Tuesday, March 14, 2023

धीमी मौत

 

मैंने खुद को उसके अंदर एक धीमी मौत मरते हुए देखा था।

यह किसी उपन्यास के पात्र का संवाद हो सकता था। मगर यह एक किस्म का निजी यथार्थ था जो इतनी सफाई से और न्यून गति से घटित हुआ था कि जब तक इसका बोध हुआ यह घटित हो चुका था। हालांकि किसी के अंदर खुद को धीमी मौत को आप स्थगित कर सकते हैं मगर यदि यह एक बार शुरू हो जाए तो फिर इसे टाला नहीं जा सकता है।

किसी के गहरे अनुराग,अभिरुचि और सपनों के संसार से निर्वासन मिल जाना सुखद नहीं था।  मगर उसे देखते हुए यह जाना जा सकता था कि सम्बन्धों का भूगोल मनोविज्ञान तय करता है यह विषयगत अतिक्रमण है। मगर किसी के मन जब आपको लेकर दिलचस्पी समाप्त होने लगती है तो सबसे पहले इसकी सूचना मन ही मन को देता है।

दो लोगों की गहरे अपनत्व से भरी यात्रा को यूं यकायक खत्म होना दिखने में एक तात्कालिक बात लग सकती है मगर इसकी भूमिका धीरे-धीरे बहुत पहले लिखी जा चुकी होती है। एक अंधविश्वास से भरा कथन यह भी कहा जा सकता है- 'बाज़ दफा हमें खुद ही खुद की नजर लग जाती है'। यहाँ भी कुछ-कुछ ऐसा समझा जा सकता था।

दरअसल, एक लोकप्रिय बात यह कही जाती है कि दो असंगत लोग लंबे समय तक साथ रह सकते हैं क्योंकि उनका अलग होना एक किस्म की ऊर्जा पैदा करता है मगर मैं इस कथन की प्रमाणिकता से कम ही सहमत हुआ था। मुझे लगता था कि साथ रहने या साथ चलने के लिए साम्य-वैष्मय से इतर एक चीज जरूरी होती है कि हमारे पास कितना धैर्य है। और मैंने धैर्य से चूकने के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराए थे। धैर्य से चूकना एक खास किस्म की अनिच्छा या खीज भरता है और मनुष्य को अपने चुनाव पर संदेह होने लगता है। मूलत: मेरा अस्तित्व इसी संदेह के ट्रेप में आकर फंस गया था।

दो व्यस्क लोगों के मध्य असहमतियाँ हमेशा होती हैं और सहमत या असहमत होना मनुष्य का मन:स्थिति सापेक्ष मसला भी है। मगर उसके अंदर मैंने सहमति-असहमति से इतर मुझे लेकर एक महीन निराशा दिखी थी और वो इतनी महीन निराशा थी कि शायद उसे भी वह स्पष्ट नजर नहीं आ रही थी। उसने उसका कोई दूसरा नामकरण किया था जो न सच था न झूठ।

अंतत: मनुष्य के पास कारक-कारण के पैटर्न को समझने के लिए कुछ तर्क तलाशने के अलावा ज्यादा कुछ बचता नहीं है। मैंने थोड़ी देर वह उपक्रम किया और अन्तर्मन ने जब मुखरता यह कहा कि तुम्हारी उड़ान अब रास्ता भूल चुकी है तो उसके पास असीम आकाश को देखने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। मेरे पास आकाश के सौंदर्य को लेकर मुग्धता नहीं थी डरती पर लौटने का भय भी नहीं था। मेरे पास जो था उसे नियति नहीं कहा जा सकता था बस अंदर से ही आवाज़ आती थी आखिरकार एकदिन यह तो होना ही था।

'अधूरे-वृतांत'

©डॉ. अजित

Monday, March 13, 2023

अपात्र

 उसके लिए मैं सुपात्र था

कुछ-कुछ अंशो में शायद मैं था भी। मगर वस्तुतः मैं पात्र-अपात्र के मध्य कहीं किसी बिंदु पर मुद्दत से किसी उपग्रह की भांति टिका हुआ था। मेरे पास मन के संचार केंद्र को भेजने के लिए बड़े धुंधले मानचित्र थे इसलिए उनके भरोसे कोई एक सटीक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती थी। 

प्रेम में हीनताबोध नहीं उपजता है हीनताग्रन्थि वाला व्यक्ति कभी प्रेम नहीं कर सकता है मगर मैं स्वतः ही आत्म मूल्यांकन करने लगता और इस पात्र-अपात्र की बाईनरी से खुद को देखता। उस वक्त मेरी घड़ी दो अलग-अलग वक्त बताती और मैं हमेशा गलत समय को सही मानता।

एक क़िरदार के अंदर इतने किरदार गडमड थे कि अक्सर यह लगता कि प्रेम जिस किरदार से मिलने आया था वो हमेशा कहीं दूर अकेला दुबका बैठा हुआ है। आत्मदोष और अन्यमनस्कता इस कदर तारी थी कि अवचेतन में इस बात की गिल्ट रहती कि मेरी व्यवहारगत असमान्यताओं के बावजूद कोई कैसे मुझसे प्रेम कर सकता है? कहीं मैं किसी किस्म की विकल्पहीनता का तो परिणाम नहीं हूँ आदि-आदि।

जब आप वक्त के आगे-पीछे चल रहे होते हैं तो अपने होने को एक कुसमय का सच स्वीकार कर जीने की आदत विकसित करते हैं। प्रेम की कामना रहती है मगर प्रेम में चोटिल होने का डर भी सतत बना रहता है। किसी भी किस्म का गहरा अनुराग या केयर समानांतर काम्य और अकाम्य बनी रहती है क्योंकि आपको पता होता है कि आप प्रतिदान के मामले में लगभग शून्य है। आपके हिस्से का प्रेम आपका वक्त कब का चट कर चुका है।

मैं सुपात्र नहीं था मगर कुपात्र भी न था हाँ मैं अपात्र जरूर था। जब-जब उसका दिल मेरे कारण दुखा मेरे इस अपात्र होने की पुष्टि होती गई और यह मलाल बढ़ता गया कि मैं क्यों किसी के जीवन में मानसिक कष्ट का निमित्त बना हूँ। और मैं किसी मांत्रिक की भांति उसके जीवन में एक आदर्श काल्पनिक प्रेमी का आह्वाहन करने लगता यह बात तकलीफ देती थी मगर मैं यह करता था।

दरअसल, खुद को अपात्र समझना या बताना उस तात्कालिक गिल्ट से उबरने का एक जतन भर था जिसके चलते मुझे अक्सर यह लगता कि मेरे साथ कोई खुश नहीं रह सकता है। मै अपनी छाया और दुःख के संक्रमण से उसे बचाना चाहता था कम से कम यह बात जरूर प्रेम के पक्ष में जाती थी। 

उसके लिए मैं सुपात्र था इस कथन में दोष हो सकता है मगर वह मेरे लिए पात्र-सुपात्र से इतर एक अनिवार्य ईश्वरीय हस्तक्षेप की तरह थी जिसके कारण मैं यह जान पाया कि खुद से प्रेम करने की आदत को एक अतिरिक्त योग्यता की तरह देखना बन्द करना चाहिए। उसके कारण मुझे पहली दफा यह अहसास हुआ कि मैं प्रेम में जो जवाबदेही महसूसता हूँ वह इतनी ईमानदार जरूर है कि मैं आईने में खुद की पीठ देख सकता था जिस पर पलायन नहीं लिखा था।


©डॉ. अजित

Saturday, March 11, 2023

मस्टर्ड कलर

 उसके पास एक मस्टर्ड कलर का शॉल था।


उस शॉल को वो गले में लपेटे रखती थी। वस्त्र विन्यास के जानकार लोग उसे शॉल की बजाए स्टॉल भी कह सकते हैं मगर मैं उसे शॉल की कहता हूँ। मैं उसे देख पीले और मस्टर्ड कलर में भेद करने लगता था। जिनकी ज़िन्दगी एकरंगी रही हो उनके लिए रंगों में अंतर करना मुश्किल काम होता है। पहली दफा मुझे यह भेद समझ आया और मस्टर्ड कलर मुझे पीले से अधिक आकर्षक लगने लगा। इस आकर्षक लगने में रंग का नहीं उसका अधिक योगदान था।

उस शॉल पर कहीं-कहीं हल्के रुएँ भी दिखते थे शायद उसे बेतरतीबी में ओढ़ने के कारण उभर आए थे मगर उस शॉल की खूबसूरती में इससे लेशमात्र भी कमी न आई थी। उसकी अपनी एक मौलिक गंध थी जिसे मैं मीलों दूर बैठा भी आसानी से महसूस कर सकता था। 

बसंत का रंग पीला कहा जाता है मगर वो मस्टर्ड कलर मन में सर्दी में बसंत ले आता था उसकी गर्माहट मन की सतह पर जमीं शंकाओं की बर्फ को पिघला देती थी। उसे देखकर मैं मानवीय हस्तक्षेप की जुगत से चूक जाता था अक्सर क्योंकि उसे देखना एक सम्पूर्ण सुख था।उसे निर्बाध देखते हुए यह सुख अक्सर महसूस किया जा सकता था।

