Wednesday, January 28, 2015

उसकी बातें

उन दोनों की उम्र में सीधे सीधे दस साल का ज्ञात फांसला था।उम्र का ये फांसला एक को नजदीक लाता तो दुसरे को दूर करता। सनातन यात्री के रूप में एक का विलम्ब से आना और दुसरे का पहले आना नितांत ही संयोग का मामला है ऐसा होने में न किसी की कोई ज्ञात त्रुटि थी और न कोई विशिष्ट उपलब्धि। उम्र एक भौतिक इकाई है शरीर की कोशिकाओं की आयु को उम्र मानना विज्ञानसम्मत है परन्तु मन का भी एक अपना विज्ञान है और मन की आयु नापने के लिए विज्ञान से ज्यादा सम्वेदना के पैमाने की आवश्यकता होती है। यह भी एक बड़ा विचित्र संयोग था कि सांसारिक से लेकर गैरसांसारिक किस्म के उसके सारे दोस्त उससे लगभग दस साल बड़े ही थे और कभी ऐसा महसूस नही हुआ कि उनकी एक असंगत मित्रता है।
दरअसल उम्र को कभी मानक माना ही नही था उसनें। स्वयं को एक यात्री समझा जिसे वक्त ने वक्त से पहले परिपक्वता का लिबास पहना मंजिल की तरफ रवाना कर दिया और उसकी यात्रा सदैव कालगणना की सीमाओं में अतिक्रमण करते हुए आगे बढ़ी है। यदि अंकपत्रों के मुद्रित जन्मतिथि का एक प्रमाण न हो तो मन वचन कर्म से एक भी संकेत ऐसा नही बचता है जो उसकी वास्तविक आयु का आंकलन कर सकें।
अजीब बात यह भी रही कि सदैव से अपने वय के लोगो से न उसका तादात्म्य स्थापित हो सका और न समायोजन।उनकी रूचि के विषय उसकी रूचि के विषयों से एकदम भिन्न थें। जब वे करियरवादी थे तब वो दर्शन के जरिए कविताओं की उपयोगिता तलाश रहा था जब उनकी रूचि लौकिक कौतुहल में थी तब वो किसी पहाड़ की घाटी में बैठा प्रकृति के सौंदर्य को निहार रहा था।
उम्र का यह खेल उसकी समझ से हमेशा बाहर रहा है इसलिए शरीर की उम्र की बजाय वो चेतना और सम्वेदना की आयु को सम्बोधित करते हुए खत लिखता और वें सही पतें पर पहुँच भी जाते थे। मूलत: उसकी यात्रा मुक्त होने की यात्रा थी इसलिए जाति धर्म वर्ण क्षेत्र आयु ये सब लौकिक प्रतिमान कभी उसके अस्तित्व का हिस्सा बन भी न पायें। अपनी भौतिक उम्र से दस साल आगे की जिंदगी जीने को उसनें उत्सव के रूप में ग्रहण किया हालांकि इसके अपने जोखिम भी है मगर उसनें उनकी कब परवाह की है।
उम्र की ये लौकिक अवधारणा सम्भवतः एक वरिष्ठता और कनिष्ठता की ज्ञात और लोकप्रिय ग्रंथि हो सकती है या फिर ऐसा भी सम्भव है कि ईगो दुसरे की ऊंचाई को लेकर सवाल भी खड़ा करता हो परन्तु यह उसका खुद के बारें में एक अर्जित आत्मविश्वास रहा था कि अतीत या भविष्य में उसे लोग उससे बड़े या छोटे जरूर मिल सकते है मगर शायद उसके कद का एक भी शख्स उसे न मिलें। उसके लिए यह कोई आत्मप्रशंसा या आत्मविज्ञापन जैसी बात नही थी बस यह खुद की यात्रा के बारें में एक ज्ञात तथ्य की अभिव्यक्ति भर थी।
सारांश: किसी अन्यत्र के जीवन दर्शन अथवा मान्याताओं को संपादित करने की उसकी कोई अभिलाषा नही थी वो मानता था कि सबकी अपने चिंतन की मौलिकता एवं तयशुदा वजह होती है परन्तु फिर भी वह चाहता था कि वो इस उम्र की ग्रन्थि के बोझ से बाहर निकल आये क्योंकि इसके बाद ही वो देख सकेगी खुले आसमान की गहराई,समझ का विस्तार और चेतनाओं की दिव्य जुगलबंदी के अलौकिक आलाप जो सीधे दिल पर दस्तक देते है।
इस दौर में जब सब कुछ इतना गतिशील है कि जो लम्हा हम खो देते है उसे फिर कल्पना के जरिए भी हासिल नही कर पाते है ऐसे में चाहत थी  कि उसकी ऊर्जा का अपव्यय आयु के विमर्श में जाया न हो। निर्द्वन्द और निर्बाध हो वो चेतना और सम्वेदना के उस उत्सव में शामिल हो सको जहां उसके लिए एक स्थान उसनें अधिकारबोध से आरक्षित किया हुआ है। उसका यही भय था कि कहीं बड़प्पन के बोझ में वो उस अवसर या अनुभव को न खो दो जो आपके लिए अविस्मरणीय हो सकता है।

'उसकी बातें'

