Tuesday, July 29, 2014

वो तीन

वो दुनिया के तीन अलग अलग हिस्सों से अपने अपने हिस्सें का निर्वासन काटने के लिए आए थे यह कुछ कुछ अज्ञातवास जैसा था। उनकी फ़िक्र कभी उनकी जिद बन जाती तो कभी उनकी जिद में फ़िक्र शामिल हो जाती थी। उनमे से दो देहात की गलियों से निकले आवारा ख्याल थे तो एक  कस्बाई शहर का अनजानापन लिए था। उनका आपस में मिलना किसी ईश्वरीय शक्ति का नियोजित षड्यंत्र जैसा था मोटे तौर पर उनमे आपस में कोई समानता नही थी मगर कोई एक वजह स्वत: बनती जा रही थी और देखते ही देखते वो तीनों एक केंद्र की धूरी के इर्द-गिर्द बिना आघूर्ण के घूमने लगे। वो तीनो अंतेपुरवासी थे खुद को तलाशने और तराशने का सपना लें कल्पनाओं की दुनिया में रचनात्मकता की कूंची से सफलता का रंग भरना चाहते थे। वो चमत्कारों में पुख्ता यकीन रखते थे उनके सपनों ने तेजी से अपनी रिश्तेदारियां बना ली थी यह छोटी दुनिया के बड़े लोगो की कहानी थी जिसमें भविष्य की चिंता नही बल्कि भविष्य को तय करके तहशुदा रखा जा रहा था।
इन तीन आवारा ख्यालों ने त्रिकोण बनाया और फिर ख्वाबो की जद पे उसको त्रिशंकु बना उछाल दिया एक ख़ास वक्त के कमजोर दौर में तीन जिन्दगियां बिना गुरुत्वाकर्षण के तैर रही थी।
यह हाथ की सफाई और नजरबन्दी का खेल तालीम के साथ चलता रहा वो दूसरी दुनिया के बाशिंदे थे नही जानते थे सच की आँखे और न ही अपनी सीमाएं फिर यूं हुआ  स्याह नंगी रात की सच्चाई में अपने अपने हिस्से का सच जान अनमने हो निकल पड़े अलग अलग राह पर। उनकी राहें जुदा हुई दिलों में सिलवटें पड़ी मगर तीनो का दिल यादों के मफ़लर से बंधा भी रहा अपने अपने हिस्सों का सुख बांधते उनकी कमर झुक गई अपने अपने किस्सों का दुःख गाते हुए वो किस्सागो बन गए।
अब वो तीन एक साथ कभी नही दिखते हिम्मत करके दो यदा-कदा मिलते है उनकी हथेलियाँ शुष्क और ठंडी होती है अब उनके पास केवल बीते लम्हों की जमानत पर रिहा कुछ किस्से बचे है जिनके जिक्र से वो अपनी आँखों में सुरमा लगा लेते है मगर अफ़सोस हर बार एक शख्स अपने हिस्से की त्रासदी भोगता हुआ दूर से हौसला और दुआ फूंकता रहता है यह कोई कहानी नही है बल्कि कुछ किरदारों के अक्स पर जमी वक्त की काई है जो गाहे बगाहे तब नजर आती है जब उनमे से कोई एक उस पर रिपटता हुआ सीधा अतीत की खाई में गिर पड़ता है यह उसकी कराह है जो बाहर कभी सुनाई नही देती। 

Saturday, July 19, 2014

तुम...