उसने बताया कि यह शॉल उसे बहुत पसन्द है क्योंकि यह उसकी माँ लाई थी। बाज दफा वस्तुओं से अधिक हमें वस्तुओं के संदर्भ उससे बांधने में मददगार होते थे यह बात कमोबेश मनुष्य पर लागू की जा सकती है। उस शॉल का अपना एक दिव्य ऑरा था जो उसके अभौतिक सौन्दर्य में विलक्षण इजाफा करता था। उसे उसके गले के इर्द-गिर्द लिपटा देख यह साफ तौर पर एक गहरा अपनत्वबोध देखा जा सकता था।

जिन तस्वीरों में वो मस्टर्ड कलर का शॉल था मैं उन तस्वीरों को देख मन के अलग-अलग भाष्य करता जोकि लौकिक और अलौकिक के साम्य बिंदु पर स्थिर नहीं हो पाते थे। उस शॉल के साथ जो हँसी मैं पढ़ पाता वह मुझे उस दुर्लभ पहाड़ी वनस्पति की याद दिलाती जिसका नामकरण अभी वनस्पति विज्ञानी नहीं कर पाए हैं। उस शॉल पर चिपके उसके एकाध सर के बाल मुझे जीवन की नश्वरता और जीवन के अनुराग का पाठ सिखाते थे। 

उसे ओढ़ते समय उसकी बेफिक्री यह बताती कि खुश होने के लिए कारण की नहीं एक लम्हे की जरूरत होती है।

दरअसल वो मस्टर्ड कलर का शॉल महज एक सवा दो

 मीटर का कपड़ा नहीं था बल्कि वो रिश्ते की गर्माहट का बेहद आत्मीय दस्तावेज़ था जिसे मैं उसकी अनुपस्थिति में आंख मूंदकर अक्सर पढ़ा करता था। उसके जरिए उससे मैं वो बातें कर पाता जो वो जानती तो थी मगर मेरे मुंह से सुनने की कामना रखती थी। 

मस्टर्ड कलर से बैराग की ध्वनि भी आती है एक ऐसा ही बैराग उससे मेरा जुड़ गया था जो विज्ञापन की तरह कहता था कि दूरियों का मतलब फासले नहीं होते। 

वो मस्टर्ड कलर का शॉल एक दरवाजा था जिसके दोनों तरफ सांकल लगी थी मगर मैं दोनों तरफ से उसे खोलने का कौशल जानता था।


©डॉ. अजित

Thursday, March 9, 2023

यात्रा

 एक सुरंग है। अंधी सुरंग। उसमे दाखिल होते वक्त कोई कौतूहल नहीं था। विकल्पहीनता भी न थी। एक सम्मोहन कहा जा सकता है जो अनायास घटित हुआ था। और मैं उसमे लगभग उत्साह के साथ के दाखिल हुआ। लगभग इसलिए क्योंकि बीच रास्ते में एक दफा ख्याल आया कि यदि यह सुंरग कहीं भी न खुली तो? क्या मैं वापस लौट सकूंगा। शायद नहीं। 

प्रेम के अनुभव कहने के लिए प्रतीकों का सहारा लेना पुरानी रवायत है। ऐसा क्यों है? शायद इसलिए कि एक समय के बाद प्रेम हमें रूपांतरित कर देता है और हम अपने नए रूप के साथ तादात्म्य स्थापित करने में थोड़ी असहजता भी महसूस करते हैं।

जिस रास्ते पर चलते हुए आपका खोना तय हो और जिस पर आपके पदचिन्ह के निशान किसी दूसरे के लिए मार्कर न बनते हो उसे रास्ते पर चलते जाना एक दिलचस्प चीज है। बाज दफा इस बात का इल्हाम हमें होता है कि उस पार पीड़ा है,संत्रास है,वेदना है मगर वर्तमान के अनुराग का लोभ हमारे कदमों की ऊर्जा बन हमें उस तरफ ले जाने का काम करता है।

सबकुछ जानते हुए भी खुद को एक संभावित पराजय या दुर्भिति के लिए खुद को मनोवैज्ञानिक तौर पर तैयार करने की जुगत बनाते जाना उस यात्रा का अनिवार्य हिस्सा थी।पहले लगता था कि मेरे पास औचित्य और बुद्धि का अद्भुत संस्करण मौजद है जिसके बल पर मैं यह तय कर सकता हूँ कि मुझे कितना संलिप्त होना है और कितना निरपेक्ष रहना है मगर वस्तुतः यह एक कोरा भरम था। एक समय के बाद हम केवल साक्षी हो सकते है प्रवाह के समक्ष बहने के अलावा दूसरा रास्ता नहीं होता है।

किसी पहाड़ी गदेरे की फिसलन में फिसलने जैसा एक अनुभव हुआ और अपनी मान्यताओं की उबड़ खाबड़ घाटियों से फिसलता हुआ मैं एक अनजान गंतव्य की और तेजी से बढ़ रहा था। मेरे कंधे भले ही जिम्मेदारियों से चोटिल थे मगर रास्ते के पत्थरों के एकांत से मैंने कुछ हौसला उधार लिया था। कुछ जंगली वनस्पतियों ने मेरी चोटों का उपचार किया मगर उनकी गन्ध ने मुझे बताया कि मैं जिस रास्ते पर पर बहता हुआ जा रहा हूँ वह उस मुहाने पर खत्म होता है जिसके बाद रास्ते नहीं है।

मनुष्य ऐसा जानबूझकर क्यों करता है? यह सामान्य ज्ञान का प्रश्न हो सकता है मगर इसका उत्तर जीवन के अनुभव से नहीं मिलता है। वो एक गन्ध,एक पुकार या एक अज्ञात की स्वरलहरी होती है जिसके कारण हम अपरिहार्य रूप से घटित होने वाले दर्द को भूलकर उस अज्ञात के मोहपाश में बंध जाते हैं और उस दिशा की तरफ बढ़ने लगते हैं जहां रास्ते में वह एक सुरंग हमारा इंतज़ार कर रही होती है।

प्रेम या अनुराग की आंतरिक दुनिया जितनी जीवंत और वैविध्यपूर्ण होती है उतनी ही बाहर की दुनिया में उसका एक असम्भव मिलान उपस्थित होती है।हम दृष्टा और साक्षी होते है और उस दर्द के गवाह को हमारा इंतज़ार पहले दिन से कर रहा होता है, शायद तभी शायर 

वामिक़ जौनपुरी ने यह शे'र कहा था-

'जहां चोट खाना, वहीं मुस्कुराना

मगर इस अदा से कि रो दे जमाना

©डॉ. अजित 


Tuesday, September 13, 2022

जाने वाला जाने के बहाने तलाश लेता है

 

जाने वाला जाने के बहाने तलाश लेता है

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मानवीय सम्बन्धों की एक दिलचस्प बात यह है कि यह हमेशा नूतनता की चाह रखता है। एक सी बातों से ऊब कर हम कुछ नया चाहते हैं। भले ही यह नई बात एक लड़ाई से क्यों न शुरू होती हो। कई बार एडिटिंग के चक्कर में हम एक खूबसूरत और सहज तस्वीर को बेज़ा खराब कर बैठते हैं। आना और जाना दो नियत प्रक्रियाएं हैं। मन का काम है कि वो हमें हमेशा एक नया टास्क देकर रखना चाहता है। और प्राय: ये टास्क मन की असुरक्षाओं से जुड़ें होते हैं।मनुष्य को हमेशा जुते हुए देखना मन प्रिय शगल है।

किसी को पाना बड़ी बात नहीं है किसी को खोना भी एक स्वाभाविक घटना है मगर किसी को संभाल कर रखना एक कौशल है जो बहुत मुश्किल से अर्जित होता है। प्राय: हम अपने पूर्व के अनुभवों को अंतिम सच की तरह मानने के अभ्यस्त होते हैं। ऐसे मे किसी नये अनुभव को स्पेस मिलने की संभावना न्यून हो जाती है। वास्तव में यथार्थ की दुनिया सपाट होती है और हमारी ज़िंदगी कुछ कल्पना और कुछ भ्रम के सहारे ही आगे बढ़ती है।

जब आप भावनात्मक रूप से अस्थिर होते हैं तो प्राय: मन में शंकाओं को भरपूर स्थान मिलता है कि कहीं ऐसा न हो कहीं वैसा न हो। मनमुताबिक चीजें ज़िंदगी मे कभी घटित नहीं होती है। हमें अपने जीवन की असुविधाओं के मध्य ही कुछ यूटोपिया रचना होता है और यह ठिया ही हमारे सुस्ताने के काम आता है।

मूलत: दुनिया इम्परफ़ेक्ट है और ऐसा होना ही इसकी खूबसूरती है। मगर किसी को संपूर्णता में महसूस करने के लिए हमें सबसे पहले उसके अधूरे हिस्सों को आत्मसात करना जरूरी होता है। यदि हम किसी के अधूरेपन को नहीं समझ सकते हैं तो हम उसे संपूर्णता मे कभी नहीं जा सकेंगे।