Tuesday, January 27, 2015

आधी बात

रात के दस बजने को है। जिस जगह फिलहाल हूँ वहां दस बजने का अर्थ लगभग वही है जो तुम्हारे शहर में आधी रात का है। यह आधी रात मुझे दो हिस्सों में बांट रही है। एक हिस्सा तमाम दुनियावी तनावों और चिंताओं को बारी बारी मेरे सामने पेश करता है। कुछ कड़वे यथार्थ से मुझे डराता भी है। डर के साथ वो मेरे कान में चेतावनी भरा सन्देश फूंकता है कि तुम्हारे पास वक्त बेहद कम बचा है सम्भल सकते हो तो सम्भल जाओ। जबकि एक हिस्सा मुझे थोड़ी शाबासी थोड़ी हिम्मत देता है। मेरी बेवजह की मुस्कान से उसे खुशी मिलती है यहां तक वो मेरी बैचेनियों पर भी हंस सकता है।
यूं हिस्सों में बंटा तुम्हारे बारें में सोचता हूँ और फिर सोचता ही चला जाता हूँ। किसी के बारें में सतत सोचना एक सामान्य बात हो सकती है परन्तु कोई जब जिंदगी में आदत की तरह शामिल हो जाता है तब थोड़ी फ़िक्र थोड़ी गुदगुदी का होना लाज़िमी है। रात के सन्नाटे ने मौन का इतना सिद्ध किस्म का माहौल बना दिया है कि अपने एक हाथ से मै धड़कनों के बालों में कंघी कर रहा हूँ। मेरी पलकें तुम्हारी स्मृति में अपनी गति में विलम्बित होती जाती है उन पर तुम्हारे अंतिम स्पर्श का बोझ आईस पाईस खेलता है। इस खेल में जब तुम जीत जाती हो मेरी आँखें थोड़ी नम होकर तुम्हारी खुशी में शामिल हो जाती है।
मैंने रच लिया है अपना एक एकांत और रात के दस बजे उस एकांत में केवल तुमको ही प्रवचन की भाषा में बात करने की इजाजत है। जब भी तुम्हारे अनुराग की चाशनी में डूबी मेरी ज़बान तुम देखती हो देखता हूँ तुम थोड़ा डर जाती हो तुम्हें मेरी फ़िक्र होने लगती है। हर हाल में तुम मुझे विजेता ही देखना चाहती हो और विजेता बनने के लिए कहीं रुकना अटकना बाधा बन सकती है। न जाने तुमनें यह अनुमान कैसे लगा लिया कि तुम मेरी कमजोरी बन सकती हो।जबकि सच तो यह है हाल फिलहाल तुम मेरी सबसे बड़ी ताकत हो।
सर्दी की इस रात में सोने से पूर्व तुम्हारी बातें याद करकें मै नींद को थोडा विलम्बित कर देना चाहता हूँ क्योंकि नींद की यात्रा चैतन्यता की नही है। नींद और ख़्वाब मन की अतृप्त कामनाओं के जंगल है और मेरे जीवन में तुम इतनी पवित्र किस्म की हो कि तुम्हें किसी वर्जित या अतृप्त कामना के हवाले से मै ख़्वाब में नही मिलना चाहता हूँ। स्वप्न मुक्त नींद के लिए सिद्ध साधना की आवश्यकता है और इस साधना के लिए तुम्हारी। बिना तुम्हारे मै मन की आसक्तियों से मुक्त नही हो सकता हूँ इसलिए मान लो थोड़ा सा मतलबी हो गया हूँ मैं।
कई सौ मील की भौगोलिक दुरी के बावजूद भी मेरी धड़कनें निकल पड़ती है तुम्हारी धड़कनों की टोह लेने। वो मेरे से इजाजत नही लेती है उन्होंने तुम्हारी धड़कनों से अपना एक आत्मीय रिश्ता विकसित कर लिया है। जब तुम थककर गहरी नींद में सो जाती हो मेरी धड़कनें तुम्हारी धड़कनों के कान में चुपचाप कुछ मेरे दिल का हाल कहती है फिर तुम्हारी धड़कनों की गति कभी उल्लास तो कभी डर से बढ़ जाती है। उस वक्त तुम सो रही होती हो शायद तुम्हें इस मेल मिलाप का पता नही चलता हो या फिर पता भी चलता हो मगर तुम मुझे बताती नही हो ताकि मै तुमसे थोड़ा तटस्थ थोड़ा विरक्त बना रहूँ।
पिछले एक घंटे से एक ही करवट पड़ा हूँ मेरा बिस्तर थोड़ा बैचेन हो गया है उसे भय है कहीं तुम्हारी यादों के सहारे मै समाधिस्थ न हो जाऊं फिर वो रात भर मेरे एकतरफा बोझ से दबा रहें। अभी अभी मेरी गर्दन पर तकिए ने तुम्हारा नाम की एक हल्की फूंक मारी तो मैंने करवट ली उसके बाद बिस्तर की सिलवटों को ठीक कर मैंने बिस्तर की आश्वस्ति भरी पीठ थपथपाई कि डरो मत ! मै हूँ ना।
दस बजकर दस मिनट हो गए है पिछले दस मिनट मेरी उम्र के अतिरिक्त दस मिनट है ये न उम्र में जुड़े है न घटे है मै इन दस मिनट का विस्तार तुम्हारे अंदर तलाश रहा हूँ ताकि हिस्सों में बंटी जिंदगी को जोड़कर कुछ देर जी सकूँ एक टुकड़ा जिंदगी तुम्हारे साथ। इसके बदलें तुम मुझे कमजोर,कमतर,मतलबी,पागल या दीवाना कुछ भी समझों तुम्हारी मर्जी।तुम्हारे बारें में कुछ चीजें ऐसी है मुझे उनके होने या न होने से कोई ख़ास फर्क नही पड़ता है। हो सके तो कुछ समझना नही बस जीना ये बेतरतीब पल यूं ही बेवजह।

'आधी रात-आधी बात'

