उस दोस्त के किस्से सुनता रहा हूँ भूल जाऊं कि मेरे ज्ञान का विस्तार कितना है।
ये हाथ थामनें की चाह प्रायः एकतरफा ही थी क्योंकि आप अपने सम्पूर्णता में होने का दावा कर सकते है मगर सामनें वाले का हाथ यदि उसके कन्धे से कटकर दिमाग से जुड़ा हो तो फिर वो हाथ मिलाने के नाम पर आप कष्ट भी पहूँचा सकता है। कष्ट में जीना मेरे जीवन के अभ्यास में शामिल हो गया था इसलिए कई बार अपनें नर्म हाथ में मैंने अंगारे बोने वाले हाथ भी पाएं मगर मेरे मन की नमी से मेरी हथेलियाँ सुरक्षित रहती थी। हाँ ! मेरी कुछ हस्तरेखाएं जरूर अनावश्यक दबाव में अस्त व्यस्त हो जाती थी मगर खुद की किस्मत खुद ही लिखने के जूनून में मुझे उनकी कभी कोई परवाह भी नही रही।
असफलता का चरम भोगने के बावजूद भी मैंने अपने हाथ खुले रखे क्योंकि मुझे अकेला कहीं नही पहूँचना था। बार-बार आहत होते टूटते बिखरते वजूद ने कई दफा इस आदत के चलते मुझे लानत भेजी मगर मै खुद की भावुक मूर्खता पर अब खुश रहना सीख गया था।
खुद को जानबूझकर तकलीफ़ देना सही नही था मगर सही गलत से ज्यादा जरूरी मेरे लिए मेरा ऐसा होना था। जो कम से कम इतना मतलबी और केलकुलेटिव कभी नही हो पाया कि केवल और केवल खुद के ही बारें में ही सोच सकें। यही एक वजह थी कि मै दुनिया का सबसे अकेला इंसान था मगर इसके बावजूद भी मेरे हाथ बेफिक्री से खुले हुए थे कभी जिन्हें मै आगे बढ़ाता था तो कभी अपनी आँखें मलनें लगता था।

'हाथ-साथ-बात'

Wednesday, December 17, 2014

यकीं का मर जाना

तुम्हारा जाना तय था मगर इस तरह तुम जाओगी ये कल्पनातीत था मेरे लिए। तुमसें मिलनें के बाद एक ही अभिलाषा थी कि ये रिश्ता सबक का नही सफर का सबब बनें।मगर अफ़सोस मै गलत था। तुमने ऐसा सबक दिया कि मन की निष्पापता खुरच खुरच कर दिल से निकल गई है। अच्छा दिखने से कई गुना बुरा है अच्छा होना। मुझे लगा तुमने उस बची खुची अच्छाई को देख मुझ पर अधिकार समझा था मगर अंतोतगत्वा तुम्हारे मन की उधेड़बुन ने तुम्हें इस कदर कटघरे में खड़ा किया कि तुमनें खुद मुंसिफ बन मुझे मुजरिम करार दे दिया। एक बार बिखरकर इकट्ठा होने में मुद्दतें गुजर जाती है तुमसें मिलनें से पहले शायद मेरी दुनिया अलग थी मगर जिस सबक के साथ तुमनें मुझे छोड़ा है वो ठीक वैसा जैसे कोई मुसाफिर आधी रात बस से गलत ठिकाने पर उतर जाएं और राह में खड़ा सोचे उसे आगे चलने चाहिए की पीछे।
मौटे तौर अलहदा सोचना और अलग जीना ये दो अलग बातें है गैर पारम्परिक सोच को जीने के अपने खतरें हमेशा से रहें है मगर दुःख इस बात का है कि इस सोच को जीने के एककदम पर तुम इतनी आशंकाओं उचित अनुचित,पाप-पुण्य के मुकदमें में घिर गई हो कि तुम्हें मेरी दलीलें महज एक उकसावा भर लगने लगी। मैंने कभी तुम्हें न उकसाया है और न शब्दों के व्यूह में निस्तेज किया है।मेरी भूमिका एक सचेतक भर की थी क्योंकि तुम्हारे अंदर खुद की शर्तों पर जीने की सम्भावना दिखी थी। तुम्हारे जीवन में मैं दोस्त या प्रेमी की हैसियत से नही शामिल था बल्कि मै तुम्हारा एक सच्चा और अच्छा श्रोता भर था हाँ तुम्हारा साथ निसन्देह मुझे अच्छा लगता था।
अब जब तुमनें फरमान सुना ही दिया है कि मेरा दिखना भर भी तुम्हारी मानसिक अशांति का सबब है मेरे चेहरें पर तुम्हें मासूमियत की जगह नियोजित चालाक षडयन्त्र की बू आती है तो ऐसे में मेरा यहाँ ठहरना पहाड़ सा भारी हो गया है।
और अंत में यही कहूँगा हो सके तो आत्मदोष से बचना यदि मेरे मत्थे सब कुछ मढ़कर भी तुम्हें राहत मिलती हो तो भी मै इसके लिए प्रस्तुत हूँ एक खूबसूरत रिश्तें की हत्या का इल्जाम मेरे सिर और सही क्योंकि मै तो प्रकारन्तर से ही अन्यथा लिए जाने के लिए शापित हूँ।
मेरे कदम भले ही इस बोझ से धँसते चले जाएं मै तुम्हें ऊपर उठते हुए देखना चाहता हूँ। साथ बिताए चन्द लम्हों की जमानत लेकर जा रहा हूँ सफर में दवा की माफिक काम आएँगे तुम इन्ही लम्हों को जला इस सर्दी में राख के हवाले कर दो और आगे बढ़ो मेरे जैसे कुत्सित लोगो से तुम्हारी सुरक्षित दूरी ही भली है।क्योंकि मेरी वजह से तुम्हारे उसूल खतरें में पड़ गए इसलिए फिलहाल तो दफा करो मुझे और खुद के मजबूत होने का प्रमाण पत्र अपनी मन की दीवार पर चिपका लो। मेरे पास अंतिम सलाह यही है जिस पर तुम्हें यकीन हो जाएगा इसका मुझे यकीन है।

'मौत एक यक़ीन की'

Monday, December 15, 2014

सलाह

रफ़्ता रफ़्ता तुम जिंदगी का हिस्सा बन गए। जैसे कभी तुमसे मिलना नही चाहा था ठीक वैसे ही अब तुमसे कभी बिछड़ना नही चाहता हूँ। जानता हूँ रिश्तों को ताउम्र सम्भालनें का कौशल नही है मेरे पास। हर छटे छमाही भाग जाना चाहता हूँ खुद से भी बहुत दूर और रिश्तें एक दुसरे को देखकर सांस लेते है। तुम्हें खोना नही चाहता इसलिए एक पकी उम्र के बाद भी मै सोचता हूँ क्या कुछ सीखा जाना चाहिए जिससे तुम्हें अनंत तक सहेज सकूँ।
तुमसे वैसे तो कोई औपचारिक रिश्ता नही है मगर जो भी है वो एकतरफा नही है।हम बारी बारी से अपना अक्ष बदल देते है कभी तुम तत्पर दिखती तो कभी तटस्थ कभी मै तटस्थ तो कभी तत्पर। शायद यही वजह है दोनों साथ प्रायः बहुत कम दिखते है।
साथ दिखना वैसे भी एक लौकिक दिखावा भर होता है साथ दिखने से ज्यादा साथ होना महत्वपूर्ण होता है। तुम्हारे साथ होने के लिए तन एक गौण माध्यम है इसलिए उस तरह नही सोच पाता हूँ कि कब कहाँ कैसे मिलना है बल्कि मेरी फ़िक्र में यह बात शामिल रहती है कि तुमसे कैसे अज्ञात रहा जाए ताकि मेरी अनुपस्थिति में तुम कुछ बिखरे अहसासों को गुनगुनाती हुई एक नेह के धागें में पिरो सकों। जब तक मैं तुम्हारे सामने होता हूँ तुम खुद तक नही पहूंच पाती हो।मन की उलझनों की गिरह को गिन नही पाती हो। तब तुम्हारे लिए मेरे होना एक बाधा बन जाता है क्योंकि तब किसी की नही सुनती हो।
मैं चाहता हूँ कि तुम कभी अकेले में खुद से बात करो मन की संकरी गली के मुहाने पर पालथी मार के बैठ जाओं और हर आते जाते ख्याल की खबर लो।शायद उन्हीं ख्यालों में से एक ख्याल मेरा भी मिलेगा तुम्हें तुम उसकी गहराई की खुद पड़ताल करों।यह कोई परीक्षा नही है बस एक तरीका है जिसके जरिए सही गलत पाप पुण्य के मुकदमें में फंसा तुम्हारा मन बाइज्जत बरी हो सकता है।
तुम कुछ ऐसे पवित्र अहसासों की गवाही ले सकती हो जो मेरे मन के निर्वासन से निकल कर तुम्हारे दिल में आश्रय लिए  बैठे है।जरूरत पड़ने उन लम्हों से भी हलफनामा लिया जा सकता है जिन पर पारस्परिक स्पर्शों की एक महीन परत चढ़ी हुई है।
फिलहाल इस यात्रा के लिए इतना ही काफी है यदि तुम ऐसा कर पाई तो फिर खुद को ये तसल्ली दी जा सकती है कि हम मिलें या बिछड़े दोनों ही सम्मानजनक रहेगा हमेशा के लिए और यादगार भी।

'मिलना-बिछड़ना'

Friday, December 12, 2014

चाय और तुम

एक तुम्हारे जाने के बाद चाय की प्याली ऐसी रूठ गई कि उसे मना कर हाथ में थामने की हिम्मत भी जाती रही। अब चाहे चाय हो या शराब मै कांच के गिलास में पीता हूँ।
चाय के कप की नजाकत और नाजुकता तुम्हारे स्पर्शों की देन थी। चीनी मिट्टी में खुशबू फूंकने का तुम्हारा इल्म काबिल ए तारीफ़ था कप को सूंघ कर तुम्हारी कोल्ड क्रीम का ब्रांड बता सकता था। चाय छानते वक्त तुम्हारा कंगन चाय के कप से टकराता तो लगता जैसे संतूर का तार बज उठा हो।
दरअसल चाय एक जरिया थी हमारे तुम्हारे बीच बिखरे अफसानों की किस्सागोई करने की।गर्म चाय में फूंक मारकर पीने की बचपन की आदत मै तुम्हारी सोहबत में ही छोड़ पाया। तुम्हारे लिए चाय बनाना पानी दूध चीनी पत्ती अदरख को पकाना भर नही था बल्कि सच कहूँ तो तुम्हें चाय कोई खास पसन्द भी नही थी मगर तुम पकती हुई चाय में जब फूंक मारकर उबाल हटाती तब मुझे तुम्हारी तन्मयता और मासूमियत में जादुई तिलिस्म नजर आता था। तुम चाय से उड़ती भांप के हवाले अपनी तमाम दुनियावी चिंताएं कर देती और फिर घूँट घूँट जिंदगी की तरह चाय पीती थी।
ऐसा कई दफे हुआ तुम्हारा न चाय बनाने का मन था और न पीने का मगर मेरे बोझिल मूड को देखकर तुम्हें शब्दों के सांत्वना भरे उपचार से बेहतर मेरे लिए एक कप चाय बनाना लगा। तुम्हारी रसाई में चाय के प्यालें हमारी बतकही के मुरीद थे और तुम्हारा कॉफी का मग इस बात पर तुमसे मुद्दत से नाराज़ रहा कि तुमनें उसको चाय का मग बना दिया था। जिस दिन तुम्हारे चाय पूछनें पर मै चाय पीने से मना कर देता तुम उस दिन गहरी फ़िक्र में डूब जाती थी कई दफा ऐसा भी हुआ मै आया और तुम बिन पूछे ही चाय बना लाई हम दोनों के बीच चाय एक तरल पेय ही नही थी बल्कि वो एक सेतु थी जिस पर हम एक दुसरे का बेफिक्री में हाथ थामें टहल सकते थे।
अक्सर शाम को तुम्हें चाय की प्यालियों के साथ तलाशता हूँ अब न वैसी चाय मिल पाती है और ना वो बातें जब तुम्हारे तानों से उपजी हंसी से चाय कप से बाहर छलक जाया करती थी। मेरे कुछ खादी के कुर्तों पर उनके निशान अब तलक बनें हुए है और मै चाहता हूँ वो ऐसे ही बने भी रहें वो हमारी मुलाकातों के सच्चे गवाह है।
ऐसा नही है कि अब चाय पीनी छोड़ दी है बस अब उसकी लत नही रही न उसमें मेरी वैसी दिलचस्पी रही जैसी तुम्हारे साथ पीते वक्त हुआ करती थी। तुम्हारे जाने के बाद मैंने कई दफे खुद चाय बनाई मगर अजीब इत्तेफाक है तुम्हें ये हुनर सीखा कर मैं खुद भूल गया हूँ अब डॉक्टरी सलाह मानकर ग्रीन टी पीता हूँ कहते है उसमें एंटी ऑक्सिडेंट होता है विज्ञान का यह कोरा झूठ है दरअसल एंटी ऑक्सिडेंट तो तुम्हारे हाथ से बनी चाय में ही होता था जिसे पी कर मेरा मन बूढ़ा होने से इनकार कर देता था।
अब न घर पर बॉन चाइना के कप है और न केतली अब कांच के गिलास का एक बचा हुआ सेट है जिसमें से हर छटे छमाही एक गिलास टूट जाता है फिलहाल दो बचें हुए है। कांच के गिलास इसे अपनी तौहीन समझते है कि सुबह जिस गिलास में मै चाय पीता हूँ शाम को उसी में शराब भी पी लेता हूँ वो मेरी फितरत नही समझ पा रहें है कि मै एक शराबी हूँ या चायप्रेमी। वो ही क्या तुम्हारे जाने के बाद मै खुद इस बात को लेकर कन्फ्यूज्ड रहता हूँ कि चाय सुबह पी जाएं कि शाम और शराब शाम पी जाएं कि सुबह।

'चाय और तुम्हारी चुस्कियां'

Monday, December 8, 2014

ब्याज

तुमसे मिलनें के बाद मै थोड़ी देर के लिए मतलबी हो गया था। तुम्हारें अंदर खुद को तलाशने लगा था शायद तुम्हारे साथ के अहसास ने मुझे थोड़ी देर के लिए बदल दिया था मै अन्तस् की ख़ुशी को खींचकर लम्बी कर देना चाहता था तुम्हारी वजह से न जाने क्यों ऐसे लगा कि मै खुशी को महसूस कर सकता हूँ खुश दिख सकता हूँ।
कई दिनों तक उसी अहसास में फंसा रहा सच्चाई से कहूँ तो दोस्त मैं तुम पर अटक गया था मुझे तुम्हारे माथे पर खुशी का लिफाफा नजर आने लगा था।
बहरहाल खुशी कब देर तलक किसी के हिस्सें में रहती है। मैं अब खुद के मूल वजूद की तरफ लौट आया हूँ अब मेरी पलकों पर ज़मी यादों की धुंध छट गई है थोड़ी देर वो गीली रहीं और फिर सूख गई।
अब मुझे कोई दुविधा नही है अब फिर से वही वैचारिकी और सम्वेदना की चासनी में डूबा अस्तित्व मेरा सच है।
इसी सच के सहारे खुद को साधना अब मेरी विवशता और प्राथमिकता दोनों है। तुम्हारी परछाई को नापते हुए मुझे तुम्हारे न होने का पक्का यकीन हो गया है।
तुम्हारी सुखद स्मृतियाँ मेरे लिए एक स्थाई पूंजी है जिनका ब्याज मै सावधि जमा की तरह ताउम्र खाता रहूंगा।

'मिसिंग कैपिटल'

Sunday, December 7, 2014

अज्ञात

सारे आकर्षण अप्राप्यता के थे। अज्ञात के बन्धन ज्ञात की गिरह से ज्यादा मजबूत थे। अदृश्यता में गहरा रोमांच था। साक्षात का ओज कपूर की डली बन गया था। प्राप्य की कामना मन का एक अस्थाई आवेग था शायद उसमें कौतुहल या जिज्ञासा के बन्ध लगे थे। परन्तु  महज एक मुलाक़ात ने मेरा ऐसा साधारणीकरण किया कि तुम तय नही कर पाई कि तुम्हारे मानकों की सीढ़ी पर किस पायदान में मेरा पैर फंसाओं  ताकि मुझे तेजी से नीचा गिरते हुए से रोक सको। अनायास और अनियोजित ढंग से निर्मित हुई छवि से मेरे कंधे झुक गए थे पुरूष होने के नाते यह एक नकारात्मक बात थी क्योंकि तुम्हें केवल मेरी वक्त और हालात से लड़ती चट्टान सी छाती देखने का अभ्यास था।
तुम्हारी आँखों में काजल लगा था जिससे उनकी ख़ूबसूरती में इजाफा हो रहा था और इधर मेरे आँखों में आंसूओं के तालाब में काई ज़मी थी जिसकी हरियाली से तुम हैरान तो हो सकती थी पर खुश नही। मेरी हथेलियों की रेखाओं का भूगोल इस कदर बिगड़ा हुआ था कि उनकी करवटों की वजह से तुम्हें हाथ मिलाते वक्त एक अजीब सा खुरदुरापन महसूस हुआ जबकि तुम्हारे स्पर्शों में नमी का औसत स्तर कायम था उससे त्वचा की शुष्कता थोड़ी कम तो हुई परन्तु फिर भी स्पर्शों की पकड़ में एक न्यूनतम बाधा मेरी वजह से आड़े आती ही रही।
तुम्हारे आग्रह इतने आत्मीयता से भरे हुए थे मै चाहकर भी इंकार नही कर पाया। जबकि मेरे अवचेतन में यह बात सदियों से टहल रही थी कि अज्ञात दर्शन का आकर्षण बड़ा होता है न्यूनतम रहस्य बचाकर रखना मेरे लिए जरूरी है यह बात समझ नही पाया।बेफिक्री में जिंदगी जीते हुए मैं वो कौशल अर्जित न कर सका।अभिव्यक्ति और पारदर्शिता में इतना लिप्त रहा हूँ कि खुद को कैसे सरंक्षित रखना है यह भूल गया था।
यद्यपि तुम्हें मुझमे सबकुछ निराशाजनक ही लगा हो ऐसा भी नही है परन्तु तुम्हारी पलकों के झपकनें के अंतराल में मैंने वो भाव पढ़ लिया था जो तुम्हारी आँखों की खोई चमक में आवारा टहल रहा था और बुदबुदा रहा था कि नही! ये शख्स ऐसा नही है जिससे दोबारा मिला जा सके। पहली मुलाक़ात में तुम्हारी न्यूनतम अपेक्षाओं की गर्मी से मेरे अस्तित्व का ग्लेशियर इतनी तेजी से पिंघला कि मेरे मन में एक बाढ़ आ गई और तुम युक्ति से अपनी एकल नांव लेकर चुपचाप दूर निकल गई और मै अपलक तुम्हें देखता ही रह गया।
तुम्हारी तत्परता और सदाशयता ने मुझे अस्वीकृत नही किया ना ही तुम मुझसे निराश थी बस तुम्हारे मन के आँगन में मै तेज बारिश की तरह बरस कर बह गया था जबकि तुम मुझे चाय का कप थामें मद्धम झड़ी वाली बारिश में गुनगुनाना चाहती थी। मुझमें में सतत आकर्षण बनाए रखने के लिए तुम्हें किसी एक ऐसे यूनिक तत्व की तलाश थी जो तुम्हें लोक में नजर न आया हो। सम्भव है मुझमें वो तत्व रहा भी हो मगर मेरी प्रस्तुति में चुस्ती का अभाव था इसलिए वो तत्व ने मै व्यक्त कर पाया और न तुम तलाश पाई और अंतोतगत्वा तुम मुझमें आकर्षण खो बैठी।
फिलहाल तुम्हें चुप/विरक्त/तटस्थ देखकर तुम्हारी मनस्थिति का पता चलता है तुम अब मुझे देख/सुन/पढ़ कर अब विस्मय से नही भरती धीरे धीरे तुम्हारे अन्तस् में पसरा मेरा अनंत विस्तार सिमट रहा है इस पर मै खुश हूँ या दुखी यह बता पाना मुश्किल है मेरे लिए।
ज्ञात या प्रकट का दोष,अपेक्षाओं के भंजन का अपराधबोध फिलहाल स्वयं के ऊपर लेता हुआ मै तुम्हारे सहित अन्य तमाम चेतनाओं से साक्षात मिलना स्थगित और अस्वीकृत करता हूँ।खुद को बचाये रखने का एकमात्र यही उपाय फिलहाल मुझे नजर आ रहा है। एक भूल को बार बार दोहराना मेरे लिए अब यातना न बनें और किसी के मन पर मेरे चयन को लेकर अपराधबोध/खीझ के बादल छाएं ये इस जन्म में अब और नही चाहता। उम्मीद है तुम इस आत्मस्वीकृति को मेरा अंतिम आकर्षण समझोगी।