अब बात जाने वालो की, जैसा मैंने शीर्षक मे लिखा कि जाने वाला शख्स हमेशा जाने का एक आकर्षक बहाना तलाश ही लेता है। उस बहाने पर अकेले मे अफसोस किया जा सकता है और भीड़ में हँसा जा सकता है। इसलिए जो जा रहा है उसे रोकने की कोशिशें प्राय: कारगर नहीं होती है। मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि जाने वाले शख्स को रोकना नहीं चाहिए मगर इतना जरूर है जिसे जाना है वह हर हाल मे जाकर रहेगा उसे आपकी कोई कातर पुकार नहीं रोक सकेगी क्योंकि उसकी जाने को लेकर की गयी प्रतिबद्धता रोज एक बहाने से मजबूत होती है।

हाँ यह तय है कि किसी का जाना तकलीफदेह जरूर होता है मगर हम मनुष्यों की निर्मितियाँ तकलीफ के साथ जीने की ही बनी हुई है तभी तो जब सब कुछ सहज और सुखपूर्वक चल रहा होता है तो हमें दुख की अनुपस्थिति का दुख होने लगता है।

इसलिए जाने वाले ध्यानस्थ होकर देखा जा सकता है एक बिन्दु के बाद वो क्षितिज की तरह दिखने लगता है और हम अपनी दृष्टि की सीमा मान आंखे फेर लेते हैं।

© डॉ. अजित

Thursday, September 1, 2022

उस बात को जाने भी दो जिसके निशाँ कल हो न हो..

 

उस बात को जाने भी दो जिसके निशाँ कल हो न हो..

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यह एक फिल्म के एक गीत का एक अन्तरा है. जाहिर सी बात है कि गाने फिल्म की सिचुएशन के हिसाब से होते हैं मगर ज़िन्दगी और फिल्म में एक समानता यह होती है कि दोनों ही क्लाइमेक्स से गुजरती हैं इसलिए फिल्मों के जरिए हम खुद के सेल्फ का विस्तार देख पाते हैं.

क्या वास्तव में उस बात को जाने देना चाहिए जिसके निशाँ कल नहीं रहेंगे. सिद्धांत: यह बात सही है . इस कथन की ध्वनि कुछ-कुछ ऐसी है कि हमने भविष्य को देख लिया है और कल जिस बात का संताप बने उसको आज ही समाप्त कर देते हैं. यह एक बुद्धिवादी बात है मगर अक्सर दिल के मामलें बुद्धि के भरोसे डील नहीं होते हैं. दिल और दिमाग के द्वन्द ही प्रेम में मनुष्य को कभी हिम्मत देते हैं तो कभी कमजोर बनाते हैं. यह एक शाश्वत प्रक्रिया है. जो हमें प्रिय होता है हम उसे हमेशा के लिए सहेज कर रखना चाहते हैं मगर यह भी उतना ही सच है दुनिया की हर प्रिय चीज को एकदिन उसके चाहने वाले से दूर होना पड़ता है. इसे नियति ,प्रारब्ध,विडंबना या अस्तित्व का नियोजन कुछ भी समझा या कहा जा सकता है.

प्राय: अनुराग द्वंद, औचित्य, पाप-पुण्य, सही-गलत आदि के मध्य फंसा होता है आज तक कोई एक तयशुदा फार्मूला नहीं बन सका है जिसके आधार में हम किसी सम्बन्ध के विषय में एक मुक्कमल राय बना सकें. मानव व्यवहार के डायनामिक्स बहुत जटिल चीज है. एक लोकप्रिय अवधारणा यह रही है कि मनुष्य के अंदर किसी किस्म की रिक्तता उसे बाहर प्रेम या अनुराग को तलाश करने के लिए बाध्य करती है जबकि यह बात पूर्णत: सच नहीं है. कई बार हमारे अंदर किसी किस्म की कोई रिक्तता नहीं होती है मगर हम अपने सेल्फ के एक्सटेंशन के चलते कहीं कनेक्ट हो जाते हैं. हमें लगता है कि हमे इसी की तलाश थी.

किसी का मिलना और मिलकर साथ चलना और फिर एकदिन अलग हो जाना लिखने में जितना सरल वाक्य बनता है असल ज़िन्दगी में यह उतना ही जटिल अनुभव लेकर उपस्थित होता है. किसी दार्शनिक ने लिखा है कि प्रेम भीरु लोगो के लिए उपलब्ध नहीं होता है यानि प्रेम में दुस्साहसी होना एक अनिवार्य शर्त है मगर मेरा यह मानना है कि डरपोक और कायर व्यक्ति को प्रेम करने और प्रेम पाने का उतना ही हक़ है जितना एक दुस्साहसी व्यक्ति को होता है.

एक समय के बाद हम किसी को खोने को लेकर डरने लगते हैं कि क्योंकि किसी को खोना खुद को खोने के जैसा ही होता है लगभग. इसलिए हम भविष्य की कल्पना में हम संयुक्त नहीं पाते तो शायद यह कहना आत्मसांत्वना देने का एक तरीका हो सकता है कि उस बात को जाने भी दो जिसके निशाँ कल हो न हो. ये कल की तकलीफ को आज भोगने की एक ईमानदार चाह भी हो सकती है क्योंकि शायद तब इसकी तीव्रता अपेक्षाकृत कम हो.

अंत में यह कहूँगा कि प्रेम या अनुराग में सबके निजी अनुभव होते हैं और किसी एक का अनुभव किसी अन्य के किसी काम का नहीं होता है. इसलिए हम किसी के अनुभव को सुनकर उदास हो सकते हैं या चमत्कृत हो सकते हैं  मगर इससे हमारे अनुभव का कोई मिलान संभव नहीं हो पाता हैं.

हाँ ! इतना जरुर है कि जिस बात के निशाँ कल नहीं रहने की संभावना होती है उसे सोचकर हम यह जरुर सोचते हैं कि जो आज है वो शायद कल हो न हो.

 

'कल हो न हो'

© डॉ. अजित

Tuesday, August 9, 2022

बहुत ज्यादा प्यार भी अच्छा नहीं होता

 

बहुत ज्यादा प्यार भी अच्छा नहीं होता

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फिल्म मजबूर में किशोर कुमार के द्वारा गाए एक गाने की ये पंक्तियाँ हैं. बहुत ज्यादा कितना ज्यादा होता है या कितने ज्यादा को बहुत ज्यादा कहा जा सकता है यह सवाल जरुर पेचीदा है मगर यह सच है कि एक समय के प्यार की तीव्रता कतिपय अर्थों में आत्मघाती होने की तरफ बढ़ने लगती है.

कुछ दोस्तों को इस कथन पर आपत्ति हो सकती है कि बहुत ज्यादा के क्या कोई एक नियत पैमाने हो सकते हैं? या फिर वे कह सकते हैं प्यार कभी इतना सोच समझकर नहीं किया जाता कि उसमे यह ध्यान रखा जाए कि कितना प्यार करना है या कितना नहीं करना है.

मनोवैज्ञानिक तौर पर प्यार एक खूबसूरत एहसास है जो हमें अंदर से खूबसूरत बनाता है जब हम किसी से प्यार कर रहे होते हैं तो हम समानांतर रूप से खुद से भी प्यार कर रहे होते हैं. प्यार एक ऐसा इमोशन है जिसकी प्रकृति अत्याधिक तरल होती है. यही कारण होता है कि प्यार के साथ-साथ अधिकार,शंका, दुविधा,ईर्ष्या, डर,असुरक्षाबोध आदि अन्य भाव भी गडमड होकर साथ चलते हैं इसलिए प्यार के सबके अनुभव अलग-अलग होते हैं.

किसी को पाने की चाह रखने में कोई बुराई नहीं है मगर किसी को हमेशा के लिए संभाल कर रखने के लिए एक अलग किस्म के कौशल की आवश्यकता होती है. प्राय: सभी प्रेमी यह कौशल अर्जित नहीं कर पाते हैं.

जिस गीत का जिक्र शीर्षक में किया गया है उसी गीत में आगे दामन छुड़ाने की बात आती है. सवाल तो यह भी उठता है कि कोई व्यक्ति हमारी ज़िन्दगी के लिए इतना महत्वपूर्ण है तो फिर उससे दामन छुडाने का ख्याल ही क्यों लाना? क्या उसे सदा के लिए अपने संग संजो कर नहीं रखा जा सकता है? शायद हम जिसे चाहते हैं उसे एकदिन खोना ही नियति होती है इसलिए बाद की तकलीफों से बचने की युक्ति के तौर पर गाने में कहा गया है कि बहुत ज्यादा प्यार भी अच्छा नहीं होता.

खोना-पाना,मिलना-बिछुड़ना यह सब पहले से तय होता है यह बात हमारा दिमाग एकबारगी मान सकता है मगर हमारा दिल इस सच को स्वीकार करने में हमेशा ना-नुकर करता है. प्यार की क्या कोई एक नियत मात्रा हो सकती है? शायद नहीं. प्यार की मूल प्रकृति अपरिमेय है. बल्कि यह लगातार विस्तार की तरफ आगे बढ़ता जाता है. यदि हम प्यार को किसी  ख़ास दायरे में सीमित भी करना चाहे तो भी हम ऐसा नहीं कर सकते हैं  क्योंकि एक समय के बाद बात हमारे बस से बाहर हो ही जाती है.

