Thursday, January 8, 2015

सामान्य असामान्य

एक तिल तुम्हारे होंठ के कोने पर इतना चुपचाप बैठा है मानों उसे अपनें होने पर तिलभर भी गुमान न हो। अलबत्ता किसी भी अफ़साने में उसे खुद का जिक्र न होने का गहरा अफ़सोस जरूर है। यह भी मालूम है दिनभर की भागदौड़ में तुम्हें खुद ख्याल नही रहता है कि तुम्हारे पास क्या क्या बेशकीमती चीज़े मौजूद है।
तुम्हारी ये बेख्याली अक्सर अलौकिक लगती है तुम लोक में रहकर भी लोक की अधिकांश धारणाओं से मुक्त हो पता नही किसी उपेक्षा से तुमनें ऐसा जीवन जीने का अभ्यास विकसित किया है।
बात महज दैहिक सौंदर्य की नही है तुम्हें मन के स्तर पर भी इतना ही अस्त व्यस्त देखता हूँ अक्सर। जीवन निर्लिप्त यात्रा में तुम उत्तरोत्तर तटस्थ होती गई हो इसलिए नही देखता तुम्हें बढ़ती उम्र की फ़िक्र में डूबते हुए बल्कि कई दफा तो देखा है तुम्हें अपने अतिसामान्य होने का उत्सव मनाते हुए। यदि दुनियावी ढंग से तुम खुद को व्यवस्थित करना शुरू कर दो तो तुम्हारी ख़ूबसूरती के उपांश में आधी कायनात समा सकती है। पहले यह देख आश्चर्य हुआ करता था अब एक खुशी होती है कि तुमने सबकुछ पाकर भी उसको हाशिए पर रखने का हुनर सीख लिया है। ख़ूबसूरती के बिखरे पन्ने तुम्हारी देहरी पर पनाह माँगते है और एक तुम हो उन्हें बेतरतीब इकट्ठा कर बंद कर देती हो एक पुरानी किताबों की अलमारी में जहां उन पर नमी का पीलापन चढ़ता जाता है रोज़।
हालांकि सायास कभी नही सोचता हूँ परन्तु तुम्हें देखकर मेरा मन तुम्हें अलग अलग हिस्सों में बाँट कर सोचना शुरू कर देता है। तुम्हारे अस्तित्व और व्यक्तित्व के इतने पक्ष अविवेचित है कि उन पर अलग अलग टीकाएं की जा सकती है। देह की नश्वरता के शाश्वस्त सच के बाद भी तुम्हारे अंदर बहुत कुछ ऐसा अपरिमेय बचता है जिसकी यात्रा लम्बे समय तक निसन्देह विचित्र बनी रहेगी। तुम्हारी मन की तह के सिलवटों के बीच एक नदी सपनों की बहती है इस नदी के मुहाने पर एक सूखा ग्लेशियर देखता हूँ इसी से ये नदी निकलती है और इसी में विलीन हो जाती है।
तुम्हारे अंदर अनुभूत ऊर्जा के कई केंद्र है परन्तु तुम उनसे ऊर्जा नही लेती उनके सारा प्रवाह बाह्य दिशा में मोड़ देती हो ताकि आहत मन उनकी रोशनी में खुद के जख्मों का ईलाज़ कर सके।
तमाम लापरवाही के बावजूद तुम्हारा अदृश्य ओज़ इतना प्रभावी है कि अप्रत्यक्ष और दूरस्थ होकर भी तुम अवसादित जिन्दगियों में सकारात्मक परिवर्तन लाने की क्षमता रखती हो। तुम्हारा बिखरा हुआ काजल सर्द हवा में खुश्क लब और उलझे हुए बाल भले ही तुम्हारा सामान्यकरण करते हो परन्तु दुसरे अर्थों में इनके गहरे दार्शनिक अर्थ भी है जिन्हें समझने के लिए तुम्हारे सौंदर्य के राग से मुक्त हो समाधिस्थ होना पड़ता है। नाद और तन्द्रा के मध्य में तुम्हारी कल्पना मात्र से मन की कुमुदनी सहस्त्र रूप में खिल उठती है।
अज्ञात साधना यही है कि तुम्हें खुली आँखों से भी ठीक वैसा ही देख और अनुभूत कर पाऊं जैसा अक्सर तुम्हारी अनुपस्थिति में कर पाता हूँ। सामान्य होना इतना असामान्य हो सकता है यह सोच कर मै चमत्कृत हो उठता हूँ जबकि तुम तो साक्षात उस जीवन को जी रही हो तुम्हारे चित्त के परमानन्द की अवस्था का अनुमान लगाना फिलहाल तो मेरे बस की बात नही है।

'सामान्य-मान्य-असामान्य'

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