'अज्ञात से ज्ञात'


Saturday, December 6, 2014

उनकी बातें

उन दोनों की उम्र में तकरीबन एक दशक का फांसला था। सृष्टि क्रम में दोनों आगे पीछे आएं मगर मिलने के बाद दोनों ऐसे साथ-साथ चलनें लगे थे कि उम्र धीरे धीरे गल कर बह गई थी। वक्त गुजरनें और साल बीतनें से उम्र का कोई सम्बन्ध नही होता है ये बात उन दोनों को देखकर साफ़ पता चलती थी। वे दोनों ही अपने समय से आगे की जिन्दगियां जी रहें थे। शुरुवाती दिनों में आयु के पूर्वाग्रह दोनों का पीछा करते थे। धीरे धीरे उम्र की जगह सम्वेदना और चेतना ने ली और प्रज्ञा एक दुसरे के जीवन में होनें का उत्सव मनानें लगी थी। उनका मिलना अस्तित्व के विचित्र संयोगों की जुगलबंदी का परिणाम था बुनियादी तौर पर बहुत से मुद्दों पर असहमत होते हुए भी वें प्रायः एक दुसरे से सहमत पाये जाते थे।
रोजमर्रा की भागदौड़ के बीच वें चुरा लेते थे कुछ पल और निकल पड़ते थे अज्ञात की यात्रा पर उनके विषय भले ही बेहद भटकें हुए होते मगर एक दुसरे का हाथ थामें उनकी यात्रा एक ही दिशा में आगे बढ़ती थी। चेतन की बजाए एक दुसरे के अर्द्धचेतन और अवचेतन की अमूर्त अभिलाषाओं के बड़े स्रोत बन गए थे वें दोनों।शायद यही वजह है कि यदा कदा दोनों की मुलाक़ात ख़्वाबों में भी होने लगी थी।
दरअसल उनके गुरुत्वाकर्षण का एक ही केंद्र बन गया था वो आँखों में आँखे डाल घंटो बातें कर सकते थे। उनकी पारस्परिक पारदर्शिता इतनी साफ़ किस्म की थी कि उनमें मन की तृप्त कामनाओं के स्पष्ट छायाचित्र देखे जा सकते थे।
उन्हें देखकर कभी ऐसा नही लगा कि वो अपने मन की आंतरिक रिक्तताओं का निर्वासन झेल रहें है उनके सांसारिक पक्ष बेहद संतुष्ट और व्यवस्थित किस्म थें परंतु वो किस अज्ञात वजह से एक दूसरे के नजदीक आएं ये बता पाना मुश्किल था। उन दोनों की भौतिक उम्र में भले ही एक दशकीय अंतर था परंतु दोनों के मन चेतना और सम्वेदना की आयु लगभग समान थी दोनों ही एक दुसरे के प्रश्नचिन्हों को पूर्ण विराम में बदलनें की क्षमता रखते थें।
उन दोनों ने रच ली थी अपनी एक समानांतर दुनिया जहां हवा बारिश आकाश सब कुछ उनका अपना था वो पढ़ सकते थे एक दुसरे की पीठ पर छपें सांसारिक विवशताओं के इश्तेहार इसलिए धीरे धीरे उनकी आरम्भिक शिकायतों की जगह एक मौन समझ ने ले ली थी। अब उन दोनों के लिए सम्वाद से ज्यादा अंतरनाद के एक दुसरे को महसूस करना अधिक महत्वपूर्ण हो गया था।
देखा जाए तो वो दोनों न प्रेमी थे और न मित्र ही।उनके रिश्तें को समझने के लिए एक नई परिभाषा का निर्माण करना अनिवार्य था मगर उन दोनों की भावनात्मक लोच को आत्मसात करने के लिए दृष्टि की व्यापकता का होना एक अनिवार्य शर्त थी।
साल में एक बार उदासियों और विदाई के टीले पर दोनों मिलते थे तब वो अपने अन्तस् में छिपे उस अज्ञात को महसूस कर सकते थे खुलकर दोनों की रूह जब आपस में जुड़ जाती तो फिर देह विलोपित हो जाता था। उनके स्पर्शों में पवित्र भावनाओं की पवित्रता होती धड़कनो का मद्धम स्पंदन मिलकर ऐसा सुरो को साधता कि मौन में साँसों के आलाप उस दिव्य संगीत की मदद से रियाज़ करने लगते थे।
उनकी एक ही योजना थी कि उनकी कोई योजना न हो वो बिना शर्त कुछ लम्हों को जीना चाहते उनकी चाहतों का आकाश थोडा अजीब था वहां धुंध में भी उड़ान भरनें की हिम्मत थी और बारिशों में साथ भीगने की शरारत भी। वो दोनों गढ़ रहे थे देह से इतर सम्बन्धों के नए आख्यान जिन पर सुनकर यकीन करना थोड़ा मुश्किल था। पंचमहाभूत को जानते हुए देह को फूंक से उड़ा उन दोनों ने मन के हाथ मिला लिए थे आपस में।उनको देख दिल से कभी दुआ निकलती तो कभी रश्क भी होता था। उनकी बातें फिलहाल भले ही काल्पनिक या गल्प लगे मगर उन दोनों का सच रोमांचित और विस्मय से भरा हुआ था जिसे सोचते हुए कोई भी नींद में मुस्कुरा सकता था।

'उनकी बातें वो ही जानें'

Thursday, December 4, 2014

सम्मोहन

आखिर तुम्हारा सम्मोहन टूट ही गया। शब्दों के रचे व्यूह की अपनी एक सीमाएं थी। उनमें स्पंदन जरूर था मगर उनमें कीलित मंत्रो के जैसे प्रभाव शामिल थे। इस सम्मोहन के जरिए मै तुम्हारे अर्द्धचेतन और अवचेतन में संचित दमित कामनाओं की पड़ताल में सलंग्न ही था कि तुमने चेतन हो आँखे खोल दी अपनी। तुम्हारा सम्मोहन टूटना है यह तो पहले दिन से ही तय था मगर इतनी जल्दी टूट जाएगा इसकी उम्मीद मुझे भी न थी।
मै कोई आदर्श पुरुष नही था तुम्हारे जीवन में।तुम्हें मेरे जरिए खुद की तलाश पूरी होने की एक धूमिल सी सम्भावना दिखी थी। इसी बहाने तुम चली आई बिरहन सी मगर मेरे वैविध्य ने तुम्हें हमेशा एक संशय में रखा। तुम्हारी धारणाएं तुम्हें अनासक्ति के लिए सतत प्रेरित करती रही परंतु कुछ अंश वास्तव में मेरे भी ऐसे अद्वितीय किस्म के थे जिसके चलते तुम अपनी विचारधारा से बेईमानी तक करने की सोचने लगती थी।
इस यात्रा में चयन के सारे सर्वाधिकार तुमनें अपने पास सुरक्षित रखें।मै केवल दृष्टा था।अच्छी बात यह थी कि मै स्वीकार भाव में था। ना मेरे ऐसे कोई लौकिक आग्रह ही थे जिसके चलते तुम्हें संपादित करने की मेरी कोई चाह रहती। मेरे हिस्से का केवल इतना सच है कि हां! मुझे तुम्हारा साथ अच्छा लगने लगा था। जब तुम साथ होती तो मेरे कन्धों और पलकों पर वक्त और हालात की जमी गर्द उड़ जाती थी तुम्हें लेकर मेरे मन में एक पवित्र आश्वस्ति थी इसलिए तुम्हारे समक्ष छवि निर्माण की ऊर्जा अपव्यय से बच जाता था। जब-जब तुमसें मिला बेपरवाह और बिना लाग लपेट के मिला।
तुम्हारे सम्मोहन का टूटना मेरे लिए आश्चर्यजनक कतई नही है क्योंकि मुझे लेकर तुम्हारे मन में प्राप्य और अप्राप्यता के द्वन्द थे और शायद कुछ नैतिक प्रश्न भी तुम्हें सतत परेशान कर रहें थे। इस अवस्था में समझाईश से बचता रहा हूँ मैं क्योंकि समझाना भी अन्य को एक किस्म की अपने अनुरूप करने की कंडीशिनिंग है।इसलिए मैंने तुम्हारे कुछ प्रश्नों पर कोई प्रत्युत्तर नही दिए। मै चाहता था इस यात्रा में यदि तुम्हारी वास्तविक दिलचस्पी है तो इसके लिए समस्त आवश्यक तैयारियां तुम्हारे नितांत की व्यक्तिगत अभ्यास से विकसित होनी चाहिए। मेरे स्पष्टीकरण तुम्हें कमजोर बना सकते थे तुम्हें शब्द विलास में खो कर निर्णय ले सकती थी और उसके बाद यदि संयोग से कभी तुम्हें अपराधबोध होने लगता तो इस यात्रा के लिए तुम्हें उत्प्रेरित करने का सीधे सीधे मै अपराधी बन जाता।
सम्मोहन से बाहर आते ही तुम थोड़ी असहज थी शायद तुम्हें यह अहसास तो था कि तुम क्या खोने जा रही हो। तुम्हारा दिमाग तुम्हें हौसला देता तो दिल लानत मलानत भेजता। कुछ अर्थों में देखा जाए तो यह सम्मोहन टूटना बेहतर रहा क्योंकि अब सब ज्ञात और चैतन्य है। इस सम्मोहन के उत्तर प्रभाव में तुम थोड़ी देर एक स्थान पर जड़ खड़ी रही और मै तुम्हें देखता रहा अपलक। बस मुझे दुःख इस बात का है कि मेरे इस शाब्दिक सम्मोहन के उत्तर प्रभाव लम्बें वक्त तक तुम्हारा पीछा करेंगे भले ही तुम अपनी बुद्धि से मेरी यादों के कमरें पर युक्ति की सांकल लगा दो हमेशा के लिए। यह सम्मोहन पेशेवर या उपचारिक सम्मोहन से इसलिए भी भिन्न रहेगा यह तुम्हारी स्मृतियों से मुझसे जुड़े अनुभव विस्मृत नही कर सकेगा बल्कि इस सम्मोहन का एक अपना विचित्र अनुभव तुम्हारे अनुभव का हिस्सा बन गया है। जिसे सोचकर तुम कभी हंसा करोगी और कभी रोया करोगी।
यह सम्मोहन न तिलिस्म से भरा था और न यह ऐन्द्रियजालिक था।यह सम्वेदना और चेतना के सहज आकर्षण की ऊपज था इसमें अर्जित व्यवहार एक बाधा बना और ये टूट गया।परन्तु निसन्देह इसके जरिए हम एक दूसरे के अज्ञात से परिचित भी हो पाएं यह देह से अधिक चेतना के आत्मिक संवाद का माध्यम भी बना। यह इस छोटी यात्रा की सबसे बड़ी उपलब्धि है।तुम्हें देखकर मै थोड़ा विस्मित जरूर हूँ परन्तु मै तुम्हारी अद्वितियता का एक अंश अपने हृदय में हमेशा के लिए सुरक्षित कर लिया है और उसके सम्मोहन में कम से कम मै सारी उम्र रह सकता हूँ। शेष जीवन के लिए मेरे पास तुम्हें देने को केवल कुछ शुष्क शुभकामनाएं ही है यदि उनमे कुछ भी असर हो तो यही कहूँगा जहां भी रहो खुश रहो।

'जीवन का सम्मोहन'

Tuesday, December 2, 2014

दिसम्बर की सुबह

देखते ही देखते खत्म होता जा रहा एक और साल। जिस साल तुमसे मिलना हुआ था उस साल की शक्ल मुझे याद है।वो दिसम्बर नही जनवरी के बाद का कोई महीना था जब तुम्हारी आमद हुई थी। साल का बदलना एक स्वाभाविक घटना है मगर वक्त का थम जाना या फिर किसी ख़ास लम्हें में अटक जाना कई अर्थों में सामान्य नही है। एक अरसे से मै खुद से मानसिक ऊब का शिकार रहा हूँ।एक ख़ास वक्त के बाद सब चीजे छूटती चली जाती है इसलिए कभी लगा नही था कि तुम्हारे दस्तखत मन पर इतने गहरे हो जाएंगे कि रह रह कर तुमको पाने और खुद को खोने का अहसास होने लगेगा।
इस साल की सर्दी में एक बुनियादी फर्क यह भी महसूसता हूँ कि अब कुछ नर्म यादें मुझे सतत ऊष्मित रखती है मै उनके सहारे सुबह शाम अकेला छत पर टहलता हूँ। दिसम्बर का यह महीना इतनी तेजी से मेरी यादों से फिसल रहा है कि मै तुम्हें दोनों हाथों में भर समेटना चाहता हूँ तुम्हारा अस्तित्व इतना आणविक किस्म का हो गया है कि मेरे लिए तुम्हारी सूक्ष्मता को संग्रहित करना आसान नही है।
कभी कभी आँखें मूंदे अर्द्ध स्वप्न में तुम्हें सोचता हूँ और फिर सोचता ही चला जाता हूँ अमूर्त आकारों को संधि विच्छेद करता हूँ तुम्हारी एक साफ़ आकृति मेरे पास है मगर वो किसी एक फ्रेम में आने से इनकार कर देती है वो जीना चाहती है निर्बन्धन। उसके इस पवित्र आग्रह से मेरा मन की आबद्धता क्षण भर में दूर हो जाती है और फिर मै तुम्हें सम्बोधन उपमाओं के अदृश्य पिंजरे से मुक्त कर देता हूँ।
तुम्हारी उन्मुक्त उड़ान से मुझे भी हौसला मिलता है और खुद को भी मुक्त कर देता हूँ। यह मुक्ति व्यापक अर्थों में एक किस्म का बंधन या जुड़ाव है पिछले साल दिसम्बर में जो बातें तुम्हारे बारें में सोच रहा था लगभग इस दिसम्बर में भी वही विषय है परन्तु उनकी लोच बदल गई है। अब तुम्हें पाने का जुनून या खोनें का भय नही है हाँ बस तुम्हें आसपास देखना चाहता हूँ।
अब हमारे बीच सम्वाद में शब्द धीरे धीरे लोप होते जा रहें है अब हमारे सम्वाद के अक्ष बदल गए है अब साँसे आपस में बातें करना चाहती है स्पर्श गहरी पवित्र पारस्परिक दोस्ती की अभिलाषा लिए प्रार्थनारत है। मन की अभिवृत्तियां शब्द जाल को परखना चाहती है वो बुद्धि और अह्म के चमत्कारों से इतर अपनी मैत्री की सम्भावना तलाश रही है।
साल का क्या है? इसे तो बीतना ही होता है हर साल मगर इस साल दिसम्बर मुझे तुम्हारे उस अज्ञात का पता देकर जा रहा है जिस पर दिल के पाक जज्बातों के खत लिखे जा सकते है मै इस उम्मीद पर अपने कागज कलम और मन को तैयार कर रहा हूँ कि मेरे लिखे ये खत तुम कम से कम अगले दिसम्बर तक जरूर पढ़ पाओगी। ये बैरंग मुझ तक न लौटें इसकी फ़िक्र इस दिसम्बर में भी मेरी धड़कन तेज और कान लाल कर रही है साथ ही एक आश्वस्ति भी है कि इन नए पतों पर पुरानी बात जरूर दस्तक देगी।
यह जाता हुआ साल कुछ कुछ भोर के स्वप्न को जागकर याद करने जैसा है कितना सच है यह बात शायद अगले दिसम्बर तक ही पता चल सकेगी तब तक के लिए खुद को छोड़ देता हूँ एक नए साल के हवालें तुम अच्छा बुरा सब सम्भाल लोगी इस बात के सहारे पहली बार नए साल में जाने से पहले डर नही लग रहा है मै मुस्कुरा रहा हूँ दिसम्बर की सुबह की तरह।

'दिसम्बर जा रहा है'