Sunday, January 25, 2015

आख़िरी डाक

आख़िरी बात के बाद जब सुबह हुई तो कुछ भी नही बदला था बस सूरज ने करवट बदल ली थी अब हर चीज अंधेरे की शक्ल में दिखाई दे रही थी। थोड़े विस्मय थोड़े कौतुहल से वो यह तय करने में लगा था कि क्या सच में एक नया दिन निकल आया है। आख़िरी बात के विषय इतने उलझे हुए थे कि उनके निष्कर्ष दिल और दिमाग दोनों अलग अलग निकाल रहे थे। दिल बगावत पर उतर आया था तो दिमाग ने दिल का साथ न देने का निर्णय ले लिया था। वादों,ख़्वाबों और चाहतों की दुनिया दिल के सबसे निर्जन स्थान पर आश्रय तलाश रही थी। आख़िरी बात में सलाह,नसीहत,प्राथमिकता, सबके लिए दो दो वाक्य थे जिनके जरिए यह बताया गया था दरअसल तुम ही गलत सोच बैठे इस यात्रा में ऐसा कुछ भी नही था जिसके अर्थ विकसित किए जा सके। यह यात्रा दो चेतनाओं के स्व परीक्षण की साक्षी भर थी इसमें अटक जाना उसके व्यक्तित्व की कमजोरी के प्रतीक के रूप में उबर कर सामनें आ रही थी।
इस सुबह जब चिड़ियाँ उसके आँगन आई तो उनके पास उदासी के गीत थे मन्दिरों में बजते शंखनाद की ध्वनि भी ध्यान को भंग करती थी। वो अपने कमरे में भोर से जगा एक ही करवट पड़ा सिलवटों को गिन रहा था जो आधी उसके जेहन में पड़ी थी आधी दिल पर और आधी बिस्तर पर।
आख़िरी बात की तमाम खराबियों के बावजूद उसमें एक अच्छी बात भी थी वो उम्मीद से बाँझ नही थी। एक भरोसा उसमें बचा हुआ था हो सकता है यह भरोसा दिल ने अपनी संभावित हार के भय से यथार्थ की बंजर जमीन पर बो दिया था।
उस दिन दिन जरूर निकला मगर सवेरा नही हुआ वो धूप में बैठ खुद के साए कि लम्बाई नापता रहा। मन बेतरतीब दौड़ता तो दिमाग उसी को बंदी बना खुद की अदालत में पेश कर देता वो दिन खुद से मुकरने के दिन के रूप में भी याद किया जा सकता है।
रास्तों ने सवालों की ऐसी जिरह छेड़ी कि उसके पास अपने सफाई में कहने के लिए एक उलझे हुए दिल के अलावा कुछ न था। वो आख़िरी बात की ध्वनि से दूर भागने के लिए जितनी गति से दौड़ना चाहता उतने ही सुस्त कदम उसके निशक्त होने का संकेत देते जाते।
अजीब से विरोधाभास के बीच उसनें तय किया चलना और वो खुद को कभी खारिज करता तो कभी सम्भालता उसनें रास्तों के कान में कहा ख़्वाबों को जीना उसे आता है फिर कुछ सवाल चुप हो गए।
पलकों में नमी धड़कनों में बैचेनियां लेकर वो निकल गया उस अज्ञात की ओर जहां के रास्ते उसी की तरह हिस्सों और किस्सों में बटे थे। आधी रात के स्वप्न में उसे आख़िरी बात के सवाल जवाब सांत्वनाएं अलग अलग शक्ल में दिखती थी ये कुछ ऐसे ख़्वाब थे जो खुली आँखों ही आते थे। नींद में अवचेतन में अटका प्रेम हमेशा जख्मों की मरहम पट्टी कर जाता इसलिए अच्छे ख़्वाब कभी सुबह तक याद नही रह पाते थे।
अब जब वो कहीं नही थी उसकें कदमों के निशाँ मन के गलियारें में धंसे हुए थे उसके स्पर्श इतने सजीव थे कि खुद को छूकर उसको महूसस किया जा सकता था। जज़्बात के  रंगरेज़ ने  उसकी रूह का रंग रूह पर ऐसा चढ़ा दिया था कि वो रुबरु ही बनी हुई थी। ये सब उस आख़िरी बात के बाद था जिसमें यह बताया गया था कि यह इस यात्रा का पूर्ण विराम है अब आगे की तरफ देखिए।
दरअसल, आख़िरी बात शायद ही कभी आख़िरी हो सकती है और जहां तक आगे देखने का सवाल था जब पलकों के छज्जे पर वो पैर लटकाए उसकी बैचेनियों पर हंस रही थी ऐसे में आगे देखनें की बजाय उसके धवल पैर ही नजर आते थे जो कभी उसनें अपनी गोद में रखे थे।
बहरहाल बहुत कुछ तय होने के बाद भी बहुत कुछ अनाथ भटक रहा था और इसी अनाथ के सहारे उसनें खुद को उस भीड़ का हिस्सा पाया जहां अमूर्त और अधूरे रिश्तों का एक पूरा संसार भटकता है। अधूरेपन के पुनर्वास शिविर में अपना नाम दर्ज कराने के बाद वो वापिस न लौटने के लिए अकेला बहुत दूर निकल गया उसकी वापसी की एक ही शर्त रूपी सम्भावना बची थी कि आख़िरी बात गलकर बह जाए तब शायद उसको देखा जा सकता था किसी सार्वजनिक स्थान या पारिवारिक उत्सव में। फ़िलहाल उसनें खुद को स्थगित कर दिया था अग्रिम आदेशों तक।

'आख़िरी बात: आख़िरी डाक'

