Friday, November 21, 2014

साँझ

कुछ देर के तुम्हारे साथ की वजह से मै अपनी उदासी भूल बैठा था आज जब वो लौटी तो मेरे अंदर एक हिकारत के साथ लौटी उसकी आँखों में अपरिहार्यता की बंकिम मुस्कान थी यह लगभग ठीक वैसी वापसी थी जैसे कोई जरूरत की चीज़ घर आए जिसके बिना काम न चल सकता हो थोड़ी देर मैं अनमना खड़ा रहा फिर अपनी मूर्खता पर देर तक हंसता रहा आखिर मै कैसे भूल कर जीने लगा था ये हक किसने दे दिया था मुझे ! क्या चंद तुम्हारी अपनी सी लगने वाली बातों ने या फिर मै मतलबी हो गया था तुम्हारा साथ पाने के लिए खुश दिखने का अभिनय करने लगा था। शायद ये मेरी ही भूल थी कि मुझे लगा था कि रास्तों पर तुम्हें देखते हुए उलटे पाँव भी चला सकता है तुम्हें बताकर हर पीड़ा की सघनता को कम किया जा सकता है। जिस उदासी ने बचपन से मन की गुफा में अलख जगाई हो जिसकी चिलम फूंकते हुए जवानी में कदम रखा हो अब उम्र के इस पड़ाव में उसको बाहर निकाल पाना लगभग असम्भव कार्य था रेशा रेशा अवसाद की चासनी में लिपटी जिंदगी में इतनी मोहलत कब थी कि तुम्हारी मुस्कान पर कविता लिखी जा सकें तुम्हारे खंजन नयन पर शास्त्रीय समीक्षा प्रस्तुत की जा सकें ये तुम्हारे सत्संग का प्रभाव था या मेरे मन की रिक्तता कि मै अपने अभ्यास से परे की बातें कहता चला गया।
अब मै थक गया हूँ तो लौट आया हूँ अपनी उसी कुटिया में जहां उदास भजनों से मुक्ति का चिमटा बजाता आया हूँ।
मेरी बातें अतीत का प्रवचन रही है अतीत में जीना एक किस्म का कायराना कौशल है जहां वर्तमान में खुद को अप्रासंगिक समझ भविष्य में अरुचि दिखाने की आदत पड़ जाती है कुछ ऐसा ही मेरा मैकेनिज्म था तुम्हारा हाथ थामें मै वर्तमान के क्षण में जीने लगा था। अब मुझे तलाशती हुई एकांत के उस टीले की तरफ मत जाना क्योंकि अब मै वहां न मिलूंगा अब मै अपने पुराने निर्जन पते पर लौट आया हूँ वहां तक तुम्हारा और तुम्हारे खतों का पहूँचना संदिग्ध है इसलिए अब तुम्हें कोई वाचिक आश्वस्ति नही दे सकता हाँ इतना जरूर कहूँगा तुमसे मिलकर सच में अच्छा लगा था खुशी की मुझे परिभाषा नही आती इसलिए उसके बारें में बता पाना मुश्किल होगा। सच खुशी और अच्छा लगना मेरे हिस्से में कम ही रही है इसलिए इन्हें महसूसने और कहने दोनों के मामलें में निर्धन हूँ।
चिट्ठी के अंत की तरह यही कहूँगा थोड़े लिखे को ज्यादा समझना ! अब चलता हूँ अपनी कुटिया की ओर..

'साँझ ढलें घर चलें'

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