Thursday, November 27, 2014

यादें

कुछ खराशें जेहन में रफू हो गई थी कुछ पैबन्द लगाते हुए उंगली भी जख़्मी थी रफ्ता रफ्ता तुम इस तरह से जिंदगी के उजाले से गैर हाजिर होती गई कि मेरे पास हासिल में बस कुछ यादें बची थी। उन यादों का जिक्र करके मै खुद को ठीक कर रहा हूँ या बीमार यह भी मुझे मालूम नही है।
तुम्हारा यूं मिलकर बिछड़ना एक मुसलसल सदमा था जिसके लिए खुद के मुस्तकबिल को कोसने की भी इजाजत नही थी।क्योकि तुमसे मिलना ही खुद के बेशकीमती और खुशनसीब होने का सुबूत था।
सर्दी में पतझड़ आ सकता है इस बात का अगर अंदाजा होता तो पहले वक्त के मदरसें में बदलते मौसम को जीने का इल्म हासिल करके आता। तुम्हारी खुशबू इत्र के फाहे की तरह मेरे कान में बस गई थी आदतन खुद को कुरेदता कतर ब्योंत करता रहा मगर तुम्हारी दस्तक का इश्तेहार मेरे दिल पर चिपका हुआ था और मेरे दिल को लहुलुहान करने की केवल तुमको इजाजत थी।
दरअसल वक्त की चालाकियां तो देखिए तुम्हारा जाना इतना तयशुदा किस्म का था कि तुम्हारे आने का जश्न न हुआ उस वक्त मै सजदे में था कुछ लम्हों को गिरवी रख मांग रहा था तुम्हारा साथ और तुम कतरा कतरा फिसलती जा रही थी रेत की मानिंद।
ऐसे नाजुक लम्हों को करीने से सम्भालने के लिए मेरे पास केवल सच्चाई के लब थे और इसके अलावा तुम्हारी आँखों में झांकने का एक पाक हौसला था।
जज्बातों का लोबान जला था और तुम आफरीन थी मै किस हैसियत से तेरी पनाह में था ये बता पाना जरा मुश्किल होगा मगर मेरी रूह मेरे जिस्म से बाहर निकल मुझे ही देख रही थी उसने मेरे कान में बिछड़ने का हौसला फूंका और कहा आमीन।
अभी तक उसी एहसास में अटका पड़ा हूँ तुम्हारी हिदायतों और उम्मीदों को दुआ की शक्ल में तावीज बना कर गले में पहन लिया है मुश्किल और जज्बाती दौर में ये मेरे ईमान को मजबूती देगा इसका मुझे भरोसा है।
तुम्हारी जहीनियत पर कुछ अलफ़ाज़ खर्च करने की ना मेरी हैसियत है या ना मेरे पास वो इल्म है।तुम्हें खुदा ने अक्ल और दिल बराबर हैसियत का अता किया है तुम्हारी बातों में तजरबें का चासनी होती है और दिल के बेलौस जज्बात भी।इतनी ख़ूबसूरती से तुम नजदीकियों से बच निकलती हो कि तुम्हारी इस अदा पर रश्क होने लगता है।
बहरहाल तुमसे मिलना खुद से मिलने जैसा है इसलिए तुम अजनबी नही बन सकती मेरी नजरों में कभी शायद यही एक वजह है हम दोनों की जिंदगी में एक दुसरे के लिए कोई जगह न होते हुए भी किस्सागोई और बतकही के लिए जमीन खुद सूख जाती है जहां हम वक्त की आँखों में आँखे डाल सपनों की अदला बदली कर सकते है।
तुम्हारी गैर हाजिरी में इतना ही याद आ रहा है यह बुखार में बड़बड़ाने जैसा है तुम्हें याद करके राहत मिलती है बैचैनी नही इसलिए याद करता रहता हूँ तुम्हें अक्सर जबकि जानता हूँ तुम मुझे कभी याद नही करती उसके लिए जो चीज चाहिए बस वही तुम्हारे पास नही है कभी फुरसत ख़रीदो मुझ जैसे किसी खाली आदमी से फिर फुरसत से बात करते है।

'फुरसत यादें'

Wednesday, November 26, 2014

गीता बीता

एकाधिकार का भी अपना आकर्षण था।यह कुछ कुछ जिद के जैसा था कि मै तुम्हें केवल मुझ तक ही सीमित देखना चाहता था। तुम एक सरस नदी थी जिसकी तट से मित्रता बेहद कम क्षणों की थी तुम्हें बहना था तृप्ति की ओर। यही एक वजह थी कि धीरे धीरे मैनें खुद को तुम्हारे जीवन में ठीक उतना ही अप्रासंगिक पाया जितना तुम्हारे जीवन में सर्राफ का दिया तुम्हारा छोटा बटुआ हो चला था।
तुम्हें बंटते हुए देख मुझे बुरा नही लगता था मगर हाँ मुझे खुशी नही होती है मुझे लगता था तुम मेरी खोज हो तुम्हें मैंने कतरा कतरा रोज़ तराशा है तब जाकर तुम्हारी बातें गुड की डली बनने लगी थी। जब तुम मुझे मिली तब शायद तुम्हारी खुद से सतही मुलाकातें थी इसलिए तुम्हें नही पता था कि तुम क्या हो और जब पता चला तो तुम्हें कोई विस्मय नही हुआ इस बात का मुझे आजतक विस्मय है।
मै चाहता था तुम दीवान ए ख़ास में किसी इबारत की तरह रहो मगर शायद वहां की तन्हाई तुम्हें दीवान ए आम में ले लाई है। ठीक है इसमें भी कोई बुराई नही है बस अब धीरे धीरे तुम्हारा आकर्षण एक धीमी मौत मर रहा है मेरे अंदर ।न जानें क्यों मै खुद को तुम्हारा सबसे ख़ास और बेहतरीन कद्रदान मानता था अब तुम महफ़िलों की जान हो हर कोई तुमसे मिलना जुड़ना बतियाना चाहता है एक दोस्त के नाते तुम्हारी जन स्वीकार्यता पर मुझे खुशी और फख्र दोनों है मगर शायद मै खुद को तुम्हारा दोस्त से ज्यादा कुछ समझने लगा था। अब इसका मतलब यह भी न निकाला जाए कि तुमसे प्रेम करने लगा था मै और ये एकाधिकार की पीड़ा प्रेम की पीड़ा है।नही मैंने तुमसे प्रेम नही किया कभी मगर तुम मेरे लिए एक बेशकीमती चीज थी जिसे मै सदैव अपने हृदय के पास रखना चाहता था तुम्हें खोना या बांटना तो कभी सपनें में भी नही सोचा होगा।
बहरहाल परिवर्तन संसार का नियम है गीता में यह सूत्र लिखने के लिए कृष्ण आदि को धन्यवाद कहने का मन है इसी के सहारे मै तुम्हें दूर जाते देख पा रहा हूँ मेरे चेहरे पर मुस्कान है और आँखों में आंसू । मै खुश हूँ या दुःखी ये बता पाना जरा मुश्किल होगा इसे बताने के लिए मैंने कई बार गीता पढ़ी मगर इस मनस्थिति को जोड़ने वाली कोई बात वहां नही मिली सिवाय इसके कि परिवर्तन संसार का नियम है।कल मै भी बदल जाऊं तो कम से कम तुम्हें कोई हैरत तो न होगी वैसे सच तो यह है मै बदल रहा हूँ आज से और अभी से क्योंकि जीने के लिए यह जरूरी है और जीना क्यों जरूरी है ये बात कम से कम तुम सबसे बेहतर जानती हो।

'जो बीता वही गीता '

Tuesday, November 25, 2014

नालायक

हर परिस्थितियों में मै ही नायक रहूँ यह एक किस्म की ज्यादती है तुम्हारे साथ जबकि सच तो यह है कि कई दफा मै होता हूँ बेहद सतही या टुच्चा भी। मेरी बातों में कूट कूट कर भरी होती पुरुषोचित्त कूटनीतिकता।आधे सच आधे झूठ के झोल में तुम्हें उलझा मै तलाश लेता हूँ अपने लिए एक सुरक्षित कोना।
दरअसल खुद को नायक घोषित करने के लिए इतनी कलन्दरी करनी ही पड़ती है कि कह दूं यार तुम मुझे समझ नही पाई जबकि सच तो यह भी है जब मै ही खुद को आजतक नही समझ पाया तुम कैसे समझ सकती हो मुझे पूरा पूरा।
मेरे कथ्य का अंत मुझे संघर्षरत योद्धा सिद्ध करता है और तुम्हें नासमझ मगर समझने वाले फिर भी समझ ही जाते है कि यहां कौन हार या कौन जीत रहा है।
ऐसा नही है कि तुम्हें कभी कमतर आंका हो मैंने परन्तु मै न जाने किस भय या चालाकी से खुद को सुरक्षित कर तुम्हें टांग देता हूँ समस्त अपेक्षाओं की कमान पर।
और कल जब मैंने खुद को देखा आईने में तो मेरी आँखे पूरी न खुल पाई। अधमिची आँखों से खुद को देखते मैंने धुंधलकें में देखा तुम मेरी पीठ पर जमी वक्त की गर्द साफ़ कर रही हूँ उसके बाद मै पूरे डेढ़ दिन तक चुप रहा अभी अभी खुद से बात हुई तो पता चला कि न
मै तुम्हारे किसी भी लायक नही हूँ।
अपराधबोध ग्लानि अस्पष्टता की धुंध में लिपटा एक सर्दी का सवेरा हूँ मै ज्यों ज्यों सूरज आँख मिलाएगा मै खो जाऊँगा ताप की भांप के बीच।
फिर तुम पिछली सर्दी की तरह याद ही कर सकोगी मुझे मगर ठीक ठीक बता न पाओगी कि ये साल उस साल से अलग कैसे है।
आज तुम्हें नायिका घोषित कर मै हमेशा के लिए नष्ट करता हूँ अपना नायकत्व शायद यही एक तरीका बचा है तुम्हें समझने का।अलबत्ता तो इसके बाद तुम्हारी खुद ही मुझमें रूचि नही बचेगी और यदि बच गई तो समझ लेना कि तुम सामान्य कतई नही हो और सामान्य न होने का अर्थ आसामान्य होना नही होता है इसका क्या अर्थ होता ये तलाशना होगा तुम्हें खुद यदि इस पर मैंने व्याख्या दे दी तो अनन्तिम रूप से मै ही नायक बच जाऊँगा जो मै बिलकुल नही चाहता हूँ।

'नायक या नालायक'

अ-जीत

नाम को बिना किसी सरनेम बिना प्रिफिक्स के तुम्हारे मुंह से सुनने का सुख मिलनें में वक्त तो लगा मगर जब तुमने सीधा मुझे केवल मेरे नाम से सम्बोधित किया तो वो महज एक मात्रा तीन अक्षरों का शब्द नही रहा उसमें अपनेपन और अधिकार की मिश्री घुल गई थी दार्शनिक अर्थो में  कलयुग में सत-त्रेता-द्वापर की यात्रा बन गई थी तुम्हारा मुझे मेरे नाम से यूं पुकारना। मै निर्वात में झूलता हुआ शब्द मीमांसा में खो गया था तुमने कनखियों से मेरी आँखों में तैरते शब्दों के स्वप्न देख लिए थे ये मुझे पता था।
दरअसल अरसे से इस नाम के साथ मेरा नाराजगी वाला रिश्ता रहा है मै आजतक हारता ही आया हूँ जबकि नाम का इशारा जीत की तरफ होता है जब कोई मुझे बुलाता तो मुझे लगाता ये मेरे नाम को बुला रहा है मुझे नही।आज से पहले ये नाम अकादमिक प्रमाण पत्रों में दर्ज एक नाम भर था मगर तुम्हारे आधे बंद आधे खुले लबों से जब आज तुमनें मुझे नाम से बुलाया तो इस निर्जीव नाम में तुम्हारी ध्वनि ने मानों प्राण फूंक दिए हो तुम्हारे लबों से मेरे कान तक की यात्रा में मेरा नाम शिशु से जवान हो गया था अब मेरे मन में टहल रहा है बुजुर्गो की तरह।
तुम्हारे शब्द और ध्वनि में लगभग वैसी ऊर्जा थी जो किसी सिद्ध के पास शक्तिपात करते समय होती है इसलिए नाम पर जमी संदेह शंका जिज्ञासा की गर्द उड़ गई और वो निर्मल हो गया ठीक तुम्हारी तरह।
मै चाहता हूँ जब भी तुमसे मिलना हो तो बिना संधि विच्छेद के मुझे मेरे नाम से सम्बोधित करों क्योंकि जब तुम पुकारती हो तो लगता है ये मेरा ही नाम है। ऋषियों के मन्त्रों की तरह मेरे नाम की अनंत तक व्याप्ति तुम्हारे पुरकशिस उच्चारण से ही सम्भव है सशरीर अमरता एक कोरा पौराणिक गल्प हो सकता है मगर तुम्हारे सम्बोधन से मेरा नाम निश्चित रूप से अनंत तक यहीं व्याप्त हो जाएगा मेरे जाने के बाद भी उसका अस्तित्व बना रहेगा अब हो सकता तुम्हें मै मतलबी लगने लगा हूँ या फिर थोड़ा पगला सच तो ये है मै ये दोनों ही हूँ।
फिलहाल तो तुम्हारे सम्बोधन की गर्माहट से मेरे कान लाल हो गए मानो कड़ाके की सर्दी में ओल्ड मोंक का पव्वा चढ़ा लिया हो ये एक हलकी बात है मगर तुमने जब कल मुझे मेरे नाम से पुकारा तब से  मै सच में हलका हो गया हूँ उड़ रहा हूँ ख्वाबों के आसमान में शाख से टूटे फूल की तरह।

'अ-जीत'

Monday, November 24, 2014

शाम

अकेले बैठ चाँद को देखना कब सुकून से खलिश में तब्दील हो जाता है पता ही नही चलता अपलक चाँद को देखती हूँ और उसके घटने बढ़ने में रोज कुछ न कुछ अंदर टूट जाता है एक चाँद मन के आकाश पर उगता है उसको बाहर के चाँद से मिलान करने की मेरी आदत परेशानी का सबब बनती जाती है दोनों में अजब सा विरोधाभास चलता है बाहर शुक्ल पक्ष हो तो अंदर कृष्ण पक्ष होता है बहुत कोशिसों के बावजूद भी नही साध पाती हूँ अपने मन का मार्तंड पंचाग । जहां इस वक्त सशरीर बैठी हूँ वहां नजदीक ही एक मन्दिर है मंदिर में जलते दिए की रोशनी तारे की तरह टिमटिमाती नजर आती है उसी के सहारे मै मन्दिर में अकेले स्तम्भित बैठे ईश्वर के अकेलेपन के बारे में सोचकर उदास हो जाती हूँ सच में कितना मुश्किल होता है देवता बनना उसके लिए अपनी संवेदनाओं को पत्थर के हवाले कर मौन का स्तम्भन और अकेलेपन का वरण करना पड़ता है मन्दिर में बजती घन्टे घडियालों की आवाज से उदासीन ईश्वर न जाने किस की फ़िक्र में गुम है।अचानक मुझे भी तुम्हारी फ़िक्र होने लगती है कही देवता दिखने के चक्कर में तुम दुनिया की चालाकियां तो सीखने में व्यस्त नही हो गए हो कई दिनों से न तुम्हारा फोन आया और न कोई खत ही मिला है। एक मजबूर ईश्वर की बजाए तुम एक कमजोर इंसान बने रहो मै बस इतना ही चाहती हूँ क्योंकि मै तुमसे प्रेम करना चाहती हूँ देवत्व की प्राप्ति के बाद तुम्हारी केवल उपासना की जा सकती है प्रेम के लिए जगह और वजह नही बच पाएगी फिर, और मेरे पास स्तुति से ज्यादा प्रेम बचा है इसलिए मेरा ईश्वर मुझसे नाराज रहता अक्सर। पिछले दो घन्टे से मै अकेली यहां बेंच पर बैठी हूँ मौसम की ठंडक का असर मेरी कमर को सुन्न कर रहा है मगर मुझे अपने सामने सुखा तालाब देखने में जो सुख मिल रहा है वो सुख झील या झरनें देखनें में भी नही है ये तालाब रोज़ रीत रहा धीरे धीरे ठीक मेरी तरह उसमें कुछ ही पानी बचा है इसी पानी के सहारे कुछ मेरे जैसे भटके पंछी उस तक रोज आ जाते है तालाब ने इस पानी को बचाने के लिए अपना गला बन्द कर लिया है।वो अंदर से भले ही कितना प्यासा रहें  इस सर्दी में वो इतना पानी जरूर बचाकर रखेगा कि जिसके सहारे लोग उसके एकांत का हिस्सा बनते रहें मुझे बता है उसे यूं रोज मेरा बेंच पर बैठ उसको निहारना अच्छा लगने लगा है मैंने उसकी निजता का सम्मान करते हुए उसमें आज तक एक भी शंका या कौतुहल की कंकर नही फैंकी है तालाब की नजरों में यह मेरा शिष्टाचार है मगर मै तालाब की स्थिरता पर लगभग दो घण्टें रोज आसक्त रहती हूँ। कुछ पंछी जरूर मेरा ध्यान खींचते है वो न जाने किस तृष्णा में तालाब तक आएं है।पता नही कि मेरे मन में ज्यादा शोर है या निर्वात मै बाहर की कोई आवाज नही सुन पाती हूँ मेरे कान बस ठण्ड में लाल होकर मुझे ठण्ड का अहसास कराने के काम के रह गए है नही सुन पाती है खुद के कंगन पायल चूड़ी या बाली की आवाज भी सब कुछ विराट मौन का हिस्सा बन गया है।मेरे लिए आवाज का मतलब मात्र ध्वनि नही रह गया है मै सुनने लगी हूँ इनदिनों तुम्हारे मन की फुसफुसाहट इसके बाद बाहर की आवाज़ो के प्रति मेरी दिलचस्पी किस्तों में खत्म हो रही है।हल्का अँधेरा होने लगा है सूरज विदा हुआ तो चाँद तारों को होश आना शुरू हुआ दिल हुआ उनकी आँखों पर पानी के छीटें मार दूं ताकि उनके चेहरे खिल जाए फिर तालाब के एकांत और खुद की ऊंचाई का ख्याल कर रह गई चुपचाप। मन में यादों के टेपरिकॉर्ड पर शाम की सबसे उदास गजल बज रही थी इससे पहलें वो मुझे वहीं समाधिस्थ कर देती मैंने जल्दी जल्दी याद किए शाम के सांसारिक काम और खुद की व्यस्तता का बहाना कर लौट आई उस चार दीवारी में दुनिया जिसे मेरा घर समझती है।

'एक शाम की बात'