Wednesday, January 21, 2015

याद शहर

तुम चली गई मगर तुम्हारा शहर वहीं खड़ा रहा मेरे पास। ये शहर कब से हमारी बतकही और आवारागर्दी को देख रहा था। उसे हमारा ऐसा होना अच्छा लग रहा था तभी तो वो रोज़ सुबह थोड़ी जल्दी जग जाता था रोज़ शाम को मद्धम रोशनी फैला देता था। तुम्हारे जाने के बाद उसने मेरे कंधे को दो बार थपथपाया पहली थपकी शाबासी की थी और दूसरी दिलासा की।
मेरी धड़कन को देख उसने कहा लो  एक मुट्ठी हवा अपने अन्दर रख लो इसमें वहीं बासीपन है जो तुम जीना चाहते हो।
मै शहर के चौराहों से चिढ़ा बैठा हूँ सब रास्ते समकोण पर एक दुसरे को क्यों काट देते है रिश्तों की तरह। कुछ गलियों में मेरे कदमों के निशाँ गर्द के साथ छोटी छोटी उड़ान भरते है और फिर बिखर कर दम तोड़ देते है।
तुमसे दूर होते ही मेरे जूते के दोनों फीते खुल गए उन्हें बाँधने के लिए जैसे ही झुका मन के बंधन कसते गए कुछ अंदर कसकर बंधने लगा था। जूतों पर गर्द और आँखों में अमूर्त सपनें लिए मुझे आगे बढ़ना था मगर मै दो कदम आगे चलता तो चार कदम पीछे हट जाता तुम्हारा शहर मेरी इस बेबसी पर हैरान नही था शायद उसे पता था तुम्हारे जाने के बाद शहर में रुकना उतना ही मुश्किल था जितना तुम्हारे शहर में होते हुए भी तुमसे न मिलना।
बढ़ते बढ़ते बहुत दूर निकल आता हूँ। शहर पीछे छूट जाता है तुम आगे बढ़ जाती हो और मै शायद किसी एक पल में ठहर गया हूँ। यह ठहराव इतना स्थिर किस्म का है कि धीरे धीरे समय का बोध मिटता जाता है। दिन इतना लम्बा हो गया है कि रात होने का नाम नही ले रही है रात के होने का मुझे इंतजार भी है क्योंकि रात उस स्याह सच को समझने में मदद करेगी कि तुम और तुम्हारा शहर मीलों पीछे छूट गए है अब कल जो सवेरा होगा वो उस दुनिया का सवेरा है जो हकीकत में जीती है।
तुम और तुम्हारा शहर एक ख़्वाब की तरह मुझमें जिन्दा है शायद भोर का एक अधूरा ख़्वाब जिसे देखते देखतें आँख बीच में खुल गई है। मै सोना चाहता हूँ शायद थोड़ा रोना भी मगर तुम्हारे शहर की गोद में। तुम्हारी गोद अब शायद नसीब न हो।
फिलहाल कोई दुःख या अफ़सोस नही है बस जी थोडा बैचेन है। यह ठीक वैसी मनस्थिति है कि कोई ये न बता सके कि वो सुखी है दुखी या फिर दोनों।
सफर पर रहते हुए इन हादसों की जद में जब भी आता हूँ तब तुम,तुम्हारा शहर बड़ी शिद्दत याद आता है। सफर यादों को पैदा करता है और खुद दफन भी कर देता है। मुश्किल होता है यादों के सफर के साथ ट्रेन/बस में सफर करना क्योंकि आपके गुरुत्वाकर्षण का केंद्र आपकी परिधि छोड़ किसी अन्यत्र की छाया में दुबका रहता है और आप बस गिरने उड़ने बहने गलने की कुछ हलके झटके महसूस कर सकते है ठीक भूकम्प की तरह।मगर इन्हें समझने के लिए रिएक्टर स्केल खुद का बनाना पड़ता है आप बना पायें तो मन के वैज्ञानिक ना बना पायें तो इडियट इमोशनल फूल।

'सफर के अधूरे नोट्स'

Tuesday, January 20, 2015

नोट्स

बेख्याली के पलों में कुछ लम्हें दस्तक देते है। सफर जिनका नसीब है उनके लिए यादें एक मुफीद जरिया है खुद की तलाशी लेनें का।
ये कमबख्त यादें ही तो है जो न जीने देती है न मरनें !
दिन ब दिन मशरूफ होती दुनिया में इनके सहारे क़िस्तों में जिंदगी का कर्ज अदा किया जा सकता है।
यादें खुद ब खुद सीढियां बना दिल में दाखिल होती है वहां से बिना पता लिखे खत उठाती है और उन्हें गैर के डाकखाने में पोस्ट कर देती है।
अक्सर शाम ऐसे बैरंग खतों की आमद से रोशनी से रोशन होती है खुद की लिखावट पर यकीन करना मुश्किल होता है मगर हर्फ़ हर्फ़ आधे सच आधे झूठ की रोशनाई में नहाए हुए जब नजर आते है तब यकीन होता है कि इनका यतीम बाप मै ही हूँ।

