Sunday, January 25, 2015

आख़िरी डाक

आख़िरी बात के बाद जब सुबह हुई तो कुछ भी नही बदला था बस सूरज ने करवट बदल ली थी अब हर चीज अंधेरे की शक्ल में दिखाई दे रही थी। थोड़े विस्मय थोड़े कौतुहल से वो यह तय करने में लगा था कि क्या सच में एक नया दिन निकल आया है। आख़िरी बात के विषय इतने उलझे हुए थे कि उनके निष्कर्ष दिल और दिमाग दोनों अलग अलग निकाल रहे थे। दिल बगावत पर उतर आया था तो दिमाग ने दिल का साथ न देने का निर्णय ले लिया था। वादों,ख़्वाबों और चाहतों की दुनिया दिल के सबसे निर्जन स्थान पर आश्रय तलाश रही थी। आख़िरी बात में सलाह,नसीहत,प्राथमिकता, सबके लिए दो दो वाक्य थे जिनके जरिए यह बताया गया था दरअसल तुम ही गलत सोच बैठे इस यात्रा में ऐसा कुछ भी नही था जिसके अर्थ विकसित किए जा सके। यह यात्रा दो चेतनाओं के स्व परीक्षण की साक्षी भर थी इसमें अटक जाना उसके व्यक्तित्व की कमजोरी के प्रतीक के रूप में उबर कर सामनें आ रही थी।
इस सुबह जब चिड़ियाँ उसके आँगन आई तो उनके पास उदासी के गीत थे मन्दिरों में बजते शंखनाद की ध्वनि भी ध्यान को भंग करती थी। वो अपने कमरे में भोर से जगा एक ही करवट पड़ा सिलवटों को गिन रहा था जो आधी उसके जेहन में पड़ी थी आधी दिल पर और आधी बिस्तर पर।
आख़िरी बात की तमाम खराबियों के बावजूद उसमें एक अच्छी बात भी थी वो उम्मीद से बाँझ नही थी। एक भरोसा उसमें बचा हुआ था हो सकता है यह भरोसा दिल ने अपनी संभावित हार के भय से यथार्थ की बंजर जमीन पर बो दिया था।
उस दिन दिन जरूर निकला मगर सवेरा नही हुआ वो धूप में बैठ खुद के साए कि लम्बाई नापता रहा। मन बेतरतीब दौड़ता तो दिमाग उसी को बंदी बना खुद की अदालत में पेश कर देता वो दिन खुद से मुकरने के दिन के रूप में भी याद किया जा सकता है।
रास्तों ने सवालों की ऐसी जिरह छेड़ी कि उसके पास अपने सफाई में कहने के लिए एक उलझे हुए दिल के अलावा कुछ न था। वो आख़िरी बात की ध्वनि से दूर भागने के लिए जितनी गति से दौड़ना चाहता उतने ही सुस्त कदम उसके निशक्त होने का संकेत देते जाते।
अजीब से विरोधाभास के बीच उसनें तय किया चलना और वो खुद को कभी खारिज करता तो कभी सम्भालता उसनें रास्तों के कान में कहा ख़्वाबों को जीना उसे आता है फिर कुछ सवाल चुप हो गए।
पलकों में नमी धड़कनों में बैचेनियां लेकर वो निकल गया उस अज्ञात की ओर जहां के रास्ते उसी की तरह हिस्सों और किस्सों में बटे थे। आधी रात के स्वप्न में उसे आख़िरी बात के सवाल जवाब सांत्वनाएं अलग अलग शक्ल में दिखती थी ये कुछ ऐसे ख़्वाब थे जो खुली आँखों ही आते थे। नींद में अवचेतन में अटका प्रेम हमेशा जख्मों की मरहम पट्टी कर जाता इसलिए अच्छे ख़्वाब कभी सुबह तक याद नही रह पाते थे।
अब जब वो कहीं नही थी उसकें कदमों के निशाँ मन के गलियारें में धंसे हुए थे उसके स्पर्श इतने सजीव थे कि खुद को छूकर उसको महूसस किया जा सकता था। जज़्बात के  रंगरेज़ ने  उसकी रूह का रंग रूह पर ऐसा चढ़ा दिया था कि वो रुबरु ही बनी हुई थी। ये सब उस आख़िरी बात के बाद था जिसमें यह बताया गया था कि यह इस यात्रा का पूर्ण विराम है अब आगे की तरफ देखिए।
दरअसल, आख़िरी बात शायद ही कभी आख़िरी हो सकती है और जहां तक आगे देखने का सवाल था जब पलकों के छज्जे पर वो पैर लटकाए उसकी बैचेनियों पर हंस रही थी ऐसे में आगे देखनें की बजाय उसके धवल पैर ही नजर आते थे जो कभी उसनें अपनी गोद में रखे थे।
बहरहाल बहुत कुछ तय होने के बाद भी बहुत कुछ अनाथ भटक रहा था और इसी अनाथ के सहारे उसनें खुद को उस भीड़ का हिस्सा पाया जहां अमूर्त और अधूरे रिश्तों का एक पूरा संसार भटकता है। अधूरेपन के पुनर्वास शिविर में अपना नाम दर्ज कराने के बाद वो वापिस न लौटने के लिए अकेला बहुत दूर निकल गया उसकी वापसी की एक ही शर्त रूपी सम्भावना बची थी कि आख़िरी बात गलकर बह जाए तब शायद उसको देखा जा सकता था किसी सार्वजनिक स्थान या पारिवारिक उत्सव में। फ़िलहाल उसनें खुद को स्थगित कर दिया था अग्रिम आदेशों तक।

'आख़िरी बात: आख़िरी डाक'

No comments:

Post a Comment