Saturday, November 22, 2014

बीज

कुछ बीज हवा खाद पानी नमी के बावजूद अंकुरित न होने के लिए शापित होते है उन्हें मिट्टी में यूं ही बेतरतीब पड़े रहना पड़ता है फसल पकने तक। हसीन मौसम में वो अपने ही वर्ग का बहिष्कार झेलते हुए अपने आसपास जमें खरपतवार से दोस्ती का हाथ आगे बढ़ाते है मगर खरपतवार के अपने दुःख है वो प्रकृति में अनाथ होने की पीड़ा से जिद तक का सफर तय करके आए होते है उनके पास एक बाँझ बीज के लिए न समय होता है न सहानुभूति। बीज की यात्रा अकेलेपन और उत्पादकता के समूह में निष्प्रयोज्य जीने की यात्रा है मिट्टी के आंचल में उन्हे ममत्व नही उपेक्षा मिलती है क्योंकि मिट्टी भी उपयोगिता का मूल्य सबसे पहले देखती है। अपने निष्पादन से चूक गए बीज की सबसे अजब बेबसी यह भी होती है कि वो बाहर से मिलने वाली खुराक पर आश्रित जरूर होते है मगर उस भोजन का एक भी अंश उनकी आत्मा को तृप्त नही कर पाता है वो समझ नही पाते है कि बिना प्रतिदान की क्षमता के भोजन ग्रहण करना खुदगर्जी है या एक भौतिक जरूरत।
जिस वक्त वो उपचार की चासनी में डूबे थे तब वो भी अन्य दुसरे बीज की तरह अपनी क्षमता और उत्पादकता को लेकर उतने ही आश्वस्त थे और यही आश्वस्ती उन्हें समूह की स्वीकृति प्रदान करती थी मगर जमीन में बिखरने के बाद उन्हें खुद की अनुपयोगिता और उनके अस्तित्व के क्रूर मजाक का कुछ ही दिन बाद पता चल गया था फिर वो कुछ दिन असमंजस में रहें एक सीमा तक हवा पानी मौसम के बदलनें का इन्तजार किया मगर तब भी परिणाम अनुकूल नही आए तो उन्होंने यह सोचकर खुद को दिलासा दी की शायद वो उनके हिस्से जमीन का वो भाग आया जो उपजाऊ नही था वो खेत के कोने में निर्वासित भाग के नागरिक बन गए थे।
दरअसल बीज जनना चाहते थे उम्मीद की फसल मगर उनकी चाहतों पर खुद का वश नही था इतने बाह्य कारण थे कि सबकी अनुकूलता उनके अंकुरण की वजह बनती मगर मिट्टी हवा खाद पानी और उनकी खुद की आनुवांशिकी का ऐसा तादात्मय बिगड़ा की बीज केवल बीज रह गए।
वो पुनरुत्पादन की प्रक्रिया का हिस्सा नही थे वे अकेले निर्वासित और अजनबी जिंदगी जी रहे थे यह उनका सबसे बड़ा दुःख था। ऐसे बीज इससे भी बड़ा दुःख यह था कि अपने फसल चक्र के बीतने के बाद दूसरी फसल में उनमे अंकुरण फूट गया था यह किसकी चालाकी थी वो आज तक नही समझ पाए थे अब वो किसे दिखाते कि वो जन्म दे सकते है अपने ही जैसे एक जीवन को उनको नई फसल के बीच खरपतवार समझ उखाड़ दिया जाता फिर वो सड़क किनारे धूप में सूखते दम तोड़ देते उनकी अंतिम चाह यही होती कि उनका कोई बीज न बचे ताकि वो अपनी अनुपयोगिता के चक्र को समाप्त कर जी सके एक अज्ञात और विलुप्त जीवन।

'इतवारी बीज'

Friday, November 21, 2014

मोबाइल जिंदगी

लो खींच दी है मैंने एक महीन रेखा सम्बन्धों के अभ्यारण्य में।अब तुम उस पार सुरक्षित हो अब न सम्बोधन का संकट है न रिश्तों के नामकरण का।सब व्यवस्थित दिख रहा है इस विभाजन के बाद यह व्यवस्थित है भी यह नही कह सकता यकीनन।लोक में रहकर लोक के प्रभाव से मुक्त रहना एक किस्म की सिद्ध साधना है धीरे धीरे आसपास की कुंठा से उपजे प्रश्न हमारी निजता को घायल करते चले जाते है।जिस बात को ठीक ठीक खुद ही न समझें हो उसे किसी दुसरे को समझा पाना बेहद मुश्किल काम है।
और वैसे भी मेरा तुमसे कोई सांसारिक नाता भी नही है तुम नदी हो तो मै किनारे पड़ा एक खण्डित पत्थर तुम आकाश हो तो मै भटकता हुआ उल्का पिण्ड तुम घना जंगल हो तो मै एक आवारा खरपतवार तुम हवा हो तो मैं बंद गुफा। इतने विरोधाभासों के मध्य मै तुम्हारे जीवन में टंगा था एक वैताल सा।
जब वक्त ने करवट ली तब मै तुम्हारे अपेक्षा के बोझ से लड़खड़ाते कदम देख पाया हालांकि मैंने कोई अपेक्षाऐं आरोपित नही की कभी मगर फिर भी तुम्हारे नाजुक कन्धे मेरे एक आंसू के बोझ से झुक गए है आंसूओं की आद्रता से तुम्हारी शरीर की नमी का स्तर सामान्य से कई गुना बढ़ गया है तुम्हारी हथेली पर खींचे हस्तरेखाओं के मानचित्र पर मै घबराहट की भांप उड़ते देखता हूँ नमी की कई छोटी छोटी नदी आपस में मिल जाती है और वो तुम्हारे हृदय के वेग के बारें में साफ़ साफ़ संकेत देती है तुम्हारी हथेली को बिना छुए महज देखकर तुम्हारे मन के मौसम की भविष्यवाणी मैं कर सकता हूँ। दरअसल मेरी गति और मेरी लोच मेरी ग्राह्यता में सबसे बड़ी बाधा है तुम मेरे विषय में किसी एक निर्णय पर पहुँचती हो उससे पहले मै खुद को खुद ही खारिज कर देता हूँ किसी उपग्रह की तरह मेरी एक कक्षा निर्धारित नही है मेरी यात्रा इतनी अजीब किस्म की है तुम्हें आज तक यह अनुमान नही हो पाया है कि मै वस्तुत: हूँ क्या। कभी आस्तिक कभी नास्तिक कभी आशा में जीता कभी निराशा को पीता कभी बच्चों सा सरल तो कभी वयस्कों सा जटिल। तुम्हें इस बात पर भी हैरत हो सकती है कि मेरे पास भविष्य का कोई यूटोपिया नही है न कोई नियोजन योजना है। बस मै हूँ यही एक प्रमाण है मेरे होने का।
ज्यादा बौद्धिक बातें जटिल और बोझिल लगने लगती है इसलिए यह रेखा खींच कर मै तुम्हे एक सरल भूखण्ड  देता हूँ वहां अपने सपनों की दुनिया रचो जियो अपने हिस्से का सुख ! मै इस पार खुद को इकट्ठा करने की कोशिस करता हूँ यदि तुम्हारी दृष्टि से ओझल हो भी जाऊं तो भी ये मत सोचना कि मै तुमसे दूर हूँ तुम्हारी पलकों के अंदरुनी फलक पर कूट संकेत में अपना स्थाई पता मैंने टांक दिया है बस एक बार आँखे बंद करना और जिस बात पर तुम मुझसे चिढ जाती थी उसे याद करना मै तुम्हें दिख जाऊँगा तुम्हारे ही आसपास यदि दिल फिर भी तसल्ली न पाएं तो एक विज्ञापन गुरु की इस पंचलाइन को याद करना 'दूरियों का मत फांसले नही' ये बात मोबाइल नेटवर्क के समर्थन में कही गई थी मगर अब ये खुद ब खुद हमारे रिश्तें की गोद में आकर बैठ गई है शायद इसी को जिंदगी मोबाइल होना कहा जा सकता है।

'जिंदगी का मोबाइल होना'

साँझ

कुछ देर के तुम्हारे साथ की वजह से मै अपनी उदासी भूल बैठा था आज जब वो लौटी तो मेरे अंदर एक हिकारत के साथ लौटी उसकी आँखों में अपरिहार्यता की बंकिम मुस्कान थी यह लगभग ठीक वैसी वापसी थी जैसे कोई जरूरत की चीज़ घर आए जिसके बिना काम न चल सकता हो थोड़ी देर मैं अनमना खड़ा रहा फिर अपनी मूर्खता पर देर तक हंसता रहा आखिर मै कैसे भूल कर जीने लगा था ये हक किसने दे दिया था मुझे ! क्या चंद तुम्हारी अपनी सी लगने वाली बातों ने या फिर मै मतलबी हो गया था तुम्हारा साथ पाने के लिए खुश दिखने का अभिनय करने लगा था। शायद ये मेरी ही भूल थी कि मुझे लगा था कि रास्तों पर तुम्हें देखते हुए उलटे पाँव भी चला सकता है तुम्हें बताकर हर पीड़ा की सघनता को कम किया जा सकता है। जिस उदासी ने बचपन से मन की गुफा में अलख जगाई हो जिसकी चिलम फूंकते हुए जवानी में कदम रखा हो अब उम्र के इस पड़ाव में उसको बाहर निकाल पाना लगभग असम्भव कार्य था रेशा रेशा अवसाद की चासनी में लिपटी जिंदगी में इतनी मोहलत कब थी कि तुम्हारी मुस्कान पर कविता लिखी जा सकें तुम्हारे खंजन नयन पर शास्त्रीय समीक्षा प्रस्तुत की जा सकें ये तुम्हारे सत्संग का प्रभाव था या मेरे मन की रिक्तता कि मै अपने अभ्यास से परे की बातें कहता चला गया।
अब मै थक गया हूँ तो लौट आया हूँ अपनी उसी कुटिया में जहां उदास भजनों से मुक्ति का चिमटा बजाता आया हूँ।
मेरी बातें अतीत का प्रवचन रही है अतीत में जीना एक किस्म का कायराना कौशल है जहां वर्तमान में खुद को अप्रासंगिक समझ भविष्य में अरुचि दिखाने की आदत पड़ जाती है कुछ ऐसा ही मेरा मैकेनिज्म था तुम्हारा हाथ थामें मै वर्तमान के क्षण में जीने लगा था। अब मुझे तलाशती हुई एकांत के उस टीले की तरफ मत जाना क्योंकि अब मै वहां न मिलूंगा अब मै अपने पुराने निर्जन पते पर लौट आया हूँ वहां तक तुम्हारा और तुम्हारे खतों का पहूँचना संदिग्ध है इसलिए अब तुम्हें कोई वाचिक आश्वस्ति नही दे सकता हाँ इतना जरूर कहूँगा तुमसे मिलकर सच में अच्छा लगा था खुशी की मुझे परिभाषा नही आती इसलिए उसके बारें में बता पाना मुश्किल होगा। सच खुशी और अच्छा लगना मेरे हिस्से में कम ही रही है इसलिए इन्हें महसूसने और कहने दोनों के मामलें में निर्धन हूँ।
चिट्ठी के अंत की तरह यही कहूँगा थोड़े लिखे को ज्यादा समझना ! अब चलता हूँ अपनी कुटिया की ओर..

'साँझ ढलें घर चलें'

Friday, November 14, 2014

नाट्य कला

नटराज की मूर्ति मेरे सम्मुख है रात भर भरतमुनि के नाट्यशास्त्र की टीकाएं पढ़ता रहा और ठीक अलसुबह ठंडे पानी से स्नान कर नंगे पाँव उस मन्दिर में चला आया जहां अब कोई पूजने नही आता जिसकी दीवारे नमी से तर है और जिसके कान प्रार्थना के स्वर सुनें बिना बधिर हो गए है।
सामनें खंडित प्रतिमा है दक्षिण की मूर्ति कला की एक उत्कृष्ट कृति मेरे सामनें है मगर खंडन भंजन की वजह से यह पहचान पाना थोड़ा मुश्किल है कि ये मूर्ति देवता की है या देवी की उलट पलट कर देखने पर यह तय कर पाया है यह अर्द्धनारीश्वर की प्रतिकृति है।
नटराज की मूर्ति जो अपने साथ लाया था उसे इस खंडित प्रतिमा के साथ रख कर मंदिर के गर्भ गृह से मृदंग उठा लाया और ठीक मन्दिर के बीच बैठ कर मृदंग पर थाप देनी शुरू की ये वाद्य यंत्र मुझे बजाने नही आता मगर तुम्हें सोचता जाता और मेरी उँगलियाँ और हथेली खुद ब खुद सधती जाती पहली दस मिनट मृदंग से केवल धूल ही उड़ती रही मगर जैसे जैसे अपनी बैचेनी की चोट से उसको जगाया उसकी तन्द्रा टूटी और उसने कराहना शुरू कर दिया मेरे चित्त की बैचेनियों के सुर उससे जा मिलें और  तुम्हारी स्मृति का दृश्य मेरी आँखों तैर रहा था हाथों की गति बढ़ती जा रही थी। मृदंग की आवाज़ से मन्दिर के अंदर पसरा सन्नाटा नृत्य करने लगा पक्षी अपनी अपनी मंजिल की तरफ उड़ चलें और फिर तुम्हारी दस्तक हुई मै मृदंग की थाप में इतना लीन था कि तुम्हारे पदचाप की ध्वनि न सुन सका तुम्हें किसने खबर दी थी नही जानता मगर तुम्हारा इस तरह से आ जाना शास्त्रीय लगा तुम मन्दिर के सबसे निर्जन कोने में समाधिस्थ बैठी थी और मै मृदंग के दोनों कानों पर थाप दे कर नई ताल निकाल रहा था संगीत के लिहाज़ से उसका कोई मूल्य भले ही न हो मगर मेरे लिए वो मेरे मन की बैचेनियों की उड़ान भरने का समय था तुम्हारा वहां उस समय होना इस बात की आश्वस्ति थी कि तुम मेरे इस अनगढ़ तरीके से मृदंग बजाने से आनन्दित थी शायद इस ताल का एक रास्ता तुम्हारे मन के तालाब से मिलता था जहां तुम्हारी भावनाएं स्थिर पानी की तरह सड़नी शुरू हो गई थी।
तुम अचानक से उठी और ठीक मेरे सामने आ खड़ी हुई तुम चाहती थी कि मृदंग पर मेरी थाप इतनी बढ़ जाए कि मन्दिर में हवा भी आपस में बात न कर सके और निसंदेह मेरी गति बढ़ती जा रही थी मृदंग भी हैरान था क्योंकि मेरे बजाने से आज उसकें ढीले सुर अकड़ कर कस गए थे।
लगभग आधे घंटे तक अपलक होकर सुनने के बाद तुम्हें न जाने क्या सूझी तुमनें नटराज को नमन किया और अपनी नृत्य की कलाएं खोल दी अब मृदंग पर मै था और मन्दिर के धरातल पर तुम्हारा नृत्य दोनों खुद ब खुद शास्त्रीय हो गए थे जबकि न मुझे मृदंग बजाना आता था और न तुमनें कभी नृत्य की कोई औपचारिक शिक्षा ली थी। मै एक वादक की भूमिका में था और तुम कला साधिका की और हमारी जुगलबंदी ने मन्दिर में साक्षात देव दरबार सजा दिया था सब कुछ इतना गहन और तल्लीन था कि समय का बोध मन से मिट गया था। भरतमुनि की बताई कलाओं मुद्राओं भाव भंगिमाओं का इतना सुंदर संयोजन था कि बतौर वादक मै तुम्हारे ताल के सभी सूक्ष्म संकेत समझ रहा था और तुम हर बार मेरी थाप से एक कदम आगे बढ़ती जाती थी।
फिर अचानक से तुम्हारी नजर मेरी लहुलुहान उंगलियों पर पड़ गई और तुम्हारी साधना क्रम वहीं टूट गया तुम्हारी दृष्टि के साथ मुझे पीड़ा का अहसास भी होने लगा फिर तुम्हारी दृष्टि में उल्लास का लोप हुआ और भाव विहल होकर तुमनें एक साथ मेरे दोनों हाथ मृदंग से अलग कर दिए यह संधिकाल था लगा मानो सतयुग को सीधा कलयुग से जोड़ दिया गया हो बीच के त्रेता और द्वापर गल कर बह गए हो उसके बाद तुम मेरे दोनों हाथ पास बहती नदी में डुबोए बैठी रही जब तक वो सुन्न न हो गए और रक्त जम न गया।
उसके बाद से हमारा कोई सम्वाद नही हुआ आज भी वो मृदंग मेरे खून से सना मन्दिर के बीचो बीच रखा होगा भले ही खून सूख गया होगा मगर उसके निशान उस पर मिलेंगे उसे फिर से गर्भ गृह में रखा जाना जरूरी है मगर अब मेरी स्मृति इतनी लोप हो गई है मै मन्दिर का रास्ता भूल गया हूँ इसलिए तुमसे आग्रह है गर हो सके तो उस मृदंग को सही जगह पहूंचाना देना ताकि वो याद रख सके अपने एक थोड़े अनपढ़ थोड़े अनगढ़ वादक को जिसनें उसको संगीत के किताबी पाठ से मुक्त कर खुद की ताल से कसा था मै चाहता हूँ मेरी बैचेन ताल की स्मृति उसके अंदर हमेशा जिन्दा रहे ठीक तुम्हारी तरह।

'ख्वाब का नाट्य रूपान्तरण'