जब कोई किसी से प्यार करता है तो फिर वह भविष्य के बारे में न्यूनतम सोचता है उसके वर्तमान ही सबसे अधिक सुखद लगता है ये अलग बात है कि अतीत और भविष्य मिलकर अपनी कार्ययोजना को अंजाम देने में लगे रहते हैं.

प्यार को लेकर किसी निष्कर्ष पर पहुँचना जल्दबाजी होगी. फ़िलहाल मुझे वामिक जौनपुरी साब का एक शे'र याद आ रहा है जिसका जिक्र यहाँ करना मौजूं होगा-

'जहां चोट खाना,वहीं मुस्कुराना

मगर इस अदा से , कि रो दे जमाना

  

Friday, June 10, 2022

डायरी

 उसके पास प्रेम के कई उल्लेखनीय प्रसङ्ग थे। उसके नायकों से मुझे कभी कोई ईर्ष्या या प्रतिस्पर्धा महसूस नहीं हुई। यह बात उसे खराब लगती थी। प्रेम का एक अर्थ किसी अन्य से बेहतर सिद्ध करना भी था। और मैं कमतर या बेहतर की दौड़ से मुक्त होकर कुछ साथ बिताए वक्त हो याद रखना चाहता था बस।

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कभी-कभी लगता था मुझे कि प्रेम के लिए जितना साहस चाहिए होता है उससे कुछ दशमलव साहस कम था मेरे अंदर। इसलिए प्रेम के जुड़े मेरे प्रत्येक दावे में हमेशा एक मानक त्रुटि विद्यमान रही सदा। मैं प्रेम करने के लिए नहीं प्रेम का दस्तावेजीकरण करने के लिए उपयुक्त था सदा।

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मेरी निकटता कतिपय अर्थों में आह्लादकारी भी थी और कुछ अंशों में मैं असहनीय भी था। इन दोनों के मध्य वह बिंदु था जिस पर खड़े होकर मुझे पसन्द और नापसन्द एक साथ किया जा सकता था। इस बिंदु पर कोई पुल नहीं था इसलिए यहां से कोई रास्ता कभी न गुजर पाया।

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किसी को खोने का डर हमेशा पीछा करता था। यह डर दरअसल खुद के दुर्भाग्य पर विश्वास और नियति के षड्यंत्रों की जुगलबंदी से उपजा था। मेरे मन में में किसी को हासिल करने की चाह शायद ही कभी रही मगर हर निकट व्यक्ति को खोने का डर हमेशा साथ चलता रहा।

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एक समय के बाद हम सम्बन्धों में इस कदर लोकार्पित हो जाते हैं कि धीरे-धीरे हमारा मामूली होना ज्ञापित होता जाता है। मनोविज्ञान के स्तर पर यह बात महत्वपूर्ण थी कि सतत खुद को चमकीला बनाए रखना एक चुनौतिपूर्ण काम था। हम जैसे ही धूमिल होने लगते तो हमें अपने वाक कौशल पर सन्देह बढ़ता जाता था।

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एक समय ऐसा आता है जब हमें चीजें छोड़नी पड़ती हैं। वे अपना आकार तय कर लेती हैं। किसी जगह को छोड़ने से पहले हम उस दृश्य को कैद करना चाहते है मगर केवल वही दृश्य कैद किए जा सकते हैं जहां हम अपने आकार को लेकर सन्देह से न भरे हो।


©डॉ. अजित

Thursday, October 7, 2021

दुश्मन-दोस्त

 

प्रिय दोस्त,

खत के दिन अब नहीं रहे मगर फिर भी कुछ बातें केवल खत की मार्फत ही कही जा सकती हैं. इसलिए यह खत लिखना जरूरी हो गया है. तुम्हें आश्चर्य होगा कि इस खत में तुम्हारे नाम से संबोधन नहीं है. कायर पुरुष किसी भी स्त्री को प्रिय नहीं होते है वे अपने अंदर की कायरता से नफरत करती हैं इसलिए कायरता से उन्हें एक खास किस्म की चिढ होती है. मगर मुझे लगता है तुम इस खत को देखकर अपनी उस चिढ पर काबू पा लोगी क्योंकि यह खत किसी कायर मन का परिणाम नहीं है. सम्बोधनों के अपने उलझाव होते हैं. हर संबोधन खुद में एक बंधन होता है. और नेह के बंधन को सोचने के बाद ही हमनें यह तय किया था कि हम एक दुसरे को हमेशा बन्धनों से मुक्त रखेंगे. इसलिए हम प्राय: सम्बन्ध को संबोधन की कैद से बचाते आए हैं.

तुम एकदिन कहा था कि दुखों के श्रोता बनने का साहस हर किसी के बस की बात नहीं होती है. उस दिन मुझे लगा था शायद तुम्हारे इस कथन में एक छिपी हुई व्यंगोक्ति है. मगर एकदिन मैंने पाया कि दुःख ही नहीं सुख के भी श्रोता बना रहना मुश्किल काम है. जब अपने किसी नजदीकी के सुख को बदले उस अपना एक नया दुःख सुनाने की चाह रखते हैं ताकि वह अपने सुख पर शर्मिन्दा महसूस कर सके. दुःख के बदले सुनाए गए दुःख हमें सांत्वना नहीं देते मगर हमारे दुःख ब्यान करने की इच्छा को कुछ दशमलव जरुर कम कर देते हैं.

कोई किसी के दुःख को सुनकर कब तक उत्साहित रह सकता है. हर कोई अपनी ज़िन्दगी में अलग अलग किस्म की लड़ाई रहा है ऐसे में वो दुखों का श्रोता बनना पसंद नहीं करता है. वह खुद से एक किस्म की रिहाई चाहता है और इस रिहाई की कीमत वो अलग अलग ढंग से चुकाता भी है. दरअसल सुख और दुःख बेहद निजी चीज है. बार-बार कहने पर दुःख अपना अर्थ खो देते हैं और सुख को नजर लग जाती है ऐसा अक्सर लोगों ने अपने अनुभव में पाया है.

मैं दुःख या सुख का भाष्यकार नहीं हूँ बल्कि मैंने खुद कुछ संदर्भो में दोनों की अभिव्यक्ति के मामलें में लगभग असफल पाया है. हम खुद के इर्द-गिर्द एक समय सीमा तक ही भटकना चाहते हैं. इसका अर्थ यह भी निकाला जा सकता है प्राय: हम खुद से उकता कर बाहर देखना शुरू करते हैं.

जब मैंने यह खत लिखना शुरू किया था तो मेरे मन में कोई एक विचार नहीं था और न उपदेशक की भांति मैं तुम्हें तुम्हारी अज्ञानता पर ग्लानि से भरना चाहता था. दरअसल जीवन में अंतिम ज्ञान जैसी कोई चीज नहीं होती है हमें एक समय जो बात बेहद गुणवत्तापूर्ण लगती है कुछ समय बीतने के बाद वह हास्यास्पद या मूर्खतापूर्ण लगने लगती है. इसलिए शायद कहा जाता है कि कुछ भी पूर्ण सत्य नहीं है. आंशिक सत्य और आंशिक असत्य के मध्य कहीं वो बिंदु होता है जो हमे आकर्षित करता है.

मुझे पता है कि तुम अभी जीवन के उस दौर से गुजर रही हो जहाँ अपने निर्णयों की समीक्षा करने का मन नहीं करता है और मेरे ख्याल यह समीक्षा किसी काम आती भी नहीं है. मेरे ख्याल हमारा जीना महत्वपूर्ण है और हम कैसे जीते हैं इसकी वजह यदि आंतरिक हो तो जीना कुछ अंशों में आसान हो जाता है.

दोस्त या प्रेमी की भूमिका तुम्हें सदैव संदिग्ध ही लगी है शायद तुम्हें ऐसा लगता है कि एक समय के बाद मनुष्य का अपना एक वास्तविक चेहरा सामने आ जाता है जोकि बहुधा कुरूप ही होता है. मगर मैं कहूंगा कि मनुष्य का वास्तविक या अवास्तविक चेहरा जैसा कुछ नहीं होता है. हमारा जीवन अभिनय की पाठशाला है. कभी हम बिना श्रोता और बिना दर्शक भी उत्कृष्ट अभिनय करते हैं तो कभी हम अपनी अभिनय क्षमता से चूक जाते हैं. यदि कोई तुम्हारे जीवन में अर्थ खो देता है तो मैं कहूंगा कि वह कहीं न कहीं अपनी अभिनय क्षमता से चूक गया है.

