Thursday, November 6, 2014

कैलेंडर

आज से लगभग पौने दो महीने बाद इस कमरें से इस कैलेंडर को बदल दिया जाएगा कैलेंडर बदलना कोई नई बात नही है इसे समय के साथ अपडेट रहने की एक जुगत समझा जा सकता है मगर हर साल पुराने कैलेंडर को सहेज कर रखना तुम्हारी वजह से पहले एक आदत बनी फिर वो कब एक जुनून में तब्दील हुई मुझे खुद नही पता चला।
मेरे पास बीते सालों के कुछ कैलेंडर है जिनका कभी कभी मै तकिए के रूप में भी प्रयोग करता हूँ तब मेरी नींद बेहद गहरी होती है और ख़्वाब बिखरे हुए। दरअसल तुमसे मिलने के बाद कैलेंडर मेरे लिए महज बारह पन्नों का एक पुलिंदा भर नही रहा मेरे लिए वो हर बीतते हुए लम्हों का पुख्ता दस्तावेज़ बन गया जिसको किसी शहरी जमीन की रजिस्ट्री की तरह मै सम्भाल कर रखता हूँ।
इस साल के कैलेंडर के कुछ महीनों पर बनें तारीखों के घेरे पिछले साल के कैलेंडर से भिन्न हो सकते है मगर वो किसी एक पुराने साल के कैलेंडर से बिलकुल मिलते जुलते हुए होंगे। जिस तरह से कोई समझदार आदमी पांच सौ के नोट को एक आँख भींच कर आँख के पास क्षैतिज रखकर उसके असली या नकली होने को परखता है ठीक वैसे ही कई दफे मै कैलेंडर की तारीखों को देखता हूँ ताकि मुझे उनसे जुड़ी यादों की सत्यता का पता चल सके।
कैलेंडर के लिए बदलता मौसम सबसे बड़ा हसीन धोखा होता है जनवरी की तारीखें दिसम्बर से कभी नही मिल पाती दोनों के बीच गर्मी बरसात के गलियारे बने होते हैं जबकि दोनों की ठिठुरन लगभग एक जैसी होती है।
वैसे तो ग्लोबल वार्मिंग मौसम विज्ञानियों की चिंता का विषय है मगर तुम्हारे मन का विज्ञानी मै अक्सर इस बात को लेकर चिंतित रहता हूँ कि तुम्हारे मन का मौसम इतनी तेजी से बदलता है कि कैलेंडर पर बसंत कब पतझड़ में तब्दील हो जाता है उसकी महीनें या तारीखे भी गवाही नही दे पाती है।
सम्बन्धों के अरण्य में कैलेंडर के जरिए उन महीनों का अनुमान लगाया जा सकता है कि कब तक तुम बरसात की आद्रता में रहोगी और कब तुम्हें शीत से असुविधा होने लगेगी।
मेरे कमरे में टंगा कैलेंडर कभी कभी घड़ी के पैंडुलम की तरह हिलता भी है जिससे दीवार पर एक आधा वृत्त बन गया है यह वृत्त इतना स्पष्ट है कि इसका एक ज्यामितिय मूल्य कोई गणितज्ञ निसंदेह निकाल सकता है। कैलेंडर को इस तरह से तुम्हारे देश से आई हवा हिलाती है कि मै तेजी से फड़फडाते पन्नों को देखता हूँ जनवरी जून से मिलना चाहती मार्च अक्टूबर से और दिसम्बर जुलाई से।
कैलेंडर की तारीखों से लदें महीने इतने बैचेन और अधूरे किस्म के है कि उनसे एक मुक्कमल अधूरी तस्वीर भी नही बनती है उनमे आपस में रंजिशें है या मुहब्बत इसका अंदाज़ा लगा पाना भी मुश्किल है।
दरअसल,कैलेंडर एक बूढ़ा गवाह है जिसकी उम्र साल दर दर बढ़ती जाती है और वक्त की जेब से खर्च हम होते जाते है। इसकी गवाही कभी नही ली जाती अगर ली जाती तो तुम्हारी शिकवें-शिकायतों की कैद- ए- बामुशक्कत से मै कब का रिहा हो चुका होता।

'कैलेंडर बदलता है हालात नही'

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