Saturday, November 1, 2014

सखा

आहत मन के लिए शाम सबसे भारी वक्त था ज्यों ज्यों सूरज डूबता मन भी अन्तस् में डूबता चला जाता।
तुम्हारी बातें सबसे ज्यादा दोपहर में याद आती थी। रात को सोने से पहले का वक्त खुद को समझाने के लिए तय था। हर सुबह तुम्हारी बातों के टापू से बाहर निकलनें के संकल्प की सुबह होती थी मगर चाय की प्याली को उठाते ही तुम उससे उठती भांप पर सवार हो मेरी आंख की कोर को गीली कर जाते थे।
पिछले कुछ दिनों से तुम्हारी यादों ने मेरी इस कदर तलाशी ली कि मै खुद को ठीक से छुपा भी नही पाता।
अनमने मन से हंसते हुए मेरी हंसी रोने लगती और उसके आंसू मेरे गले में अटके रहते उसे तुम गला रुन्धना समझ सकते हो।
साल के आखिर में वक्त बेवक्त यूं उलझे रहने ठीक नही है जबकि इधर नए साल के जश्न की तैयारी शुरू हो गई है  नया साल पुराने आदमी के लिए हर साल इतना भारी क्यों हो जाता है
बताओं न प्रिय सखा !

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