तुम चैतन्य शिखर से उतरी विचार और सम्वेदना की वह रागिनी हो जिसके आंतरिक उत्स में अपनत्व के सिवाय कोई दूसरा भाव कभी प्रस्फुटित नही हो सकता है। अस्तित्व ने तुम्हें सृजन का निमित्त बनने के लिए उपयुक्त पाया तभी उसने तुम्हे रचनात्मक ऊर्जा के केंद्र के पास रखा तुम्हे खुद की परिधि और खुद की त्रिज्या के मध्य समन्वय बनाने का अद्भुत कौशल ज्ञात है।
तुम जीवन सृजन और गहरी अनुभूतियों का सतत स्रोत हो तुम उर्वरा हो तथा समर्थ हो नीरस में रस की अभिव्यक्ति तलाशने में तुम्हारी जितनी क्षमताएं ज्ञात है उतनी ही अज्ञात भी है। एक अस्तित्व के रूप में तुम्हारी सहजता गुह्यता और प्रकट भाव के मध्य अद्भुत सेतु बनाए रखती है यह उस विलक्षणता का प्रतीक है जो तुम्हें प्रकृति प्रदत्त है।
किसी रिक्त, तिक्त जीवन में तुम्हारी उपस्थिति स्व के उस बोध को समझने में सहायक है जिसके लिए सिद्ध साधनाएं बताई गई है तुम्हारा होना भर जीवन को गहरे आध्यात्मिक अर्थ दे सकता है।
और अंत में तुम्हारी अविकल हंसी और निर्मल मुस्कान के बारे में यही कहूँगा तुम्हारी मुस्कान अँधेरे में रोशनी का पता देती है जीवन की जटिलता में सरलता खोजने का कीलक सूत्र देती है। तुम हंसती हो तो मन के द्वंदो से चित्त पर पड़ी ऊब की गिरह खुद ब खुद खुल सावन के झूले बन जाती है जहां कोई भी अपने मनमुताबिक़ पींग भर सकता है। तुम्हारी हंसी में मौन साधना है बच्चों का कौतुहल है और सबसे बड़ी बात बिना शर्त का प्रेम है तुम्हारे मुस्कुराने भर से चेहरे की शिकन अपना अर्थ खो देती है तथाअवसाद अप्रासंगिक हो जाता है। अनन्यमयस्कता के बड़े दौर भी तुम्हारी स्नेहिल मुस्कान के समक्ष आत्म समपर्ण कर देते है।
दरअसल, तुम्हारा अस्तित्व सतत सकारात्मक ऊर्जा का बड़ा स्रोत है तो तुम्हारी मुस्कान उसकी दिव्य अभिव्यक्ति है। तुम्हारे अस्तित्व की यह दिव्यता प्रकृति के किसी ख़ास प्रयोजन का हिस्सा हो सकती है यह उन चेतनाओं के लिए प्रारब्ध और नियति की विशिष्ट जुगलबंदी का मानदेय है जिनके तुम उपलब्ध हो एवं प्राप्य हो।
तुम्हारी मुस्कान का मूल्यांकन सामान्य चेतना के लिए इसलिए भी सम्भव नही है क्योंकि तुम चित्त की वृत्तियों से परे का विषय हो तुम अनुभूत साधना का केंद्र हो उसका आसन हो तथा उनके मार्ग पर प्रकाश की टीका हो जिससे अभिप्रेरित हो और ऊर्जा ग्रहण कर कोई भी सामान्य इंसान एकांत सिद्ध हो सकता है।
ईश्वर की अनुकृति और उसके होने का तुम मानवीय प्रमाण हो तुम मैत्री प्रेम परिचय आदि उपमानों के माध्यम से अनुशीलन का विषय नही हो तुम हृदय की अनंत गहरी यात्राओं में समग्र अस्तित्व की चेतना और उसकी अनुभूति को साक्षी भाव से देखने से ही समझी जा सकती हो वास्तव में तुम विश्लेषण की नही दिव्य अर्थों में जीने की विषय-वस्तु हो अपनी अल्पज्ञता से मै इसी निष्कर्ष पर पहूंच पाया हूँ।