तुमनें अक्सर मुझे पूछा है कि सुखी होने का क्या मूलमंत्र है? इस सवाल का जवाब कथावाचकों के पास अधिक प्रभावी मिल सकता है बशर्ते तुम्हारा मन कीर्तन में रमता हो. मैंने हर बार इस सवाल का जवाब अलग दिया उसकी एक वजह यह थी कि सुखी होने का मूलमंत्र को निजी तौर पर विकसित करना होता है अलबत्ता तो मेरे पास ऐसा कोई मन्त्र नहीं है और यदि होता भी तो वह तुम्हारे किसी काम का नहीं था जैसे ही तुम उसका उच्चारण करती वो खुद ब खुद निस्तेज हो जाता. इसलिए मैं कहूंगा सुखी होने का मूलमंत्र खोजने की अपेक्षा तुम अपना वो मन्त्र खोजो जिसके लिए तुम्हें ध्यान लगाने की आवश्यकता नहीं पडती है.

लम्बे खत देखने में अच्छे लगते हैं मगर पढ़ते हुए हम कई दफा अरुचि का शिकार हो जाते हैं मगर मुझे उमीद हैं कि तुम इस खत को पढ़ते हुए अरुचि का शिकार होते हुए भी अंत में अपनी रूचि का एक केंद्र जरुर विकसित  कर लोगी.

बस और क्या लिखूं... तुम खुद समझदार हो. इन तीन शब्दों से कविता नहीं बनती हैं मगर किसी को सलाह देने के कारोबार से मुक्त अवश्य हुआ जा सकता है.

वैसे मेरी मुक्ति अभी संभव नहीं है. कविता या कहानी न सही मेरे पास कुछ असंगत बातें जरुर हैं जिन्हें तुम आरम्भ से पढ़ोगी तो कहानी लगेंगी और आखिर से पढ़ोगी तो कविता जैसा महसूस होगा. मेरे पास इतनी ही कलाकारी शेष बची है. शायद ये तुम्हें नई बात लगे. किसी भी सम्बन्ध में नूतनता को बचाकर रखना एक जिम्मेदारी भरा काम है. और मेरी गैर जिम्मेदारी तुम बखूबी जानती हो.

शेष फिर....

तुम्हारा दुश्मन-दोस्त

डॉ.अजित

 

Wednesday, October 6, 2021

रुलाई

 

उसकी बातों को सोचते हुए रुलाई का फूट पड़ना महज एक घटना नहीं थी. दरअसल ये कई सालों से एक जगह पर तह करके की गयी शिकायतों और खुद की गलतियों की मिली जुली एक तात्कालिक प्रतिक्रिया जरुर समझी जा सकती थी. भावुक होना अच्छी बात थी मगर भावुकता का कोई बुद्धमार्ग नहीं था.

उससे अलग होते समय जो पीछे छूट गया था उसे सिलसिलेवार पढ़ पाना मुश्किल काम था. उसे बस देखा जा सकता था जैसे हुई वो महसूस होता तो आँखें खुद ब खुद बहने लगती थी.

उसकी बातों से एक बंदनवार बनाई जा सकती थी मगर उन बातों ने आखिरकार एक गुबार की शक्ल ले ली थी. ऐसा क्यों होता है यह जानने से बेहतर था कि यह जानना कि ये सब कैसे घटित हुआ. पुरुषों के लिए रोना एक अपशकुन की तरह रहा है वे रोते समय भी रोने की बाद की बातों को सोचकर शर्मिंदगी से भरे रहते हैं.

उसकी स्मृतियां न हँसा सकती हैं और न रुला मगर उसकी स्मृतियाँ हाथ पकड़कर वहां जरुर ले जा सकती है जहां रोने और हँसने के बीच की जगह पर दिल अकेला भटकता रहता है. किसी का साथ होना हमेशा साथी नहीं बनाता है मगर किसी का साथ होना इस बात की आश्वस्ति पालने की छूट जरुर देता है कि हम खोएंगे नहीं.

वो रुलाई दरअसल खुद के खो जाने से फूटी थी. अब इसके बाद कोई उसे यह न बता सकेगा कि आसमान का रंग नीला नहीं है और पानी का रंग वही दिखता है जो हमारी आँखों का होता है. खो जाने से भी बढ़कर दुःख इस बात का था कि हमनें उसे उस बात के लिए ही खो दिया था जिस बात के कारण कभी वो हासिल हुई थी.

सोचता हुआ और रोता हुआ मनुष्य एक मामलें में एक जैसे होते हैं दोनों ही उस बात के लिए परेशान होते हैं जिसका कोई ज्ञात हल नहीं होता है.

वो आगे बढ़ रहा था मगर पीछे जो छूट रहा था वो पीठ से स्पष्ट रूप से देखा जा सकता था. आगे बढ़ते हुए यह जाना कि गति खुद में एक भ्रम हैं बाजदफा हम आगे चलते दिखते जरुर हैं मगर हम वास्तव में अतीत की यात्रा पर होते हैं.

किसी को याद करके रोना अच्छी बात नहीं है मगर यह नहीं कहा जा सकता है कि रोना ही अच्छी बात नहीं है. रोना दरअसल कोई बात नहीं है यह हँसने का विपर्य भी नहीं है. अचानक से फूट पड़ना किसी अज्ञात ग्लेशियर के छिटकने के जैसा है लगभग जो न जाने कौन से तापमान के बढ़ने से एकदिन अपने घर से निकाला ले लेता है.

किसी से प्रेम करना उसके साथ हँसना मगर एकांत में कभी मत रोना. ऐसी रुलाई जब अचानक से थमती है तो हम खुद को दुनिया की सबसे निर्जन जगह पर खड़ा पाते हैं. शायद इसी कारण कहा जाता है कामनाएं मनुष्य को एकदिन अकेला कर देती हैं.

 

© डॉ. अजित

Friday, December 13, 2019

फुटकर_नोट्स


मैं निष्क्रियता का औचित्य सिद्ध करने का कौशल सीख गया हूँ.
कोई मुझसे  सवाल करे उससे पहले मैं उसको उसकी स्मृतियों में उलझा देता हूँ. उसके बाद उसे लगता है ऐसे वक्त में मुझसे कोई भी सवाल करना उचित नही होगा. हाँ ! वो मन ही मन मेरे लिए प्रार्थनाएं जरुर करता है. प्रार्थना वैसे एकवचन में प्रभावी लगती है मगर मेरे लिए बहु वचन में इसलिए करनी पडती है कि मैंने इस लोक और उस लोक के कई ज्ञात ईश्वरों का कई बार दिल दुखाया है. मेरे शुभ चिंतको को इस बात का भय है कि मेरे लिए की गई किसी भी प्रार्थना को वे ईश्वर अपने प्रतिशोध के कारण निस्तेज कर देंगे.
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मुझे यदि यह पूछा जाए कि मनुष्य के लिए प्रेम जरूरी है या रोटी. तो मैं इसका सीधा साधा जवाब दूंगा कि रोटी और प्रेम दोनों यदि जरूरत की तरह किसी के लिए जरूरी है फिर दोनों में चुनाव का कोई प्रश्न ही नही उठता है. प्रेम और रोटी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ये आपके लिए संयोग की बात हो सकती है कि आपके हिस्से कौन सा पहले आता है.
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संसार में बहुत कुछ ऐसा है जिस के कारक-कारण के बारें हम कुछ कहने से पहले बार-बार सोचते हैं. और कहने के बाद भी हमें अपने कहे हुए पर हमेशा संदेह होता रहता है. कारक-कारण एक समानुपातिक रिश्ता जरूर प्रतीत होता है मगर वास्तव में देखा जाए तो कारक-कारण को तलाशना शोध का एक अंग है और दुनिया के सारे शोध मन की मान्यताओं की बाह्य पुष्टि के यांत्रिक साधन भर है इसलिए जीवन में हमेशा कुछ ऐसे सवाल बने रहते हैं हमें जिनका एक सही और एक गलत जवाब पता होता है और ये दोनों जवाब अपना घर बदलते रहते हैं.
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मुझसे यह सवाल अक्सर पूछा जाता है कि मैं किसी के मन को कैसे पढ़ लेता हूँ?  मेरे पास इस सवाल के दो जवाब होते है मगर मैं हमेशा तीसरा जवाब देता हूँ ताकि जिसका मन पढ़ा गया है उसे भविष्य में मुझसे डर या खतरा महसूस ना हो. जब कोई हमें जानने लगता है तब हमें उससे कुछ अंशों में डर लगने लगता है. मैं किसी का मन पढ़ना नही जानता हूँ. यदि मैं ऐसा करना जानता तो यकीनन सबसे पहले अपना मन पढ़ता.
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लव यूसहज स्फूर्त अक्सर निकल जाता है. यहाँ लव और यू दोनों में आपस में कोई सार्थक अंतर नही होता है. दरअसल लव यूकहने का एक अर्थ यह भी हो सकता है कि तुम्हें और अधिक प्यार की आवश्यकता है. मनुष्य प्रेम में पहले गरिमापूर्ण होता है और बाद में अराजक. यदि कोई तुम्हें लव यूकहे तो इसे अभिवादन समझ प्रतियुत्तर मत देना .क्योंकि इसका कोई प्रतियुत्तर अभी तक शब्दकोश में नही बना हैं.
#फुटकर_नोट्स

© डॉ. अजित


Wednesday, September 25, 2019

अकेलापन-अकेलामन

अकेलापन के कितने ही पाठ हो सकते हैं. कोई भीड़ में भी अकेला होता है तो किसी के अकेलेपन पर रश्क हो सकता है. अपने अन्तस् में अकेलेपन के अलग-अलग टापू होते हैं. जो हमें हाथ पकड़कर अपने साथ ले जाते है. दुनिया भर के मनोवैज्ञानिक अकेलेपन को अपने ढंग से परिभाषित करते हैं. दार्शनिक एकांत और अकेलेपन को आत्म जागरण के टूल के तौर पर देखतें है और रचनात्मक लोग अकेलेपन को खुद से मुलाकात के लिए जरूरी समझते हैं.

