Tuesday, July 8, 2014

स्याह सच

गाँव में अपने पीढ़ी के बचे हुए गिने चुने लोगो में से एक है पंडित बलवंत शर्मा जी। उम्र अस्सी के पार है बच्चे सभी स्थापित है। गाँव के लिहाज़ से एक रास्ते के चले दिल के सच्चे और जबान के पक्के देहाती मानुष परम्परा के वो लगभग आख़िरी वाहक है। घर से खेत और खेत से घर तक की दुनिया में सिमटा हुआ एक छोटा सा संसार जिसमें लाग-लपेट और बेकार के लंद-फंद के लिए कभी कोई जगह रही भी नही।
पंडित जी की एक छोटी सी कहानी के जरिए आज गाँव की मर्दवादी और सम्वेदनहीन सोच का जिक्र करने जा रहा हूँ हुआ यूं कि आज से लगभग चार साल पहले पंडित जी की धर्मपत्नि का निधन हो गया। जीते जी पति-पत्नि के सम्बन्ध कमोबेश वैसे ही थे जैसे हर एक गाँववासी के हो जाते है एकदम से अनासक्त किस्म के ,यह उनकी दूसरी पत्नी थी पहली पत्नि विवाह के कुछ समय उपरान्त चल बसी थी। उससे एक बेटी थी बस बाकि संतति दूसरी पत्नि से ही चली पंडित जी की पत्नि का नाम प्रेमो था।
पत्नि का आकस्मिक निधन पंडित जी पर वज्रपात के समान सिद्ध हुआ और इस सदमे में पंडित जी अपना अनिवार्य पुरुषवादी चरित्र को भूल बैठे पुरुषवादी से मतलब है कि चालीस- पचास के पार पत्नि से संक्षिप्त सम्वाद भावात्मक एवं रागात्मक सम्बधों की इति श्री।
पंडित जी प्रेमो के निधन से व्याकुल और अधीर हो गए गाँव ने मर्दवादी समाज में यह एक सामाजिक चटखारे और प्रहसन का विषय बन गया। कुछ तो उम्र के प्रभाव दूसरा पत्नि की मौत का गम पंडित जी का मानसिक संतुलन थोड़ा डगमगा गया और डगमगा भी क्या गया आप वो हर दूसरी बात में प्रेमो का जिक्र ले आते या कभी रो भी पड़ते गाँव में उनका पत्नि के दाहसंस्कार में शामिल होना और अग्निकर्म में रोना भी एक चटखारे का विषय बना था गौरतलब हो कि गाँव में पति का पत्नि के निधन होने पर उसकी अंतिम यात्रा में शामिल होना ठीक नही समझा जाता है।
आज गाँव का क्रुर समाज उन्हें सामाजिक चटखारे का विषय मानते है जहां वो बैठते है वहां कोई एक जन उनकी पत्नि का जिक्र कर देगा फिर वो अपना व्यथा कहने लगेगें या कोई कहेगा कि पंडित जी का ब्याह करवाना है वो मानसिक रूप से अस्थिर तो है ही फिर वो कुछ बहकी-बहकी बातें करना शुरू कर देते है बस उनकी यह आंतरिक पीड़ा लोगो के लिए मनोरंजन का कटेंट बन जाती है।
अमूमन गाँव के लोग भोले होते है सब यही सोचते है मगर मुझे गाँव के लोगो के इस चरित्र से घिन्न होती है पंडित जी हमारे कुल पुरोहित भी है इसलिए प्राय:  हमारे घेर( बैठक) में आ जाते है एक बार मै खुद उनके इस शोषण का गवाह बना तब मैंने लोगो को बाद में नसीहत भी किया कि ये क्या तमाशा बना रहे हो एक भले आदमी का।मैंने बतौर मनोवैज्ञानिक उनकी समस्या का मनोविश्लेषण भी किया। पंडित जी एक पुत्र जो गाँव में रहते है वो भी गाँव के लोगो को इस व्यवहार से आहत और असहज महसूस करते है लोग उनसे भी मजाक में कहते है कि भाई पंडित जी का तो ब्याह करवाना पड़ेगा ये प्रेमो के बैराग में है। मैंने उनके बेटे को भी समझाया कि वो उनके साथ कैसे डील करें क्योंकि पंडित जी अब घर पर भी कुसमायोजित हो गए है पत्नि के जाने के बाद घर पर उनका एकांत उनके अस्तित्व की अप्रासंगिकता तय करता है अब वो एक तयशुदा मौत का इन्तजार कर रहे है।
सामुदायिक स्तर पर जो गाँव के लोगो का व्यंग्य या सामाजिक चटखारे का चरित्र है वह पूर्णत: असम्वेदनशील और मर्दवादी सोच का प्रतिनिधित्व करता है। वह उम्र के इस दौर में अकेलेपन की त्रासदी और पत्नि के वियोग को भोगते एक सच्चे बुजुर्ग को सोशल सपोर्ट की गारंटी नही देता है।
यह समूह व्यवहार निसंदेह गाँव के लोगो की आत्मीयता पर प्रश्नचिन्ह है जिसमें बदलाव की गुंजाइश हाल फिलहाल तो नजर नही आती मेरे हिसाब यह एक चिंतनीय बात जरुर है।

(मैंने बहुत सी पोस्ट गाँव के जीवन के सकारात्मक पक्षों पर लिखी है अब इस जीवन के कुछ स्याह पक्षों पर भी लिखूंगा ताकि संतुलन बना रहे)

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