Thursday, November 13, 2014

मतलबी बातें

इससे पहले मेरे इस  छायावादी मन के सारे शब्द खर्च हो जाए कुछ बातें बताना जरूरी समझता हूँ सतत इतना कुछ कहने के बाद निसंदेह वो दिन भी आएगा जब मेरे पास कहने के लिए भले ही भाव हो परन्तु शब्द नही होंगे उस समय मेरा मौन अन्यथा लिए जाने के शापित होगा। मेरी गति खुद मुझे चौका रही है तुम तो निसंदेह असमंजस में होगी ही रोज़ इतनी तेज गति से मै खर्च हो रहा हूँ कि तुम तक आते आते शायद मेरे पास शब्दों की एक पाई भी न बचें। इतना कुछ कहे गए के बीच बहुत कुछ अनकहा भी रह गया है उसके लिए मै एक उपयुक्त समय की तलाश में था मगर समय का और मेरा जन्म जन्मान्तरों का बैर है इसलिए तुमसे कभी मिल नही पाऊंगा यह बात मेरे मन में गहरी बैठी हुई है।
संक्षेप में तुमसें कुछ बातें कहनी जरूरी हैं क्योंकि पता नही कल हो न हो। कई दिनों से एक बात सोचता हूँ  और केवल सोचता ही नही उस बात को जीता भी हूँ मेरी वजह से तुम कहीं एक जगह पर ठहर तो नही गई हो कई दफे ऐसा लगने लगता है कि मेरी वजह से तुम्हारी यात्रा बाधित हो गई है तुम्हारी अपनी बसाई दुनिया में बेमौसमी पतझड़ शुरू हो गई है तुम्हें जब भी बेवजह उदास देखता हूँ तो मै खुद को उसकी एक वजह मान खुद पर ही संदेह करने लगता हूँ यह करीब करीब खुद को अपराधबोध में धकेलने जैसा होता है।
दरअसल दो दशक से ज्यादा वक्त हो गया है मै उदासी से संक्रमित हूँ इसलिए मुस्कुराते हुए मूंह पर रुमाल रख लेता हूँ मेरी उदासी का संक्रमण बहुत से हंसते हुए लोगो को लग चुका है तुमसे एक सुरक्षित दूरी इसलिए भी मेरी एक मजबूरी है। मै कतई नही चाहता कि तुम्हारी शाम बोझिल रात बैचेन और सुबह अनमनी हो जाए मै तुम्हारे जीवन में इंद्रधनुष की तरह खुशियों को खिलते हुए देखना चाहता हूँ तुम्हारी आँखों की चमक से चाँद को उधारी मांगते हुए देखना चाहता हूँ मेरी चाहत तो यह भी है कि तुम्हारी कान की बालियों पर खुशियाँ अपना झूला डाल छोटी छोटी पींग भरें तुम्हारी मुस्कान को देख फूलों पर अपने रंग और गाढ़े करने की जिद सवार हो जाए।
मै चाहता हूँ तुम्हारे गुनगुनाने की मद्धम आवाज़ प्रार्थना लगनें लगें तुम्हारी चूड़ियो की खनक शाम को घर लौटते पंछियों को दिशा का बोध कराए उनकी मदद से वो सुरक्षित अपनी नीड तक लौट सके। मेरी चाहत यह भी है तुम्हारा काजल रोशनी से थकी आँखों को छाया दें और तुम्हारा उडिया कॉटन का शाल सूरज की आँख पर हाथ रख दें जिसे धूप में लेटकर मै आधे शरीर पर ओढ़ सकूं और तुम्हारी खुशबू को घूट घूट पी सकूं।
इतनी चाहतों की कीमत चुकानी पड़ेगी मुझे क्योंकि दुनिया में मुफ्त में कुछ भी नही मिलता है खुद को तुमसे दूर रखना अपनी चाहतों को पूरा होता देखने की रिश्वत भर है क्योंकि अगर तुम मेरे साथ रही तो मेरी उदासी के संक्रमण से संक्रमित ताउम्र छींकती रहोगी और छींकते समय आंख कोई भी खुली नही रख पाता है तुम्हें यूं अस्त-व्यस्त देखना मेरे लिए सदी का सबसे बड़ा  सदमा होगा इसलिए मैंने खुद को तुम्हारे जीवन में अनुपस्थित नही स्थगित करने का निर्णय लिया है ताकि तुम्हें लेकर जो ख़्वाब मैंने देखें है उनको खुद के खर्च होने से पहले पूरा होते देख सकूं मेरे तमाम फक्कड़ी के दावों के बीच तुम मेरे इस निर्णय को केलकुलेटिव समझते हुए मुझे मतलबी समझ सकती हो बल्कि मै तो इरादतन यही चाहता हूँ कि तुम मुझे मतलबी समझों ताकि दुनिया को पता चले कि समझ का एक विस्तार ऐसा भी हो सकता है।

'मतलबी बातें'

Wednesday, November 12, 2014

मुलाक़ात

तुम्हारी सबसे बड़ी फ़िक्र यह थी कि कहीं तुम्हें ठगा तो नही जा रहा है किसी को ठगना भी एक कला है तब तो और भी जब सामने वाले को साफ़ साफ़ पता हो कि उसे ठगा जा रहा है। ठगना केवल धन से ही नही होता है धन का ठगा शख्स फिर भी सम्भल जाता है मगर जिसको मन से ठगा गया हो उसकी चाल में ताउम्र एक लड़खड़ाहट बनी रहती है। तुम्हारी फ़िक्र एकदम से गैर वाजिब भी नही थी दुनिया में हर भला आदमी कम से कम एक बार ठगा जा चुका है ऐसे में किसी के निर्मल प्रेम को शंका की दृष्टि से देखना खुद को ठगी से बचाने का एक अभ्यास भी हो सकता है इसलिए मेरी सत्यता परखनें के तुम्हारे बालसुलभ प्रयासों से आरम्भ में मुझे थोड़ी खीझ जरुर हुई थी परन्तु बाद में तुम्हारी यह सावधानी तुम्हारे सम्मान की वजह भी बनी।
दुनिया में सबसे मुश्किल काम है खुद के जैसा कोई दूसरा शख्स तलाशना दोस्ती शायद इसी तलाश से उपजा रिश्ता है जिसनें भी हम बनाए उसने इतने यूनिक किस्म के बनाएं कि कोई वैसा दूसरा कहीं नही मिल पाता है खुद से मिलते जुलते लोगो को देखते ही बाँधने की एक स्वाभाविक इच्छा होती है हमारा सबसे बड़ा भय उनको खो देने का भय होता है मैंने भी तुम्हें एक स्नेह के बंधन में बांधना चाहा था मुझे तुम उस वक्त मिली जब मेरी खुद में रूचि लगभग समाप्त हो गई थी मै देह से बाहर निकल मन के घोड़े पर सवार था जहां जहां से मै गुजरता मेरी देह मेरे पीछे बंधी हुए घिसटती हुई यात्रा कर रही थी।
तुमसे मिलने के बाद लगा कि जीवन का एक यह पक्ष भी हो सकता है जिससे मै अनजाना जी रहा था इसलिए खुद को जानने के लिए तुम्हारा चश्मा उधार मांग लिया जानते हुए कि तुम्हें खुद बिन चश्में के कम दिखाई देता है अब मै तुम्हारे मन के संकोच पढ़ पा रहा था तुम्हारे पूर्व के अनुभवों के श्याम पट पर इतिहास के कुछ पाठ लिखे हुए थे तुम्हारे हृदय के समानांतर उदासी की एक झील थी जिसकी तल पर वक्त की साजिशों की काई ज़मी थी मगर बाहर से देखने पर झील का पानी इतना स्थिर था कि उसमें सवालों की कंकड़ भी कोई आवृत्ति नही पैदा कर सकती थी।
तुम्हारे मन में नियति के षडयंत्रो के प्रति क्षोभ जरुर था मगर वह भी मन के रेगिस्तान में उतना ही अज्ञात था कि मै उसके केवल एक बार देख पाया फिर वो बवंडर बन दूसरी जगह उड़ गया था।
पीड़ाओ को सहेज पाना तुम्हारे सत्संग की वजह से सीख पाया वरना तुमसे पहले मै खुद की पीडाओं को बिन पूछे ही गाने लग जाता था तुमने सिखाया कि सबके जीवन में पीड़ाओं का कोटा पहले से ही इतना भरा हुआ है कि वें पीड़ाओं के आयात से बचना चाहते है यदि बांटना ही चाहते हो तो उनको उनके उन अहसासों से मिलवाओं जो रोजमर्रा के जिन्दगी के झंझटों में अक्सर गुमशुदा हो जाते है तुम्हें न जाने क्यों ऐसा लगा था कि मै ऐसा बखूबी कर सकता हूँ।
मैंने कभी तुम्हें शिकायत करते नही देखा जैसे तुमनें लोक को स्थाई रूप से क्षमा कर दिया हो तुम अपने हिस्से का दुःख इतनी सहजता से जी रही थी कि मुझे वो दुःख नही सुख दिखने लगा था तुमसे मिलने के बाद मेरे दुखों का बर्ताव बदल गया शायद तुम्हारे दुखों ने उन्हें बता दिया था कि अब मेरा सत्संग किसके साथ चल रहा था मेरे दुःख गहरे आध्यात्मिक मूल्यों में रूपांतरित हो गए थे।
जीने के लिए हम रोज खुद को ठगते है इसलिए ये ठग विद्या हमारी जिंदगियों में शामिल है तुम्हारे भय को तुम्हारें चश्में से देखने के बाद मेरी आँखें नम हो गई थी फिर तुमने अपना चश्मा मेरी आँखों से उतार अपने रुमाल से मेरी आँखों की नमी साफ़ की तब मै बिन चश्में यह देख पाया कि अब तुम्हें ठगे जाने का नही मेरे अंदर बचे रहने का भय है। मै कहना चाहता था डरो मत ! जब तक मै हूँ तुम मेरे अंदर सुरक्षित हो एक पवित्र किताब की तरह जब जब मै उलझ जाऊँगा दुनियादारी में तब तब तुम्हें पढ़ना मेरी जरूरत बनेगी और एक चालाक दुनियादार की तरह कहूँ तो मेरी जरूरत तुम्हें कभी मेरे अंदर मरने नही देगी। ये बात उस दिन नही कह पाया आज कह रहा हूँ समझ लेना वैसे भी मुझे अक्सर तुम्हें कुछ कहना नही पड़ता तुम समझ लेती है बहुत कुछ खुद ब खुद।

Tuesday, November 11, 2014

नदी

उस दिन तुम नंगे पैर पानी में पैर डाले बैठी थी ठीक हमारे सामने नदी बह रही थी ठीक उसी दिन मै यह जान पाया कि एक नदी तुम्हारे अंदर भी बहती है तुम्हारे पैरों के कोमल स्पर्श के जरिए दोनों नदियां आपस में जुड़ती है और इसके लिए शाम से बढ़िया मुफीद वक्त क्या हो सकता था। बहता पानी मन को शांत करता है ऐसा तुम्हें देख महसूस होता है  तुम्हारे पैरों में बंधी पायल पानी के प्रवाह से तुमसे अधिक उल्लसित होती है उसमें बंधे दो छोटे छोटे घुंघरु इतनी धीमी गति से बज रहे थे कि उनका नाद सुनने के लिए मैंने अपने कान तुम्हारे घुटनों पर टिका दिए थे आसपास के लोगो को अनुमान था कि यह एक रूमानी शाम है जब मै तुम्हारी गोद में सिर रखे बैठा था मगर मै दो नदियों के बीच बने सेतु पर खड़ा हो उस महीन आवाज को सुन रहा था जो तुम्हारी पायल की खनक से थोड़ी जुदा थी। बाह्य तौर पर ये दो झक सफेद पैर थे मगर मेरे लिए देखते ही देखते दो नदियों के किनारे थे जिनके एक किनारे बैठ मै दुसरे किनारे का अनुमान लगा रहा था इन दोनों नदियों की गहराई लगभग समान थी मगर दोनों के पानी के वेग,तापमान और स्वाद में जमीन आसमान का फर्क था। सामने बहती नदी के जल का आचमन कर सकता था उसके बाद उस नदी के बारें में कुछ भी अज्ञात नही बचता था मगर जो नदी तुम्हारे अंदर बहती थी उसका जल आचमन के लिए उपलब्ध नही था। तुम्हारे घुटनों पर एक कान टिका देने के बाद मेरा मन सीधे सीधे दो हिस्सों में बंट गया था एक समाने बहती नदी में लटके तुम्हारे पैर देखता और उनके सौन्दर्यबोध पर अभिभूत होता जाता और दूसरा मन एक नाराज बच्चें की तरह अपलक तुम्हारे अंदर की नदी के किनारे खड़ा उसको देखता चला जाता तुम्हारा अन्तस् अज्ञात पत्थरों के धरातल से इतना ऊबड़ खाबड़ किस्म का था कि उसमें तैरना तो दूर खड़े होने भी मुश्किल था वहां हरियाली के नाम पर कुछ शिकायत के सफेद कुकरमुत्ते दिखते थे मै किनारे किनारे चलता हुआ तुम्हारी नदी के उद्गम स्थल तक गया मगर वहां मुझे कोई ग्लेशियर नही दिखा इसलिए तुम्हारे अंदर बहती नदी का कोई ठीक ठीक स्रोत पूछे तो मै कुछ न बता पाऊंगा।
बस एक बात सबसे अलग थी तुम्हारे मन की नदी का पानी सामने बहती नदी के पानी से कई गुना अधिक साफ़ था वो आचमन योग्य था मगर मेरे पास झुकने का साहस नही बचा था दरअसल वो मेरे सम्मोहन का समय था भले ही मुझे तैरना नही आता मगर तुम्हारे अंदर नदी को देख मै छलांग लगाने की सोच रहा था तभी एक बूँद मेरी गाल पर टपकी मैंने घूम कर देखा वो तुम्हारी आँख का एक आंसू था जो शायद मेरी छलांग को आत्महत्या की कोशिस समझ मुझे रोकने चला आया था खुद ब खुद उसके बाद तुमनें जल्दी से नदी से पैर निकाले और कहा चलो अन्धेरा हो गया अब हमें चलना चाहिए उस दिन से रोज चल ही रहा हूँ मगर कहीं पहूंचता नही हूँ नदी एक जरिया थी तुमसे मिलने जब से अंदर की नदी सूख गई तुमने कभी नही कहा चलो किसी शाम नदी किनारे बैठते है चुपचाप अब मै बहते पानी को नदी नही कह पाता तुम्हारे अंदर की नदी सूखने का एक यह प्रभाव मुझ पर भी पड़ा तुम पर क्या बीती होगी ये तुम ही बता सकती हो।

'दो नदी एक किनारा'

Sunday, November 9, 2014

उसकी आँखें

कहने के लिए वो महज दो आँखें थी मगर उसकी आँखें रेल की पटरी की तरह बिछी दो समानांतर दुनिया थी दोनों साथ जरुर थी मगर देखती अलग अलग। एक में हकीकत की स्याह सच्चाई तैरती तो एक में ख़्वाबों की हसीन दुनिया बसती थी।
उसकी आँखों की गहराई को देखना पहाड़ की चोटी से गहराई को देखने जैसा था जहां एकतरफ डर लगता वहीं नदियों झरनों की ख़ूबसूरती भी नजर आती। उसका पलक झपकना सावन के झूलें की पींग भरने के जैसा था चौबीस घंटे के दिन रात में उसकी आँखों के मौसम बदलते रहते अलसुबह आधी नींद से जागती उसकी आँखें गुरुद्वारे के सबद कीर्तन सी रूहानी लगती जब तक वो मूंह न धो लें उसकी आँखें अरदास करती लगती। दोपहर होते होते उसकी आँखों की चमक कामकाज में उलझ जाती फिर मै उसको शाम को देखता तो उसकी आँखों में सपनें करवट लेने लगते वो शिकायतों को आँख के  एक कोने में जमा लेती है उसकी कोशिस यही होती कि आंसूओं से केवल आँखों में नमी बनी रहें पहली दफा आंसूओं की कीमत उसकी आँखे देखकर पता चली उसकी आँखों में एक समन्दर था मगर उस तक पहूंचने के लिए वादों बातों की नाव पतवार नही बल्कि तैर कर पार पहूंचने का साहस चाहिए था। बिना शर्त का प्रेम उसकी एक मात्र शर्त थी।
रात तक उसकी आँखे थक जाती मगर उसकी थकी हुई आँखों की ख़ूबसूरती सबसे ज्यादा थी उस पर लिखी जा सकती थी कविता या गजल उसकी पलकें अनकही तल्खियों की गर्द से भारी हो जाती फिर मै दूर से दुआ की एक फूंक मारता उस तक यह दुआ नींद तक पहूंच पाती जब वो ख्वाबों में उलझ रही होती मेरे होने और न होने के बीच।
उसकी आँखें स्पर्शों से अनछुई थी यही उसकी सबसे बड़ी पाकीजगी थी उसकी आँखों की ढ़लान पर मेरी दुआ की फूंक ऊपर से नीचे की तरफ बहती तब मै पलकों पर जमी वक्त की स्याह शिकायतों की गर्द को महसूस कर पाता।
उसकी आँखें हया अदा दुआ सबको पनाह देती थी उसकी आँखों में आंसूओं की सूखी नदी पर ख्वाबों का एक पुल बना दिया था जिसकी मियाद पूरी हो चुकी थी मगर फिर भी बिना उसकी इजाजत के मैं नंगे पाँव उस पर गुनगुनाता उससे मिलनें पहूंच जाता उसकी आँखों में कैद लम्हों की जमानत पर वो मुझे रोज़ रिहाई दे देती मगर मुझे लौटना फिर उसकी दुनिया में ही था इसलिए मै अपनी सजा की माफी की कोई अर्जी उसकी आँखों की अदालत में दाखिल नही करता था।
दरअसल उसकी आँखें मेरे लिए महज आँखें नही थी बल्कि वो खुद को देखने का आईना था उसकी आँखों से खुद को देखकर यह समझ में आया कि जिन्दगी की तमाम मुश्किलों और झंझटों के बावजूद खुद को देख पल भर के लिए मुस्कुराया जा सकता है। उसके फैले काजल से पता चलता कि हर रात के बाद एक सुबह जरुर होती है कम से कम मेरे लिए उसकी आँखों को मद्धम मद्धम झपकतें हुए देखना एक सिद्ध साधना थी जिसके जरिए जिन्दगी के उतार चढ़ाव के बीच खुद को साध रहा था मैं। उसकी आँखों के बीच मेरी आँखें इतनी तन्हा पड़ गई थी कि वो खुद के लिए तलाश रही थी उसके जैसी आँखें क्योंकि वो मुझे देखती नही थी कभी शायद वो देखने के बजाए मुझे महसूसती थी मन ही मन सोते वक्त उसकी आँखें यही बयाँ करती थी सच है कि झूठ पता नही।

'उसकी आँखें-मेरी बातें'