Friday, July 18, 2014

पहली बारिश

सावन की पहली बारिश आसमान से टिप-टिप बरसता बूँद-बूँद पानी मानो हरजाइयों का खुद आसमान अखंड रुद्राभिषेक कर रहा हो बूँद धरती पर गिर पल भर में बिखर जाती और दिल नमी से हांफता रहता है। तुम्हारी आँखों की खुश्की काजल भी नही छिपा पाता है लबों पर महीन लकीरें मौसम की नही वक्त की मार की बनाई हुए थी तुम्हारे चेहरे का भूगोल कभी मेरे लिए जिन्दगी का नक्शा हुआ करता था तुम्हारी मंद मुस्कान से उन रास्तों का पता मिलता था जहां मै अनमना होकर जाना नही चाहता था। तुम्हारी कानों की दो बालियाँ मेरे लिए मन्दिर की घंटिया थी जिन्हें देख मन ही मन प्रार्थना के स्वर फूटने लगते थे।
देह की दृष्टि ध्यान में कैसे उपयोगी हो सकती है यह तुमसे सीखा था तुम्हारे हृदय के सूक्ष्म नाद को मै तुम्हारी धडकन से अलग करके सुन सकता था उसमे एक दिव्य आह्वान होता था तुम्हारी शिराओं के स्पंदन और देह ही अनुभूत गंध से अस्तित्व की गहराईयों की यात्रा पर निकलना कितना सहज हो जाता था। तुम देहातीत हो मेरी चेतना की उपत्यिका थी जिसमे सृजन के बीजमन्त्र और अपनत्व की स्वरलहरियों गूंजती थी
इस बारिश में मेरा रोम-रोम तुम्हारे अनुभूत स्पर्श को उतनी ही शिद्दत से महसूसता है जितना मेरे मन की अनंत ऋचाएं स्व स्वाहा के बाद प्रखर हो प्रज्ज्वलित हो उठती है।
आज जब तुम नही हो तो ये मौसम मुझे तुम्हारे लिए एक वसीयत लिखने की जिद पे उतर आया है मै मन से भीगता हुआ तन से रीतता हुआ यह लिख रहा हूँ मेरे इस अनादि यज्ञ की पूर्णाहूति तुम हो जिसके बाद केवल राख शेष बचेगी उसे प्रवाहित कर यदि कोई टूटा हुआ हृदय पुण्य का भागी होना चाहता है वो निसंकोच ऐसा कर सकता है। मन को मन से मृत्यु भी कहां मिला पाती है मृत्यु केवल देह को मुक्त करती है तुम जीवन की प्रतीक हो इसलिए  देहातीत दर्शन का सहारा लेकर तुम्हे पाने की अभिलाषा रखना मेरे लिए सदैव अपरिहार्य ही रहेगा। सच तो यह भी तुम्हें पाना न मेरी इस जन्म की अभिलाषा है न उस जन्म की तुम्हें खोकर की शायद मै खुद को खोज पाऊं।

(अंदर-बाहर के बदलते मौसम का असर)

Wednesday, July 16, 2014

पाती


एक पाती... तुम्हारे अनाम..