बुनियादी तौर पर यह सवाल थोड़ा टेढ़ा मगर रोचक है कि मनुष्य को अकेलेपन से डर क्यों लगता है? ऐसा क्या है उसके पास जिसे वो शेयर चाहता है? और क्यों करना चाहता है.

मन के विराट आंगन में एक कोना ऐसा होता है, जहां हम किसी का हाथ पकड़कर घूमना चाहते हैं उसके जरिए अपने अंदर कि वो दुनिया देखना चाहते है जिसे देख पाने की शायद अकेले हमारी हिम्मत नही होती है.
कहना क्यों जरूरी होता है? और उस कहने के लिए एक साथ क्यों अपरिहार्य लगने लगता है? क्यों के जवाब अकेलेपन के सन्दर्भ में जानने की कोशिश करना एक जोखिम भरा काम हो सकता है क्योंकि यहाँ बात खिसक कर मानवीय कमजोरी की तरफ जा सकती है.

खुद के अंदर पसरे एकांत से बिना अभ्यास और तैयारी के मिलनें से गहरा अवसाद जैसा कुछ प्रतीत हो सकता है और बोध के साथ अन्तस् में उतरने में यही अकेलापन उत्सव में भी परिवर्तित हो सकता है. मनुष्य के मन और जीवन को समझने के लिए विश्लेषण प्राय: किसी काम नही आता है. विश्लेषण भ्रम को बढ़ाता है हमें पूर्वाग्रहों से भरता है. जबकि जीवन को देखने के लिए उसे केवल जीना पड़ता है. यहाँ मैं केवल इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि यह केवल हर दौर में एक दुर्लभ घटना के तौर पर उपस्थित रहा है.
सोल मेट एक उत्तर आधुनिक और रोमांटिसिज्म से उपजी अवधारणा है. क्या सोल मेट और मनुष्य के अकेलेपन में कोई सकारात्मक सह-सम्बन्ध हो सकता है? मूलत: मैं इस अवधारणा को अप्राप्यता का मानवीयकरण के तौर पर देखता हूँ शायद खुद की बेचैनियों के जब सही जवाब न मिलें होंगे तो मनुष्य ने उनके जवाब एक अज्ञात सोल मेट के भरोसे हमेशा के लिए स्थगित कर दिए होंगे.

‘अकेलापन एक राग है
एक आधा-अधूरा राग
जिसके आरोह-अवरोह
में जीवन सांस लेता है
और जिसकी बंदिशों पर
सोल मेट रहता है
हमारा मन वो उन छोटी-छोटी
मुरकियों से बना होता है
जो आह और वाह के मद्धम स्वर के साथ
गाई जाती है मन ही मन में.’


‘अकेलापन-अकेलामन’


© डॉ. अजित

Thursday, September 12, 2019

‘तुम्हारे जन्मदिन पर’


‘तुम्हारे जन्मदिन पर’
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जन्मदिन पर कुछ उपहार देना जमाने की रवायत रही है. मगर मैं जब भी तुम्हें कुछ देने की सोचता हूँ तो सिवाय प्यार के मुझे अन्य कोई भौतिक वस्तु दिखायी ही नही देती है. सुनने में यह एक छायावादी बात है मगर महसूसने पर यह उससे अधिक कुछ है. अब दूसरा सवाल यह मेरे मन में अक्सर उठता है कि किसी को प्यार कैसे दिया जा सकता है. प्यार इतना भारहीन शब्द है कि शायद यह मेरे शब्दों से तुम्हारे कान तक पहुँचने की यात्रा तक में इस दुनिया में कहीं न कहीं खो जाएगा. इसी डर से मैंने आज तक इस प्यार को तुम तक पहुंचाने की कोशिश नही की यह अलग बात है कि मेरे अंदर इस प्यार का पर्याप्त भार मौजूद है शायद इसी कारण आजतक मेरे पैर ज़मीन पर टिके हुए है.
जन्मदिन पर लोग किस्म-किस्म की बातें करते हैं सबके अपने तौर-तरीके है बधाई देने और लेने के मगर मैं आजतक वो एक तरीका नही तलाश पाया जिसके माध्यम से मेरे मन की एक छोटी सी शुभकामना ठीक वैसे स्वरूप में सम्प्रेषित हो.वो मेरे मन में जन्म लेती है मगर शुभकामनाएं जग में इस कद्र अकेली है कि उन्हें भीड़ में अकेला साफ तौर परे  देखा जा सकता है इसलिए मैं फिलहाल तुम्हें कोई एकांत से भरी चीज देने की हिम्मत खुद के अंदर नही पाता हूँ.
जानता हूँ. उम्र का क्या है? तो पल-प्रतिपल बढ़ती ही जाती है. जन्मदिन के दिन मेरा वह हिसाब मांगने का मन होता है जो तुम्हारे अंदर दिन प्रतिदिन के हिसाब से घट रहा है. शायद प्यार भी उसी भीड़ में कहीं दुबका खड़ा है मगर मैं उसे घटने वाली भीड़ से निकाल लूंगा इसका मुझे पूरा भरोसा है. तुम भी सोचोगी कि आज के दिन मैं क्या हिसाब-किताब लेकर बैठ गया? और मुझे यह अधिकार किसने दिया है कि मैं तुम्हारे अन्तस् की मांग और आपूर्ति की आर्थिकी तय करने लग जाऊं? इसलिए यह विचार भी मुझे बहुत आकर्षक नही लगता है. अधिकार से मुझे याद आया कि एक बार तुमनें हँसते हुए कहा था अधिकार का आरक्षण पुरुष बिना सहमति के तय कर देता है और मैं तब गम्भीर होकर जवाब दिया था अधिकार का आरक्षण नही होता है बल्कि अधिकार मन के हर किस्म के आरक्षण को समाप्त करके अपनी एक जगह बनाता है और वो जगह कभी एक दो आँखों से नही देखी जा सकती है उसके लिए चार आँखे जरूरी होती है. उसके बाद तुमनें अपने हाथों से मेरी आँखे बंद कर दी थी.
आज के दिन मैं कोई मायूस बातें नही करना चाहता हूँ क्योंकि तुम्हीं ने एक बार कहा था कि निराश पुरुष धरती को असहनीय लगता है और निराश स्त्री के लिए आसमान धरती पर एक रास्ता बनाता है. आज खुशी का दिन है. खुशी के दिन अच्छी बातें करनी चाहिए और अच्छी बातों में एक सबसे अच्छी बात मेरे पास यह है कि जिन दिनों मैं तुमसे कुछ प्रकाशवर्ष की दूरी पर था उन दिनों मैंने काल गणना की एक नई विधि सीखी है जिसके माध्यम से मैं देह और जन्म से परे तुम्हारे साथ भूत और भविष्य की यात्रा कर सकता हूँ. इस विधि के माध्यम से मैं यह जान पाया कि अधिकाँश जन्मों में तुम मुझे अप्राप्य ही रही. यह बात मुझे खुशी देती है क्योंकि मुझे यह बात इस यात्रा के दौरान पता चली कि किसी को पा लेना ठीक उसी दिन उसको खो देना भी होता है और मैं तुम्हें कभी खोना नही चाहता.
थोड़ी सी बातें तुम्हारी हँसी पर करना चाहता हूँ मगर उससे पहले तुम्हारा गुस्सा मेरे सामने खड़ा हो जाता है. तुम्हारा गुस्सा इतना अपरिमेय किस्म का होता है कि उस पर यह उक्ति बिल्कुल लागू नही होती है कि क्रोध में विवेक का क्षय हो जाता है. तुम्हारे क्रोध में मैंने तुम्हें प्राय: सत्य के निकट पाया है. हाँ रुखी बातें सुनने में किसे अच्छी लगती है? मगर अगर उन बातों के निहितार्थ विकसित किए जाएं तो उन सब बातों में तुम्हारी मेरे लिए एक दीर्घकालिक चिंता साफ़ तौर पर पढ़ी जा सकती है. तुम्हारे गुस्से के बाद मेरा आत्मलोचन अह्म से मुक्त रहा है इस बात के लिए मेरा मन सदैव कृतज्ञ रहता है.
तुम्हारी हँसी के बारें में बातें करना तुम्हें पसंद नही है कि क्योंकि तुम्हें लगता है कि बातें बनाना मेरा अधेय्वसाय है. और ऐसी बातें मैं अलग-अलग लोगों से अलग-अलग समय पर एकसाथ करता रहता हूँ. मेरी बातों में छल नही होता है इस पर तुम्हें भरोसा है इसलिए मैंने कभी तुम्हारी मान्यताओं का खंडन नही किया. मगर तुम्हारी हँसी ठीक वैसी है जैसे कवियों में शशि. जिसकी कलाओं पर भिन्न पर टीकाएँ की जा सकती है और तुम्हारी हँसी के इतने पाठ हो सकते है कि मैं उनमें से व्यंग्य,प्रेम,मनुहार और प्यार को छानकर निकालना किसी भी मनुष्य के लिए लगभग असंभव है. मगर तुम्हारी यह गुह्यता तुम्हारी सबसे बड़ी पूँजी है.
खैर ! मेरी आदत है कम बोलता हूँ मगर जब बोलने लगता हूँ तो फिर बातों में से बातें निकालता चला जाता हूँ ऐसा करना मेरी किसी योजना का हिस्सा नही है मगर आज तुम्हारे जन्मदिन पर जब मेरे पास देने के लिए कोरी शुभकामनाएँ नही थी तो सोचा कम से कम से ये फुटकर बातें ही तुम तक पहुंचा दूं जिन्हें जल्दबाज़ी पढ़कर तुम कहो कि फुरसत मिलते ही पढ़ती हूँ और वो फुरसत फिर एक साल के लिए टल जाए.
इस तरह से एक साल बीते और अगले साल फिर से मैं ऐसा कहूँ जिस पर तुम्हारा दिल यकीं करें और दिमाग उसे खारिज करें. तुम्हारी ये कशमकश ताउम्र चलती रहे और मेरी आधी-अधूरी कलम फ़िलहाल यही शुभकामना मेरे पास बची है जो न भीड़ में अकेली है और न नितान्त ही औपचारिक.
शेष सब सुख हो.
अजित  