सफर के नोट्स 

Sunday, January 18, 2015

पनाह

प्रायः यात्राओं में जहां जहां से गुजरता हूँ वहां कुछ न कुछ छूट ही जाता है। रुमाल,इयरफोन,चार्जर,कैप,टूथब्रश,किताब ये तो भौतिक चीजें है जो ट्रेन,बस,होटल,गेस्ट हॉउस में छूट गई है अक्सर।
इनके अलावा न जाने यात्राओं में कितनी यादें भी छूटी पड़ी है। रुहदार की तरह मेरी रूह भटकती है। आवारागर्दी के उन ठिकानों पर जहां कोई अजनबी पहली ही मुलाकात के बाद अपना सा लगने लगा था।
मेरी लापरवाह जिंदगी के किस्से यात्राओं में बिखरें पड़े है कही कुछ मुझमें छूट जाता है और कही पर मै छूट जाता हूँ।
दिलचस्प बात यह भी है कि ऐसे छूटकर भी कुछ नही छूट पाता है। यादों की हथकड़ी हमें बाँध बार बार लम्हों की अदालत में पेश करती है जहां से हमें वादामाफ गवाह की गवाही के बिनाह पर हाकिम कभी सजा सुनाता है तो कभी जमानत पर रिहा कर देता है।
खुश होने की कम और ज्यादा वजह यह भी है कि मै कुछ बेख्याली के गुनाह पर जमानत पर रिहा हूँ और जहां भर में पनाह मांगता हूँ। मेरी यात्राएं उसी गुजारिश का एक हिस्सा भर है जिनमें निर्वासन के नोटिस मेरी पीठ पर चस्पा है।

'गुनाह-पनाह'

Saturday, January 17, 2015

सात बजें के प्रलाप

सबसे बड़ा डर किसी और के लिए जीने का होता है। विस्तार से इसलिए भी भयभीत होना पड़ता है कि यह तय है एकदिन सब रिश्तें अपनी यात्रा की पूर्णता प्राप्त कर छूट जाने ही है। वर्तमान के तेवर कलेवर और फलवेर भविष्य में बनें रहें यह संदिग्ध सी बात है। किसी के जीवन में आदत के रूप में शामिल होने के अपने मनोवैज्ञानिक जोखिम तो होते ही है फिर आप यह नही कह सकते कि आज मै अनुपलब्ध हूँ। आपकी उपलब्धता से ऊर्जा का स्रोत बहता है मगर एकदिन आपको रिक्त होना ही पड़ेगा नियति का यह स्थापित नियोजन होता है फिर ऐसे में आपके तलबगार लत की तरह आपको तलाशतें फिरें और आप कहीं एकांतसिद्ध बनें अपने निर्वात की चिलम में कश मार रहें हो यह तो एक किस्म की ज्यादती सी लगती है।
जिंदगी हमारे साथ ज्यादती करती है और हम अक्सर जिंदगी के साथ मगर इन ज्यादितियों में पिसतें मानवीय सम्बन्ध ही है।
अपनत्व की भीड़ और लोकप्रियता के भी अपने जोखिम होते है हर रचनाधर्मी व्यक्ति इससे गुजरता है। लोकप्रियता का एक रास्ता निजता हरण की दिशा में भी जाता है जहां अपेक्षाओं का रावण छल बल से मन रूपी सीता का हरण कर लाता है अवसाद की लंका पर विजय प्राप्त करने कोई राम नही आता और हम कभी अपेक्षाहंता तो कभी भगौड़े होने का शाप ढोते ढ़ोते एकांत के सात समन्दर पार ही वीरगति को प्राप्त हो जाते है। कुछ कहानियाँ ऐसे ही अनकही रहने के लिए लिखी जाती है उनको पूरा करने के लिए खुद को अधूरा छोड़ना पड़ता है। दिक्कत यही है यहां सभी मोक्ष के अभिलाषी है।

'सात बजें के प्रलाप'

