Tuesday, November 25, 2014

अ-जीत

नाम को बिना किसी सरनेम बिना प्रिफिक्स के तुम्हारे मुंह से सुनने का सुख मिलनें में वक्त तो लगा मगर जब तुमने सीधा मुझे केवल मेरे नाम से सम्बोधित किया तो वो महज एक मात्रा तीन अक्षरों का शब्द नही रहा उसमें अपनेपन और अधिकार की मिश्री घुल गई थी दार्शनिक अर्थो में  कलयुग में सत-त्रेता-द्वापर की यात्रा बन गई थी तुम्हारा मुझे मेरे नाम से यूं पुकारना। मै निर्वात में झूलता हुआ शब्द मीमांसा में खो गया था तुमने कनखियों से मेरी आँखों में तैरते शब्दों के स्वप्न देख लिए थे ये मुझे पता था।
दरअसल अरसे से इस नाम के साथ मेरा नाराजगी वाला रिश्ता रहा है मै आजतक हारता ही आया हूँ जबकि नाम का इशारा जीत की तरफ होता है जब कोई मुझे बुलाता तो मुझे लगाता ये मेरे नाम को बुला रहा है मुझे नही।आज से पहले ये नाम अकादमिक प्रमाण पत्रों में दर्ज एक नाम भर था मगर तुम्हारे आधे बंद आधे खुले लबों से जब आज तुमनें मुझे नाम से बुलाया तो इस निर्जीव नाम में तुम्हारी ध्वनि ने मानों प्राण फूंक दिए हो तुम्हारे लबों से मेरे कान तक की यात्रा में मेरा नाम शिशु से जवान हो गया था अब मेरे मन में टहल रहा है बुजुर्गो की तरह।
तुम्हारे शब्द और ध्वनि में लगभग वैसी ऊर्जा थी जो किसी सिद्ध के पास शक्तिपात करते समय होती है इसलिए नाम पर जमी संदेह शंका जिज्ञासा की गर्द उड़ गई और वो निर्मल हो गया ठीक तुम्हारी तरह।
मै चाहता हूँ जब भी तुमसे मिलना हो तो बिना संधि विच्छेद के मुझे मेरे नाम से सम्बोधित करों क्योंकि जब तुम पुकारती हो तो लगता है ये मेरा ही नाम है। ऋषियों के मन्त्रों की तरह मेरे नाम की अनंत तक व्याप्ति तुम्हारे पुरकशिस उच्चारण से ही सम्भव है सशरीर अमरता एक कोरा पौराणिक गल्प हो सकता है मगर तुम्हारे सम्बोधन से मेरा नाम निश्चित रूप से अनंत तक यहीं व्याप्त हो जाएगा मेरे जाने के बाद भी उसका अस्तित्व बना रहेगा अब हो सकता तुम्हें मै मतलबी लगने लगा हूँ या फिर थोड़ा पगला सच तो ये है मै ये दोनों ही हूँ।
फिलहाल तो तुम्हारे सम्बोधन की गर्माहट से मेरे कान लाल हो गए मानो कड़ाके की सर्दी में ओल्ड मोंक का पव्वा चढ़ा लिया हो ये एक हलकी बात है मगर तुमने जब कल मुझे मेरे नाम से पुकारा तब से  मै सच में हलका हो गया हूँ उड़ रहा हूँ ख्वाबों के आसमान में शाख से टूटे फूल की तरह।

'अ-जीत'

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