Saturday, November 8, 2014

इतवारी ख्वाब

वो एक ख्वाब था उसके लिए एक ऐसा ख़्वाब जिससे हकीकत में मिलना न वो चाहती थी और न ख़्वाब ही इसकी इजाजत देता था। ख्वाब में उससे मिलना बतियाना सीधे सीधे दो हिस्सों में जीने जैसा था वो नींद में जागती थी और जागते हुए बेखबर रहती थी।उसकी बंद पलकों की चमक किसी जुगुनू के माफिक होती थी। उसके लिए उसका ख़्वाब किसी अतृप्त कामना की अभिव्यक्ति नही था बल्कि उसका ख़्वाब उसके पूरे वजूद को जीने का सलीका भर था।
उसका ख्वाब वो अपनी इच्छा से देख सकती थी उसकी पल पल छूटती बनती बिगड़ती दुनिया में बस एक यही बात उसके हाथ में थी। वो ख्वाबों में उसका हाथ थामें उन गलियों में निकल पड़ती जहां दरवेशों के टोले थे और लोबान की खुशबू से रूहानी इल्म अता होता था उसके साथ वो देख लेती थी डूबते सूरज और ख़ूबसूरती परिंदों का वापिस अपनी नीड़ की तरफ लौटना।
उसका ख्वाब भले ही छोटे समय के लिए आता था मगर उसमें वो दोनों अंजुरी भर समेट लेती थी दुनिया भर की खुशियाँ। उसके बिस्तर को देख ख़्वाब की दुनिया का अनुमान लगाया जा सकता था कभी उसकी सिलवटों से एक मानचित्र बना होता तो कभी वहां एक भी सिलवट न मिलती मानों ख़्वाब में ही उस योगिनी ने साध ली कोई सिद्ध योगमुद्रा।
दरअसल उसकी ख़्वाबों की दुनिया हकीकत से एकदम जुदा थी दिन में जिसका नाम सोचने भर से उसके मन में संकोच के बादल छा जाते थे ख्वाबों में वो उस पर चिल्ला सकती थी बेहद अधिकार के साथ। कभी कभी वो छोटे बच्चे की तरह सोते हुए मुस्कुराती इसका एक ही अर्थ होता कि आज ख्वाबों में उसने फिर से पूछ लिया है कि आखिर तुम मेरी क्या हो? एक यही सवाल था जिसका उसके ठीक ठीक जवाब नही पता था उसकी मुस्कुराहट इस बात की गवाह थी कि वो चाहती थी कि कुछ सवालों के कभी कोई जवाब तय ही न हो।
उसके लिए ख्वाबों में जीना कोई भ्रम नही था बस उसने खुद को चेतन की बजाए अर्द्धचेतन के स्तर पर तलाश लिया था जहाँ उसे उसका अक्स थोड़ा ज्यादा मुक्कमल और साफ़ किस्म का नजर आता था। उसके लिए सोना नींद के लिए नही ख्वाबों के लिए जरूरी लगता था ताकि वो खुद के उस अधूरे किरदार से मिल सके जो अंदर बहुत गहरा धंसा हुआ था एक अरसे से।
उसके ख्वाबों की एक अजीब बात थी वें रोज़ वही शुरू होते जहाँ से कल खत्म हुए थे फिर भी उनमें एक नयापन होता था।
एक ख़्वाब टुकड़ा टुकड़ा जिन्दगी को एक धागे में पिरोता था उसके ख्वाबों में कुछ भविष्य के संकेत होते थे मगर वो कुछ प्रतीक थे जिन्हें अमूर्त रूप में समझना थोड़ा मुश्किल था वो उनका अर्थ जानती थी मगर समझती नही थी।
ख्वाबों में ऊँचाई से गिरना, आँखों के सामनें ट्रेन का छूट जाना, कुछ जरूरी चीजों को भूल जाना ये कुछ तयशुदा एपिसोड थे जो अक्सर आते थे मगर वो उनका रूपान्तरण कर देती कुछ कुछ नाट्य रूपान्तरण जैसा वो ऊंचाई से गिरती मगर उसका थाम लेती फिर दोनों हवा में तैरते रहते उसकी आँखों के सामने ट्रेन छूट जाती मगर वो घबराने की बजाए उसके साथ स्टेशन पर बैठ कुल्लहड़ में चाय पीने लग जाती।
वो उसको हर जगह अपने मनमुताबिक़ क्रिएट करने का कौशल रखती थी यही वजह थी कि हकीकत में वो भले ही नजर न आएं मगर उसके ख़्वाबों में वो उसका हाथ थामें हर जगह नजर आता था। उसके ख्वाब उसके जिए गए सच के सच्चे गवाह थे यह बात केवल वो जानती था या फिर उसके ख़्वाब। वो केवल इतनी दुआ करता कि उसके ख़्वाब न कभी सच हो न कभी झूठ और न कभी टूटे ताकि उसका वजूद उसके ख्वाबों में सांस लेता रहें अपने अधूरेपन के साथ वो क्या चाहती थी ये खुद उसे भी नही पता था।

'इतवारी ख़्वाब'

Thursday, November 6, 2014

कैलेंडर

आज से लगभग पौने दो महीने बाद इस कमरें से इस कैलेंडर को बदल दिया जाएगा कैलेंडर बदलना कोई नई बात नही है इसे समय के साथ अपडेट रहने की एक जुगत समझा जा सकता है मगर हर साल पुराने कैलेंडर को सहेज कर रखना तुम्हारी वजह से पहले एक आदत बनी फिर वो कब एक जुनून में तब्दील हुई मुझे खुद नही पता चला।
मेरे पास बीते सालों के कुछ कैलेंडर है जिनका कभी कभी मै तकिए के रूप में भी प्रयोग करता हूँ तब मेरी नींद बेहद गहरी होती है और ख़्वाब बिखरे हुए। दरअसल तुमसे मिलने के बाद कैलेंडर मेरे लिए महज बारह पन्नों का एक पुलिंदा भर नही रहा मेरे लिए वो हर बीतते हुए लम्हों का पुख्ता दस्तावेज़ बन गया जिसको किसी शहरी जमीन की रजिस्ट्री की तरह मै सम्भाल कर रखता हूँ।
इस साल के कैलेंडर के कुछ महीनों पर बनें तारीखों के घेरे पिछले साल के कैलेंडर से भिन्न हो सकते है मगर वो किसी एक पुराने साल के कैलेंडर से बिलकुल मिलते जुलते हुए होंगे। जिस तरह से कोई समझदार आदमी पांच सौ के नोट को एक आँख भींच कर आँख के पास क्षैतिज रखकर उसके असली या नकली होने को परखता है ठीक वैसे ही कई दफे मै कैलेंडर की तारीखों को देखता हूँ ताकि मुझे उनसे जुड़ी यादों की सत्यता का पता चल सके।
कैलेंडर के लिए बदलता मौसम सबसे बड़ा हसीन धोखा होता है जनवरी की तारीखें दिसम्बर से कभी नही मिल पाती दोनों के बीच गर्मी बरसात के गलियारे बने होते हैं जबकि दोनों की ठिठुरन लगभग एक जैसी होती है।
वैसे तो ग्लोबल वार्मिंग मौसम विज्ञानियों की चिंता का विषय है मगर तुम्हारे मन का विज्ञानी मै अक्सर इस बात को लेकर चिंतित रहता हूँ कि तुम्हारे मन का मौसम इतनी तेजी से बदलता है कि कैलेंडर पर बसंत कब पतझड़ में तब्दील हो जाता है उसकी महीनें या तारीखे भी गवाही नही दे पाती है।
सम्बन्धों के अरण्य में कैलेंडर के जरिए उन महीनों का अनुमान लगाया जा सकता है कि कब तक तुम बरसात की आद्रता में रहोगी और कब तुम्हें शीत से असुविधा होने लगेगी।
मेरे कमरे में टंगा कैलेंडर कभी कभी घड़ी के पैंडुलम की तरह हिलता भी है जिससे दीवार पर एक आधा वृत्त बन गया है यह वृत्त इतना स्पष्ट है कि इसका एक ज्यामितिय मूल्य कोई गणितज्ञ निसंदेह निकाल सकता है। कैलेंडर को इस तरह से तुम्हारे देश से आई हवा हिलाती है कि मै तेजी से फड़फडाते पन्नों को देखता हूँ जनवरी जून से मिलना चाहती मार्च अक्टूबर से और दिसम्बर जुलाई से।
कैलेंडर की तारीखों से लदें महीने इतने बैचेन और अधूरे किस्म के है कि उनसे एक मुक्कमल अधूरी तस्वीर भी नही बनती है उनमे आपस में रंजिशें है या मुहब्बत इसका अंदाज़ा लगा पाना भी मुश्किल है।
दरअसल,कैलेंडर एक बूढ़ा गवाह है जिसकी उम्र साल दर दर बढ़ती जाती है और वक्त की जेब से खर्च हम होते जाते है। इसकी गवाही कभी नही ली जाती अगर ली जाती तो तुम्हारी शिकवें-शिकायतों की कैद- ए- बामुशक्कत से मै कब का रिहा हो चुका होता।

'कैलेंडर बदलता है हालात नही'

चाय

हम दोनों के बीच चाय नदी की तरह बहती थी जिसके किनारे बैठ घंटो बीत जाते थे।शाम की चाय अक्सर सुबह की चाय से ज्यादा जरूरी लगती मगर उसमें उदासी और थकावट की चीनी मिली होती थी सुबह की चाय पर तुम्हारा साथ बैठना शाम के साथ बैठने से इसलिए भी भिन्न था कि शाम तक मै तुम्हे खो देता था।
महज चाय ही नही हमारी चाय की प्यालियाँ भी आपस में गहरी दोस्त थी दोनों की एक ही कामना होती है वे एक बार बदली जाएं बस ताकि हमारे स्पर्शो की कैद से मुक्त हो नए स्पर्शो के बीच जी सके कुछ पल।
वैसे तो चाय देखकर भी तुम्हारी मनस्थिति का पता चल जाता था मगर जब से चाय में एक स्थिर स्वाद आने लगा तब मै समझ गया था कि क्या तो तुम तटस्थ हो या फिर स्थिर।
सर्दी की चाय और गर्मी की चाय को टिप टिप बारिश की चाय से हमेशा जलन होती थी क्योंकि तब हमारे लब और जबान प्यालों की हदों से बाहर निकलने लगते थे।
हम दोनों के बीच चाय का एक जीता जागता संसार था हमारी चाय कड़क जरुर थी मगर उसकी खुशबू में एक फ़िक्र भी शामिल रहती थी चाय के दो कप कभी नही चाहते थे कि उनके बीच  बिस्कुट भी आए ये जायके से ज्यादा हमारी जिन्दगी में दखल की जिद के जैसा था।
कभी कभी तो ये लगता कि बाहर की चाय के लिए हम दो चाय पीने वाले भर थे मगर घर की चाय के लिए अपनी अपनी मंजिल जहां वे रोज़ कभी चुप्पी तो कभी बतकही की गवाह बन खुद के जल जाने के गम को दूर करती थी।
चाय के जरिए जितना तुम्हें जान पाया उतना खत या किताब के जरिए भी नही जान पाया अक्सर तुम कप लबों पर लगाती और एक छोटी घूँट भरने के बाद कहती कि चाय पीते वक्त तुम्हारी आँखें महज आँखे नही रहती मन को पढ़ने वाली एक्स रे मशीन बन जाती है उस वक्त मै केवल मुस्कुरा भर देता क्योंकि तब तुम सच बोल रही होती दो चाय के अंतराल के बीच तुम्हारे इतने किस्से मेरे मन में होते कि मै लिख सकता था कहानी गजल कविता या फिर उपन्यास।
मेरे साथ शराब पीने वाले दोस्तों को ये शिकायत रहती कि मै शराब का जाम भी चाय की तरह पीता हूँ जबकि तुम्हारे साथ मै चाय को शराब की तरह पीना सीख पाया था!
तुम्हारे साथ पी गई चाय के नशे का हैंगऑवर मुझ पर ताउम्र रहेगा ये बात मै पूरे होशो हवास में लिख रहा हूँ।
आता हूँ किसी दिन चाय पीने तुम्हारे घर शर्त ये है चाय नंगे पैर बनानी पड़ेगी रसोई में इस सर्दी फिर से तुम्हें बेतक्कलुफ देखने की चाह है मन में जिसके लिए चाय से बढ़िया और कोई जरिया नही हो सकता है।

'चाय की चुस्की'

Wednesday, November 5, 2014

दिलचस्प बातें

उसकी मुझमें रुचि बहुत धीरे धीरे समाप्त हुई। मेरे बातों में इतना दोहराव था कि हर तीसरे दिन वही बात कहता जो परसों कह चुका होता। अंग्रेजी काव्य के समीक्षाशास्त्र की तरह मेरे पास  कहने के लिए एक ही 'सेंट्रल आईडिया' था गद्य और पद्य दोनों को उसके यहाँ गिरवी रख रोज़ मै उधार के जज्बातों से एक ऐसी मायावी दुनिया रचता जिसमें बहुतो को खुद का अक्श या खुद की कहानियाँ दिखने लग जाती मेरे लिखना एक आतिशी शीशा भर था जिसमें मेरी थोड़ी सी हाथ की सफाई और थोड़ी नजरबन्दी शामिल थी। उसने मेरे लिखे हुए में अवसाद को छान कर निकाल लिया था और उसे चाय की माफिक रोज घूट घूट पीती। उसका अभ्यास जीवन में तटस्थ रहने का अभ्यास था इसलिए वह पहले इतनी आश्वस्ती से भरी हुई थी कि वह मेरी बातों को केवल उपयोगितावादी दृष्टि से ग्रहण करेंगी उसके निहितार्थ को छोड़ मूल सम्वेदना को समझने की कोशिस करेगी मगर मेरे शब्दों के घेरे दिखने में जितने दूर नजर आते थे दरअसल वो उतनी दूर नही थे उनका आकार जरुर बड़ा था मगर वो धीरे धीरे रेंग कर उसकी तरफ बढ़ रहें थे और एक दिन उसने खुद को उन शब्द पाश में खुद को बंधा पाया।मेरी सबसे बड़ी कमजोरी और ताकत यही थी कि मेरी लत लग जाती थी और फिर आसानी से न छूटती थी।
ये बंधन उसकी अरुचि की शुरुवाती वजह समझी जा सकती है मगर दिलचस्पी कम होने की यही एकमात्र वजह नही थी। उसका मन विविधता अभिलाषी था और जीवन के उत्सव को जीना चाहता था उसकी छोटी छोटी बातों की इतनी बड़ी दुनिया थी कि वो रसाई में भी कविता का संसार रच लेती चाय और कॉफ़ी उसके पकते ख्यालों के गवाह थे दरअसल वो जटिलता से बचना चाहती थी वो तलाशती रोज आसमान में अपना एक छोटा टुकड़ा और उसमें अपने मनमुताबिक़ टांक देती सूरज चाँद सितारे उसके इसी छोटे आसमान से भस्म होने के लिए धूमकेतु की तरह रोज़ निकलता मै मगर कोई गुरुत्वाकर्षण मुझे खींच न पाता।
उसकी मुझे रूचि किस्तों में समाप्त हुई जैसे ई एम आई देते देते बैंक का कर्जा समाप्त हो जाता है एकदिन। कर्जा अदा करने और मुझमें अरुचि के बाद की मनस्थितियों में बहुत समानता थी। जब आप प्रवाह में होते है तो सामने वाली की अनिच्छा को सूंघ नही पातें क्योंकि तब आप सम्बन्धों के जुकाम में होते है मगर ज्यों ज्यों सूरज चढ़ा मेरी नाक अक्ल और दिल तीनों एक साथ खुल गए थे अब मै खुद की बातों में उसकी ऊब सूंघ पाता खुद के होने में उसका मानसिक बोझ समझ पाता और खुद के दिल में जमें उसकी बेरुखी के कोलस्ट्रोल को महसूस कर पाता था उसकी पुरानी अच्छी बातों को याद कर खुद का खून पतला करना मेरी एक मात्र ज्ञात औषधि बन गई थी।
उसकी दिलचस्पी का यूं बेमौत मर जाना मेरे लिए कोई सदमा नही था यह इतिहास हो दोहराये जाने का तयशुदा उपक्रम भर था मगर उसके अहसासों की कूटनीतिक द्विपक्षीय वार्ता मुझे अरसे तक याद रहेगी वहां केवल बात करने के लिए बात होती थी बात के जरिए कोई मसला हल होगा या रिश्तों की गर्मजोशी बढ़ेगी यह दोनों का ज्ञात भ्रम था।
कुछ रिश्तें शापित होते है अपने अपने हिस्से का अधूरापन ढ़ोने के लिए वो इस अरुचि के जरिए अपने हिस्से का अधूरापन ढों मुक्त हो गई और मेरी पीठ पर अभी तक उसकी बातों यादों की बोरी लदी है ये जिस्म उसी के बोझ में झुका है मै किसी सजदें में नही हूँ दोस्तों !

'पाश को यह भी लिखना चाहिए था सबसे बुरा होता है आत्मीय रिश्तों में दिलचस्पी का मर जाना'

Tuesday, November 4, 2014

अधूरे राग

इंतजार रिसता हुआ धीमी गति से रीत रहा था। वो रोज संकल्पों और रोज विकल्पों की शतरंजी चाल के दिन थे वहां सब कुछ इतना अनिश्चित था कि खुद को खारिज़ करके मन को सांत्वना देनी पड़ती थी। स्पर्शों की नमी से खत की स्याही बहने लगी थी और लिखावट कोई लुप्त होती लिपि सी दिखने लगी थी अब बिना चश्में के खुद का पता न समझ पाता था और न ही यह अनुमान लगा पाता था कि ये खत मुझे लिखे गए थे। तुम आदतन पिनकोड गलत लिखती थी बस एक यही पहचान बची थी तुम्हारे लिखे खत पहचानने की।गणित की संख्याओं ने खुद को मन की गीली भावनाओं से अलग रखा इसलिए पूरे खत पर केवल उन्ही का वजूद बचा था।
तुम्हारी बातों को महफूज़ रखने के लिए मन का तापमान शून्य से नीचे माइनस में रखना पड़ता था तुम्हारी यादें मेरे लिए दशमलव कब से बनी ठीक से मुझे भी याद नही है।
आर्चीज़ की गैलरी जाने का उत्साह और वहां का कन्फ्यूजन अभी तक याद है तब बजट छोटा और दिल बड़ा हुआ करता था कार्डस पर लिखी अंग्रेजी कोट्स को पढ़ते पढ़ते लगने लगता था तुम मन की अनकही बात इनकें जरिए समझ जाओगी मेरे लिए वो चंद हरफ नही थे बल्कि वो विश्वास प्यार और समपर्ण के शपथ पत्र थे जिनके जरिए तुम्हारी जिन्दगी में दाखिल होना चाहता था मैं।
अफ़सोस की शक्ल इतनी मिलती जुलती थी कि इस बार खुद के कमतर होने का एहसास नही हुआ जिन्दगी के वरक सीधे करते करते तुम्हारी ऊंगलियों पर बेहद महीन गर्द चढ़ी थी फ़िक्र भरी रातों में खुद में सिमटकर कुतरे नाखुन अब क्षितिज से खूबसूरत नही दिखते थे उनकी बेतरतीब कतर ब्योंत ने उनको न केवल खुरदुरा कर दिया था बल्कि वो टूटने बिखरने भी लगे थे।
पतझड़ में तुम्हारे गुनगुनाए गीत दरख्तों के लिए मरहम से थे खुद को एक दरख्त में तब्दील होते हुए देखा तो मैं अपने कान तुम्हारे मन के पास छोड़ आया हूँ क्योंकि तुम्हारा गुनगुनाना मन ही मन प्रार्थना करने जैसा है। तुम्हारे भोर के आंसूओं से मन की निर्जन मूर्ति का लगभग रोज़ अखंड रुद्राभिषेक होता है तीन हिस्सों में बटा तुम्हारा मन बेल पत्र सा अर्घ्य देता है।
बूँद बूँद रिसता एक दिन रीत जाऊँगा बीत जाऊँगा तुम्हारे जीवन से।भोर के स्वप्न के जैसा कभी नींद और ख़्वाब के बीच तो कभी कल्पना और हकीकत के बीच अटके एक आवारा ख्याल सा है मेरा होना।
इस एकालाप में वक्त की खराश का रियाज़ शामिल है इसलिए न सुर सधते है न लय और न ताल ये बिन तानपुरे का अधुरी बैचेनियों का राग है जिसे हर सुबह तुम्हें सुनाता हूँ आरती की शक्ल में ताकि तुम्हें यकीन हो मेरे तुम्हारें बीच में ईश्वर एक मजबूत साक्षी है।