Saturday, May 11, 2019

'उसने कहा'


उसने कहा, कभी-कभी मुझे तुम्हारी ठीक वैसी फ़िक्र होती है जैसे अपने किसी अनुज की होती है.
तुम संभावना से भरे हो, मगर तुम्हें छोटी-छोटी चीजें परेशान कर देती है. तुम अभी तक इग्नोर करने की ढीटता सीख नही पाए हो. यह सोचकर मैं अक्सर उदास हो जाती हूँ. तुम एकदम दूसरी दुनिया के हो. मैं चाहती हूँ तुम्हें किसी की क्या तुम्हारी खुद की भी नजर न लगे. मैं तुम्हें कोलाहलमुक्त और हस्तक्षेपरहित देखना चाहती हूँ.
प्रेम के इतने अलग-अलग स्तर होते है कि आप उसे किसी एक तयशुदा फ्रेम में नही बाँध सकते हैं. मुझे तुमसे प्रेम है. मगर यह प्रेम किस किस्म का प्रेम? यह बता पाना मेरे लिए मुश्किल काम है. तुम्हारे प्रति मेरे मन में किसी किस्म की आवेग की हिंसा नही है और न ही मैं तुम्हें केवल मुझ तक सीमति देखना चाहती हूँ. कभी क्षण भर के लिए यदि मैं पजेसिव हो भी गई हूँ तो अगले ही पल मुझे खुद की समझ पर करुणा आने लगने लगती है.
तुम किसी किस्म के बंधन में बंधने के लिए नही बने हो तुम्हें अपनी लय और अपनी गति से बहना है. सच कहूं तुम्हें इतना महत्वकांक्षाहीन देखकर मुझे अच्छा और खराब दोनों एकसाथ महसूस होता है. अच्छा इसलिए कि तुम किसी नियोजन के विरक्त नही हो दुनियावी दौड़ में न दौड़ने का निर्णय तुम्हारा अपना खुद का चुनाव और जिसके लिए कभी तुम्हारे मन में कोई अफ़सोस मैंने नही देखा. और खराब यह सोचकर लगता है कि तुम इस क्रूर दुनिया में अपने इस मौलिक स्वरूप के साथ आखिर कितने दिन सर्वाइव कर पाओगे. जीवन में व्यावहारिक होने का एक अर्थ यह भी होता है कि दुनिया की चालाकी सीखी जाए जिसे बाद में तर्कों से बुद्धिमान होना सिद्ध कर दिया जाए.
मैं तुम्हें  कोई सलाह देकर भ्रमित नही करना चाहती क्योंकि प्राय: दूसरों के द्वारा दी गई सलाहें हमारे किसी काम की नही होती है हमें अपना सच खुद ही खोजना पड़ता है और मुझे इसमें कोई संदेह नही है कि तुम्हें खुद का सच ठीक -ठीक पता है.
मेरे पास अपने हिस्से का बहुत अधिक प्रेम नही बचा है क्योंकि मैं अलग-अलग हिस्सों में रोज खर्च हो रही हूँ और मगर फिर भी मेरे पास तुम्हें देने के लिए कुछ संरक्षित प्रेम है जो मैंने उस लम्हों में बचाया था जब जीवन में कुछ भी ठीक नही चल रहा था. तुम इतने तटस्थ हो कि मुझे संदेह है कि यह प्रेम शायद ही कभी स्थानांतरित हो पाएगा. ऐसे निस्तेज प्रेम को लेकर मेरे मन में जब भी गहरी निराशा उत्पन्न होती है मैं तब तुम्हारी बातों को रिवाइंड करके सुनती हूँ. यकीन करना तुम्हारी उन बातों को सुनकर मुझे सबसे पहले जो बात महसूस होती है वह यह होती है कि मैंने हमेशा अतीत की बातें की और तुमने भविष्य की.
हमारी बातें जिस बिंदु पर मिलती है उस पर कान लगाकर बहुत कुछ ऐसा सुना जा सकता है जिसकी पुनरावृत्ति संभव नही है. इनदिनों मैं तुम्हारी फ़िक्र से बातें शुरू करती हूँ और अंत में खुद की फ़िक्र पर आकर खत्म होती हूँ कि यदि तुम इतने अस्त-व्यस्त-मस्त रहे हो दुनिया को बहुत सी अच्छी चीजों से वंचित रहना पड़ेगा यहाँ मैं दुनिया का नाम लेकर खुद का जिक्र कर रही हूँ.
तुम्हें देखकर मेरा मन स्वार्थी होता जाता है और तुम्हारा मन जन्मजात जैसे किसी संन्यासी का मन हो. हमारे सत्संग का इसलिए शायद कोई हासिल नही हो सकता है क्योंकि हम दो अलग-अलग विरोधाभास एक सही समय और एक गलत जगह आकर टकरा गए हैं.

'उसने कहा'

©डॉ. अजित



Friday, February 1, 2019

‘देह-मोक्ष’