Thursday, January 15, 2015

सफर

अजीब कशमकश है। बातें तुम्हारी चेतना से करना चाहता हूँ तुम्हारी संवेदना की गोद में छोटे बच्चे की तरह लेट सुस्ताना चाहता हूँ जैसे ही एक कदम बढ़ा दोनों का पता तलाशता हूँ तुम्हारी देह की छाया मेरी रोशनी को किसी ब्लैक हॉल की तरह खींच लेती है। बहुत ज्यादा बातें तुम्हारे दैहिक सौंदर्य पर नही कहना चाहता हूँ क्योंकि एक स्वस्थ सौंदर्यबोध होने के बावजूद भी इस बात की पर्याप्त सम्भावना बनी रहती है कि तुम में मेरी रूचि का मंतव्य खुद तुम्हें हलका या नैतिक रूप से प्रदूषित लगने लगे। दुनिया की बातों की मुझे कोई ख़ास फ़िक्र नही है क्योंकि उनके लिए मै अपवाद हूँ और अपवाद की जिंदगी जीने के सारे संभावित जोखिम मुझे ज्ञात है।
बहुत दार्शनिकता की ओट लेकर गहरी गहरी बातों का अभिनय नही करना चाहता हूँ निसन्देह तुम्हारी दैहिक खूबसूरती मेरे लिए आचमन के जल सी पवित्र है तुम्हारे अस्तित्व की तरलता मेरे लिए ठीक उतनी ही आवश्यक और उपयोगी है जैसे रात भर की नींद के बाद सुबह मुंह धोने के लिए जल। तुम्हें देखता हूँ तो पलकों पर रातभर का जमा मैल धुल जाता है और दुनिया मुझे बिना चश्में के भी साफ़ नजर आने लगती है। ये जो दिन भर चश्मा लगाता हूँ इसकी वजह रोशनी की कमजोरी नही है बल्कि मै नंगी आँखों से केवल और केवल तुम्हें देखना चाहता हूँ ये चश्मा नही है बल्कि कांच की एक दीवार है जिन्हें दिन भर खुद के और दुनिया के बीच में खड़ा किए रखता हूँ।
देह का अपना एक मनोवैज्ञानिक सच है इसलिए बहुत वीतरागी या महान बनते हुए यह नही कहूँगा कि मै देह के प्रभाव से पूर्णतः मुक्त हूँ। मै मुक्त नही हूँ बस उसमें लिप्त नही हूँ मेरी दृष्टि थोड़ी व्यापक है और देह मेरे लिए एक व्यापक संदर्भ रखती है। इसलिए देह मेरे लिए एक बाह्य दरवाजा है मै वहां उतनी ही देर ठहरता हूँ और उतने से विस्मय से देखता हूँ जैसे कोई अपरिचित किसी घर के दरवाज़े पर काल बेल बजा दरवाजा खुलनें का इन्तजार करता हुआ देखता है।
तुम्हारे साथ सबकुछ इतना अनायास किस्म का है कि दिन में कई बार मै विस्मय से भर जाता हूँ फिर इसे अस्तित्व के नियोजन का हिस्सा समझ जीने लगता हूँ और यात्रा समझ इससें गुजरने की तैयारी करता हूँ।
देह का भूगोल मेरी अधेयतावृत्ति का हिस्सा नही है परन्तु सच तो यह भी है कि तुम्हारे चेहरे को देख मेरे अंदर दर्शन की टीकाएं अपना मनोवैज्ञानिक अनुशीलन करने लगती है। तुम्हारे चेहरे के रास्ते मै सीढ़ी लगा सीधा चेतना की कुटिया पर उतरना चाहता हूँ परन्तु एक छोटे से अंतराल में मेरा निर्णय विलम्बित हो जाता है और मै तुम्हारी आँखों की गहराई में खो जाता हूँ। तुम्हारी मुस्कान महज लबो का फैलाव नही है बल्कि उनकी सीधी चमक तुम्हारी आँखों में देखी जा सकती है। तुम्हारी पलकों के झपकनें का अंतराल धड़कनो पर ऐसी मद्धम चोट करता है कि उन पर ज़मा मन के आवेगों का मैल उतर जाता है वो पवित्रता का गंगास्नान कर लेती है। तुम्हारी हंसी  बसन्त की एक सुबह के जैसी लगती है मानो बिजली के तार पर बैठे पक्षियों का झुंड एक साथ चहचाहता हुआ अपनी मंजिल की तरफ उड़ चला हो।
मेरे बेतुके सवालों पर जब तुम्हारे माथे पर शिकन पड़ती है तब ऐसा लगता है जैसे एक बिना नींद की रात के बाद बिस्तर पर सिलवट उभर आए हो। इनसे डरकर तुम्हारी दोनों आँखों के मध्य जो एक छोटा टापू है  वहां मैं आश्रय के लिए अर्जी लगाता हूँ और तुम मेरी बेचैनियों पर खिलखिलाकर हंस पड़ती हो तुम्हारी हंसी से मेरी शुष्क आँखों में नमी और चमक एक साथ उतर आती है।
तुम्हारे कान की दोनों बालियां हर सावन में मुझे झूला डाल पींग भरने का निमन्त्रण देती है मगर मै तुम्हारी आँखों के इतने नजदीक नही जाना चाहता हूँ कि जहाँ तुम्हे  दिखाई भी न दूं।
अंतोगत्वा मै अपनी मंजिल का पता तलाश ही लूँगा मुझे उम्मीद है एक दिन सूरज उस दिशा से उगेगा जब तुम्हारी देह की छाया की भी अपनी एक रोशनी होगी और मै सीधा तुम्हारी सोई हुई चेतना और खोई हुई सम्वेदना को तलाशकर अधिकार से कहूँगा चलो ! तैयार हो जाओं कुछ दूर साथ साथ चलना है बहुत आराम कर लिया तुमने।

'एक सफर ऐसा भी'