'अधूरे राग'


अवसाद

मन का स्थिर अवसाद वाचिक परम्परा में बांटने से अपनी रूहानियत और सूफियत खो बैठता है ! फिर उसकी ऊर्जा से सृजन की सम्भावना क्षीण हो जाती है। फिक्रों में समझाइश का होना अवसाद की पवित्रता को निगल जाती है।
क्रोध की तरह अवसाद की ऊर्जा के सदुपयोग के लिए कभी कभी खुद को आरक्षित रखना एक मजबूरी बन जाती है। इस आरक्षण के लिए एकांत के जंगल में रोज अनशन चलता है आमरण अनशन नही क्रमिक अनशन। एक आन्दोलन खुद विरुद्ध लम्बे समय से मेरे मन में चल रहा है उसे किसी का समर्थन नही उपेक्षा चाहिए होता है इस अनशन का मांग पत्र ऐसा है कि खुद मुझे मेरी लिखावट समझ में नही आती है।

'अवसाद-प्रमाद-प्रसाद'

Monday, November 3, 2014

वक्त

वक्त बेहद कम बचा था जितना कहना था उससे ज्यादा सुनना था जितना लिखना था उससे ज्यादा पढना था। मिलना और टूटना इसी बचे हुए वक्त में शामिल था। उसकी गति उसकी बाधा बन गई थी न जाने वो किस जल्दी में था वो रास्तों से रास्तें बनाता और उन पर चल पडता मगर फिर यूं हुआ एक दिन पहला रास्ता आखिरी रास्ते से मिल गया और उसने थके कदमों से जब मुडकर देखा तो वहां रास्ता नही एक जाल था वो कैद था अपने ही बुने विकल्पों के जाल में मगर उसकी फिक्र अभी कैद की फिक्र नही थी वो सोचता उम्मीद की हत्या के अपराध के बारें में जिसका वो वांछित अपराधी था उसने इतने महीन ढंग से उम्मीद की हत्या कि कोई साक्ष्य अभी तक किसी को नही मिला मगर कुछ होशियार लोगो की जांच में उस पर अपराध तय किया गया  और हाकिम ने मुहरबंद लिफाफे में फैसला सुरक्षित करके रख दिया। उसकी सजा को लेकर कयासों के दौर चल रहे थे जब उसने अपने एक दोस्त से पूछा कि क्या वो सच मे गुनाहगार है तब दोस्त का जवाब दोस्त वाला नही था दोस्त का जवाब आधा समझदारी से भरा था आधा नसीहत से। उसे अफसोस इस बात का रहा था कि उसे जानने समझने का दावा करने वाले लोग न जाने क्यों सरकारी गवाह बन गए थे।
वक्त की कमी दुनियादारी के वक्त से जुदा थी क्योंकि बाहर से देखने पर वह एकदम से खाली था उसके पास ऐसे कुछ करने लायक नही था जिसका कोई सामाजिक गौरव हो या फिर जिससे आर्थिक लाभ जुडा हो मगर वो रोज़ खुद के खिलाफ दौडना शुरु करता और वक्त इतनी तेजी से सिमटता कि कुछ ही पलों में उसकी मंजिल और रास्तों की दूरियां बढती चली जाती है। उसके पास मंजिल की संज्ञा मात्र थी वो विशेषण नही जानता था।
दरअसल उसको अन्यथा लिए जाने का श्राप ईश्वर ने उसके माथे को चुमते वक्त चस्पा कर दिया था जिसे वो रोज़ अपने स्पष्टीकरण के तर्को से खुरचता मगर वो कुछ इस तरह से चिपका था कि एक तरफ से उघडता तो दूसरी तरफ से और गहरा चिपक जाता क्योंकि विज्ञापन की तरह चिपके इस श्राप पर प्रेम की अपेक्षा का गोंद लगा था। अपेक्षा पर तो वह खुद ही खरा नही उतर पाया ऐसे मे आसपास के लोगो का उससे निराश हो जाना बेहद स्वाभाविक ही था।
एक दिन उसने भागते वक्त का हाथ पकड कर पूछा ऐसा क्या वजह है तुम हमेशा मुझसे आगे पीछे चलते है मेरे साथ चलना क्या कोई सामाजिक कलंक हैं? वक्त चुप रहा मगर मैने जैसे उसका हाथ छोडा वो मेरे हाथ में एक नक्शा थमा गया उस नक्शे पर कुछ आडे तिरछे रास्ता की लकीरें खिंची था वो उन्हें रोज समझने की कोशिस करता मगर उस नक्शे के मुताबिक़ एक कदम भी न उठा पाता।
वक्त की कमी से उसे कभी निराशा नही हुई वो निराश दिख सकता था मगर था नही वो थोड़ा थका हुआ नजर आता तो तो लोग बाग़ उसकी पीठ पर सम्भावनाओं की चाबुक लगाते और फिर वो और धीमे चलने लगता इसी वजह कोई नही जानता था। अगर कोई जानता भी तो वो उसे नही बताता बस आपस में खुसर फुसर करतें कयासों के बीच वो जिन्दा था बस ये बात वक्त की पहूंच से बाहर थी कब तक थी ये कोई नही जानता था।

'दौड़ता वक्त हांफता वो'

Sunday, November 2, 2014

मन की बातें

जिस वक्त गली मुहल्ले के बच्चों के खेलते हुए देख खुशी या निर्लिप्तता की बजाए उनके जीत/हार के शोर से चिढ़ होने लगे तब समझ लेना चाहिए मन के किसी एक कोने में अवसाद ने स्थाई रूप से अपनी कुटिया बना ली है।
जब शाम को डूबते सूरज के साथ खुद का मन डूबा हुआ लगे तो समझ लेना चाहिए जरुर कुछ मन में ऐसा है जो पीछे छूट गया है।
जब सो कर उठकर मन अनमना हो किसी से बात करने का मन न हो तो समझ लेना चाहिए किसी बात पर खुद से खफ़ा हो।
जब सफर में खुशी मिलें पहाड़ कान में निमन्त्रण भेंजे नदियों किनारे बतियाने की इच्छा हो तब समझ लेना चाहिए अस्तित्व मन की जड़ता तोड़ने के जतन कर रहा है।
जब खुद से बातें करने लगो बुदबुदाकर तब समझ लेना चाहिए आपका बहुत कुछ अज्ञात ऐसा है जिसे दुनिया कभी समझ ही नही पायी।

'बातें मन औ' विज्ञान की'

Saturday, November 1, 2014

सखा

आहत मन के लिए शाम सबसे भारी वक्त था ज्यों ज्यों सूरज डूबता मन भी अन्तस् में डूबता चला जाता।
तुम्हारी बातें सबसे ज्यादा दोपहर में याद आती थी। रात को सोने से पहले का वक्त खुद को समझाने के लिए तय था। हर सुबह तुम्हारी बातों के टापू से बाहर निकलनें के संकल्प की सुबह होती थी मगर चाय की प्याली को उठाते ही तुम उससे उठती भांप पर सवार हो मेरी आंख की कोर को गीली कर जाते थे।
पिछले कुछ दिनों से तुम्हारी यादों ने मेरी इस कदर तलाशी ली कि मै खुद को ठीक से छुपा भी नही पाता।
अनमने मन से हंसते हुए मेरी हंसी रोने लगती और उसके आंसू मेरे गले में अटके रहते उसे तुम गला रुन्धना समझ सकते हो।
साल के आखिर में वक्त बेवक्त यूं उलझे रहने ठीक नही है जबकि इधर नए साल के जश्न की तैयारी शुरू हो गई है  नया साल पुराने आदमी के लिए हर साल इतना भारी क्यों हो जाता है
बताओं न प्रिय सखा !

Friday, October 31, 2014

कर्ज

आफरीन ! बस ज़बान एक बार यही कह कर खामोश हो गई दिमाग में तमाम खूबसूरत ख्यालात होने के बावजूद ज़बान का बागी बन जाना तुम्हारी संजीदा शख्सियत और पाक सूरत-शीरत की ब्यानहलफी थी। तुम्हारे जिस्म और रुह के अक्स मेरे चश्मे तर मे इस कदर उतर आए कि मेरी पलकों के लब अपनी खुश्की को तर करने लगे थे।
ख्वाबों की दस्तक उलटें पांव आई इसलिए मै अंगडाई नींद ख्वाब और हकीकत में महीन फर्क नही कर पाया तुम्हारी बातों की रुहानियत इस कदर मुझ पर तारी हो गई कि मेरी इबादत में गुनाह की तौबा से लेकर दुआ तक तुम्हारी शक्ल अख्तियार कर लेती थी। मुसलसल हादसों के बीच नामुकम्मल जिन्दगी के तराने तुम इतनी खूबसूरती से गुनगुनाती कि मै अकेला शामीन होते हुए खुद को महफिल में पाता।
तुम्हारी हंसी के सदके ये सारी कायनात उठाती थी क्योंकि इसके बदले उसका खूबसूरत दिखने का मतलब पूरा होता था एक दफा तुम्हें नींद मे मुस्कुराते देखा यकीनी तौर पर यह मुस्कान तुम्हारे ख्वाबों में मुश्किल हालातों पर फतेह की बानगी भर थी तुम रोज़ खुद से एक जंग लडती ये जंग वजूद की सच्चाई ईमान की पाकीजगी और ख्यालों के पुरकशिस होने की जंग थी इस जंग के पैयादे वक्त और ह कीकत का स्याह चश्मा लगाए हुए थे उनके अंधे हमले तुम पर रोज़ बढते जाते मगर तुम्हारी रुहानियत की फूंक से उन्हे गर्द की तरह उडा देती।
तुम्हारे पल्लु की गांठ में इस तरह की जंगे फतेह करना का माकूल नुस्खा बंधा था यूं तो उसमें तुम्हारी मुहब्बत की सल्तनत का एक नक्शा भी था मगर उस तलक पहूंचने के लिए जरुरी सफर की तैयारी मै कभी न पूरी न कर सका।
दरअसल तुमसे मिलना खुद से मिलना था तुम्हारा वजूद एक साफ आईना था जिसमे खुद का अक्स इतना साफ नजर आता कि कई दफे घबरा कर आंखे बंद करनी पडती तुम्हारी कोशिसे निहायत ही संजीदा कोशिसे थे बल्कि यूं कहूं कि एक पीर की तरह अपने मुर्शिद को इल्म अता करने की कोशिसे थी उसकी रोशनी मे मै अदब और इल्म के हरफ सीधे करना सीख पाया।
तुम्हारी जहीन गुफ्तगु के कुछ ही लम्हें मुझे खींच कर मेरा कद और मैयार इतना बडा कर गए कि अब कुछ दोस्तों को रश्क होने लगा है मगर मेरे दिल मे अफसोस की शक्ल में यह बात भी हमेशा के लिए दफन है तुम्हें पाने की चाह मेरी सबसे बडी नादानी थी जिस दिन तुम मुझे हासिल हुई दरअसल उसी दिन मैने तुम्हें खो दिया था। शायद तुम्हें इस बात का इल्म हमारी पहली मुलाकात के बाद हो गया था मगर तुमनें मुझ पर जाहिर नही होने दिया और अपने हिस्से की गुमनामी समेट कर तुम चुपचाप निकल गई।
तुम्हारा आखिरी खत मेरे लिए आज भी उतना ही मुकम्मल ब्यान है जितना तुम्हारा वजूद था अपनी तमाम खला खलिशों के बावजूद तुमने इस खाकसार को अपने दीवान ए आम से उठाकर दीवान ए खास मे पनाह दी मेरे मुस्तबिक को हरफ हरफ मेरे कानों में फूंका और अपनी दुआ में शामिल करके मुझे मुहब्बत की तहजीब और सलीके से रुबरु कराया यह एक ऐसा कर्ज़ है जो मै कभी अता कर ही नही सकता।
ये खतनुमा तहरीर तुम्हारी मुहब्बतों के कर्जे की अदायगी की कोई रस्म भर नही है बल्कि मेरे कतरा-कतरा पिघलते वजूद की सच्चाई है जिसको ब्यां करकें मै जितनी शिद्दत से तुम्हें याद करता हूं उतनी ही शिद्दत से तुम्हें भूलने की जद्दोजहद भी करता हूं मेरे बिखरे वजूद का यह एक बडा यकीनी सच है जिसकी बुनियाद को तुम्हारे दुआओं के कलमें उसको हर मौसम में सीलन से बचाते है यही एक वजह है कि दुनिया को मेरे अफसानों में जिन्दगी का पता मिलता है वे खुद को उसके जरिए न केवल खुद तलाश पाते है बल्कि गहरी गुफ्तगु भी कर पाते है।
शुक्रिया ! एक छोटा और दुनियादारी का अल्फाज़ है तुम्हारी कसीदगी के लिए मेरे पास केवल कुछ अनुछुए जज़्बात है कोई हरफ नही है बतौर फनकार ये मेरी सबसे बडी हार और मजबूरी है।
मुआफी तुम कभी दोगी नही क्योंकि जिसको तुमने माफ किया वो फिर कभी तुमसे मिल न सका शायद एक आखिरी दफा हमारी मुलाकात जरुर होगी इस बात को लेकर हम दोनो जाहिरी तौर पर बेफिक्र है...!

'कर्ज फर्ज : पहली क़िस्त'

Thursday, October 30, 2014

नवम्बर

एक यह नवम्बर है और एक वो नवम्बर था। नवम्बर तो हर साल ही ग्यारहवें महीने के हिसाब से आता है और आता भी रहेगा मगर इस बार का नवम्बर जाते साल से ज्यादा तुम्हारे हिस्से की विदाई का कैलेंडर मुझे थमा गया है। जैसे रोज़ रात को सोने के बाद इसकी कोई तयशुदा गारंटी नही होती है कि कल सुबह हम जग ही जाएंगे आठ घंटे की नींद रोज़ सपनों और हादसों से लडती है ठीक वैसे ही तुमसे मिलने के बाद इसकी कतई उम्मीद नही थी तुम्हें याद करते हुए मुझे नवम्बर की भी याद आने लगेगी तुम तो मेरे लिए जनवरी थी भले ही धुंध मे लिपटी हुई थी मगर जून में लू के थपेडों मे तुम्हे याद करके खुद मे हिमालय सी ठंडक महसूस किया करता था।
हकीकत का मिराज़ बन जाना तुम्हारे लिए भी अप्रत्याशित था और मेरे अविश्वसनीय। महीने दर महीने तुम्हारें सम्बंधों का ज्वार-भाटा मुझे किनारे तक ले आता मगर फिर जिन्दगी की ढलान मुझे समंदर की तरफ लौटा देती थी। हर बार की तरह इस सर्दी में मेरे पास तुम्हारी यादों का अलाव भी नही होगा मेरी अंगीठी मे इतनी सीलन भर गई है उसे लाख धूप दिखा दूं मगर उसमे धुआं ही उठेगा सुलगते जज़्बातों पर वक्त ने ऐसा ठंडा पानी डाला कि अब उनका कोयले की तरह दोबारा जलना मुश्किल नजर आ रहा है।
इस सर्दी में तुम्हारी बेपरवाह बातों का मफलर मेरे आधे कान ही ढक पा रहा है बार बार फिसल कर गलें मे फांसी की तरह फंस जाता है मै उसी की गर्माहट से तुम्हारे लिखे खत गीत की शक्ल मे गुनगुनाता हूं मेरे आसपास के लोगो का अनुमान है कि इस सर्दी में मै मतिभ्रम का शिकार हो गया हूं उनका सन्देह मेरी चुप्पी से और गहराता जाता है।
इस नवम्बर में जब बिस्तर को धूप दिखाई तो उसने अपनी तह में बसे किस्सों को बचाने के लिए चादर की सिलवटों को आगे कर दिया मुझे अन्दाज़ा नही था कि वो अपनी नमी से लडता हुआ भी तुम्हें इस तरह से याद रखेगा। शाम के बाद रोज़ बिस्तर पर तुम्हारें स्पर्शो की नदी बर्फ सी जम जाती है और इस सर्द मौसम मे भी मेरी पीठ को गरम अहसास देती है। इस नवम्बर में कम्बल की अपनी एक अलग किस्म की जिद है वो मुझे मूंह नही ढकने देता है उसे मेरी गर्म सांसो से तुम्हारी खूशबू के उड जाने का भय है उसके इस बडप्पन का लिहाज़ करते हुए मुझे रात मे कई दफा तुम्हारी खुशबू से छींक आ जाती है और मै तुम्हारे ख्वाबों से जाग जाता हूं। बिस्तर की इस मतलबी दूनिया के बीच एक उधडा हुआ तकिया ही ऐसा है जो मेरी गर्दन के नीचे तुम्हारे नाम की फूंक मारकर मुझे किसी फकीर की माफिक दुआ देता रहता है उसी के भरोसे मेरे हिस्से कुछ घंटों की किस्तों की नींद आ जाती है।
ठीक एक महीने बाद ये साल हमेशा के लिए एक पुराने कैलेंडर का हिस्सा बन जाएगा मगर साल गुजरने से कुछ चीज़े नही गुजर जाती है जैसे तुम मेरी अन्दर बीत तो गई हो मगर अन्तस से रीत नही पा रही हो। नवम्बर के बाद दिसम्बर का वक्त मेरे लिए और भी भारी होगा क्योंकि एक तरफ साल के बिछड्ने का गम होगा और दूसरी तरफ तुम्हारी बातों के बैनामें दाखिलखारिज़ की मियाद पूरी कर चुके होंगे। इस आती सर्दी के साथ तुम्हारे जाने की तैयारी मेरे लिए ठीक वैसी है जैसे उत्तरी ध्रुव पर किसी पर्यावरण वैज्ञानिक को पत्नि के बीमार होने के खबर का मिलना। बीतते साल में तुम बीत रही है मै अपने गर्म कपडों की मरम्मत के लिए शहर मे एक ऐसा दर्जी तलाश रहा हूं जो बिना ज्यादा सवाल किए उन पर पैबंद लगा दें। अब शायद अलगे साल नवम्बर में ही तुम्हें मेरा खत मिलें और शायद ना भी मिले ये तो बस एक आत्म सांत्वना से भरा कोरा अनुमान है जिसके सहारे मै खुद को वक्त की आंच पर धीरे-धीरे सेंक रहा हूं इस आते हुए नवम्बर में...।

