Wednesday, January 28, 2015

उसकी बातें

उन दोनों की उम्र में सीधे सीधे दस साल का ज्ञात फांसला था।उम्र का ये फांसला एक को नजदीक लाता तो दुसरे को दूर करता। सनातन यात्री के रूप में एक का विलम्ब से आना और दुसरे का पहले आना नितांत ही संयोग का मामला है ऐसा होने में न किसी की कोई ज्ञात त्रुटि थी और न कोई विशिष्ट उपलब्धि। उम्र एक भौतिक इकाई है शरीर की कोशिकाओं की आयु को उम्र मानना विज्ञानसम्मत है परन्तु मन का भी एक अपना विज्ञान है और मन की आयु नापने के लिए विज्ञान से ज्यादा सम्वेदना के पैमाने की आवश्यकता होती है। यह भी एक बड़ा विचित्र संयोग था कि सांसारिक से लेकर गैरसांसारिक किस्म के उसके सारे दोस्त उससे लगभग दस साल बड़े ही थे और कभी ऐसा महसूस नही हुआ कि उनकी एक असंगत मित्रता है।
दरअसल उम्र को कभी मानक माना ही नही था उसनें। स्वयं को एक यात्री समझा जिसे वक्त ने वक्त से पहले परिपक्वता का लिबास पहना मंजिल की तरफ रवाना कर दिया और उसकी यात्रा सदैव कालगणना की सीमाओं में अतिक्रमण करते हुए आगे बढ़ी है। यदि अंकपत्रों के मुद्रित जन्मतिथि का एक प्रमाण न हो तो मन वचन कर्म से एक भी संकेत ऐसा नही बचता है जो उसकी वास्तविक आयु का आंकलन कर सकें।
अजीब बात यह भी रही कि सदैव से अपने वय के लोगो से न उसका तादात्म्य स्थापित हो सका और न समायोजन।उनकी रूचि के विषय उसकी रूचि के विषयों से एकदम भिन्न थें। जब वे करियरवादी थे तब वो दर्शन के जरिए कविताओं की उपयोगिता तलाश रहा था जब उनकी रूचि लौकिक कौतुहल में थी तब वो किसी पहाड़ की घाटी में बैठा प्रकृति के सौंदर्य को निहार रहा था।
उम्र का यह खेल उसकी समझ से हमेशा बाहर रहा है इसलिए शरीर की उम्र की बजाय वो चेतना और सम्वेदना की आयु को सम्बोधित करते हुए खत लिखता और वें सही पतें पर पहुँच भी जाते थे। मूलत: उसकी यात्रा मुक्त होने की यात्रा थी इसलिए जाति धर्म वर्ण क्षेत्र आयु ये सब लौकिक प्रतिमान कभी उसके अस्तित्व का हिस्सा बन भी न पायें। अपनी भौतिक उम्र से दस साल आगे की जिंदगी जीने को उसनें उत्सव के रूप में ग्रहण किया हालांकि इसके अपने जोखिम भी है मगर उसनें उनकी कब परवाह की है।
उम्र की ये लौकिक अवधारणा सम्भवतः एक वरिष्ठता और कनिष्ठता की ज्ञात और लोकप्रिय ग्रंथि हो सकती है या फिर ऐसा भी सम्भव है कि ईगो दुसरे की ऊंचाई को लेकर सवाल भी खड़ा करता हो परन्तु यह उसका खुद के बारें में एक अर्जित आत्मविश्वास रहा था कि अतीत या भविष्य में उसे लोग उससे बड़े या छोटे जरूर मिल सकते है मगर शायद उसके कद का एक भी शख्स उसे न मिलें। उसके लिए यह कोई आत्मप्रशंसा या आत्मविज्ञापन जैसी बात नही थी बस यह खुद की यात्रा के बारें में एक ज्ञात तथ्य की अभिव्यक्ति भर थी।
सारांश: किसी अन्यत्र के जीवन दर्शन अथवा मान्याताओं को संपादित करने की उसकी कोई अभिलाषा नही थी वो मानता था कि सबकी अपने चिंतन की मौलिकता एवं तयशुदा वजह होती है परन्तु फिर भी वह चाहता था कि वो इस उम्र की ग्रन्थि के बोझ से बाहर निकल आये क्योंकि इसके बाद ही वो देख सकेगी खुले आसमान की गहराई,समझ का विस्तार और चेतनाओं की दिव्य जुगलबंदी के अलौकिक आलाप जो सीधे दिल पर दस्तक देते है।
इस दौर में जब सब कुछ इतना गतिशील है कि जो लम्हा हम खो देते है उसे फिर कल्पना के जरिए भी हासिल नही कर पाते है ऐसे में चाहत थी  कि उसकी ऊर्जा का अपव्यय आयु के विमर्श में जाया न हो। निर्द्वन्द और निर्बाध हो वो चेतना और सम्वेदना के उस उत्सव में शामिल हो सको जहां उसके लिए एक स्थान उसनें अधिकारबोध से आरक्षित किया हुआ है। उसका यही भय था कि कहीं बड़प्पन के बोझ में वो उस अवसर या अनुभव को न खो दो जो आपके लिए अविस्मरणीय हो सकता है।

'उसकी बातें'

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