Thursday, January 8, 2015

सामान्य असामान्य

एक तिल तुम्हारे होंठ के कोने पर इतना चुपचाप बैठा है मानों उसे अपनें होने पर तिलभर भी गुमान न हो। अलबत्ता किसी भी अफ़साने में उसे खुद का जिक्र न होने का गहरा अफ़सोस जरूर है। यह भी मालूम है दिनभर की भागदौड़ में तुम्हें खुद ख्याल नही रहता है कि तुम्हारे पास क्या क्या बेशकीमती चीज़े मौजूद है।
तुम्हारी ये बेख्याली अक्सर अलौकिक लगती है तुम लोक में रहकर भी लोक की अधिकांश धारणाओं से मुक्त हो पता नही किसी उपेक्षा से तुमनें ऐसा जीवन जीने का अभ्यास विकसित किया है।
बात महज दैहिक सौंदर्य की नही है तुम्हें मन के स्तर पर भी इतना ही अस्त व्यस्त देखता हूँ अक्सर। जीवन निर्लिप्त यात्रा में तुम उत्तरोत्तर तटस्थ होती गई हो इसलिए नही देखता तुम्हें बढ़ती उम्र की फ़िक्र में डूबते हुए बल्कि कई दफा तो देखा है तुम्हें अपने अतिसामान्य होने का उत्सव मनाते हुए। यदि दुनियावी ढंग से तुम खुद को व्यवस्थित करना शुरू कर दो तो तुम्हारी ख़ूबसूरती के उपांश में आधी कायनात समा सकती है। पहले यह देख आश्चर्य हुआ करता था अब एक खुशी होती है कि तुमने सबकुछ पाकर भी उसको हाशिए पर रखने का हुनर सीख लिया है। ख़ूबसूरती के बिखरे पन्ने तुम्हारी देहरी पर पनाह माँगते है और एक तुम हो उन्हें बेतरतीब इकट्ठा कर बंद कर देती हो एक पुरानी किताबों की अलमारी में जहां उन पर नमी का पीलापन चढ़ता जाता है रोज़।
हालांकि सायास कभी नही सोचता हूँ परन्तु तुम्हें देखकर मेरा मन तुम्हें अलग अलग हिस्सों में बाँट कर सोचना शुरू कर देता है। तुम्हारे अस्तित्व और व्यक्तित्व के इतने पक्ष अविवेचित है कि उन पर अलग अलग टीकाएं की जा सकती है। देह की नश्वरता के शाश्वस्त सच के बाद भी तुम्हारे अंदर बहुत कुछ ऐसा अपरिमेय बचता है जिसकी यात्रा लम्बे समय तक निसन्देह विचित्र बनी रहेगी। तुम्हारी मन की तह के सिलवटों के बीच एक नदी सपनों की बहती है इस नदी के मुहाने पर एक सूखा ग्लेशियर देखता हूँ इसी से ये नदी निकलती है और इसी में विलीन हो जाती है।
तुम्हारे अंदर अनुभूत ऊर्जा के कई केंद्र है परन्तु तुम उनसे ऊर्जा नही लेती उनके सारा प्रवाह बाह्य दिशा में मोड़ देती हो ताकि आहत मन उनकी रोशनी में खुद के जख्मों का ईलाज़ कर सके।
तमाम लापरवाही के बावजूद तुम्हारा अदृश्य ओज़ इतना प्रभावी है कि अप्रत्यक्ष और दूरस्थ होकर भी तुम अवसादित जिन्दगियों में सकारात्मक परिवर्तन लाने की क्षमता रखती हो। तुम्हारा बिखरा हुआ काजल सर्द हवा में खुश्क लब और उलझे हुए बाल भले ही तुम्हारा सामान्यकरण करते हो परन्तु दुसरे अर्थों में इनके गहरे दार्शनिक अर्थ भी है जिन्हें समझने के लिए तुम्हारे सौंदर्य के राग से मुक्त हो समाधिस्थ होना पड़ता है। नाद और तन्द्रा के मध्य में तुम्हारी कल्पना मात्र से मन की कुमुदनी सहस्त्र रूप में खिल उठती है।
अज्ञात साधना यही है कि तुम्हें खुली आँखों से भी ठीक वैसा ही देख और अनुभूत कर पाऊं जैसा अक्सर तुम्हारी अनुपस्थिति में कर पाता हूँ। सामान्य होना इतना असामान्य हो सकता है यह सोच कर मै चमत्कृत हो उठता हूँ जबकि तुम तो साक्षात उस जीवन को जी रही हो तुम्हारे चित्त के परमानन्द की अवस्था का अनुमान लगाना फिलहाल तो मेरे बस की बात नही है।

'सामान्य-मान्य-असामान्य'

Saturday, January 3, 2015

प्रवचन

योजनाओं के दबाव। नियोजन के तिकड़म। स्व का सम्पादन और बहुत प्रयास करके चीजों को अपने अह्म के मुताबिक़ करना मेरी दृष्टि में तथाकथित पुरुषार्थ की दासता का एक भाग है। सकल्पों का प्रकाशन या लोक के प्रश्नों से अभिप्रेरित हो संकल्पों का संचयन दिमाग को जरूर भर सकता है परन्तु अस्तित्व का अपना नियोजन इन सब पर मंद मंद मुस्कुराता है।
चाहतों का अधूरा रहना या फिर अधूरी चाहतों को मिला एक आयत बना उसमें खुद का अक्स चिपका देना आहत मन का एक उपचारिक प्रयास हो सकता है।
सतत् यात्रा में रहना स्वीकार भाव को नियति प्रारब्ध की छाती पर बैठा देना और उसकी आँखों से दुनिया देखना एक आप्त मार्ग हो सकता है।
सम्भावना एक ईकाई है जिसे अवसर समझ लेना एक मानवीय त्रुटि भी हो सकती है। विकल्प एक प्रयास है खुद को पुनर्सरचना की प्रक्रिया का हिस्सा बनाने का जिसमें अनुमान हर बार सही निकलेंगे इसकी प्रत्याभूति साक्षात ब्रह्म भी नही दे सकते है।
सारांश: कमजोर स्व को मजबूती देना ज्ञात उपचार है। मगर इतना भी ज्ञात नही है शायद यही वजह हैं कि पुरुषार्थ की शक्ल में प्रायः ईगो हमारा उपयोग करना शुरू कर देता है पुरुस्कार स्वरूप दुनिया कहती है ये आदमी बुद्धिमान है।

'इतवारी प्रवचन'