"तुम्हारे जीवन में मेरी उपयोगिता  अपनी सुविधा से तय करना तुम्हारे अभ्यास का मामला बन गया है. सम्बन्धो में उपयोगितावाद इस दौर की नयी अवधारणा है इसलिए मैं  इसके औचित्य पर सवाल खड़ा  नही कर रहा हूँ. मैं हर दशा में स्थैतिक रहूंगा तुम्हारा यह अनुमान मुझे जरूर हैरत में डालता है.ज्ञान, वय, अनुभव और  समझ इन सब में वरिष्ठ होने के बावजूद अवधारणा निर्माण के मामले में तुम बड़े  निर्धन ही  रहे  यह इस बात का जीवंत प्रमाण है कि तुम्हारे जीवन में सच्चे दोस्तों का नितांत ही अभाव रहा है. तुम अपने आसपास की भीड़ में छवि के निर्माण में इतनी व्यस्त रहे की तुम्हे अपने अकेले होने का बोध तब हो पाया जब तुम खुद किसी के लिए  भीड़ का हिस्सा बन चुके थे.
सच्चे दोस्त रेत के टीले पर बैठ कर हवा का रुख भांपते हुए नही तलाशे जाते न ही शंका के जंगल में हाँफते हुए छाँव में बैठ आसमान की तरफ ताकते  हुए मिला करते है सच्चे दोस्त नियति, प्रारब्ध और संचित कर्मो की सुखद युक्ति से मिला करते है.सच्चे दोस्तों को पाने के लिए लगभग  पूजा के शंख को बजाने के लिए लगने वाली प्राणशक्ति की आवश्यकता होती है.  मेरी तल्खियों में तुम्हारे दिन ब दिन  अस्त व्यस्त होते  वजूद की फ़िक्र भी शामिल है क्योंकि मैंने तुम्हे कभी चैतन्य और संवेदनशील  माना और जाना था.
मित्र कभी उपदेशक न लगे इसलिए मैं अक्सर चुप रहता हूँ मगर मैं चुप्पी आपके जटिल जीवन को सरल नही कर सकती है. इसलिए आज कहना ही पड़ रहा है की बाह्य जीवन में संपादन के साथ सम्भावनाये तलाशने के बजाये तुम्हे अपने आंतरिक एकांत के सम्पादन की आवश्यकता है. तुम्हारा आंतरिक निर्वात तुम्हे उस दिशा में ले जाना चाहता है जहां जीवन सहज है तथा साक्षी भाव से जीना चाहता है परन्तु तुम्हरे व्यक्तित्व के बाह्य दबाव तुम्हे उस हर लौकिक पैंतरेबाजी में मशगूल रखना चाहते है जिसे तुम खुद की समझदारी समझ बैठे हो.
स्नेह एक बिना शर्त के सम्मान की नदी है जो सम्भावनाओ के तट पर आशा और विश्वास के कंकड़ पत्थरो के साथ बहती है इसकी गति इसका इंसान के अच्छे होने का प्रमाण है इसके तटबंध मनुष्य की कमजोरियों से ही बने होते है मगर तुम डूबने के  डर से या गहराई के गलत अनुमान की वजह से किनारे खड़े शंका और बुद्धि की कंकर मार इसकी गहराई मापने का यत्न कर रहे हो  इससे तुम्हे न जल की धारा के प्रवाह का पता चलेगा और न ही गहराई का. किनारे खड़े तुम्हे उतने की चिंताआतुर बने रहोगे जितने कभी इस नदी के वेग को देखकर हुए  थे. क्या तो वापिस लौट जाओ अपने कंक्रीट के जंगल में या फिर छलांग लगा दो बेफिक्र होकर यह अभी तुम्हे ठीक आत्महत्या जैसा प्रतीत होगा मगर  मरोगे नही यह मेरा विश्वास है.
...और अंत में यही कहूँगा जीवन को अस्तित्व के हवाले करो तुम्हारे अपने अनुभव और ज्ञान के जो मानवीय बाधाएं है उन्हें अपनी यात्रा की बाधा न बनाओ यदि तुम ऐसा कर पाये तो फिर जीवन के उस पक्ष को जी सकोगे जिसका दशमांश भी अभी तुम न देख पाये हो और न जी ही पाए हो. अपनी तमाम नकारात्मकता के बीच मेरे पास कुछ ऊर्जामय शुभकामनायें है वो तुम्हारे पास भेज रहा हूँ इनका उपयोग करने के लिए तुम्हे अपने मन की सुननी पड़ेगी यह नुक्ता इस प्रलाप में बोनस में तुम्हे सौप रहा हूँ शेष तुम्हारी इच्छा.... तुम्हारा अज्ञानी अमित्र....

