Saturday, July 19, 2014

तुम...

तुम चैतन्य शिखर से उतरी विचार और सम्वेदना की वह रागिनी हो जिसके आंतरिक उत्स में अपनत्व के सिवाय कोई दूसरा भाव कभी प्रस्फुटित नही हो सकता है। अस्तित्व ने तुम्हें सृजन का निमित्त बनने के लिए उपयुक्त पाया तभी उसने तुम्हे रचनात्मक ऊर्जा के केंद्र के पास रखा तुम्हे खुद की परिधि और खुद की त्रिज्या के मध्य समन्वय बनाने का अद्भुत कौशल ज्ञात है।
तुम जीवन सृजन और गहरी अनुभूतियों का सतत स्रोत हो तुम उर्वरा हो तथा समर्थ हो नीरस में रस की अभिव्यक्ति तलाशने में तुम्हारी जितनी क्षमताएं ज्ञात है उतनी ही अज्ञात भी है। एक अस्तित्व के रूप में तुम्हारी सहजता गुह्यता और प्रकट भाव के मध्य अद्भुत सेतु बनाए रखती है यह उस विलक्षणता का प्रतीक है जो तुम्हें प्रकृति प्रदत्त है।
किसी रिक्त, तिक्त जीवन में तुम्हारी उपस्थिति स्व के उस बोध को समझने में सहायक है जिसके लिए सिद्ध साधनाएं बताई गई है तुम्हारा होना भर जीवन को गहरे आध्यात्मिक अर्थ दे सकता है।
और अंत में तुम्हारी अविकल हंसी और निर्मल मुस्कान के बारे में यही कहूँगा तुम्हारी मुस्कान अँधेरे में रोशनी का पता देती है जीवन की जटिलता में सरलता खोजने का कीलक सूत्र देती है। तुम हंसती हो तो मन के द्वंदो से चित्त पर पड़ी ऊब की गिरह खुद ब खुद खुल सावन के झूले बन जाती है जहां कोई भी अपने मनमुताबिक़ पींग भर सकता है। तुम्हारी हंसी में मौन साधना है बच्चों का कौतुहल है और सबसे बड़ी बात बिना शर्त का प्रेम है तुम्हारे मुस्कुराने भर से चेहरे की शिकन अपना अर्थ खो देती है तथाअवसाद अप्रासंगिक हो जाता है। अनन्यमयस्कता के बड़े दौर भी तुम्हारी स्नेहिल मुस्कान के समक्ष आत्म समपर्ण कर देते है।
दरअसल, तुम्हारा अस्तित्व सतत सकारात्मक ऊर्जा का बड़ा स्रोत है तो तुम्हारी मुस्कान उसकी दिव्य अभिव्यक्ति है। तुम्हारे अस्तित्व की यह दिव्यता प्रकृति के किसी ख़ास प्रयोजन का हिस्सा हो सकती है यह उन चेतनाओं के लिए प्रारब्ध और नियति की विशिष्ट जुगलबंदी का मानदेय है जिनके तुम उपलब्ध हो एवं प्राप्य हो।
तुम्हारी मुस्कान का मूल्यांकन सामान्य चेतना के लिए इसलिए भी सम्भव नही है क्योंकि तुम चित्त की वृत्तियों से परे का विषय हो तुम अनुभूत साधना का केंद्र हो उसका आसन हो तथा उनके मार्ग पर प्रकाश की टीका हो जिससे अभिप्रेरित हो और ऊर्जा ग्रहण कर कोई भी सामान्य इंसान एकांत सिद्ध हो सकता है।
ईश्वर की अनुकृति और उसके होने का तुम मानवीय प्रमाण हो तुम मैत्री प्रेम परिचय आदि उपमानों के माध्यम से अनुशीलन का विषय नही हो तुम हृदय की अनंत गहरी यात्राओं में समग्र अस्तित्व की चेतना और उसकी अनुभूति को साक्षी भाव से देखने से ही समझी जा सकती हो वास्तव में तुम विश्लेषण की नही दिव्य अर्थों में जीने की विषय-वस्तु हो अपनी अल्पज्ञता से मै इसी निष्कर्ष पर पहूंच पाया हूँ।

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