डर बेघर

अक्ल और दिल की लड़ाई में अक्सर अक्ल जीत जाती है। अक्ल का मतलब वो तमाम सुरक्षाऐं है जो सुविधा चाहती है उनके अस्तित्व के बिखरने और भटकने दोनों के डर एकांत में इतनें जोर से चिल्लाते है कि दिल की मद्धम आवाज़ धड़कनों के अंतराल में ही दम तोड़ देती है। दुनियादारी के लिहाज़ यह सही भी है दिल की बात सुनने के अपने खतरें तो है ही।ये आपको किस हद तक आबाद और बर्बाद कर सकती है इसका अनुमान कोई नही लगा सकता है। फक्कड/मस्त/मुसाफिर या कतिपय लोक के लिहाज़ से असामान्य व्यक्ति अक्सर दिल के फेर में पड़ता उलझता गिरता और सम्भलता चलता है। कोई पहले का तजरबा उसको न वो अक्ल अता कर पाता है और वो इल्म जिसमें वो दिल की न सुनें।
दरअसल कान अक्ल के नीचे लटके हुए होते है इसलिए उन तक दिल की आवाज़ अक्सर देर से पहूँचती है और जब तक पहूंचती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। अक्ल कान में कमजोरियों के टांके लगा चुका होता है साल में जिनसे बमुश्किल ही कभी अपनेपन की मवाद रिसती है।
बहरहाल,सही गलत तो नही मगर व्यवहारिक बात यह भी है कि बाह्य कोई भी अनुराग सतत साथ चल भी नही सकता है।अनुराग को सम्भालनें के लिए एक ख़ास किस्म का कौशल चाहिए होता है और वो कौशल सब्र की दुआ और विश्वास के कलमें ही अता हो सकता है।
अफ़सोस दुनिया में इन दो चीज़ों की माकूल कमी है। इसलिए अक्ल हावी होती जाती है तो दिल बैचेन हो उठता है। अजीब सी कशमकश में दिल ओ' दिमाग की जंग चलती रहती है। ऐसी बैचैनियों के रतजगे उदास बिस्तर पर करवटों में सिसकते है।
हम ऊबना चाहते है ताकि दिल को समझा सके दिल भी ऐसा बाजीगर बन जाता है रात की समझाईश को सुबह तलक भूल जाता है दिन भर दिमाग फिर अदब अकीदत अफसानों के सहारे दिल को उसकी एकांत गुफा के अंतिम आसन तक भगा कर आता है। भगाता दिमाग है भागता दिल है और थकते हम हैं।
ऐसे में इलाज़ तो यही बचता है कि बाहर की दुनिया के राग/अनुराग को कहें अलविदा और कोई राग खुद के अंदर पाल लें जिसकी ध्वनि आपके अन्तस् से बाहर न निकलती हो।
सारांश तो वही सदियों पुराना है मनुष्य नितांत अकेला है और उसे अपनी यात्रा अकेले ही तय करनी होती है। साथी का मतलब साथ से निकालना दिल की एक भूल होती है एक ऐसी भूल जिसके लिए उसको दिमाग न जाने कब अलग अलग ढंग से सजा देता है।
एक अज्ञात कवि की कुछ पंक्तियाँ शायद इस जंग में कवच कुण्डल का पता बताती है जिसके जरिए शायद जख्म देर तक सह पाएं क्योंकि एक बार आप इस जंग में गर उतर गए तो फिर आपकी फतेह या हार भले ही निश्चित न हो मगर आपकी मौत जरूर तयशुदा होती है।
कवि वचन सुधा:
'अकेला रहने की
आदत विकसित करना
समाजिक पशुता से बचनें का
एक मात्र उपाय है।'

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'डर के आगे हार है'

Thursday, January 1, 2015

समय विस्मय

कोई भी साल दो हजार पन्द्रह कैसे हो सकता है। समय को अपनी सुविधा से साल महीना दिन घंटो मिनट सेकेंड में बाँट लेना मनुष्य की व्यवस्था हो सकती है। इससे इंकार नही था परन्तु साल को एक संयुक्त संख्या के रूप में पढ़ना सदैव भरम पैदा करता था।चार अंको को एक साथ जोड़ने के लिए चार युगों की ऊर्जा लगती थी। बढ़िया चश्में के बावजूद भी आँखें धुंधला जाती  फिर एक एक अक्षर को अलग अलग करके पढ़ने की कवायद करता। दो से याद आता वो दोस्त जिससे दो साल से बात नही हुई है उसका पता बदल गया है इसका प्रमाण आख़िरी में लौटे दो बैरंग खत थे। शून्य को देखकर उसके वृत्त में हिलती खुद की परछाई दिखती तो खुद को पहचान पाता जैसे ही छूने की कोशिस करता उंगली पर निर्वात चिपक जाता। एक तक आते आते कुछ संकल्प याद आतें जाते जो कभी एक हुआ करते थे फिर जरुरतों और व्यक्तित्व की कमजोरियों के चलते वो हिस्सों में विभाजित होते गए और बैमौसमी बारिश की तरह वक्त के पतनाले से बह गए । पांच को पढ़ने के लिए नया युग रचना पड़ता क्योंकि शरीर से इतर आत्मा की यात्रा का भी कुछ हिस्सा ऐसा बच गया था जो चारों युग के कालखंड में समाने से इंकार करता था। समय के विभिन्न खांचों में लौकिक असफलताएं कुछ समय के षडयंत्र तथा अस्तित्व के सरल-दुरूह बननें की प्रक्रिया बेतरतीब सी टंगी थी।  सपनों के गल्प में भी औपन्यासिकता थी और  यथार्थ गल्प की शक्ल में उपस्थित था। इसलिए साल का बीतना एक संख्या के रूप कभी मन का दस्तावेज़ नही बनता था। दरअसल जब आप खुद का यात्री होना ठीक से चिन्हित कर लेते है फिर इस बात से ज्यादा फर्क नही पड़ता कि आप समय के कौन से पहर में ठहर गए है।
हर बीतता साल आते हुआ नए साल के हाथ में वक्त की अदालत के सम्मन थमाकर जाता जिन्हें साल भर महीना अदालत के अर्दली के रूप में तामील कराता जाता। समय सापेक्ष न चलनें के वाद पर फैसला सुरक्षित रखा गया है ये अफवाह अक्सर फैलाई जाती।
उपेक्षित और गोपनीय रूप से बीते हुए साल का कैलेंडर रद्दी में पड़ा सर्दी से कराहता और नए साल के कैलेंडर से अनुभवी कराह से कहता तुम मनुष्य की उपयोगितावादी दृष्टि को नही जानते वो रच लेता है नए पुराने होने के भरम।पिछले साल मैं भी तुम्हारी तरह यूं ही खुशी से फड़फड़ा रहा था आने वाले साल तुम्हारा बिस्तर मेरे ऊपर लगा होगा तब तुम किसको अपना दर्द कहोगे क्योंकि तब तक मै बहरा हो चुका होऊंगा और नए साल के कैलेंडर की तुझमें कोई दिलचस्पी न बचेगी।
'समय-विस्मय'