Tuesday, July 8, 2014

स्याह सच

गाँव में अपने पीढ़ी के बचे हुए गिने चुने लोगो में से एक है पंडित बलवंत शर्मा जी। उम्र अस्सी के पार है बच्चे सभी स्थापित है। गाँव के लिहाज़ से एक रास्ते के चले दिल के सच्चे और जबान के पक्के देहाती मानुष परम्परा के वो लगभग आख़िरी वाहक है। घर से खेत और खेत से घर तक की दुनिया में सिमटा हुआ एक छोटा सा संसार जिसमें लाग-लपेट और बेकार के लंद-फंद के लिए कभी कोई जगह रही भी नही।
पंडित जी की एक छोटी सी कहानी के जरिए आज गाँव की मर्दवादी और सम्वेदनहीन सोच का जिक्र करने जा रहा हूँ हुआ यूं कि आज से लगभग चार साल पहले पंडित जी की धर्मपत्नि का निधन हो गया। जीते जी पति-पत्नि के सम्बन्ध कमोबेश वैसे ही थे जैसे हर एक गाँववासी के हो जाते है एकदम से अनासक्त किस्म के ,यह उनकी दूसरी पत्नी थी पहली पत्नि विवाह के कुछ समय उपरान्त चल बसी थी। उससे एक बेटी थी बस बाकि संतति दूसरी पत्नि से ही चली पंडित जी की पत्नि का नाम प्रेमो था।
पत्नि का आकस्मिक निधन पंडित जी पर वज्रपात के समान सिद्ध हुआ और इस सदमे में पंडित जी अपना अनिवार्य पुरुषवादी चरित्र को भूल बैठे पुरुषवादी से मतलब है कि चालीस- पचास के पार पत्नि से संक्षिप्त सम्वाद भावात्मक एवं रागात्मक सम्बधों की इति श्री।
पंडित जी प्रेमो के निधन से व्याकुल और अधीर हो गए गाँव ने मर्दवादी समाज में यह एक सामाजिक चटखारे और प्रहसन का विषय बन गया। कुछ तो उम्र के प्रभाव दूसरा पत्नि की मौत का गम पंडित जी का मानसिक संतुलन थोड़ा डगमगा गया और डगमगा भी क्या गया आप वो हर दूसरी बात में प्रेमो का जिक्र ले आते या कभी रो भी पड़ते गाँव में उनका पत्नि के दाहसंस्कार में शामिल होना और अग्निकर्म में रोना भी एक चटखारे का विषय बना था गौरतलब हो कि गाँव में पति का पत्नि के निधन होने पर उसकी अंतिम यात्रा में शामिल होना ठीक नही समझा जाता है।
आज गाँव का क्रुर समाज उन्हें सामाजिक चटखारे का विषय मानते है जहां वो बैठते है वहां कोई एक जन उनकी पत्नि का जिक्र कर देगा फिर वो अपना व्यथा कहने लगेगें या कोई कहेगा कि पंडित जी का ब्याह करवाना है वो मानसिक रूप से अस्थिर तो है ही फिर वो कुछ बहकी-बहकी बातें करना शुरू कर देते है बस उनकी यह आंतरिक पीड़ा लोगो के लिए मनोरंजन का कटेंट बन जाती है।
अमूमन गाँव के लोग भोले होते है सब यही सोचते है मगर मुझे गाँव के लोगो के इस चरित्र से घिन्न होती है पंडित जी हमारे कुल पुरोहित भी है इसलिए प्राय:  हमारे घेर( बैठक) में आ जाते है एक बार मै खुद उनके इस शोषण का गवाह बना तब मैंने लोगो को बाद में नसीहत भी किया कि ये क्या तमाशा बना रहे हो एक भले आदमी का।मैंने बतौर मनोवैज्ञानिक उनकी समस्या का मनोविश्लेषण भी किया। पंडित जी एक पुत्र जो गाँव में रहते है वो भी गाँव के लोगो को इस व्यवहार से आहत और असहज महसूस करते है लोग उनसे भी मजाक में कहते है कि भाई पंडित जी का तो ब्याह करवाना पड़ेगा ये प्रेमो के बैराग में है। मैंने उनके बेटे को भी समझाया कि वो उनके साथ कैसे डील करें क्योंकि पंडित जी अब घर पर भी कुसमायोजित हो गए है पत्नि के जाने के बाद घर पर उनका एकांत उनके अस्तित्व की अप्रासंगिकता तय करता है अब वो एक तयशुदा मौत का इन्तजार कर रहे है।
सामुदायिक स्तर पर जो गाँव के लोगो का व्यंग्य या सामाजिक चटखारे का चरित्र है वह पूर्णत: असम्वेदनशील और मर्दवादी सोच का प्रतिनिधित्व करता है। वह उम्र के इस दौर में अकेलेपन की त्रासदी और पत्नि के वियोग को भोगते एक सच्चे बुजुर्ग को सोशल सपोर्ट की गारंटी नही देता है।
यह समूह व्यवहार निसंदेह गाँव के लोगो की आत्मीयता पर प्रश्नचिन्ह है जिसमें बदलाव की गुंजाइश हाल फिलहाल तो नजर नही आती मेरे हिसाब यह एक चिंतनीय बात जरुर है।

