Monday, November 24, 2014

शाम

अकेले बैठ चाँद को देखना कब सुकून से खलिश में तब्दील हो जाता है पता ही नही चलता अपलक चाँद को देखती हूँ और उसके घटने बढ़ने में रोज कुछ न कुछ अंदर टूट जाता है एक चाँद मन के आकाश पर उगता है उसको बाहर के चाँद से मिलान करने की मेरी आदत परेशानी का सबब बनती जाती है दोनों में अजब सा विरोधाभास चलता है बाहर शुक्ल पक्ष हो तो अंदर कृष्ण पक्ष होता है बहुत कोशिसों के बावजूद भी नही साध पाती हूँ अपने मन का मार्तंड पंचाग । जहां इस वक्त सशरीर बैठी हूँ वहां नजदीक ही एक मन्दिर है मंदिर में जलते दिए की रोशनी तारे की तरह टिमटिमाती नजर आती है उसी के सहारे मै मन्दिर में अकेले स्तम्भित बैठे ईश्वर के अकेलेपन के बारे में सोचकर उदास हो जाती हूँ सच में कितना मुश्किल होता है देवता बनना उसके लिए अपनी संवेदनाओं को पत्थर के हवाले कर मौन का स्तम्भन और अकेलेपन का वरण करना पड़ता है मन्दिर में बजती घन्टे घडियालों की आवाज से उदासीन ईश्वर न जाने किस की फ़िक्र में गुम है।अचानक मुझे भी तुम्हारी फ़िक्र होने लगती है कही देवता दिखने के चक्कर में तुम दुनिया की चालाकियां तो सीखने में व्यस्त नही हो गए हो कई दिनों से न तुम्हारा फोन आया और न कोई खत ही मिला है। एक मजबूर ईश्वर की बजाए तुम एक कमजोर इंसान बने रहो मै बस इतना ही चाहती हूँ क्योंकि मै तुमसे प्रेम करना चाहती हूँ देवत्व की प्राप्ति के बाद तुम्हारी केवल उपासना की जा सकती है प्रेम के लिए जगह और वजह नही बच पाएगी फिर, और मेरे पास स्तुति से ज्यादा प्रेम बचा है इसलिए मेरा ईश्वर मुझसे नाराज रहता अक्सर। पिछले दो घन्टे से मै अकेली यहां बेंच पर बैठी हूँ मौसम की ठंडक का असर मेरी कमर को सुन्न कर रहा है मगर मुझे अपने सामने सुखा तालाब देखने में जो सुख मिल रहा है वो सुख झील या झरनें देखनें में भी नही है ये तालाब रोज़ रीत रहा धीरे धीरे ठीक मेरी तरह उसमें कुछ ही पानी बचा है इसी पानी के सहारे कुछ मेरे जैसे भटके पंछी उस तक रोज आ जाते है तालाब ने इस पानी को बचाने के लिए अपना गला बन्द कर लिया है।वो अंदर से भले ही कितना प्यासा रहें  इस सर्दी में वो इतना पानी जरूर बचाकर रखेगा कि जिसके सहारे लोग उसके एकांत का हिस्सा बनते रहें मुझे बता है उसे यूं रोज मेरा बेंच पर बैठ उसको निहारना अच्छा लगने लगा है मैंने उसकी निजता का सम्मान करते हुए उसमें आज तक एक भी शंका या कौतुहल की कंकर नही फैंकी है तालाब की नजरों में यह मेरा शिष्टाचार है मगर मै तालाब की स्थिरता पर लगभग दो घण्टें रोज आसक्त रहती हूँ। कुछ पंछी जरूर मेरा ध्यान खींचते है वो न जाने किस तृष्णा में तालाब तक आएं है।पता नही कि मेरे मन में ज्यादा शोर है या निर्वात मै बाहर की कोई आवाज नही सुन पाती हूँ मेरे कान बस ठण्ड में लाल होकर मुझे ठण्ड का अहसास कराने के काम के रह गए है नही सुन पाती है खुद के कंगन पायल चूड़ी या बाली की आवाज भी सब कुछ विराट मौन का हिस्सा बन गया है।मेरे लिए आवाज का मतलब मात्र ध्वनि नही रह गया है मै सुनने लगी हूँ इनदिनों तुम्हारे मन की फुसफुसाहट इसके बाद बाहर की आवाज़ो के प्रति मेरी दिलचस्पी किस्तों में खत्म हो रही है।हल्का अँधेरा होने लगा है सूरज विदा हुआ तो चाँद तारों को होश आना शुरू हुआ दिल हुआ उनकी आँखों पर पानी के छीटें मार दूं ताकि उनके चेहरे खिल जाए फिर तालाब के एकांत और खुद की ऊंचाई का ख्याल कर रह गई चुपचाप। मन में यादों के टेपरिकॉर्ड पर शाम की सबसे उदास गजल बज रही थी इससे पहलें वो मुझे वहीं समाधिस्थ कर देती मैंने जल्दी जल्दी याद किए शाम के सांसारिक काम और खुद की व्यस्तता का बहाना कर लौट आई उस चार दीवारी में दुनिया जिसे मेरा घर समझती है।

'एक शाम की बात'

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