‘नवम्बर से नवम्बर तक

आदत

...और अंतत: तुम्हारी स्मृति मेरे पास केवल अफ़सोस के रूप में बची।कभी तुम्हारे साथ उठने बैठने सोने जागने की आदत थी तुम न बदलनें वाली आदत ही नही बल्कि आदत से बढ़कर लत की तरह थे।
वक्त की चालाकियों में तुम्हारा अर्जुन बन जाना किसी भी एकलव्य के लिए सदमें से कम नही है। जबकि तुम्हारे लिए मैंने कितने एकलव्य पैदा किए ये तुम्हें भी पता है।
तुम खुद के प्रभाव में थे या किसी प्रभाव ने तुम्हें अपने प्रभाव में ले लिया उसके बाद तुम तुम न बचें मुझे लगा था तुम्हारी समझ तुम्हें भेद की दृष्टि देगी मगर तुम भेद के नही विभेद के साधक बन गए थे।
बहरहाल, खुश रहो अपनी गणनाओं के हिसाब से जियों तुम्हारी समीकरण के हिसाब तुम्हारी प्रमेय सिद्ध है मेरे खुद की जोड़ घटा से हासिल में तुम्हें ढूंढने की आदत छोड़ने की कोशिस कर रहा हूँ अगर छोड़ सका तो।

'आदतें यूं ही नही जाती'
© डॉ.अजीत

मेरी गति

जिस तरह डाकघर से चिट्ठियां आने का सिलसिला किस्तों में अपनी तयशुदा मौत को प्राप्त हुआ था ठीक ऐसे ही धीरे धीरे ई मेल की दुनिया सिमटने लगी थी बेकारी के दिनों में सीवी फॉरवर्ड का यह चश्मदीद गवाह था अब महीनों हो जाते है ई मेल के खाते को खोले और जब भी उम्मीद से खोलते है तो करोड़पति बनने के लन्दन की लाटरी जितने के कोरे ठगी भरे झूठ के इश्तेहार वहां मिलते है तकनीकी के जानकार लोगो ने उन्हें स्पैम कहा था मगर मै उन्हें एक खीझ भरा मजाक कहता हूँ जो हमारे साथ किया जाता आ रहा था। अब डाकिया फोन का बिल भी नही लाता क्योंकि उसकी विदाई मोबाइल कर चुका है अब डाकिए के पास यदा कदा बैंक के कर्जे के नोटिस रस्म पगड़ी के कोने कटे पोस्टकार्ड और भाई के म्यूच्यूअल फंड के स्टेटमेंट होते है अब डाकिए से मेरा कोई भावनात्मक रिश्ता नही है जो कभी हुआ करता था। इन्टरनेट की गति में भी खत लिखना अब आउटडेटिड है ई मेल की जरूरत कामकाजी लोगों की जरूरत भर रह गई वो भी अपनी कमर पर न जाने कितने कितने केबी/जीबी का अटैचमेंट का बोझ ढोंते है साल भर।
दरअसल ये स्पानटेनियस डायलोग का दौर है इनबॉक्स/व्हाट्स एप्प में गपियानें का दौर है इस समय सारा जोर केयरिंग की बजाए शेयरिंग पर है हम कुछ भी अपने अंदर बचाकर नही रखना चाहता यहाँ तक इमोशन भी रोज़ नए पैदा करते है और रोज़ उन्हें खर्च कर देते है एक दुसरे की जिंदगियों में बेहताशा शामिल होने के बावजूद भी हमें खुद नही पता है कि ये रिश्ता कितना लम्बा चलने वाला है। गति और कहन इस दौर की आत्मा है अब वो दौर नही रहा जब हम किसी के साथ एक ख़ास इमोशन में लम्बें समय तक पॉज़ मोड़ में रहते थे एक दुसरे को मिश्री की तरह घोलते हुए घूट घूट चखते थे।
जिस गति से हम लिख/पढ़/कह रहें है उससे यह आभास होता है न जाने हम कितनी बड़ी जल्दी में है कितना कुछ समेटना चाहते है मगर रोज़ सुबह से शाम तक इतने किरदार जी चुके होते है कहीं दफा तो खुद के सच को लेकर खुद ही भ्रम का शिकार हो जाते है। चिट्ठियां गई ई मेल गया जाना इस फेसबुक और व्हाट्स एप्प को भी हैं तकनीकी से अरुचि या तकनीकी का व्यसनी दौर हमारे जीते जी ही आ जाएगा मनुष्य इन सबके सहारे इतनी गति से अपनी कक्षा के चक्कर लगा रहा है कि अब उसके द्वारा भेजें गए चित्रों से आदमीयत के बदलते मौसम का पूर्वानुमान नही लगा सकते है। रोज़ भरने रोज़ खाली होने के क्रम सम्वेदना भी अपरिपक्व भ्रूण जन रही है मगर हमने इन सबके बीच अपने होने का अर्थ तलाश लिया है भले अर्द्धचेतन को इस हाथ की सफाई और नजरबंदी के खेल का सच पता रहता हो मगर हम त्वरित प्रतिक्रिया और सम्बन्धों में तेजी से जुड़ने-टूटने के वर्चुअल चलन भी खुद ही तान साधने में समर्थ हो गए है। बौद्धिक जुगाली और आंतरिक सतही अंतरंगता के इस दौर में मुझे ठहराव चाहिए था मेरी एडिया फिसल कर घिसने लगी थी मेरी दोनों कोहनी छिली हुई थी मेरी रीड मनुष्य की रीड होने पर हद दर्जे की शर्मिंदा थी क्योंकि तमाम बातें जानने के बावजूद भी मै भी वही करता था जो दौर की सबसे बड़ी जरूरत थी। जिस दिन मैंने जरूरतों के हिसाब से खुद को ढालना सीख लिया उस दिन मेरे वो इश्तेहार उल्टा होकर मेरी पीठ पर चिपक गया जिस पर लिखा था-
तमाम मजबूरियों के बावजूद अपनी शर्तो पर जीता हूँ मैं !

© डॉ.अजीत

Tuesday, October 28, 2014

वादा

तुमने एक ही वादा लिया था यह वादा किसी किस्म की गोपनीयता का वादा नही था ना ही हमेशा के लिए तुम्हारा बनें रहने की कोई शर्त थी ना ही इसमें केवल तुम्हें और तुम्हें चाहने की जिद थी तुम्हारा वादा दरअसल तुम्हारा डर था और डर से बढ़कर निर्वासित या अज्ञात रहनें की तुम्हारी आदिम चाह थी। दुनिया भर में मेरी जो मशहूर खूबी थी मिलनें के पहले दिन से ही वह तुम्हें थोड़ा डराती थोड़ा असहज करती तुमनें अभिव्यक्ति नही अनुभूति का रास्ता चुना था तुम रोज़ अपने आसपास पसरें दुखों को इकट्ठा करती और इसी रास्ते पर चलकर अपने लिए एक कुटिया बनाने की कोशिस करती वो कुटिया हमारी सच्ची मुकाकातों की गवाह थी,लगभग हर मुलाक़ात पर तुमनें कसम की तरह उस वादे को दोहराती तुम्हें मेरी वादाखिलाफी का एक अज्ञात भय सदैव बना रहता मेरी आश्वस्ति के कुछ दिन बाद तुम फिर से मेरे कॉलर को सीधा करती हुई कहती तुमसें जो कहा है बस वो कभी मत करना।
सच बताऊं निजी तौर पर जब तक तुम साथ थी मैंने तुम्हें दिए वादे को कभी गम्भीरता से नही लिया मगर जब से तुमने उलटे कदम अपनी दुनिया में वापसी की मै लगभग रोज़ उस वादे की जिम्मेदारी के बादलों से घिर जाता और मेरा मन अंदर तक भीगता रहता तुम्हें याद करके मेरी आँखों कभी नम नही होती बल्कि उनकी रोशनी बढ़ जाती पुतली अपने अधिकतम विस्तार तक फ़ैल जाती यह चमक किसी बच्चें की आँखों की चमक के जैसी थी जो उसकी आँखों में कोई नया खिलौना मिलनें पर आती है।
तुम्हारे वादे में एक छिपा हुआ इम्तिहान था जिससे रोज़ गुजरना होता था तुम्हारे जाने के बाद मेरे पास कोई जरिया नही था तुमसें यह बतानें का कि तुम मेरे लिए क्या थी और जो जरिया था वो तुम्हारे वादे की गाँठ से बंधा था तुमनें भविष्य को बहुत पहले देख लिया था जिन दिनों मै लिखने/कहने के शिखर पर था तब तुमने कितना सोच विचार कर अपने वादे की भूमिका सोची होगी यह बात आज भी मुझे हैरान करती है।
खैर ! न तुम तब गलत थी और आज हो और न ही कल गलत साबित होगी मेरे आत्ममुग्धता के दौर में भी तुमने अपने वादे के जरिए मेरे अंदर खुद को हमेशा के लिए सुरक्षित कर लिया था अंदर झाँककर जब तुम्हें देखता हूँ तो तुम्हें बेहद निश्चिन्त अवस्था में पाता हूँ इस वादे की वजह से मेरी कसमसाहट को देखकर तुम आधी गाल से आज भी मुस्कुराती हो ये तुम्हारी जीत है तुम्हारे वादे की जीत है मगर इसमें मेरी भी हार नही है तुम्हारी इस युक्ति से तुम दिल पर काई की तरह जम गई हो जिस पर फिसलता हुआ मै अनंत ब्रहमांड की यात्रा कर सकता हूँ।
आज भी तुमसे ज्यादा तुम्हारा वादा याद करता हूँ और खुद को अनुशासित रखने की कोशिस करता हूँ तुमनें मेरी तरफ पीठ करके कहा था मुझे खुद के अंदर बचाकर रखना मुझे शब्दों के जरिए खर्च मत कर देना मै चाहती हूँ खोटे सिक्के की तरह तुम्हारी कभी न खर्च होने वाली पूंजी बन कर तुम्हारी जेब में अकेली खनकती रहूँ। तुम न मुझे खर्च कर सको और लोभवश छोड़ ही सको।
आज जब मै जब अंदर से भर गया तो यह वादाखिलाफी की पहली क़िस्त यादों के बैंक से निकाल लाया हूँ इस उम्मीद पर कि इसे तुम मेरी वादाखिलाफी नही खुद से बात करने की एक आदत मान माफ़ करोगी वैसे भी इसमें तुमसे ज्यादा तुम्हारे वादे का जिक्र है। फिर भी माफ़ करना मुझे इतना तो हक तुम पर आज भी समझता हूँ।

'वादें और यादें'

दिल का खत

कुछ बातें इतनी बेवजह किस्म की होती है कि मन चाहकर भी उनकी वजह नही तलाश पाता है वजह तो वहां तलाशी जाती है जहां कोई शक-शुबहा हो कुछ रिश्तें पानी की तरह तरल और कांच की तरफ पारदर्शी होते है उनके तटबंध बाँध पाना या किसी एक फ्रेम में उन्हें लगाना लगभग नामुमिकन होता है।उसके लिए उससे मिलना ठीक इतना ही बेवजह किस्म का था या फिर उस मेल मिलाप की वजह को स्वयं ईश्वर ही कीलित या अभिमंत्रित रखना चाहता था। उन दोनों के बीच दोस्ती से ज्यादा और प्रेम से कम जैसा कुछ था वो एक स्थाई भ्रम की धुंध में सूरज को देखने जैसा था उन रिश्तों में जनवरी की ठंड और जून की लू का कोकटेल शामिल था। उनके बीच लौकिक और अलौकिक कुछ नही था बल्कि वो अपने अपने हिस्से का निर्वात और निर्वासन भोगकर लगभग रेंगते हुए एक दुसरे के करीब पहूंचे थे दोनों ही अतीत वर्तमान और भविष्य से इतर एक नए काल की बुनियाद भरने की कोशिस करते मगर इस कोशिस में वें रोज़ परस्पर धंसते भी जाते उनका कोई सहारा नही थी यही एक सबसे बड़ा सहारा था। उन दोनों के अपने जीवन में कोई प्रेम का अभाव नही था दोनों ही लगभग तृप्त थे परन्तु बेवजह सी सही कोई एक वजह जरुर थी जिसके कारण दोनों ही क्षितिज के पार झाँक कर देखना चाहते थे यहाँ अपने-अपने घोषित/स्वीकृत सम्बन्धों में बेईमानी नही बल्कि खुद के साथ ईमानदारी का हवन चल रहा था जिसमें दोनों वक्त की समिधा लगाते समझ के मन्त्र फूंकते और विश्वास के घी से रोज़ समूल आशंकाओं को स्वाहा कर देते उनका सम्वाद अग्निहोत्र सा पवित्र था।
उन दोनों के देह ने अपने अपने विमर्श स्थाई रूप से स्थगित कर दिए थे मानो देह नश्वर भाव से रोज उनके मध्य गल कर सिमटी जाती और मन मुखर होता जाता था उन दोनों का ज्ञात अज्ञात से बड़ा था व्यक्त अव्यक्त से व्यापक था दोनों भिन्न भिन्न समय में एक ही बात को भिन्न तरीके से सोचते मगर उनके सिरे आपस में जुड़ते चले जाते उन दोनों के धड़कनों में नमी में सिकुड़ी किसी सारंगी के तारों सी कर्कशता होती मगर जब एकबार सम्वेदना सध जाती तो उनकी सरगम में राग को भी विस्मय होने लगता दोनों की तत्परता कभी अधीरता की शिकार न होती थी उन दोनों के स्पर्श सदैव कुंवारे ही रहें उनका नयापन स्पर्शो की नमी में भी अपनेपन की बोनशाई को पुनर्जीवन देने की सामर्थ्य रखता था।
उन दोनों की आँखों की दोस्ती उनकी दोस्ती से कई गुना गहरी थी दोनों एक दुसरे के पलकों पर जमी वक्त की गर्द को आंसूओं से धोते थे उनका बिस्तर उनकी करवटों का सच्चा गवाह था मगर ख़्वाबों की वजह से तकिए ने इस बात की गवाई देने से साफ़ इनकार कर दिया था कि वो दोनों गहरे अवसादयुक्त द्वंद के शिकार थे।
वे न रिक्त थे न अतिशय भरें हुए उनके पास अपना गुरुत्वाकर्षण नापने का अवैज्ञानिक यंत्र था जिसकी अदला बदली से वें इस ग्रह पर अपनी वस्तुस्थिति का आंकलन करते उनका मिलना दरअसल एक झरनें और एक नदी का मिलना था एक की चोट और एक की ओट को समझने के लिए पत्थर बनना पड़ता था वो भी मूर्ती में ढलनें की अभिलाषा को छोड़कर।
मैंने उन दोनों को समन्दर में समाते देखा आज भी लहरों पर काजल से लिखी उनकी दो दो शब्द की चिट्ठियाँ मुझ तक पहूंचती है वो कुछ कहना चाहते है मगर मै पढ़ नही पाता हूँ क्योंकि मेरे पास आँख नही और आँख होंगी भी कैसे मै कोई शख्स नही बल्कि उन दोनों का एक दिल हूँ जिसे दुनियावी तूफ़ान के बाद एक लहर ने किसी निर्जन टापू पर पटक दिया था कई बरस पहले....!

'दो-दो शब्द की चिट्ठियां'

Monday, October 27, 2014

मौसम

उसका आना एक संयोग था मगर उससे मिलना एक हासिल की गई उपलब्धि। उसकी अपनी एक लय गति और ऊर्जा थी वो न ज्यादा उलझी हुई बातें करती और न ज्यादा सुलझी हुई संकेतों में अपनी बात कहना उसकी खासियत थी उसके संकोच को पढने के लिए बस एक पल के लिए अपनी आंख बंद करनी पडती, उसकी बातें कविता उपन्यास दर्शन या मनोविज्ञान की नही अपने आसपास पसरे जीवन की बातें थी वो बेजान खुशियों को मन के धागे से पिरोकर एक खूबसूरत माला बना देती जिसे पाकर कोई भी आम इंसान देव तुल्य हो सकता था। उसकी बातों की एक अपनी खुशबू थी आप कितने ही व्यस्त हैरान परेशान क्यों न हो उसकी बातें हर वक्त चेहरे पर एक इंच मुस्कान लाने की कुव्वत रखती थी।
वो दूर देश से आई पुरवाई के जैसी थी जो उमस भरी गर्मी में मन की धरती पर अपने स्नेह की बिना शर्त बौछारें बरसा कर चली जाती वो जितना कह पाती उससे ज्यादा उसका अनकहा रह जाता है वो रोज़ खुद से बातें करती मन ही मन तय करती कुछ सवाल मगर फिर खुद उनके जवाब सोच अक्सर चुप हो जाती। उसकी बातों मे बच्चों सा कौतुहल, बडो सी फिक्र और सखा सा अधिकार का इतना बेहतरीन समन्वय रहता है कि कई दफा खुद की वास्तव में परवाह होने लगती थी।
वो फूलों झीलों नदियों रास्तों से गहरी दोस्ती रखती थी उनके कान में खुशी के मंत्र फूंकने की उसकी ताकत पर ईश्वर भी मुस्कुरा सकता था रोज शाम वो अनजान रास्तों पर निकल जाती खुद से गहरी मुलाकातों के लिए उसने अपना रचा हुआ एकांत था जहां रोज़ शाम खूबसूरत लम्हों को मन की आंखों मे कैद करती हुई विदा होते सूरज़ के माथे को अपनी फूंक से सहला देती फिर वो शाम को धीरे से आने को कहती ताकि वो खुद को तलाश सके गुम होती रोशनी में। गति और बदलता वक्त उसका सबसा बडा भय था।
उसका सब कुछ अपना था अपनी हवा अपना सूरज़ अपना चांद और अपने तारे। वो रच लेती थी अपनी एक समानांतर दूनिया फिर उनसे बतकही करती उसकी आंखों में दुस्वप्नों की घुसपैठ थी मगर उसे भूलने का हुनर आता था। उसकी आंखों समंदर की गहराई थी वो अपने समा लेती थी अपने आसपास के दुख। उसके अन्दर खुशी को एक स्ंक्रमित बीमारी बनाने की एक जिद देखी जा सकती थी और निसन्देह वो इसमे एक हद तक कामयाब भी थी। वो बिखरे टूटे सम्बंधो की कुशल उपाचारिका थी उसकी बातें मरहम का काम करती थी।
उसको जब भी उदास देखना सबसे मुश्किल पलों मे से एक होता बिना किसी दुनियावी के रिश्तें के दुआ में उसकी खुशियों की दुआ भी शामिल रहती थी क्योंकि जीवन मे वो उस सूरज़ की तरह थी जिसके छिपने पर मन उदास अनमना हो जाता जिससे मिलना भर रोज़ जिन्दगी से लडने की वजह देता था।
सबसे बडी बात यह थी उसकी मुस्कान दिल को राहत देती उसकी पलकों का पॉज़ खुद को उसकी नजर से देखने की वजह देता उसकी आंखें उस दूनिया में जाने का रास्ता देती जहाँ खुद से प्यार होने लगता और उसको खोने का डर जीने से बडा था इसलिए उसकी नाराजगी मे सबसे बडा अपराधबोध यही होता है कि शायद खुद हमें खुद की ही नजर तो नही लग गई।

‘वो कौन: ना मै जानूं ना वो