(मैंने बहुत सी पोस्ट गाँव के जीवन के सकारात्मक पक्षों पर लिखी है अब इस जीवन के कुछ स्याह पक्षों पर भी लिखूंगा ताकि संतुलन बना रहे)

Sunday, July 6, 2014

मन बुद्धि के फेर

मन अल्लहड मस्त फक्कड फकीर बनने के लिए बहुत से इंसानों को जीवन में कम से कम एक बार अवसर जरुर देता है परन्तु बुद्धि उसको अर्जित ज्ञान के अभिमान में गुणा भाग लाभ-हानि में लगा देती है यह एक ऐसा आभासी बंधन होता है जिसकी बाह्य चेतना को खबर तक नही हो पाती है सबकुछ बुद्धि के नियोजन से बिन्दू बिन्दू नाप तौल कर चल रहा होता है।
मनुष्य के अनुमान सदैव ठीक ठीक होंगे इसकी कोई प्रत्याभूति नही दे सकता है इसलिए बुद्धि आपको कई बार अकेलेपन के उस टीले पर भी छोड़ आती है जहां से आपको फक्कड़ो की टोली,बच्चों की मुस्कान, कमजोर उपेक्षित की पीड़ा नही दिखाई देती है आप वहां निपट अकेले होते है भले ही आप बुद्धि के अभिमान में उस अकेलेपन को भी एक विशिष्टता के रूप में देखना शुरू कर दें। बेतरतीब,बिना नियोजन  छद्म आदर्शवाद और छद्म अभिप्ररेणावाद से मुक्त रहकर भी एक फक्कड़ जिन्दगी जी जा सकती है बिना देवता बने मानवीय भूलों के साथ गिरते- सम्भलते हुए भी एक बढ़िया जिन्दगी जी जा सकती है।
इस दौर में जब भावुक या अतिसम्वेदनशील होना आपकी कमजोरी के रूप में देखा जाता है यहाँ हर वक्त एक जंग जारी रहती है जहां प्रेक्टिकल होने का मतलब है आपको अपने लिए जीना आता है या नही।
सबका अपना अपना चयन होता है इसलिए उपदेशात्मक कुछ नही कहना चाहता लेकिन मुझे बेहद मुश्किल दौर में भी यह बात एक सच्ची खुशी देती है कि आउटडेटिड और अपरिपक्व या फिर धूर्त समझे जाने के खतरे के बीच भी मै आज भी दिल की सुनता हूँ और जीवन के बड़े फैसले दिल से लेता हूँ इसकी कीमत के रूप में मुझे आजीवन पीड़ा कष्ट कुछ भी मिलें सब सहने को सदैव सहर्ष  तैयार हूँ क्योंकि डिग्री पदवी ओहदे ज्ञान बुद्धि की गुलामी करने से कई गुना बेहतर है अपने मन का मीत बनकर कर एक आम मनुष्य की जिन्दगी जीना जो गलती भी करता तो उसको जस्टीफाई करने के लिए बुद्धिवादी प्रयोजन नही करता दुनिया के लिए यह प्रपंची जिन्दगी हो सकती है लेकिन मेरे लिए यह वह जिन्दगी है जिसको मैंने अपने दिल से चुना है दिमाग से नही।