देह के विकट अरण्य में भटककर तुम तक पहुंचा हूँ. मुझसे अभी नैमिषारण्य तीर्थ के सत्संग की भांति प्रवचन की अपेक्षा न रखो. मैं विचार,तर्क,जिज्ञासा और कौतूहल के सारे बाण रास्ते में मिली एक छोटी नदी में बहा आया हूँ. पढ़ने के लिए तुम मेरी आँखें पढ़ सकती हो और सुनने के लिए तुम मेरे हृदय की ध्वनि सुन सकती हो दोनों समवेत स्वर में तुम्हारे प्रोमिल स्पृशों की कातर अपेक्षा में कराह रहें हैं.
जानता हूँ तुम्हें पराजित पुरुष पसंद नही है ,मगर मैं विजय-पराजय के चक्रव्यूह को तोड़कर तुम तक पहुंचा हूँ .मुझे प्राश्रय दो. और यदि कुछ देना ही चाहती हो तो विस्मय नही अपनी लता समान भुजाओं में मुझे एक मासपरायण विश्राम दो.यदि मुझसे कुछ लेना ही चाहती हो तो मेरे कौतुक को मुझसे विछिन्न कर दो. मेरे मस्तक पर शीत स्वेद की कुछ बूंदे आवारा भटक रही हैं उन्हें अपने अंगवस्त्र का पता दो ताकि वें हवा की हत्या से बच जाएं.
तुम्हें तलाशता हुआ मैं मन के बीहड़ वनों से अकेला गुजरा हूँ मेरे अनेक युद्ध मन की कामनाओं और असुरक्षाओं के साथ कथा प्रान्तर में चलतें रहें है. मैंने हार और जीत में संतुलन साध लिया था तभी एक ऋतुपर्ण पर तुम्हारी तर्जनी प्रतिलिपि मुझे मिल गई है मैं उसकी गंध में आधे दिन तक अचेत लेटा तुम्हारी अंगुलियों की नाप लेता रहा इसके लिए मैंने अपने निकट की वनस्पतियों पर अवांछित हिंसा भी की मगर उन्होंने मेरी आँखों की चमक देखकर मुझे क्षमा कर दिया.
मैंने ओक से जल पीते हुई झरने की तरफ देखा तो मुझे वो तुम्हारी पीठ की भांति दिखने लगा मुझे ऊपर देखतें हुए चक्कर नही आ रहें थे और न मेरी प्यास ही तृप्त हो रही थी ठीक उस वक्त मैंने तुम्हारी पीठ के भूगोल को समझा और मैं अंगुल से तुम्हारी मेरुदंड के इर्द-गिर्द चैतन्य नाड़ियो की संख्या को गिनता हुआ समय का एकदम सटीक आकलन सीख गया. अब मैं यह वाक्य तभी पूरे आत्मविश्वास के साथ कह सकता हूँ कि मेरा समय खराब चल रहा है जब मैं तुम्हारी नाड़ियाँ गिनने से कई प्रकाश वर्ष की दूरी पर स्थित रहूँ.
मुझे घाटियों ने तुम्हारे तलवों के एकांत का सच्चा पता दिया. मैं रास्तें में मिली गुफाओं को जब भी कौतूहल से देखता और उनमें दाखिल होने को तत्पर होता तभी घाटी के गुप्तचर मेरे कान में यह बात कह जाते कि अभी मुझे अपने तलवों का मिलान तुम्हारे तलवों से करना है उसके बाद ही मैं अपनें जीवन की अधिकतम छलांग लगा सकता हूँ. उनकी बात सुनकर मुझे हँसी आ गई क्योंकि मेरे तलवों की गहराई देखकर एक बार एक सैनिक ने कहा था तुम युद्ध के लिए बने हो जब मैंने उसको अपनी एक प्रेम कविता सुनाई तो उसकें खुद को संपादित करने में लज्जा का अनुभव किया और मुझ से बिना नेत्र सम्पर्क किए उसनें धीरे से कहा, सच बात तो यह है कि तुम केवल प्रेम के लिए बनें हो.
एकदिन मैं पहाड़ी लताओं के झूले पर एक लम्बी पींग भरी तो मुझे पहाड़  ने उस तरफ धकेला जहां से समंदर दिखाई देता था. पहाड़ पर समंदर देखने का अनुभव मेरा पास है इसलिए मैं दावे से कह सकता हूँ तुम्हारे हृदय के निकट से तुम्हारी आँखों में देखना ठीक वैसे ही झूले झूलने जैसा अनुभव है. समंदर की सुबह उदास होती है और पहाड़ की शामें मगर तुम्हारे तुम्हारी आँखों में झांकते समय समंदर और पहाड़ मिलकर आईस-पाइस खेलने लगते हैं. तुम्हारी धडकनों में बसनें वाली लज्जा मौसम की गुप्तचर है इसलिए तुम्हारी साँसों के आरोह-अवरोह में मौसम अपना घर बदल लेते हैं.
मुझे अब कोई प्रतिप्रश्न न करों !  मेरी टीकाएँ और भाष्य अब सब निस्तेज हो चुके हैं समय के आचार्यों ने उनसे गुण को छान लिया है अब वो केवल कोरी शुष्क बातें हैं. उनकी विवेचना से कोई मार्ग नही मिलेगा. मैं अपने सब मार्ग बंद करके तुम्हारे मार्ग पर आया हूँ. इसलिए मुझसे मानचित्र पर चर्चा न करो.मैं सामीप्य की आकांक्षा में आतुर हूँ मगर उदंड या अनुशासनहीन नही हूँ इसलिए मेरा आग्रह से अधिक निवेदन में भरोसा हैं. मैं चाहता हूँ तुम अपनें विस्तार के निर्जन टापू की तरफ अपनी ऊँगली से एक संकेत कर दो ताकि मैं अपने उत्साह को बचा रखूं. मुझे पता है कि तुम्हारा संकेत कभी निरुपाय नही रहता है यदि तुमनें अपनी देह में मुझे शरण दी तो निसन्देह इस चैतन्य आतुरता का अंतिम पाठ मोक्ष की तरह ही उच्चारित किया जाएगा और काया पर पूर्वाग्रह बनने कम होंगे.

‘देह-मोक्ष’
© डॉ. अजित

Thursday, January 31, 2019

‘आधे-अधूरे ख़त’


इनदिनों जी उदास रहने लगा है. शायद ये बदलते मौसम का असर है. सर्दियों के जाने की बाट मन अब जोहने लगा है. पिछली सर्दियों में तुमसे मिलना हुआ था इस बार की सर्दियां तुम्हारी यादों के अलाव सेंकते हुए कटी मगर आखिर होने तक यादें भी जलकर भस्म बन गई हैं. मौसम के हिसाब से तुमसे कभी मिलना नही रहा मगर तुमसे मिलने का जरुर एक मौसम हमेशा रहा है. मन का क्या है. मन तो रोज ही करता है तुम्हें सामने देखूं मैं मन की नही सुनता हूँ मैं दिमाग की सुनता हूँ जो मुझसे रोज यह कहता है कि दुनिया में हर हासिल चीज की एक कीमत होती है और तुमसे मिलने की भी एक कीमत है. उस कीमत को जानने के बाद मैं अपनी जेब टटोलता हूँ तो वहां कभी न चलनें वाले कुछ सिक्के पड़े हैं मैंने उनका उपयोग यदा-कदा अकेले में टॉस करने के लिए करता हूँ. मैं टॉस में अक्सर तुम्हें हार जाता हूँ और एकदिन मेरी जीत होगी इसलिए मैं कुछ सिक्के इसलिए हमेशा अपनी जेब में रखता हूँ.
इनदिनों मुझे एक खराब आदत यह भी हो गई है कि मैं रात को अकेला गलियों में भटकता हूँ मुझे पता है कि ये रास्तें आपस में भाई है और ये मनुष्य को कहीं नही पहुंचाते हैं फिर भी मैं रास्तों को चकमा देने की एक निष्फल कोशिश करता हूँ इसके लिए मैं जिस रास्तें से जाता हूँ उस रास्तें से लौटता नही हूँ मेरे ऐसी पकड़ में आने वाली चालाकी देखकर आसमान भी हँस देता है. मैं रात को तारें देखकर उनसे मन ही मन एक सवाल पूछता हूँ मगर उन तक मेरी बात चाँद नही पहुँचने देता है. चाँद आसमान का अकेला ऐसा मसखरा है जो सबकी बातें जानता है मगर उन बातों का कहीं जिक्र तलक नही करता इसलिए मेरी कोई बात, मेरा कोई सन्देश कभी तुम्हें नही मिलेगा.
आज भोर में मैंने एक सपना देखा. सपनें में मैंने देखा कि मेरे दोनों कानों में दो झूले पड़ गए है और उन झूलों पर कोई झूल नही रहा है मगर वो जोर-जोर से अपनी पींग भर रहें हैं.उन्हें अकेला पींग भरता देखा मुझे थोडा डर लगा मगर फिर सपनें में ही मुझे किसी ने बताया कि अकेले पींग भरना एक शुभ संकेत है. उसके बाद मैं आँखें बंद करके तुम्हारी हँसी के बारें में सोचकर मुस्कुराने लगा. उसके बाद एक नीरव शान्ति छा गई. मैंने मुस्कुराते हुए आँखें खोली तो सपना टूट गया. आँख खुलने पर मैं देर तक यही सोचता रहा कि वो सपनें कैसे होते होंगे जिनकी टूटने की कोई वजह नही होती होगी मगर फिर भी टूट जाते होंगे? यह सोच कर फिर से मेरा जी उदास हो गया.
अच्छा सुनो ! मैं कई दिनों से यह बात सोचा रहा हूँ कि मैं  कुछ दिनों के लिए खुद को नेपथ्य में रख लूं मुख्यधारा के प्रकाश से मुझे असुविधा होती है. मैं मंचो के सत्कार से ऊब गया हूँ. मेरी अंदर कोई थकन नही है फिर भी मैं विश्राम की कामना में लगभग प्रार्थनारत हूँ.  यह विश्राम हो सकता है अलगाव या पलायन की ध्वनि दे रहा हो मगर वास्तव यह दोनों ही बातें नही है. दरअसल मैं तुम्हें याद करते-करते अब  पुनरुक्ति दोष का शिकार हो गया हूँ मुझे नही पता तुम मुझे कितना,कब और कैसे याद करती हो मगर इतना जरुर पता है कि तुम्हें  जब भी मैं याद आता हूँगा तो कम से कम तुम मेरी तरह खुद से बातें जरुर करनें लगती होंगी.
मेरे पास अब केवल कुछ अनुमान बचें है और अनुमानों के भरोसे तो ज्योतिष में भी कोई भविष्यवाणी नही की जा सकती जबकि उसे अनुमानों का विज्ञान कहा गया है इसलिए मैं अपने अनुमानों को अब विराम देना चाहता हूँ मैं चाहता हूँ कुछ दिन तुमसे तुम्हारे अनुमानों के बारें में बातें सुनूं वो भी इतनी स्पष्ट की अनुमानों को सच करनें के लिए सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड अपनी समस्त ऊर्जा लगा दें. कलियुग में जिसे संभवाना का षड्यंत्र कहा गया है मैं उसे घटित होते हुए देखना चाहता हूँ क्योंकि फिलहाल विकल्पों के रोजगार से मैं ऊब चुका हूँ.

‘आधे-अधूरे ख़त’
© डॉ. अजित